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मई 23, 2016

मुसलमान … (देवी प्रसाद मिश्र)

कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे

ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे

वे मुसलमान थे

उन्होंने अपने घोड़े सिन्धु में उतारे
और पुकारते रहे हिन्दू! हिन्दू!! हिन्दू!!!

बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
नदी का नाम दिया

वे हर गहरी और अविरल नदी को
पार करना चाहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
हिन्दुओं की तरह पैदा होते थे

उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियाँ थीं
चलने की
ठहरने की
पिटने की
और मृत्यु की

प्रतिपक्षी के ख़ून में घुटनों तक
और अपने ख़ून में कन्धों तक
वे डूबे होते थे
उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें
और म्यानों में सभ्यता के
नक्शे होते थे

न! मृत्यु के लिए नहीं
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे

वे मुसलमान थे

वे फ़ारस से आए
तूरान से आए
समरकन्द, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
तुर्किस्तान से आए

वे बहुत दूर से आए
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे कि या ख़ुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू

वे महत्त्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियाँ थीं

वे घोड़ों के साथ सोते थे
और चट्टानों पर वीर्य बिख़ेर देते थे
निर्माण के लिए वे बेचैन थे

वे मुसलमान थे

यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए

कि वे प्रायः इस तरह होते थे
कि प्रायः पता ही नहीं लगता था
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे

वे मुसलमान थे

वे न होते तो लखनऊ न होता
आधा इलाहाबाद न होता
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
आदाब न होता

मीर मक़दूम मोमिन न होते
शबाना न होती

वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला ख़ुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता

मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता

वे थे तो चचा हसन थे
वे थे तो पतंगों से रंगीन होते आसमान थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे

वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
वे सोचते थे और सोचकर डरते थे

इमरान ख़ान को देखकर वे ख़ुश होते थे
वे ख़ुश होते थे और ख़ुश होकर डरते थे

वे जितना पी०ए०सी० के सिपाही से डरते थे
उतना ही राम से
वे मुरादाबाद से डरते थे
वे मेरठ से डरते थे
वे भागलपुर से डरते थे
वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे

वे पवित्र रंगों से डरते थे
वे अपने मुसलमान होने से डरते थे

वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे लेकिन अपने घर को लेकर घर में
देश को लेकर देश में
ख़ुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे

वे उखड़ा-उखड़ा राग-द्वेष थे
वे मुसलमान थे

वे कपड़े बुनते थे
वे कपड़े सिलते थे
वे ताले बनाते थे
वे बक्से बनाते थे
उनके श्रम की आवाज़ें
पूरे शहर में गूँजती रहती थीं

वे शहर के बाहर रहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
वे मुसलमान थे अरब का पैट्रोल उनका नहीं था
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
देश के ज़्यादातर अख़बार यह कहते थे
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
कर्फ़्यू लगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
ख़बरें आती थीं

उनकी औरतें
बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे

वे अगर पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे
तो उससे कई गुना ज़्यादा बार
सिर पटकते थे
वे मुसलमान थे

वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
हम क्या करें इस मस्जिद का जिसका नाम
कुव्वत-उल-इस्लाम है
इस्लाम की ताक़त है

अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
वे मुसलमान थे

वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएँ
लेकिन नहीं जा सकते थे
वे सोचते थे यहीं रह जाएँ
तो नहीं रह सकते थे
वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे

वे मुसलमान थे इसलिए
तूफ़ान में फँसे जहाज़ के मुसाफ़िरों की तरह
एक दूसरे को भींचे रहते थे

कुछ लोगों ने यह बहस चलाई थी कि
उन्हें फेंका जाए तो
किस समुद्र में फेंका जाए
बहस यह थी
कि उन्हें धकेला जाए
तो किस पहाड़ से धकेला जाए

वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियाँ नहीं थे
वे मुसलमान थे वे चूजे नहीं थे

सावधान!
सिन्धु के दक्षिण में
सैंकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
मिट्टी के ढेले नहीं थे वे

वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
वे सिन्धु और हिन्दुकुश की तरह सच थे
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
उस तरह वे सच थे
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
वे मुसल

मान थे अफ़वाह नहीं थे

वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे”

