Archive for ‘राजनीति’

फ़रवरी 11, 2024

अबू धाबी में न्यायालय की तीसरी भाषा – हिंदी…

                      © कृष्ण बिहारी

अक्टूबर 9, 2023

दलित पृष्ठभूमि के दो नेता जो प्रधानमंत्री बन सकते थे

भारतीय राजनीति ने पिछले 77 सालों में दो ऐसे अवसर उत्पन्न किये जब दलित पृष्ठभूमि से आने वाले बेहद गुणी और सर्वथा योग्य नेता भारत के प्रधानमंत्री बन सकते थे पर ऐसा हो न सका|

#गांधी जी की प्रेरणा से #कांग्रेस ब्रितानी राज के समक्ष यह प्रस्ताव रख ही सकती थी कि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री डॉ बी आर आंबेडकर होंगे| तब शायद #जिन्ना को भी पाकिस्तान बनाने की जिद छोड़नी पड़ती| #आंबेडकर उस समय के नेताओं में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे थे| वैश्विक ख्याति प्राप्त विद्वान थे|

वाइसरॉय #माउंटबेटन की पत्नी #एडविना_माउंटबेटन ने आंबेडकर को भेजे एक पत्र में लिखा था, “वे ‘निजी तौर पर ख़ुश’ हैं कि संविधान निर्माण की ‘देखरेख’ वे कर रहे हैं, क्योंकि वे ही ‘इकलौते प्रतिभाशाली शख़्स हैं, जो हर वर्ग और मत को एक समान न्याय दे हैं ” |

आंबेडकर अगर छूट गए तो अगला अवसर बाबू #जगजीवन_राम के रूप में देश के सामने आया|

बाबू जगजीवन_राम, भी भारत के, दलित पृष्ठभूमि से आने वाले प्रथम प्रधानमंत्री बन सकते थे| #चंद्रशेखर (पूर्व पी एम्) , कांग्रेस के युवा तुर्कों और अन्य समझदार नेताओं ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस सिन्हा का निर्णय तब की प्रधानमंत्री श्रीमति #इंदिरा_गांधी के विरोध में आने पर इंदिरा जी से निवेदन किया था कि वे कुछ समय के लिए तब के रक्षा मंत्री और तब की कांग्रेस के सबसे अनुभवी मंत्री श्री जगजीवन राम को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंप दें| जगजीवन राम, प्रधानमत्री बनने के सर्वथा योग्य नेता थे| वे 40 के दशक में #पंडित_नेहरु की 1946 में बनी अंतरिम सरकार में भी मंत्री थे, और वे संविधान सभा के सदस्य भी बनाए गए थे| उससे पूर्व 1937 में ही वे बिहार विधानसभा में निर्वाचित हो चुके थे| उनके रक्षामंत्री रहने के काल में ही भारत ने पाकिस्तान को युद्ध में पराजित करके बांग्लादेश को एक स्वतंत्र देश बनाने में पूर्वी बंगाल के वासियों की सहायता की, और उन्हें पाकिस्तानी प्रताड़ना से मुक्ति दिलवाई| इंदिरा जी ऐसा करतीं तो एक योग्य एवं अनुभवी नेता, जिसने डा. #बी_आर_अंबेडकर की भांति दलित वर्ग में जन्म पाया था , भारत का पहला दलित वर्ग में जन्मा प्रधानमंत्री बन जाता और कांग्रेस के हिस्से यह श्रेय आ जाता और देश में आपातकाल न लगाना पड़ता| पर इंदिरा जी ने ऐसा नहीं किया| और एक ऐतिहासिक भूल कांग्रेस से हो गई|

अगर देश के प्रथम पी एम का पद आंबेडकर को दिया जाता या बाद में बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बना दिया जाता तो कांग्रेस को आज सामाजिक असमानता के लिए झंडा न उठाना पड़ता |

आज भी जीतने पर क्या कांग्रेस ऐसा कदम उठायेगी? और राहुल गांधी किसी सुयोग्य दलित प्रष्ठभूमि के कांग्रेसी नेता को देश का पी एम बनायेंगे ?

