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अगस्त 16, 2016

प्रेम है सौंदर्य, वासना ही कुरूपता है!… ओशो

Oshoप्रश्न – किसी सुंदर युवती को देखकर जाने क्यों मन उसकी ओर आकर्षित हो जाता है, आंखें उसे निहारने लगती हैं! मेरी उम्र पचास हो गई है, फिर भी ऐसा क्यों होता है? क्या यह वासना है, या प्रेम, या सुंदरता की स्तुति? कृपया मेरा मार्ग-निर्देश करें।

ओशो

ऐसा होता है निरंतर; क्योंकि जब दिन थे तब दबा लिया। तो रोग बार-बार उभरेगा। जब जवान थे, तब ऐसी किताबें पढ़ते रहे जिनमें लिखा है: ब्रह्मचर्य ही जीवन है। तब दबा लिया।
जवानी के साथ एक खूबी है कि जवानी के पास ताकत है–दबाने की भी ताकत है। वही ताकत भोग बनती है, वही ताकत दमन बन जाती है। लेकिन जवान दबा सकता है।
मेरे अनुभव में अकसर ऐसी घटना घटती रही है, लोग आते रहे हैं, कि चालीस और पैंतालीस साल के बाद बड़ी मुश्किल खड़ी होती है, जिन्होंने भी दबाया। क्योंकि चालीस-पैंतालीस साल के बाद, वह ऊर्जा जो दबाने की थी वह भी क्षीण हो जाती है। तो वह जो दबाई गई वासनाएं थीं, वे उभरकर आती हैं। और जब बे-समय आती हैं तो और भी बेहूदी हो जाती हैं।
जवान स्त्रियों के पीछे भागता फिरे, कुछ भी गलत नहीं है; स्वाभाविक है; होना था, वही हो रहा है। बच्चे तितलियों के पीछे दौड़ते फिरें, ठीक है। बूढ़े दौड़ने लगें–तो फिर जरा रोग मालूम होता है। लेकिन रोग तुम्हारे कारण नहीं है, तुम्हारे तथाकथित साधुओं के कारण है–जिनने तुम्हें जीवन को सरलता से जीने की सुविधा नहीं दी है। बचपन से ही जहर डाला गया है: कामवासना पाप है! तो कामवासना को कभी पूरे प्रफुल्ल मन से स्वीकार नहीं किया। भोगा भी, तो भी अपने को खींचे रखा। भोगा भी, तो कलुषित मन से, अपराधी भाव से; यह मन में बना ही रहा कि पाप कर रहे हैं। संभोग में भी उतरे तो जानकर कि नर्क का इंतजाम कर रहे हैं।
अब तुम सोचो, जब तुम संभोग में उतरोगे और नर्क का भाव बना रहेगा, क्या खाक उतरोगे? संभोग की सुरभि तुम्हें क्या घेरेगी? वह नृत्य पैदा न हो पायेगा। तो तुम बिना उतरे वापिस लौट आओगे। शरीर के तल पर संभोग हो जायेगा; मन के तल पर वासना अधूरी अतृप्त रह जायेगी। मन के तल पर दौड़ जारी रहेगी। तो जब बूढ़े होने लगोगे और शरीर कमजोर होने लगेगा और शरीर की दबाने की पुरानी शक्ति क्षीण होने लगेगी और मौत दस्तक देने लगेगी दरवाजे पर और लगेगा कि अब गये, अब गये–तब ऐसा लगेगा, यह तो बड़ा गड़बड़ हुआ; भोग भी न पाये और चले! डोली तो उठी नहीं, अर्थी सज गई! तो मन बड़े वेग से स्त्रियों की तरफ दौड़ेगा, पुरुषों की तरफ दौड़ेगा।
यह तथाकथित समाज के द्वारा पैदा की गई रुग्ण अवस्था है। बच्चे को उसके बचपन को पूरा जीने दो, ताकि जब वह जवान हो जाये तो बचपन की रेखा भी न रह जाये; ताकि वह पूरा-पूरा जवान हो सके। जवान को पूरा जीने दो, उसे अपने अनुभव से ही जागने दो; ताकि जवानी के जाते-जाते वह जो जवानी की दौड़-धूप थी, आपाधापी थी, मन का जो रोग था, वह भी चला जाये; ताकि बूढ़ा शुद्ध बूढ़ा हो सके। और जब कोई बूढ़ा शुद्ध बूढ़ा होता है तो उससे सुंदर कोई अवस्था नहीं है। लेकिन जब बूढ़े में जवान घुसा होता है, तब एक भूत तुम्हारा पीछा कर रहा है। तब तुम एक प्रेतात्मा के वश में हो। तब तुम्हें बड़ा भटकायेगा। तब तुम्हें बड़ा बेचैन करेगा। और जैसे-जैसे शरीर अशक्त होता जायेगा वैसे-वैसे तुम पाओगे, वेग वासना का बढ़ने लगा।