 

 (देवीप्रसाद मिश्र)
जनवरी 7, 2015

हाँ, हम सब हरामज़ादे हैं…

पुरखों की कसम खाकर कहता हूँ-

कि हम सब हरामज़ादे हैं

आर्य, शक, हूण, मंगोल, मुगल, अंग्रेज,

द्रविड़, आदिवासी, गिरिजन, सुर-असुर

जाने किस-किस का रक्त

प्रवाहित हो रहा है हमारी शिराओं में

उसी मिश्रित रक्त से संचरित है हमारी काया

हाँ हम सब वर्णसंकर हैं।

पंच तत्वों को साक्षी मानकर कहता हूँ-

कि हम सब हरामज़ादे हैं!

गंगा, यमुना, ब्रम्हपुत्र, कावेरी से लेकर

वोल्गा, नील, दजला, फरात और थेम्स तक

असंख्य नदियों का पानी हिलोरें मारता है हमारी कोशिकाओं में

उन्हीं से बने हैं हम कर्मठ, सतत् संघर्षशील

सत्यनिष्ठा की शपथ लेकर कहता हूँ-

कि हम सब हरामज़ादे हैं!

जाने कितनी संस्कृतियों को हमने आत्मसात किया है

कितनी सभ्यताओं ने हमारे ह्रदय को सींचा है

हज़ारों वर्षों की लंबी यात्रा में

जाने कितनों ने छिड़के हैं बीज हमारी देह में

हमें बनाए रखा है निरंतर उर्वरा

इस देश की थाती सिर-माथे रखते हुए कहता हूँ

कि हम सब हरामज़ादे हैं!

बुद्ध, महावीर, चार्वाक, आर्यभट्ट, कालिदास

कबीर, ग़ालिब, मार्क्स, गाँधी, अंबेडकर

हम सबके मानस-पुत्र हैं

तुम सबसे अधिक स्वस्थ एवं पवित्र हैं

इस देश की आत्मा की सौगंध खाकर कहता हूँ-

कि हम सब हरामज़ादे हैं!

हम एक बाप की संतान नहीं

हममें शुद्ध रक्त नहीं मिलेगा

हमारे नाक-नक्श, कद-काठी, बात-बोली,

रहन-सहन, खान-पान, गान-ज्ञान

सबके सब गवाही देंगे

हमारा डीएन परीक्षण करवाकर देख लो

गुणसूत्रों में मिलेंगे अकाट्य प्रमाण

रख दोगे तुम कुतर्कों के धनुष-बाण

मैं एतद् द्वारा घोषणा करता हूँ-

कि हम सब हरामज़ादे हैं

हम जन्मे हैं कई बार कई कोख से

हमें नहीं पता हम किसकी संतान हैं

इतना जानते हैं पर

जिसके होने का कोई प्रमाण नहीं

हम उस राम के वंशज नहीं

माफ़ करना रामभक्तों

हम रामज़ादे नहीं!

हे शुद्ध रक्तवादियों,

हे पवित्र संस्कृतिवादियों

हे ज्ञानियों-अज्ञानियों

हे साधु-साध्वियों

सुनो, सुनो, सुनो!

हर आम ओ ख़ास सुनो!

नर, मुनि, देवी, देवता

सब सुनो!

हम अनंत प्रसवों से गुज़रे

इस महादेश की जारज़ औलाद हैं

इसलिए डंके की चोट पर कहता हूँ

हम सब हरामज़ादे हैं।

हाँ, हम सब हरामज़ादे हैं।

(मुकेश कुमार , मीडियाकर्मी)

अगस्त 23, 2013

मुहम्मद अल्वी : दिल्ली और अन्य कवितायेँ

Muhammed Alviदुनिया में एक से बढ़कर एक गुणी और रचनात्मक व्यक्ति जीते रहे हैं।

बेहतर लिखने वाले किसी शहर पर भी चंद पंक्तियों में ऐसा लिख सकते हैं कि पढ़ने वाला शब्दों के जादू में खो जाए|

शायर मुहम्मद अल्वी साहब की रचनायें भी ऐसी ही आकर्षक हैं कि उन्हें सिर्फ एक बार पढ़ने वाला भी  भूल नहीं पाता|

दिल्ली पर कविता तो लाजवाब है। और बाकी भी ऐसी हैं कि पढ़ते जाओ… डूबते जाओ… उबरो… फिर पढ़ते जाओ|

दिल्ली तेरी आँख में तिनका

कुतुबमीनार

दिल्ली तेरा दिल पत्थर का

लाल किला

दिल्ली तेरे बटुए में

ग़ालिब की मज़ार

रहने भी दे बूढी दिल्ली

और न अब कपडे उतार|

 * * * * * * * * * * *

         सुबह

       . . . . .