भारतीय राजनीति की अब तक की चाल ढाल को देखकर तो ऐसा ही लगता है कि ऐसा काम वामपंथ के दलों या भाजपा में ही मुमकिन है|

जनवरी 30, 2023

गांधी हत्या : ओशो का रुदन, और ओशो के गांधी पर अंतिम वचन

नोट – “ओशो ने 10 अप्रैल 1981 को पुणे में सार्वजनिक मौन धारण कर लिया था और 1 जून 1981 को ओशो अमेरिका चले गए| वहां के प्रवास में भी सार्वजनिक मौन कायम रहा और अंततः ढाई साल से ज्यादा की अवधि के बाद 30 अक्तूबर 1984 को ओशो ने सार्वजनिक रूप से प्रवचन देना आरम्भ किया| सार्वजनिक मौन की अवधि में रजनीशपुरम, अमेरिका में ओशो ने अपनी दन्त चिकित्सा के दौरान अपने डेंटिस्ट शिष्य डा . देवागीत और उनकी सहायक नर्सों के समक्ष, जब ओशो पर दर्द नाशक के रूप में नाइट्रस ऑक्साइड का इस्तेमाल किया जाता था, अपने जीवन विशेषकर बचपन की घटनाओं को स्मृति में पुनः जीकर, बोलकर लिखवाया| ओशो की स्मृतियों के उन संग्रहों को ” Gimpses of a Golden Childhood” नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया, जिसका हिन्दी अनुवाद “स्वर्णिम बचपन” शीर्षक से छपा| उन्हीं स्मृति सेशंस के दौरान उन्होंने महात्मा गांधी पर पुनः बोला और कहा कि चूंकि गांधी के सौ वर्ष मनाये जाने के समय 1969 में उन्होंने गांधी की आलोचना से भरे कई प्रवचन दिए थे अतः गांधी के बारे में ये बातें भी नोट कर लें| यह गांधी के बारे में उनके अंतिम कथन हैं|”

मैं महात्मा गांधी के विचारों से बिलकुल सहमत नहीं हूं और मैंने सदा उनकी आलोचना की है। जब उन्हें गोली मारी गई तो मैं सत्रह साल का था, और मेरे पिता ने मुझे रोते हुए देख लिया।

उन्हें बड़ा अचरज हुआ। उन्होंने कहा: तुम और महात्मा गांधी के लिए रो रहे हो? तुमने तो सदा उनकी आलोचना की है। मेरा सारा परिवार गांधी-भक्त था। वे सब गांधी का अनुसरण करते हुए जेल जा चुके थे। केवल मैं ही अपवाद था। स्वभावत: उन्होंने पूछा: तुम रो क्यों रहे हो? मैंने कहां: मैं सिर्फ रो ही नहीं रहा हूं,मुझे अभी गाड़ी पकड़नी है क्योंकि मुझे उनकी शवयात्रा में शामिल होना है। मेरा समय खराब मत करो, यही अंतिम ट्रेन है जो समय पर वहां पहुंचाएगी। वो तो भौचक्के रह गए। उन्होंने कहा: मैं भरोसा नहीं कर सकता। तुम तो पागल हो गए हो।

मैंने कहा: हम उसकी बाद में बात कर लेंगे। चिंता मत करो। मैं वापस आ रहा हूं। मैं उसी समय दिल्ली के लिए रवाना हो गया और जब दिल्ली स्टेशन पर मेरी गाड़ी रुकी तो प्लेटफार्म पर मस्तो मेरा इंतजार कर रहा था। उसने कहा; मुझे मालूम था कि तुम आओगे। गांधी की आलोचना करने के बावजूद तुम्हारे भीतर उनके लिए आदर भी है। इसलिए मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। मुझे मालूम था कि केवल यही गाड़ी तुम्हारे गांव से होकर यहां आती है। और तुम इसी गाड़ी से आ सकते हो। इसीलिए मैं तुम्हें लेने के लिए आ गया।

