Posts tagged ‘Dukh’

दिसम्बर 12, 2016

थोड़ा सा … (अशोक वाजपेयी)

ashok vajpai-001एक संवेदनशील और जिम्मेदार कवि अपनी कविता में जीवन में जो कुछ अच्छा है उसकी देखरेख जरूर ही करता है और किसी भयानक दौर में उस अच्छे को बचाए रख पाने के आशावाद को भी अपनी कविता में समाहित करता चलता है|

वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी दवारा अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में लिखी कविता – थोड़ा-सा, मनुष्य जीवन में सत्य, संवेदना, और  ईमानदारी, जैसे तत्वों के महत्व को रेखांकित करती है और उन्हें संजोये रखने पर जोर देती है|

अगर बच सका

तो वही बचेगा

हम सबमें थोड़ा-सा आदमी…

जो रौब के सामने नहीं गिडगिडाता,

अपने बच्चे के नंबर बढ़वाने नहीं जाता मास्टर के घर,

जो रास्ते पर पड़े घायल को सब काम छोड़कर

सबसे पहले अस्पताल पहुंचाने का जतन करता है,

जो अपने सामने हुई वारदात की

गवाही देने से नहीं हिचकिचाता –

वही थोड़ा- सा आदमी –

जो धोखा खाता है पर प्रेम करते रहने से नहीं चूकता,

जो अपनी बेटी के अच्छे फ्राक के लिए

दूसरे बच्चों को थिगड़े पहनने पर मजबूर नहीं करता-

जो दूध में पानी मिलाने से हिचकता है,

जो अपनी चुपड़ी खाते हुए

दूसरे की सूखी के बारे में सोचता है –

वही थोड़ा-सा आदमी –

जो बूढों के पास बैठने से नहीं ऊबता

जो अपने घर को चीजों का गोदाम बनने से बचाता है,

जो दुख को अर्जी में बदलने की मजबूरी पर दुखी होता है

और दुनिया को नरक बना देने के लिए

दूसरों को ही नहीं कोसता|

 

वही थोड़ा-सा आदमी-

जिसे खबर है कि

वृक्ष अपनी पत्तियों से गाता है अहरह एक हरा गान,

आकाश लिखता है नक्षत्रों की झिलमिल में एक दीप्त वाक्य,

पक्षी आँगन में बिखेर जाते हैं एक अज्ञात व्याकरण-

वही थोड़ा-सा आदमी

अगर बच सका

तो वही बचेगा|

(अशोक वाजपेयी)

सितम्बर 1, 2016

कील कहाँ से निकल कर चुभ जाती है? (रघुवीर सहाय)

Raghuvir Sahayयह क्या है जो इस जूते में गड़ता है
यह कील कहाँ से रोज़ निकल आती है
इस दु:ख को रोज़ समझना क्यों पड़ता है?

हम सहते हैं इसलिए कि हम सच्चे हैं
हम जो करते हैं वह ले जाते हैं वे
वे झूठे हैं लेकिन सबसे अच्छे हैं

पर नहीं, हमें भी राह दीख पड़ती है
चलने की पीड़ा कम होती जाती है
जैसे-जैसे वह कील और गड़ती है

हमको तो अपने हक सब मिलने चाहिए
हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन
कम से कम वाली बात न हमसे कहिए
(रघुवीर सहाय)

मार्च 21, 2016

चलना हमारा काम है… (शिवमंगल सिंह सुमन)

ShivMangalSinghSumanचलना हमारा काम है
गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूँ दर दर खड़ा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पड़ा
जब तक न मंज़िल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है, चलना हमारा काम है।

 

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गईं
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ, राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।

जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरुद्ध, इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।

इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पड़ा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पड़ा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ, मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोड़ा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।

साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रुकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम, उसीकी सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।

फकत यह जानता
जो मिट गया वह  गया
मूँदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिश्रित गरल, वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।

(शिवमंगल सिंह सुमन)

दिसम्बर 20, 2014

हिंदुस्तानियों, बधाई तुम पाकिस्तानियों जैसे निकले

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छुपे थे भाई ?

वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गवाईं
आख़िर पहुंची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई!

प्रेत धरम का नाच रहा है
क़ायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उलटे काज करोगे
अपना चमन तराज करोगे

तुम भी बैठे करोगे सोच
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी ?