आँखें मलते आती है

चाय की प्याली पकड़ाकर

अखबार में गुम हो जाती है

             शहर

        …………

कहीं भी जाओ, कहीं भी रहो तुम

सारे शहर एक जैसे हैं

सड़कें सब साँपों जैसी हैं

सबके ज़हर एक जैसे हैं

       उम्मीद

      …………

एक पुराने हुजरे* के

अधखुले किवाड़ों से

झांकती है एक लड़की .

[हुजरे* = कोठरी]

            इलाजे – ग़म

           …………………..

 मिरी जाँ घर में बैठे ग़म न खाओ

उठो दरिया किनारे घूम आओ

बरहना-पा* ज़रा साहिल पे दौड़ो

ज़रा कूदो, ज़रा पानी में उछलो

उफ़क में डूबती कश्ती को देखो

ज़मीं क्यूँ गोल है, कुछ देर सोचो

किनारा चूमती मौजों से खेलो

कहाँ से आयीं हैं, चुपके से पूछो

दमकती सीपियों से जेब भर लो

चमकती रेत को हाथों में ले लो

कभी पानी किनारे पर उछालो

अगर खुश हो गए, घर लौट आओ

वगरना खामुशी में डूब जाओ !!

[बरहना-पा* = नंगे पाँव]

      हादसा

    …………..

लम्बी सड़क पर

दौड़ती हुई धूप

अचानक

एक पेड़ से टकराई

और टुकड़े-टुकड़े हो गयी

         कौन

      ………

कभी दिल के अंधे कूएँ में

पड़ा चीखता है

कभी दौड़ते खून में

तैरता डूबता है

कभी हड्डियों की

सुरंगों में बत्ती जला के

यूँ ही घूमता है

कभी कान में आ के

चुपके से कहता है

तू अब भी जी रहा है

बड़ा बे हया है

मेरे जिस्म में कौन है ये

जो मुझसे खफा है

         खुदा

      ………

घर की बेकार चीजों में रखी हुई

एक बेकार सी

लालटेन है !

कभी ऐसा होता है

बिजली चली जाय तो

ढूंढ कर उसको लाते हैं

बड़े ही चैन से जलाते हैं

और बिजली आते ही

बेकार चीजों में फैंक आते हैं !

पुनश्चः – मुहम्मद अल्वी के काव्य संगृह ‘चौथा आसमान ‘ को 1992 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला|

अप्रैल 20, 2013

दिल्ली है सांडों की, बलात्कारियों की!

ये दिल्ली है!
भारत देश की राजधानी|

यहाँ रहते हैं
प्रधानमंत्री से लेकर तमाम केन्द्रीय मंत्री,
तमाम बड़े बड़े नेता
यहाँ रहते हैं देश के प्रथम नागरिक|

कहा जाता रहा है –
– दिल्ली है दिल वालों की –
ज़रा सामने तो आओ और कहो कि –
दिल्ली है दिल वालों की?

नहीं हुजूर!
दिल्ली दिल वालों की नहीं हो सकती!
दिल्ली तो है अब सांडों की!
कामुक जानवरों की!
जो देश के कोने कोने
से यहाँ आकर,
अपने विकृत दिमाग को लाकर
नारी से बलात्कार करने में मशगूल हैं|

ये बलात्कारी सांड
अपने मनोविज्ञान में
किसी नारी से कोई भेद भाव नहीं करते
इनके लिए
स्त्री चाहे एक साल से छोटी शिशु हो
या साठ से ऊपर की वृद्धा
सब बलात्कार के योग्य हैं|