एक स्त्री के संबंध में मैंने सुना है। वह चालीस से ऊपर की हो चुकी थी। मोटी हो गई थी, बेहूदी हो गई थी, कुरूप हो गई थी। फिर भी बनती बहुत थी। दावत में पास बैठा युवक उसकी बातों से उकता गया था और भाग निकलने के लिए बोला, “क्या आपको वह बच्चा याद है जो स्कूल में आपको बहुत तंग करता था…?’ उसका हाथ पकड़कर स्त्री ने कहा, “अच्छा, तो वह तुम थे?’
उसने कहा, “नहीं, जी नहीं, मैं नहीं। वे मेरे पिताजी थे।’
एक उम्र है तब चीजें शुभ मालूम होती हैं। एक उम्र है तब चीजों को जीना जरूरी है। उसे अगर न जी पाये तो पीछा चीजें करेंगी। और तब चीजें बड़ी वीभत्स हो जाती हैं।
एक सिनेमा-गृह में ऐसा घटा। एक महिला पास में बैठे एक बदतमीज बूढ़े से तंग आ गई थी, जो आधे घंटे से सिनेमा देखने की बजाय उसे ही घूरे जा रहा था।
आखिर उसने फुसफुसाकर उस आदमी से कहा, “सुनिए, आप अपना एक फोटो मुझे देंगे?’
आदमी बाग-बाग हो गया: “जरूर जरूर! एक तो मेरी जेब में ही है। लीजिए! हां, क्या कीजिएगा मेरे फोटो का?’
उसने कहा, “अपने बच्चों को डराऊंगी।’
सावधान रहना। वही जो एक समय में शुभ है, दूसरे समय में अशुभ हो जाता है। वही जो एक समय में ठीक था, सम्यक था, स्वभाव के अनुकूल था, वही दूसरे समय में अरुचिपूर्ण हो जाता है, बेहूदा हो जाता है।
जिन मित्र ने पूछा है, उनको थोड?ा जागकर अपने मन में पड़ी हुई, दबी हुई वासनाओं का अंतर्दर्शन करना होगा। अब मत दबाओ! कम से कम अब मत दबाओ! अभी तक दबाया और, उसका यह दुष्फल है। अब इस पर ध्यान करो। क्योंकि अब उम्र भी नहीं रही कि तुम स्त्रियों के पीछे दौड़ो या मैं तुमसे कहूं कि उनके पीछे दौड़ो। वह बात जंचेगी नहीं। वे तुमसे फोटो मांगने लगेंगी। अब जो जीवन में नहीं हो सका, उसे ध्यान में घटाओ।
अब एक घंटा रोज आंख बंद करके, कल्पना को खुली छूट दो। कल्पना को पूरी खुली छूट दो। वह किन्हीं पापों में ले जाये, जाने दो। तुम रोको मत। तुम साक्षी-भाव से उसे देखो कि यह मन जो-जो कर रहा है, मैं देखूं। जो शरीर के द्वारा नहीं कर पाये, वह मन के द्वारा पूरा हो जाने दो। तुम जल्दी ही पाओगे कुछ दिन के…एक घंटा नियम से कामवासना पर अभ्यास करो, कामवासना के लिए एक घंटा ध्यान में लगा दो, आंख बंद कर लो और जो-जो तुम्हारे मन में कल्पनाएं उठती हैं, सपने उठते हैं, जिनको तुम दबाते होओगे निश्चित ही–उनको प्रगट होने दो! घबड़ाओ मत, क्योंकि तुम अकेले हो। किसी के साथ कोई तुम पाप कर भी नहीं रहे। किसी को तुम कोई चोट पहुंचा भी नहीं रहे। किसी के साथ तुम कोई अभद्र व्यवहार भी नहीं कर रहे कि किसी स्त्री को घूरकर देख रहे हो। तुम अपनी कल्पना को ही घूर रहे हो। लेकिन पूरी तरह घूरो। और उसमें कंजूसी मत करना।
मन बहुत बार कहेगा कि “अरे, इस उम्र में यह क्या कर रहे हो!’ मन बहुत बार कहेगा कि यह तो पाप है। मन बहुत बार कहेगा कि शांत हो जाओ, कहां के विचारों में पड़े हो!