होगा कठिन यहां भी जीना
दांतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
यहां भी सबकी सांस घुटेगी

कल दुख से सोचा करते थे
सोच के बहुत हंसी आ जाएगी
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
हम दो क़ौम नहीं थे भाई

भाड़ में जाए शिक्षा- विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना
आगे गड्ढा है ये मत देखो
वापस लाओ गया ज़माना

मश्क करो तुम आ जाएगा
उल्टे पांव चलते जाना
ध्यान न मन में दूजा आये
बस पीछे ही नज़र जमाना

एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कितना आलीशान था भारत

फिर तुम लोग पहुंच जाओगे
बस परलोक पहुंच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहां पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहां से
चिट्ठी विट्ठी डालते रहना

(फहमीदा रियाज़)

दिसम्बर 18, 2014

कट्टरता

कट्टरता कभी दुखी नहीं होती,
कभी खुद पर आन भी पड़े परेशानी की छाया,
तो यह हिंसक हो उठती है
दूसरों के खिलाफ|
दूसरों के दुख,
पर यह अट्टहास लगाया करती है!
इसके डी.एन.ए की संरचना में
विद्रूपता, हिंसा और विध्वंस
गुत्थम-गुत्था रहते हैं|
कट्टरता कभी दुखी नहीं होती!
दीगर बात यह कि
यह करमजली, दिलजली कभी सुखी भी नहीं होती|
जलना और दुनिया को जलाना
यही दो काम इसे आते हैं|
कट्टरता कभी दुखी नहीं होती!

…[राकेश]

मई 20, 2014

कैसे हो द्वारकाधीश?… बोली राधा

radhakrishnaस्वर्ग में विचरण करते हुए
अचानक एक दुसरे के सामने आ गए

विचलित से कृष्ण,
प्रसन्नचित सी राधा…

कृष्ण सकपकाए,
राधा मुस्काई…

इससे पहले
कृष्ण कुछ कहते
राधा बोल उठी…

कैसे हो द्वारकाधीश?

जो राधा
उन्हें कान्हा कान्हा कह के बुलाती थी
उसके मुख से
द्वारकाधीश का संबोधन
कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया

फिर भी
किसी तरह
अपने आप को संभाल लिया…

और बोले राधा से,
मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ
तुम तो द्वारकाधीश मत कहो!

आओ बैठते है…
कुछ मै अपनी कहता हूँ
कुछ तुम अपनी कहो…

सच कहूँ राधा
जब जब भी तुम्हारी याद आती थी
इन आँखों से आँसुओं की बुँदे निकल आती थी…

बोली राधा,
मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ
ना तुम्हारी याद आई
ना कोई आंसू बहा…
क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे
जो तुम याद आते…

इन आँखों में
सदा तुम रहते थे
कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ
इसलिए रोते भी नहीं थे…

प्रेम के
अलग होने पर
तुमने क्या खोया
इसका इक आइना दिखाऊं आपको?

कुछ कडवे सच,
प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊ?

कभी सोचा
इस तरक्की में
तुम कितने पिछड़ गए?

यमुना के
मीठे पानी से
जिंदगी शुरू की
और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुच गए?

एक ऊँगली पर
चलने वाले सुदर्शन चक्र पर
भरोसा कर लिया
और
दसों उँगलियों पर चलने वाळी
बांसुरी को भूल गए?

कान्हा
जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो
जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी,
प्रेम से अलग होने पर
वही ऊँगली
क्या क्या रंग दिखाने लगी?

सुदर्शन चक्र उठाकर
विनाश के काम आने लगी!

कान्हा और द्वारकाधीश में
क्या फर्क होता है बताऊँ?

कान्हा होते
तो तुम सुदामा के घर जाते
सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता!

युद्ध में और प्रेम में
यही तो फर्क होता है!

युद्ध में
आप मिटाकर जीतते हैं
और
प्रेम में
आप मिटकर जीतते हैं!

कान्हा
प्रेम में डूबा हुआ आदमी
दुखी तो रह सकता है,
पर किसी को दुःख नहीं देता !

आप तो
कई कलाओं के स्वामी हो
स्वप्न दूर द्रष्टा हो
गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो

पर आपने क्या निर्णय किया ?
अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी?
और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया !

सेना तो आपकी प्रजा थी
राजा तो पालक होता है
उसका रक्षक होता है

आप जैसा महा ज्ञानी
उस रथ को चला रहा था
जिस पर बैठा अर्जुन
आपकी प्रजा को ही मार रहा था
आपनी प्रजा को मरते देख
आपमें करूणा नहीं जगी ?

क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे!

आज भी धरती पर जाकर देखो
अपनी द्वारकाधीश वाळी छवि को
ढूंढते रह जाओगे
हर घर, हर मंदिर में
मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे !

आज भी मै मानती हूँ
लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं
उनके महत्व की बात करते है

मगर धरती के लोग
युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं
प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं !

गीता में
मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है,
पर आज भी लोग उसके समापन पर

” राधे राधे” करते है..!

अप्रैल 28, 2014

ब्याहना

बाबा!Daughter-001
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हे

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज़्यादा
ईश्वर बसते हों

ब्याहना तो वहाँ ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल

मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप…

महुआ का लट और
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी ख़ातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी

मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल
चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे

उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे !

उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड़ और पंडुक पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख बाँटने तक

चुनना वर ऐसा
जो बजाता हों बाँसुरी सुरीली
और ढोल-मांदर बजाने में हो पारंगत

बसंत के दिनों में ला सके जो रोज़
मेरे जूड़े की ख़ातिर पलाश के फूल

जिससे खाया नहीं जाए
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे ।

(निर्मला पुतुल)

नवम्बर 27, 2013

रोऊँ या गाऊं…

तुमको पाने की ख़ुशी मनाऊंjohn-001

या ना छू पाने को

अभिशाप कहूँ?

बिलकुल अपने पास बिठा के

अपने आवेग रोकने को अभिशप्त मैं

अनुनाद से कम्पित ह्रदय में

उठती उत्ताल तरंगो को समेटने को

अभिशप्त मैं…

मैं क्या करूँ?

रोऊँ या गाऊं…

तुमको पाने की ख़ुशी मनाऊं?

मुझसे बस कुछ दूरी पर

हाथ बढ़ा तो छू लूँ जैसे

फिर भी कितनी दूर क्षितिज के पार!

सच है यह

बात

लो कह ही दूँ तुमसे ही-

गर्म रेत पे चल के भी

क़तरा क़तरा पिघल के भी

जो

तुम को पा जाऊं तो

ख़ुशी मनाऊं…

Rajnish sign

मई 4, 2013

सहयात्री के लिए शुभकामनाएँ

वह कामगार मैं कामगार

दोनों लौटते थे घर

कभी वह बैठती मैं खड़ा रहता

कभी मैं बैठता और वह खड़ी रहती थी|

कभी-कभी मैं देख लेता था

उसकी आँखों की ओर

और उतर जाती थी मेरी थकान,

कभी-कभी मैं खोल देता था

उसकी खिड़की का शीशा

उससे जो खुलता न था|

इससे ज्यादा मेरा उससे नाता न था

वह कामगार मैं कामगार

दोनों लौटते थे घर

बहुत दिनों तक वह नहीं दिखी

बहुत दिनों तक खिडकी के पास वाली

वह सीट खाली रही

बहुत दिनों तक याद आती रही उसकी आँखें

आज वह दिखी तो वह वह न थी

आज उसकी आँखें रोज से कुछ बड़ी थी

होंठ रोज से कुछ ज्यादा लाल

पैर रोज से कुछ ज्यादा खूबसूरत

सिर से पाँव तक

सुहाग-सिंदूर में लिपटी ओ स्त्री|

मैं तुम्हारा कोई नहीं था

पर तुम्हारे कुंआरे दिनों का साक्षी हूँ

भले ही ठसाठस भरी बस में

मैं तुम्हारे लिए थोड़ी-सी ही जगह बनाई है

अच्छे-बुरे रास्तों से गुजरा हूँ तुम्हारे साथ|

मैं तुम्हारा कोई नहीं

पर भले दिन रहें हमेशा तुम्हारे साथ

दुख तुम्हारे दरवाजे दस्तक न दे

तुम्हारा आदमी कभी राह न भूले,

और ठौर-कुठौर न चले

तुम्हारा घर और घडा कभी खाली न हो

तुम्हारे भोजन में कभी मक्खी न गिरे

तुम्हारी गृहस्थी में दूध न फटेअचार में फफूंद न पड़े

तुम्हारे फल कभी सड़े नहीं

तुम्हारे पाले पंछे पिंजरों में मरे नहीं

कोई भूखा-प्यासा न जाए तुम्हारे घर से

तुम पहचान लो भीख मांगते

रावण को और देवता को

वह दिन भी आये

जब तुम्हे इस बस का मोहताज न होना पड़े|

(राजेन्द्र उपाध्याय)

,

अप्रैल 19, 2013

पकड़ो मत! जकड़ो मत!

या तो पकडे बैठे रहो,
जकड़े बैठे रहो,
पर तब
हर पल का,
हर कदम का,
हर गति का,
हर इशारे का,
हिसाब लगाते रहना होगा|

और तय है यह भी कि
इस पकडन में,
इस जकडन में,
ऐठन भी होगी,
तनाव भी होगा,
तंगी का अहसास भी होगा|

समय लाएगा ही लाएगा
घुटन भी,
विचलन भी,
विवशता भी,
और असली अलगाव भी|

असली मुक्ति,
पकड़ने से मुक्त रहने में है,
स्वतंत्रता,
जकड़ने से दूर रहने में है,
स्वायत्ता,
अपने साथ बंधी
पकडन,
और जकडन से
भी परहेज करने में है|

विकल्प हमेशा है-
या तो जकडन और पकडन
के रास्ते हैं –
जहां भीड़ है,
सबके साथ खड़े होने,
सबके साथ होने
के अहसास हैं,
पर समय ही
यह अहसास भी कराता है
कि ये साथ झूठे हैं,
नकली हैं,
तनाव और दुख के जन्मदाता हैं,
या फिर रास्ते हैं
आनंद के,
पर इन पर चलने की शर्त वही –
पकड़ो मत!
जकड़ो मत!

[राकेश]…