ये मानसिक रोगी
हरेक उम्र की,
हरेक रंग रूप की,
नारी को रौंदने का
बीडा उठाये
घूम रहे हैं
दिल्ली की गलियों में
दिल्ली के कूचों में
ये वही गलियाँ हैं
जिनमें से किन्ही में
ग़ालिब जैसी आत्माएं घूमा करती थीं
और आज कामुक सांड घुमा करते हैं|

ये जानवर घरों में,
बसों में,
कारों में
लगभग हरेक जगह
नारी को शिकार बनाते
घूम रहे हैं
और जिन्हें सडकों पर
नारी को सुरक्षा देने के लिए
घूमना चाहिए
वे वर्दी वाले
नारियों पर ही लात-घूसे-लाठी और गालियों
की बौछार कर रहे हैं|

हवा में हर तरफ
दहशत है
बच्चियों की चीख पुकार है
ये नेता, सत्ता और विपक्ष के,
ये हाकिम,
ये वर्दी वाले,
ये सोते कैसे हैं?
ये किस चक्की का पिसा
आटा खाते हैं
जो इन्हें नींद आ जाती है?

इनमें कुछ ऐसे भी हैं
जो ऐसे हर मामले के बाद
संवाद बोलने लगते हैं
कि वे पिता हैं
दो-दो, तीन-तीन बेटियों के
अतः वे स्त्री के दुख को समझते हैं भली भांति|

क़ानून उनके हाथ में है
नये क़ानून बनाना उनके हाथ में है
क़ानून का पालन करवाना उनकी जिम्मेदारी है
पर दिल्ली है कि
भरी पडी है बलात्कारियों से|

कुछ बलात्कारी नेता हैं
कुछ बलात्कारी नेताओं के बेटे, या नाते रिश्तेदार
कुछ बड़े अफसरों के बेटे
कुछ छोटे अफसरों के बेटे
कुछ बिना लाग लपेट के
सीधे सीधे गुंडे हैं
या गुंडों के बेटे हैं
ये सब बलात्कारी
बहुत शक्तिशाली हैं
इन्हें किसी भी हालत में बलात्कार करना ही करना है
क़ानून इनके नौकर की तरह काम करता है|

अगर इन सबके रहते
दिल्ली अब भी दिल वालों की है
तो नारी क्या करे?
दुनिया तो छोड़ नहीं सकती
तो क्या दिल्ली छोड़ दे?

 

सितम्बर 22, 2011

खुदकशी – मर्ज़ और दवा

बिखरे हुए सपने अपनी जिंदगी से गए
बूढ़े कुछ चश्मे आँख की रोशनी से गए
झुका हुआ एक दरख्त ठूंठ हुआ बेचारा
बेरुते फल थे टूट कर खुद-खुशी से गए

दुःख को साथी मानते कट जाता दुःख
कबीर-गालिब को पढ़ते बट जाता दुःख
तुम मोल तो करते अमूल्य जीवन का
बिन अश्रु आँखों में सिमट जाता दुःख

जलते दीपक से सीख जीने का करीना
दुनिया के आगे हँसना पीछे अश्रु पीना
सोच ये हो तेरे साथ बिताये पल जीलूँ
ये सोच गलत है तेरे बिना क्या जीना

टूटे आस तो खुदा का आसरा है बहुत
हो भरोसा तो स्वयं का सहारा है बहुत
सपनों के साथ आँखे नहीं मरा करती
देख तो सही आगे अभी रास्ता है बहुत

नफा-नुकसान, दुख-सुख, मिलना–बिछड़ना
अनुभव है जिंदगी के, इनसे सीख समझ
समय का शिकारी तो खुद तेरी टोह में है
उसके जाल में न आ, फंदों में न उलझ

(प्रेम में असफलता पाने से की गई आत्महत्या की खबर से जन्मा ख्याल)

(रफत आलम)

जून 13, 2011

अमर गान कैसे हो?

सागर किनारे पहुंचा मैं!

लहरें गा रही थी
अथाह गहराई में बैठा
गुनगुना रहा था कोई
वही अमर गीत
जिसकी मुझे तलाश थी।

चमन की राह से गुज़रा मैं!

फूलों का दिल बन कर
खुशबूओं में फैला रहा था कोई
वही अमर गीत
जिसकी मुझे तलाश थी।

आकाश को तकने लगा मैं !