मगर इस मन की मत सुनना। कहना कि एक घंटा तो दिया है इसी ध्यान के लिए, इस पर ही ध्यान करेंगे। और एक घंटा जितनी स्त्रियों को, जितनी सुंदर स्त्रियों को, जितना सुंदर बना सको बना लेना। इस एक घंटा जितना इस कल्पना-भोग में डूब सको, डूब जाना। और साथ-साथ पीछे खड़े देखते रहना कि मन क्या-क्या कर रहा है। बिना रोके, बिना निर्णय किये कि पाप है कि अपराध है। कुछ फिक्र मत करना। तो जल्दी ही तीन-चार महीने के निरंतर प्रयोग के बाद हलके हो जाओगे। वह मन से धुआं निकल जायेगा।
तब तुम अचानक पाओगे: बाहर स्त्रियां हैं, लेकिन तुम्हारे मन में देखने की कोई आकांक्षा नहीं रह गई। और जब तुम्हारे मन में किसी को देखने की आकांक्षा नहीं रह जाती, तब लोगों का सौंदर्य प्रगट होता है। वासना तो अंधा कर देती है, सौंदर्य को देखने कहां देती है! वासना ने कभी सौंदर्य जाना? वासना ने तो अपने ही सपने फैलाये।
और वासना दुष्पूर है; उसका कोई अंत नहीं है। वह बढ़ती ही चली जाती है।
एक बहुत मोटा आदमी दर्जी की दुकान पर पहुंचा। दर्जी ने अचकन के लिए बड़ी कठिनाई से उसका नाप लिया। फिर एक सौ रुपये की सिलाई मांगी। वे महाशय बोले, “टेलीफोन पर तो तुमने पच्चीस रुपये सिलाई कही थी, अब सौ रुपये? हद्द हो गई! बेईमानी की भी कोई सीमा है!’
दर्जी ने कहा, “महाराज! वह अचकन की सिलाई थी, यह शामियाने की है।’
अचकनें शामियाने बन जाती हैं। वासना फैलती ही चली जाती है। तंबू बड़े से बड़ा होता चला जाता है। अचकन तक ठीक था, लेकिन जब शामियाना ढोना पड़े चारों तरफ तो कठिनाई होती है।
मैं अड़चन समझता हूं। लेकिन अड़चन का तुम मूल कारण खयाल में ले लेना: तुमने दबाया है। तुमने दमन किया है। तुम गलत शिक्षा और गलत संस्कारों के द्वारा अभिशापित हुए हो। तुमने जिन्हें साधु-महात्मा समझा है, तुमने जिनकी बातों को पकड़ा है–न वे जानते हैं, न उन्होंने तुम्हें जानने दिया है।
मेरे पास साधु संन्यासी आते हैं तो कहते हैं, “एकांत में आपसे कुछ कहना है।’ मैं कहता हूं, सभी के सामने कह दो; एकांत की क्या जरूरत है? वे कहते हैं कि नहीं, एकांत में। अब तो मैंने एकांत में मिलना बंद कर दिया है। क्योंकि एकांत में…जब भी साधु-संन्यासी आयें तो वे एकांत ही मांगते हैं। और एकांत में एक ही प्रश्न है उनका कि यह कामवासना से कैसे छुटकारा हो! कोई सत्तर साल का हो गया है, कोई चालीस साल से मुनि है–तो तुम क्या करते रहे चालीस साल? कहते हैं, क्या बतायें, जो-जो शास्त्र में कहा है, जो-जो सुना है–वह करते रहे हैं। उससे तो हालत और बिगड़ती चली गई है।
मवाद को दबाया है, निकालना था। घाव पर तुमने ऊपर से मलहम-पट्टी की है; आपरेशन की जरूरत थी। तो जिस मवाद को तुमने भीतर छिपा लिया है, वह अब तुम्हारी रग-रग में फैल गई है; अब तुम्हारा पूरा शरीर मवाद से भर गया है।
तो थोड़ी सावधानी बरतनी पड़ेगी। आपरेशन से गुजरना होगा। और तुम्हीं कर सकते हो वह आपरेशन; कोई और कर नहीं सकता। तुम्हारा ध्यान ही तुम्हारी शल्यक्रिया होगी। तब एक घंटा रोज…। तुम चकित होओगे, अगर तुमने एक-दो महीने भी इस प्रक्रिया को बिना किसी विरोध के भीतर उठाये, बिना अपराध भाव के निश्चिंत मन से किया, तो तुम अचानक पाओगे: धुएं की तरह कुछ बातें खो गईं! महीने दो महीने के बाद तुम पाओगे: तुम बैठे रहते हो, घड़ी बीत जाती है, कोई कल्पना नहीं आती, कोई वासना नहीं उठती। तब तुम अचानक पाओगे: अब तुम चलते हो बाहर, तुम्हारी आंखों का रंग और! अब तुम्हें सौंदर्य दिखाई पड़ेगा! क्योंकि सब सौंदर्य परमात्मा का सौंदर्य है। स्त्री का, पुरुष का कोई सौंदर्य होता है? फूल का, पत्ती का, कोई सौंदर्य होता है? सौंदर्य कहीं से भी प्रगट हो; सौंदर्य परमात्मा का है, सौंदर्य सत्य का है। लेकिन सौंदर्य को देख ही वही पाता है, जिसने वासना को अपनी आंख से हटाया। वासना का पर्दा आंख पर पड़ा रहे, तुम सौंदर्य थोड़े ही देखते हो! सौंदर्य तुम देख ही नहीं सकते।
