दाहिने हाथ की उठी हथेली ;
नग्न कच्चे कुचों –
कटी के मध्य देश- –
लौह की जाँघों से
आंतरिक अरुणोदय की झलक मारता है
ओ चित्र में अंकित युवती:
तुम सुंदर हो!
मौन खड़ी भी तुम विद्रोही शक्ति हो!
(केदारनाथ अग्रवाल – ०९ अक्टूबर १९६०)
Life creates Art and Art reciprocates by refining the Life
जहाँ कहीं भी आपको,काँटा कोइ लग जाय।
दूधी पीस लगाइये, काँटा बाहर आय।।
मिश्री कत्था तनिक सा,चूसें मुँह में डाल।
मुँह में छाले हों अगर,दूर होंय तत्काल।।
पौदीना औ इलायची, लीजै दो-दो ग्राम।
खायें उसे उबाल कर, उल्टी से आराम।।
छिलका लेंय इलायची,दो या तीन ग्राम।
सिर दर्द मुँह सूजना, लगा होय आराम।।
अण्डी पत्ता वृंत पर, चुना तनिक मिलाय।
बार-बार तिल पर घिसे,तिल बाहर आ जाय।।
गाजर का रस पीजिये, आवश्कतानुसार।
सभी जगह उपलब्ध यह,दूर करे अतिसार।।
खट्टा दामिड़ रस, दही,गाजर शाक पकाय।
दूर करेगा अर्श को,जो भी इसको खाय।।
रस अनार की कली का,नाक बूँद दो डाल।
खून बहे जो नाक से, बंद होय तत्काल।।
भून मुनक्का शुद्ध घी,सैंधा नमक मिलाय।
चक्कर आना बंद हों,जो भी इसको खाय।।
मूली की शाखों का रस,ले निकाल सौ ग्राम।
तीन बार दिन में पियें, पथरी से आराम।।
दो चम्मच रस प्याज की,मिश्री सँग पी जाय।
पथरी केवल बीस दिन,में गल बाहर जाय।।
आधा कप अंगूर रस, केसर जरा मिलाय।
पथरी से आराम हो, रोगी प्रतिदिन खाय।।
सदा करेला रस पिये,सुबहा हो औ शाम।
दो चम्मच की मात्रा, पथरी से आराम।।
एक डेढ़ अनुपात कप, पालक रस चौलाइ।
चीनी सँग लें बीस दिन,पथरी दे न दिखाइ।।
खीरे का रस लीजिये,कुछ दिन तीस ग्राम।
लगातार सेवन करें, पथरी से आराम।।
बैगन भुर्ता बीज बिन,पन्द्रह दिन गर खाय।
गल-गल करके आपकी,पथरी बाहर आय।।
लेकर कुलथी दाल को,पतली मगर बनाय।
इसको नियमित खाय तो,पथरी बाहर आय।।
दामिड़(अनार) छिलका सुखाकर,पीसे चूर बनाय।
सुबह-शाम जल डाल कम, पी मुँह बदबू जाय।।
चूना घी और शहद को, ले सम भाग मिलाय।
बिच्छू को विष दूर हो, इसको यदि लगाय।।
गरम नीर को कीजिये, उसमें शहद मिलाय।
तीन बार दिन लीजिये, तो जुकाम मिट जाय।।
अदरक रस मधु(शहद) भाग सम, करें अगर उपयोग।
दूर आपसे होयगा, कफ औ खाँसी रोग।।
ताजे तुलसी-पत्र का, पीजे रस दस ग्राम।
पेट दर्द से पायँगे, कुछ पल का आराम।।
बहुत सहज उपचार है, यदि आग जल जाय।
मींगी पीस कपास की, फौरन जले लगाय।।
रुई जलाकर भस्म कर, वहाँ करें भुरकाव।
जल्दी ही आराम हो, होय जहाँ पर घाव।।
नीम-पत्र के चूर्ण मैं, अजवायन इक ग्राम।
गुण संग पीजै पेट के, कीड़ों से आराम।।
दो-दो चम्मच शहद औ, रस ले नीम का पात।
रोग पीलिया दूर हो, उठे पिये जो प्रात।।
मिश्री के संग पीजिये, रस ये पत्ते नीम।
पेंचिश के ये रोग में, काम न कोई हकीम।।
हरड बहेडा आँवला चौथी नीम गिलोय,
पंचम जीरा डालकर सुमिरन काया होय॥
दही मथें माखन मिले, केसर संग मिलाय,
होठों पर लेपित करें, रंग गुलाबी आय..
बहती यदि जो नाक हो, बहुत बुरा हो हाल,
यूकेलिप्टिस तेल लें, सूंघें डाल रुमाल..