तारों की महफ़िल में
चांदनी को सुना रहा था कोई
वही अमर गीत
जिसकी मुझे तलाश थी।

वही अमर गीत!
रुमी-तुलसी की ज़बान में है
कबीर-नानक के बयान में है
सूर–मीरा के भक्तिभाव में डूबा
राधा-किशन के बखान में है।
मासूमियत का अहसास बन कर
बच्चे की कोमल मुस्कान में है
प्रीत की कसोटी बनकर
लैला-मजनू की दास्तान में है
इश्क की बुलंदिया छूता हुआ
खुसरो ओ रसखान में है
ग़ालिब–निराला की भाषा बन कर
कविता की आन-बान में है
मंजिलों का पता देता
पक्षियों की उड़ान में है।

खय्याम से मस्ती में गवा रहा है कोई!
प्यारे, तू किराए के मकान में है।

जिस्म में रूह फूंकने वाले ने
मेरे शब्दों को शान नहीं बख्शी
कवि का दिल दे तो दिया
कलम को जान नहीं बख्शी

वह अमर गीत कैसे गाता मैं?

(रफत आलम)

मार्च 15, 2011

मीर-ओ-ग़ालिब की गज़ल का सहारा

मौत की तलाश जीने का हौसला देने लगी
जिंदगी मुस्कुरा कर फिर से सजा देने लगी

लंबा था दर्द का सफर आँखों के सूखने तक
चोट पुरानी हो कर और भी मज़ा देने लगी

सुबह का भूला लुटपिट के घर को लौटा था
गिरती दीवार ही काम आई सहारा देने लगी

चौराहे पे थक कर बैठ गए जाते किधर हम
और लोगों को मंजिल खुद रास्ता देने लगी

आँखों में झिलमिलाने लगे मजारों के चिराग
सफर की थकन मंजिल का पता देने लगी

बिक गयी थी ये भी तेरे मीठे होटों की तरह
खाली एक बोतल प्यास का अंदाजा देने लगी

अहसास की रग-रग में ज़हर घोलने के बाद
जिए जाने का सबक हमें दुनिया देने लगी

नेता चालीसा बांचने वाले पुरोहितों के साथ
बस्ती! माटी के खुदाओं को सजदा देने लगी

रूठी हुई नींद पल दो पल ही आई थी पास
टीस दिल की मुझे सपने में सदा देने लगी

तन्हाई का अहसास अब नहीं होता आलम
मीर-ओ-ग़ालिब की गज़ल साथ मेरा देने लगी

(रफत आलम)

दिसम्बर 23, 2010

जॉन एलिया : कहते हैं कि उनका था अंदाजे बयां और

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे बयां और

यह शेर कहा तो हजरत ग़ालिब ने खुद के लिये था पर जॉन साब को मंच से शायरी करते देखना और सुनना बखूबी जता देता है कि यह शेर जॉन साब पर भी उतना ही मौजूँ है जितना कि हजरत ग़ालिब के लिये था। जॉन साब द्वारा पिरोये गये अल्फाज़ गहरे मायने बिखेर देते हैं अगर उन्हे खुद जॉन साब की आवाज में ही सुना जाये और अगर उन्हे कलाम कहते देख लिया जाये तो साफ साफ पता चलता है कि वे मंच की दुनिया के बादशाह थे।

कतात

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मेरी अक्लो होश की सब हालते
तुमने साँचे में जुनु के ढाल दी

कर लिया था मैंने एहदे तर्के-इश्क
तुमने फिर बाहें गले में ड़ाल दी

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किसी लिबास की खुशबू जब उड़ के आती है
तेरे बदन की जुदाई बहुत सताती है

तेरे गुलाब तरसते हैं तेरी खुशबू को
तेरी सफ़ेद चमेली तुझे बुलाती है

तेरे बग़ैर मुझे चैन कैसे पड़ता हैं
मेरे बगैर तुझे नींद कैसे आती है

————

कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग होंगे जो उसको भाते होंगे

उसकी याद की बादेसबा और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे

यारो कुछ तो जिक्र करो तुम उसकी क़यामत बाहों का
वो जो सिमटते होंगे उनमे वो तो मर जाते होंगे

————————–

गज़ल
………….