वासना कुरूप कर जाती है सभी चीजों को। इसलिए तुमने जिसको भी वासना से देखा, वही तुम पर नाराज हो जाता है। कभी तुमने खयाल किया? किसी स्त्री को तुम वासना से देखो, वही बेचैन हो जाती है। किसी पुरुष को वासना से देखो, वही थोड़ा उद्विग्न हो जाता है। क्योंकि जिसको भी तुम वासना से देखते हो, उसका अर्थ ही क्या हुआ? उसका अर्थ हुआ कि तुमने उस आदमी या उस स्त्री को कुरूप करना चाहा। जब भी तुम किसी को वासना से देखते हो, उसका अर्थ हुआ कि तुमने किसी का साधन की तरह उपयोग करना चाहा; तुम किसी को भोगना चाहते हो। और प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं है। तुम किसी को चूसना चाहते हो? तुम किसी को अपने हित में उपयोग करना चाहते हो? तुम किसी के व्यक्तित्व को वस्तु की तरह पद-दलित करना चाहते हो?
वस्तुओं का उपयोग होता है, व्यक्तियों का नहीं। लेकिन जब तुम वासना से किसी को देखते हो, व्यक्ति खो जाता है, वस्तु हो जाती है। इसलिए वासना की आंख को कोई पसंद नहीं करता। जब वासना खो जाती है तो सौंदर्य का अनुभव होता है। और जब सौंदर्य का अनुभव होता है, तो तुम्हारे भीतर प्रेम का आविर्भाव होता है।
प्रेम उस घड़ी का नाम है, जब तुम्हें सब जगह परमात्मा और उसका सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। तब तुम्हारे भीतर जो ऊर्जा उठती है, जो अहर्निश गीत उठता है–वही प्रेम है। अभी तो तुमने जिसे प्रेम कहा है, उसका प्रेम से कोई दूर का भी संबंध नहीं है। वह प्रेम की प्रतिध्वनि भी नहीं है। वह प्रेम की प्रतिछाया भी नहीं है। वह प्रेम का विकृत रूप भी नहीं है। वह प्रेम से बिलकुल उलटा है।
इसलिए तो तुम्हारे प्रेम को घृणा बनने में देर कहां लगती है! अभी प्रेम था, अभी घृणा हो गई। एक क्षण पहले जो मित्र था, क्षणभर बाद दुश्मन हो गया। क्षणभर पहले जिसके लिए मरते थे, क्षणभर बाद उसको मारने को तैयार हो गये।
तुम्हारा प्रेम प्रेम है? घृणा का ही बदला हुआ रूप मालूम पड़ता है। प्रेम सिर्फ तुम्हारी बातचीत है। प्रेम तो उनका अनुभव है जिनकी आंख से वासना गिर गई; जिन्हें सौंदर्य दिखाई पड़ा; जिसे सब तरफ उसके नृत्य का अनुभव हुआ; जिसे सब तरफ परमात्मा की पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी। फिर प्रेम का आविर्भाव होता है। प्रेम यानी प्रार्थना। प्रेम यानी पूजा। प्रेम यानी अहोभाव, धन्यता, कृतज्ञता।
नहीं, अभी तुम्हें प्रेम का अनुभव नहीं हुआ। अभी तो तुमने वासना को भी नहीं जाना, प्रार्थना को तुम जानोगे कैसे? वासना को जानो, ताकि वासना से मुक्त हो जाओ। जब मैं निरंतर तुमसे कहता हूं, वासना को जानो, तो मैं यही कह रहा हूं कि वासना से मुक्त होने का एक ही उपाय है: उसे जान लो। जिसे हम जान लेते हैं, उसी से मुक्ति हो जाती है।
सत्य बड़ा क्रांतिकारी है। जान लेने के अतिरिक्त और कोई रूपांतरण नहीं है।
आज इतना ही।