अजवाइन को पीसिये, गाढ़ा लेप लगाय,
चर्म रोग सब दूर हो, तन कंचन बन जाय..
अजवाइन को पीस लें , नीबू संग मिलाय,
फोड़ा-फुंसी दूर हों, सभी बला टल जाय…
अजवाइन-गुड़ खाइए, तभी बने कुछ काम,
पित्त रोग में लाभ हो, पायेंगे आराम..
ठण्ड लगे जब आपको, सर्दी से बेहाल,
नीबू मधु के साथ में, अदरक पियें उबाल…
अदरक का रस लीजिए. मधु लेवें समभाग,
नियमित सेवन जब करें, सर्दी जाए भाग..
रोटी मक्के की भली, खा लें यदि भरपूर,
बेहतर लीवर आपका, टी० बी० भी हो दूर…
गाजर रस संग आँवला, बीस औ चालिस ग्राम,
रक्तचाप ह्रदय सही, पायें सब आराम..
शहद आंवला जूस हो, मिश्री सब दस ग्राम,
बीस ग्राम घी साथ में, यौवन स्थिर काम…
चिंतित होता क्यों भला, देख बुढ़ापा रोय,
चौलाई पालक भली, यौवन स्थिर होय..
लाल टमाटर लीजिए, खीरा सहित सनेह,
जूस करेला साथ हो, दूर रहे मधुमेह…
प्रातः संध्या पीजिए, खाली पेट सनेह,
जामुन-गुठली पीसिये, नहीं रहे मधुमेह..
सात पत्र लें नीम के, खाली पेट चबाय,
दूर करे मधुमेह को, सब कुछ मन को भाय…
सात फूल ले लीजिए, सुन्दर सदाबहार,
दूर करे मधुमेह को, जीवन में हो प्यार…
तुलसीदल दस लीजिए, उठकर प्रातःकाल,
सेहत सुधरे आपकी, तन-मन मालामाल…
थोड़ा सा गुड़ लीजिए, दूर रहें सब रोग,
अधिक कभी मत खाइए, चाहे मोहनभोग…
अजवाइन और हींग लें, लहसुन तेल पकाय,
मालिश जोड़ों की करें, दर्द दूर हो जाय…
ऐलोवेरा-आँवला, करे खून में वृद्धि,
उदर व्याधियाँ दूर हों, जीवन में हो सिद्धि…
दस्त अगर आने लगें, चिंतित दीखे माथ,
दालचीनि का पाउडर, लें पानी के साथ…
मुँह में बदबू हो अगर, दालचीनि मुख डाल,
बने सुगन्धित मुख, महक, दूर होय तत्काल..
कंचन काया को कभी, पित्त अगर दे कष्ट,
घृतकुमारि संग आँवला, करे उसे भी नष्ट…
बीस मिली रस आँवला, पांच ग्राम मधु संग,
सुबह शाम में चाटिये, बढ़े ज्योति सब दंग..
बीस मिली रस आँवला, हल्दी हो एक ग्राम,
सर्दी कफ तकलीफ में, फ़ौरन हो आराम…
नीबू बेसन जल शहद , मिश्रित लेप लगाय,
चेहरा सुन्दर तब बने, बेहतर यही उपाय..
मधु का सेवन जो करे, सुख पावेगा सोय, कंठ
सुरीला साथ में , वाणी मधुरिम होय…
पीता थोड़ी छाछ जो, भोजन करके रोज,
नहीं जरूरत वैद्य की, चेहरे पर हो ओज..
ठण्ड अगर लग जाय जो नहीं बने कुछ काम,
नियमित पी लें गुनगुना, पानी दे आराम…
कफ से पीड़ित हो अगर, खाँसी बहुत सताय,
अजवाइन की भाप लें, कफ तब बाहर आय..
अजवाइन लें छाछ संग, मात्रा पाँच गिराम,
कीट पेट के नष्ट हों, जल्दी हो आराम…
छाछ हींग सेंधा नमक, दूर करे सब रोग,
जीरा उसमें डालकर, पियें सदा यह भोग
या कि चेतना उसकी
है सुप्त प्राय:
दिवस के प्रारम्भ से
अवसान तक
धुंधलका सा है
– सोच में भी
– कर्म में भी
-देह में भी
तिरती घटिकाएं
प्रात: की अरुनोदायी आभा
या कि तिमिर के उत्थान की बेला
शून्यता की चादर से हैं लिपटीं
सूनी आखों से तकती है
समय के रथ की ओर!
अल्हड यौवन की खिलखिलाहट
गोरे तन की झिलमिलाहट
युगल सामीप्य की उष्णता
युवा मानों की तरंगित उर्जस्विता
को-
सराहकर भी अनमना सा,
अन्यमनस्क शुतुरमुर्ग!