हालतेहाल के सबब हालतेहाल ही गयी
शोक में कुछ नहीं गया शोक की जिंदगी गयी

एक ही हादसा तो है और वो यह की आज तक
बात नहीं कही गयी बात नहीं सुनी गयी

बाद भी तेरे जानेजा दिल में रहा जब समां
याद रही तेरी यहाँ फिर तेरी याद भी गयी

उसकी उम्मिदेनाज़ का हमसे यह मान था के आप
उम्र गुजार दीजिए उम्र गुजार दी गयी

उसके विसाल के लिए अपने कमाल के लिए
हालतेदिल थी खराब और खराब की गयी

तेरा फिराक जानेजा ऐश था क्या मेरे लिए
तेरे फ़िराक में खूब शराब पी गयी

उसकी गली से उठ के में आन पड़ा था अपने घर
एक गली की बात थी और गली गली गयी

…………………………………………………………

नज्म

………….

मुझ से पहले के दिन
अब बहुत याद आने लगे हैं तुम्हे

ख्वाब ओ ताबीर के गुमशुदा सिलसिले
बारह अब सताने लगे हैं तुम्हे

दुःख जो पुहंचे थे तुमसे किसी को कभी
देर तक अब जगाने लगे हैं तुम्हे

अब बहुत याद आने लगे हैं तुम्हे
अपने वो अहद ओ पेमा मुझे से जो न थे

क्या तुम्हे मुझसे कुछ भी कहना नहीं

 

प्रस्तुती – (रफत आलम)

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अक्टूबर 1, 2010

कभी तुम भी समझोगे हमें…(रफत आलम)

ज़हर के प्याले से ना डरे
सूली के भी गले लगे
जंजीरों की आवाज़ में भी हमने
खनकती चूड़ियों के गीत सुने
तुम ना समझ सके हमें तो क्या
सदियों ने हमारे पैगाम
सर आँखों पर रखे
हम काँटों भारी राह पर चले
इसलिए के तुम्हे रास्ता साफ़ मिलें
तुम कहो जिंदगी नाकाम हुई
नाकाम ही सही
अनाम रह गाये
तो ये नाम ही सही
तुम्हारा आगाज़ हमारा अंजाम ही सही
अश्क, छाले और कांटे इनाम ही सही
हम सच के उपासक सच बोलते रहेंगें
कलम के तराजू में खरा तोलते रहेंगे
गिरह अकेले आदम की खोलते रहेंगे
तख़्त-ओ-ताज हमसे होलते रहेंगे
काट कर ही जुल्मो सितम को दम लेते हैं
जान अपनी हम सूलियों पर देते है
समझ आ ही जाऊंगा तुम्हे कभी ना कभी
(आज) ग़र नहीं मेरे अश’आर में मानी ना सही

[हज़रत ग़ालिब के कदमों में अर्पित]

(रफत आलम)

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सितम्बर 18, 2010

मुझे जाना ही होगा

बाइज्ज़त बुलाया है जाना ही होगा
टूटा फूटा कुछ तो सुनाना ही होगा
मीर ओ’ ग़ालिब का गुनगुनाना ही होगा
खुद का है क्या जो सुनना ही होगा


दर्द तो होगा सिले हुये होंठों में
महफ़िल में गए तो मुस्कराना ही होगा
रूकावटों तुम्हे जवाब हमारे सर देंगे
रास्ते की दीवार को गिरना ही होगा


हमारा दिल जला कर रोशन रहते
अब ज़िद है तो घर जलाना ही होगा
दूर की रौशनी से तुम ना डरो यारो
जल रहा है तो मेरा आशियाना ही होगा


कोई दूर आकाश परे से सदायें देता है
मुझे जाना होगा मुझे जाना ही होगा
नए खुदाओं की गिनती भूल गया हूँ
अब तो हर गली सर झुकाना ही होगा


मैं कहूँगा राज़-ए-दिल तो बदनामी होगी
आप सुनाओगे तो अफसाना ही होगा
रात क्यों ना सोये ‘आलम ‘ तुम जानो
चलो उठो आफिस तो जाना ही होगा

(रफत आलम)