ओशो – जिनसूत्र-(भाग–1)

दिसम्बर 3, 2015

प्रेम – एक थीसिस

shashisimi-001मैत्री,सख्य, प्रेम – इन का विकास धीरे-धीरे होता है ऐसा हम मानते हैं: ‘प्रथम दर्शन से ही प्रेम’ की सम्भावना स्वीकार कर लेने से भी इस में कोई अन्तर नहीं आता| पर धीरे-धीरे होता हुआ भी यह सम गति से बढ़ने वाला विकास नहीं होता, सीढ़ियों की तरह बढ़ने वाली उस की गति होती है, क्रमश: नये-नये उच्चतर स्तर पर पहुँचने वाली|

कली का प्रस्फुटन उस की ठीक उपमा नहीं है, जिस का क्रम-विकास हम अनुक्षण देख सकें: धीरे-धीरे रंग भरता है, पंखुड़ियाँ खिलती हैं, सौरभ संचित होता है, और डोलती हवाएँ रूप को निखार देते जाती हैं|

ठीक उपमा शायद सांझ का आकाश है : एक क्षण सूना, कि सहसा हम देखते हैं, अरे वह तारा! और जब तक हम चौंक कर सोचें कि यह हम ने क्षण-भर पहले क्यों न देखा – क्या तब नहीं था? तब तक इधर-उधर, आगे, ऊपर कितने ही तारे खिल आए, तारे ही नहीं, राशि-राशि नक्षत्र-मंडल, धूमिल उल्कान्कुल, मुक्त्त-प्रवाहिनी नभ-पयम्बिनी- अरे, आकाश सूना कहाँ है, यह तो भरा हुआ है रहस्यों से, जो हमारे आगे उद्घाटित है…प्यार भी ऐसा ही है; एक समोन्नत ढलान नहीं, परिचिति के, आध्यात्मिक संस्पर्श के, नये-नये स्तरों का उन्मेष…उस की गति तीव्र हो या मंद, प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, वांछित हो य वान्छातीत| आकाश चन्दोवा नहीं है कि चाहे तो तान दें, वह है तो है, और है तो तारों-भरा है, नहीं है तो शून्य-शून्य ही है जो सब-कुछ को धारण करता हुआ रिक्त बना रहता है…

(अज्ञेय : उपन्यास ‘नदी के द्वीप‘ में)

अक्टूबर 26, 2014

प्रेम भरे दो जीवन…

LoveStoryदोस्तों के आने से काफी पहले ही विक्टर रेस्त्रां पहुँच गया था| अंदर प्रवेश किया तो पाया कि पूरे रेस्त्रां में सिर्फ एक वृद्ध एक कोने में बैठा अकेले ही खा रहा था| थोड़ा नजदीक गया तो पाया कि उसने सामने मेज पर एक महिला की तस्वीर रखी हुयी थी और वह उस तस्वीर को लगातार देखते हुए खा रहा था|

विक्टर को लगा कि वृद्ध अवसाद से ग्रस्त है और तस्वीर में मौजूद महिला उसकी कोई खास रही होगी और शायद अब इस दुनिया में नहीं है और उसकी याद में वृद्ध दुखी है| उसने सोचा कि जब तक उसके दोस्त नहीं आते वह वृद्ध से बातें करके उसका मूड ठीक कर सकता है|

विक्टर वृद्ध के पास चला गया|

“माफ कीजिये, मैं थोड़ी देर आपके पास बैठ सकता हूँ?”

वृद्ध ने उसकी तरफ देखा, कुछ पल सोचा और कहा, “आओ बैठो यंगमैन”|

विक्टर ने तस्वीर की ओर इशारा करते हुए पूछा,” मेरा नाम विक्टर है| आप बड़े प्यार और दुख के साथ इस तस्वीर को निहार रहे थे, क्या यह  आपकी…?”

वृद्ध ने एक गहरी साँस लेते हुए कहा,” यह मेरी पत्नी की तस्वीर है| जेनिफर”|

“क्या अब वे आपके साथ नहीं हैं?”

“है तो साथ| मैं उसी के साथ हूँ”|

फिर आप इतने दुख से क्यों इस तस्वीर को देख रहे थे?

वृद्ध जैसे समय में कहीं खो गया|

“हम दोनों सत्रह साल के थे जब हम मिले| हमें एक दूसरे से प्यार हो गया| पर समय की करनी| युद्ध छिड़ गया था और मैं सेना में भर्ती हो गया| युद्ध के दौरान भी मैं उसी के बारे में सोचता रहता था| युद्ध के बाद मैं वापिस आया तो पाया कि उसका परिवार कहीं और चला गया था| मैंमें उसे तलाशने की बहुत कोशिश की पर किसी को उसके और उसके परिवार के बारे में नहीं पता था| दस साल मैं उसे खोजता रहा, किसी दूसरी युवती की और कभी आँख भर कर नहीं देखा, मिल कर बात करना तो दूर की बात है| लोग मुझे पागल कहने लगे| मैं उनसे कहता कि मैं वाकई पागल हो गया हूँ जेनिफर के प्यार में पागल!”

वृद्ध कुछ देर खामोश रहा तो विक्टर ने कुरेदा,”फिर?”

“मैं शहर शहर उसे खोजता रहा, जिस भी जगह जाता उसे खोजता| एक दौरे पर मैं केलिफोर्निया गया वहाँ एक सेलून में बाल कटवाते हुए मैं नाई से अपनी प्रेम कहानी और जेनिफर की खोज के बारे में बता बैठा| नाई सेलून में एक कोने में रखे फोन की तरफ गया और फोन पर अपनी बेटी से सेलून में आने को कहा|”

विक्टर के लिए वृद्ध की खामोशी एक पल के लिए भी अखर रही थी| उत्तेजना से भर उसने पूछा,” वही?”