पहिये की रफ़्तार से
संचालित जीवन
जैसे कि हो पहिये ही का एक बिन्दु
एक वृत्ताकार पथ पर
अनवरत गतिमान
पर दिशाहीन!
– कोई इच्छा नहीं
– कोई संकल्प नहीं-कोई माया नहीं
-कोई आलोड़न नहीं
बस एक मशीन भर!
एहसास है कचोटता
जीवन चल तो रहा है
पर कहीं बुझ रही है आग
धीरे-धीरे, मर-मर कर
आत्मा की चमक
होती जाती है मंद
क्षण-प्रतिक्षण!
अस्ताचल को जाता सूर्य
खूब सिंदूरी हो,
सतरंगी बादलों को
नारंगी कर गया है!
घाटी की हरियाली,
पहाड़ के दोनों छोर पकड़ कर
सांवली सी हो,
मटियाली धरती को
समेट सी गई है!
मंद समीर,
हिचकोले खा- सम और विषम पर
ताल सा देता,
तीखी सी पहाड़ी को
तरंगित कर गया है!
दूर पुष्कर का नीला जल,
नारंगी, हरे और सफ़ेद रंगों के बीच
शांत सागर सा,
मेरे मन को
विश्रांत कर गया है!
रिधिम – रिधिम,
मंद – मंद थाप
पवन की, गगन की, मन की
पड़ती है इस हरी-भरी काया पर
और मेरा तन- शून्य हो गया है !
और मन –
वो उड़ा, वो उड़ा
जैसे में खुद रुई का फाहा
मंद समीर के झकोरे में
तिरता चला जाता हूँ!
परत-दर-परत
मन में शान्ति
तन में विश्रान्ति
देवताओं के द्वार के पास
शायद यही निर्वाण है कि
मैं- खो बैठा – सुध-बुध
तन की, मन की !
और,
पुष्कर के नील जल पर
सावित्री मंदिर से मैंने कहा –
– तीर्थ
दिव्य!
चढ़ता है जब हौले हौले
सब कुछ रंगीन लगता है
मन में तरंग
तन में उमंग
आँखों में सपने
लाल डोरे खिंचते से
रक्त-शिराएँ तनती सी
उष्ण उत्तप्त कल्पनाएँ…
सब कुछ अपना
खुद जहाँपनाह
केवल मैं…
और केवल मैं….
अपने में ग़ुम…
सुबह से शाम
बस…नशा… नशा
और नशा…
नशा और उसका असर…
जब हो तो…
और जब ना हो तो
टूटने लगता है…
ऐंठने लगता है…
ये तन…ये मन…
बिखरने लगता है अपना साम्राज्य
शीशमहल जैसे चूर…
किरच किरच…
चुभता है सब कुछ…
धूप भी…
अँधेरा भी…
जलाता है सब कुछ
तपता दिन भी…
ठंडी रात भी
शराब मगर बेखबर…
कोई जिए
कि कोई मरे…
कोई जले
कि कोई फूंके…
कोई बिखरे
कि कोई तडपे…
मेरे चिर प्यासे लबों पे
सुलगते जिस्म को पिघला दो
समेट के अपनी बाँहों में
बरस जाओ मेरे तन मन पे
जैसे
कोई आवारा बादल बरस जाता है
युगों से तपते सहरा पे
बदल दो इसे एक छोटे हरे टुकड़े में
न रहने दो खुद को ‘खुद’,
न मुझे ‘मैं’ रहने दो
शायद तुझ में मिल के
मुझे ‘मैं ‘ मिल जाऊं…
सोचता हूँ कि मैं रहूँगा क्या
जब तेरी बाहें मेरे गिर्द होंगीं…
(रजनीश)
तन या मन?
केवल तन
या केवल मन
देखा पहले किसको?
तन को या मन को?
बिना तन के मन था क्या?
बिना मन के तन था क्या?
मन महसूस किया पहले मन ने
या तन को सहलाया नज़रों ने पहले?
तन से जो केवल किया
वो प्यार की परिधि में आया क्या?
मन से जो चाहा वो तन द्वारा बयां
करने से बच पाया क्या??
कितने प्रश्न…कितने उत्तर
कितने द्वन्द….कितनी बेचैनी…
प्रेम शांत होता है…नीले समुद्र की तरह
क्यूँ झंझावातों को न्यौता दूँ
क्यूँ इस झगडे का पञ्च बनूँ
इसीलिए लो मैं तुम पर
न्योछावर करता हूँ
अपना मन भी अपना तन भी…
(रजनीश)