वृद्ध की आँखों में चमक आ गई,” जेनिफर मेरे सामने खड़ी थी| उसने भी दस साल किसी युवक के साथ डेटिंग नहीं की| वह मेरा इंतजार करती रही| उसने अपने पिता और परिवार की एक नहीं सुनी और मेरा इंतजार किया|”

विक्टर को अपनी ओर उत्सुकता से देखता हुआ पाकर वृद्ध ने कहा'” मैंने वहीं जेनिफर के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा और उसके सहमति देने पर उसके पिता से अनुमति ली| अगले ही दिन हमने विवाह कर लिया| पचपन साल हम लोग विवाह के बाद साथ रहे| ”

“अब कहाँ हैं जेनिफर”|

“पांच बरस हुए, उसे अपना शरीर छोड़े| पर मेरे साथ वह हरदम बनी रहती है|  मैं विवाह की वर्षगाँठ और जेनिफर का जन्मदिन हमेशा सेलिब्रेट करता हूँ| मैं हमेशा उसकी तस्वीर अपने साथ रखता हूँ| रत को उसकी तस्वीर को चूमकर उसे शुभरात्री कह कर सोता हूँ|”

“दस साल आप दोनों ने एक दूसरे का इंतजार किया? अगर केलिफोर्निया में भी आपको जेनिफर न मिलती और दस साल और गुजर जाते तो?”

तो क्या? मैं तो सारी उम्र उसे तलाशता| वह भी मेरा इंतजार करती”|

“वाह! मैंने आज तक ऐसी प्रेम कहानी नहीं सुनी”|

“ये कहानी नहीं है यंगमैन| हमारा जीवन है”|

अब तो लोग दो चार साल भी विवाह के बंधन में नहीं ठहर पाते| तलाक ले लेते हैं|

“हम दोनों के बीच बहुत बहसें होती थीं पर कभी भी कुतर्क नहीं चले| मैं कुछ बातें कहूँ तुमसे यंगमैन”|

“जी कहिये”|

“मैं बहुत धनी रहा, पैसे के कारण नहीं बल्कि प्रेम के कारण| अपनी पत्नी से रोज इस बात को जाहिर करो कि तुम उससे प्रेम करते हो| लोग जलती हुयी मोमबत्ती की तरह होते हैं| हवा का झोंका आकर लौ बुझा सकता है इसलिए जब तक प्रकाश है उसका भली भांति आनंद लो, उसका सम्मान करो|”

वृद्ध ने अपनी पत्नी की तस्वीर उठाते हुए कहा,” अब मैं चलता हूँ|  मेरी बातें याद रखना|”

 

 

 [ एक सच्ची कथा – परिवर्तित रूप में ]

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नवम्बर 11, 2013

यूँ ही हँसती रहो मुँह छिपाकर

dewflowerतुमने कभी देखा

ओस की बूंद को फूल पे?

एक छोटी सी बूँद …

बहुत नाज़ुक लेकिन कितनी जीवंत!

सारे रंग अपने में समेटे,

फूल के आगोश में लिपटी

‘बूँद’

रात भर सपना देखती है…

सुबह का,

सुबह के ताजगी भरे उजाले में

अपने प्रेमी फूल को देखने का…

उसे सहलाने का

बहुत क्षणिक  होता है ये मिलन

रात के लम्बे इंतज़ार के सामने

पर कितना सघन!

दो पल का स्पर्श…

पोर पोर सहलाना

फूल को दे जाता है

सबब

पूरे दिन महकने का…

खिले रहने का…

मुस्कराने का

और खुशिया बिखेरने का

गुदगुदाती है

उसे बूँद की याद दिन भर

और उसी के सहारे

सह लेता है फूल

दिन भर की तपन

मुस्कुराते…

manisha-001खिलखिलाते…

महकते…

महकाते…

मैं भी मुस्कुराता हूँ …

बेवज़ह भी…

कभी जब याद आता है

तुम्हारा मुंह छुपा के मुस्कुराना…

मेरे दिन रात

महक उठते हैं…

काश

तुझ फूल को हँसने

खिलने और महकने के लिए

मैं ही ओस की बूँद रूपी

बहाना बन जाऊं…

(रजनीश)

नवम्बर 10, 2013

रात भर चाँद मुस्कराता रहा

moonlit-001न मैं तुम्हे

जानता था

न तुम मुझे,

पर चाँद,

हम दोनों से

परिचित था

रात भर सर्द हवा

चलती रही

सिहराती रही,

रात भर चाँद

मुस्कराता रहा

एक मुट्ठी मैं,

एक मुट्ठी तुम

मिले, घुले

फिर हवा हो गये

Yugalsign1

नवम्बर 5, 2013

देह-संगम

बोलने दो आँखों को कभी…

सुनने दो अधरों से कभी…

रेशमी बंध खुल जाने दो

सपनों  को संवरने दो कभी…

मैंने बरसों जिसे तराशा है

उस आग-रेशम बदन की लौ में

जल जाने दो मुझे…

खुद में बिखरने दो  कभी…
sunset1-001

तेरी मादक नशीली गंध उठाती है

मेरे बदन में जो उन्मत्त लहरें

अपने सीने  में से हो के…

इनको  गुजरने दो कभी…

मैं तेरे सीने से लिपट के

बाकी उम्र यूँ ही बिता दूंगा

कभी बस आ…

के तसव्वुर की इस इक रात की

तकदीर संवर जाए कभी…

ज़रुरत क्या रहेगी लफ़्ज़ों की फिर…

जुबां को काम दो सिर्फ प्यार का

खामोश लम्हों…

और नीम अंधेरों

को दरमियाँ पसरने दो कभी…

ना रात हो ना दिन हो…

न अँधेरा ना उजाला…

कभी जब दिन भर का थका सूरज

रात के सीने पे सिर रख

सोने को बेताब जा रहा हो क्षितिज तक मिलने उससे…

बस आओ उसी वक़्त तुम…

बैठे रहें देखते इस अलौकिक प्रतिदिन के मिलन को…

कितना शाश्वत है इनका मिलना…

रोज़ मिलते हैं लेकिन प्यास उतनी ही…

मैं सूरज तो नहीं

लेकिन चैन की नींद आएगी

सिर्फ तुम्हारे सीने पे सिर रख के शायद…

रात कभी कोई सवाल नहीं करती सूरज से…

कोई ज़बाब नहीं मांगती उस के बीते पलों का…

सूरज भी नहीं उठाता कोई प्रश्न रात के अन्धेरेपन पे…

बीते पलों पे न कोई सवाल

न आने वाले समय की कोई फिक्र….

बस एक अद्भुत…

पारलौकिक…

अनंत पुरातन

लेकिन चिर नवीन…

कभी जिस की उष्णता कम नहीं होती

ऐसा मिलन…

ऐसा देह-संगम…

(रजनीश)

नवम्बर 4, 2013

मन या तन?

shashisimi-001
तन या मन?
केवल तन
या केवल मन
देखा पहले किसको?
तन को या मन को?
बिना तन के मन था क्या?
बिना मन के तन था क्या?
मन महसूस किया पहले मन ने
या तन को सहलाया नज़रों ने पहले?
तन से जो केवल किया
वो प्यार की परिधि में आया क्या?
मन से जो चाहा वो तन द्वारा बयां
करने से बच पाया क्या??
कितने प्रश्न…कितने उत्तर
कितने द्वन्द….कितनी बेचैनी…
प्रेम शांत होता है…नीले समुद्र की तरह
क्यूँ झंझावातों को न्यौता दूँ
क्यूँ इस झगडे का पञ्च बनूँ
इसीलिए लो मैं तुम पर
न्योछावर करता हूँ
अपना मन भी अपना तन भी…

(रजनीश)

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जून 6, 2013

ओशो : राहुल सांकृत्यायन (बौद्ध भिक्षु और वामपंथी लेखक)

Osho rahulमेरे एक मित्र, संस्कृत, पाली और प्राकृत के विद्वान, बौद्ध भिक्षु थे| लेकिन वे कम्यूनिज्म की ओर भी आकर्षित हो गये, और इसका कारण साधारण सी समानता थी, कि बुद्ध के यहाँ भी ईश्वर की परिकल्पना नहीं  है और मार्क्स के यहाँ भी नहीं है| सो वे मार्क्सिज्म की ओर आकर्षित हो गये और अंततः कम्यूनिस्ट बन गये| और सोवियत यूनिवर्सिटी ने उन्हें कहा कि वे वहाँ जाकर  संस्कृत पढाएं और वे मॉस्को चले गये|

भारत से बाहर, मॉस्को में हर चीज अलग थी| यहाँ उनके लिए असंभव था कि बौद्ध भिक्षु भी बने रहते और किसी स्त्री से प्रेम भी कर लेते| सोवियत यूनियन  में ऐसी कोई परेशानी नहीं थी| वे वहाँ एक स्त्री के प्रेम में पड़ गये| लोला– उसी यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर थी और उसके दो बच्चे भी थे|

सोवियत सरकार ने उन्हें अनुमति नहीं दी कि वे लोला और उसके बच्चों को सोवियत संघ के बाहर ले जाएँ, अलबत्ता वहाँ वे उनके साथ रह सकते थे| पर राहुल भारत वापिस आना चाहते थे|  और वे घबराये हुए भी थे| एक तरह से सोवियत सरकार उनकी अंदुरनी इच्छा ही पूरी कर रही थी – कैसे वे पत्नी और दो बच्चों के साथ भारत जा सकते थे? सबने उनकी निंदा की होती, खासकर बौद्धों ने,”तुम एक भिक्षु हो|” सो एक तरह से वे खुश भी थे कि सोवियत सरकार ने उन्हें अनुमति नहीं दी सो अब वह प्रश्न ही खड़ा नहीं हुआ|

वे वापिस आ गये| उन्होंने मुझे बताया,” जब मैं पहले पहले सोवियत संघ पहुंचा मैंने एक छोटे लड़के से पूछा,” क्या तुम ईश्वर में विश्वास रखते हो|” उसने कहा,”ईश्वर! लोग अंधे युगों में उसमें विश्वास किया करते थे| अगर आपको ईश्वर की मूर्ति देखनी हो तो आप म्यूजियम में जा देख सकते हैं|” ”

लेकिन ये सब भी प्रोग्रामिंग है| ऐसा नहीं है कि ऐसे छोटे लड़के जानते हैं कि ईश्वर नहीं है या कि कार्ल  मार्क्स ही जनता था कि ईश्वर नहीं है| केवल ध्यान में गहरे उतरने वाला व्यक्ति ही जां सकता है कि ईश्वर है या नहीं|

आप सब लोग किसी न किसी सांचे में ढाले गये लोग हो| आपकी प्रोग्रामिंग की गई है| और तुम्हारे साथ यह इतने गहरे में किया गया है कि तुम समझने लगे हो कि यह तुम्हारा स्वभाव है| तुम्हारी कल्पनाएं, तुम्हारी आशा, तुम्हारा भविष्य …कुछ भी प्राकृतिक नहीं है|

प्रकृति इस क्षण के सिवाय कुछ नहीं जानती| प्रकृति कुछ नहीं जानती, आशा, इच्छाएं , लालसा| प्रकृति तो आनंद उठाती है उसका जो इस क्षण, अभी और यहीं, उपलब्ध है|

राहुल ने मुझे बताया,” रशियन लोगों के लिए सबसे बड़ी अचरज की बात थी मेरे हाथ|”

मैंने कहा,” आपके हाथ!”

उन्होंने कहा,” हाँ मेरे हाथ! जब भी मैं उनसे हाथ मिलाता, वे तुरंत अपने हाथ खींच लेते और कहते,”तुम जरुर बुजुर्वा हो, तुम्हारे हाथ बताते हैं कि तुमने कभी काम नहीं किया|””

मैंने बौद्ध भिक्षु से कहा,”आप मेरे हाथ का स्पर्श करो| तब आपको पता लगेगा कि आप श्रमजीवी हो और मैं बुजुर्वा| यह आपको बहुत बड़ा दिलासा देगा|”

फ़रवरी 22, 2013

ये दर्द जो तुमने दे दिया है

ये दर्द तुमने जो दे दिया है

इसे में उम्र भर ढो तो पाऊं

तो देखना क्या कहेगी दुनिया

क़यामत तक तो रहेगी दुनिया |

मेरे मन को सूना पाकर

पहले तुमने डेरा डाला

फिर छोड़ा, यों नाता तोड़ डाला

टूट गई सपनों की माला|

ये शून्य तुमने जो दे दिया है

इसी को पूरा जो कर दिखाऊं

तो देखना क्या कहेगी दुनिया

अंगारों में ही दहेगी दुनिया |

देवालय का देव बताकर

तुमने ही पत्थर कह डाला

जिसको चाहा मधुरित माना

उसको ही पतझर कह डाला |

यही अगर हो मेरी हकीकत

कसम तुम्हारी, जो मान जाऊं

तो देखना क्या कहेगी दुनिया

अभी तो कल तक रहेगी दुनिया |

शायद यह मन का पागलपन

जो तुम में ही रमा हुआ है

लेकिन इसको ज्ञात नहीं है

किसका कब चन्द्रमा हुआ है |

ये गीत जो तुमने दे दिया है

इसको जन्म-भर यदि  गुनगुनाऊं

तो देखना क्या कहेगी दुनिया

ये पीर कैसे सहेगी दुनिया |

{कृष्ण बिहारी}

सितम्बर 22, 2011

खुदकशी – मर्ज़ और दवा

बिखरे हुए सपने अपनी जिंदगी से गए
बूढ़े कुछ चश्मे आँख की रोशनी से गए
झुका हुआ एक दरख्त ठूंठ हुआ बेचारा
बेरुते फल थे टूट कर खुद-खुशी से गए

दुःख को साथी मानते कट जाता दुःख
कबीर-गालिब को पढ़ते बट जाता दुःख
तुम मोल तो करते अमूल्य जीवन का
बिन अश्रु आँखों में सिमट जाता दुःख

जलते दीपक से सीख जीने का करीना
दुनिया के आगे हँसना पीछे अश्रु पीना
सोच ये हो तेरे साथ बिताये पल जीलूँ
ये सोच गलत है तेरे बिना क्या जीना

टूटे आस तो खुदा का आसरा है बहुत
हो भरोसा तो स्वयं का सहारा है बहुत
सपनों के साथ आँखे नहीं मरा करती
देख तो सही आगे अभी रास्ता है बहुत

नफा-नुकसान, दुख-सुख, मिलना–बिछड़ना
अनुभव है जिंदगी के, इनसे सीख समझ
समय का शिकारी तो खुद तेरी टोह में है
उसके जाल में न आ, फंदों में न उलझ

(प्रेम में असफलता पाने से की गई आत्महत्या की खबर से जन्मा ख्याल)

(रफत आलम)