मैंने मस्तो से कहा: अगर तुमने गांधी के प्रति मेरे भावों की कभी बात की होती तो मैंने तर्क-वितर्क न किया होता लेकिन तुम सदा कुछ स्वीकार करवाना चाहते थे और तब भावना का फिर कोई सवाल नहीं उठता, फिर तो शुद्ध तर्क-वितर्क की बात है। या तो तुम जीतते हो या दूसरा। अगर एक बार भी तुमने भावना की बात की होती तो मैंने कुछ न कहा होता। क्योंकि तब फिर कोई तर्क-वितर्क न होता। खासकर यह बात रिकार्ड में आ जाए इसीलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं। जब कि महात्मा गांधी के जीवन संबंधी विचार मुझे नापसंद है। फिर भी उनकी बहुत से विशेषताओं की मैं सराहना भी करता हूं। उनकी बहुत सी बातें है जिनकी मैं तारीफ करता हूं, किंतु जो कहने से रह गई हैं। अब उन्हें रिकार्ड में ले लेते है।

मुझे उनकी सच्चाई बहुत पसंद है। उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला। वे चारों और झूठ से घिरे हुए थे फिर भी वे सच पर अडिग रहे। मैं शायद उनके सच से सहमत न होऊं पर मैं यह नहीं कह सकता कि वे सच्चे नहीं थे। उन्होंने जिसको सच माना, फिर उसे नहीं छोड़ा। यह बिलकुल भिन्न बात है कि मैं उनके सच को किसी मूल्य का नहीं मानता पर वह मेरी समस्या है उनकी नहीं। उन्होंनेकभी झूठ नहीं बोला। मैं उनकी इस सच्चाई का अवश्य आदर करता हूं। जब कि उनको उस सत्य के बारे में कुछ नहीं मालूम था जिसकी चर्चा मैं करता हूं। जिसमें छलांग के लिए सदा कहता हूं।वे मुझसे कभी सहमत नहीं हो सकते थे। सोचने से पहले छलांग लगा दो, नहीं वे तो व्यापारी बुद्धि के आदमी थे। दरवाजे से बाहर कदम उठाने से पहले वे तो सैंकड़ों बार सोचते थे,छलांग की बातकहां।

उनको ध्यान के बारे में कुछ नहीं मालूम था और वे उसे समझ सकते थे। इससे उनका दोष नहीं था। उनको अपने जीवन में कोई गुरु नहीं मिला जो उनको निर्विचार मन या शुन्य मन के बारे में बताता। और उस समय भी ऐसे लोग उपस्थित थे। मेहर बाबा ने एक बार उन्हें पत्र लिखा था। स्वयं तो नहीं लिखा था, पर उनकी और से किसी ने गांधी को पत्र लिखा था। मेहर बाबा तो सदा मौन रहते थे, कभी कुछ लिखा नहीं, किन्तु इशारों से अपनी बात समझाते थे। कुछ लोग ही समझ पाते थे कि मेहर बाबा क्या कहते है। मेहर बाबा ने अपने पत्र में गांधी से कहा था कि हरे राम, हरे कृष्ण बोलने से कोई लाभ नहीं होगा। अगर तुम सचमुच कुछ जानना चाहते हो तो मुझसे पूछो और मैं तुम्हें बताऊंगा। परंतु गांधी और उनके अनुयायी मेहर बाबा के इस पत्र पर बहुत हंसे क्योंकि उन्होंने इसे मेहर बाबा का अंहकार समझा। यह अहंकार नहीं उनकी करूणा थी। किंतु लोग प्राय: इस करूणा को अंहकार ही समझते है। बहुत अधिक करूणा, शायद बहुत अधिक करूणा है इसलिए अहंकार लगता है। गांधी ने मेहर बाबा को तार से धन्यवाद देते हुए उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि मैं तो अपने ही रास्ते पर चलूंगा। जैसे कि उन्हें रस्ता मालूम था। उन्हें तो कोई रास्ता मालूम ही नहीं था। फिर चलने का प्रश्न ही नहीं उठता था।

परंतु गांधी की कुछ बातें मुझे बहुत प्रिय थी उनका मैं आदर करता हूं। जैसे उनकी स्वच्छता और सफाई। अब तुम कहोगे कि इतनी छोटी-छोटी बातों के लिए आदर, नहीं ये छोटी बातें नहीं है। खासकर भारत में जहां संत, तथाकथित संत सब प्रकार की गंदगी में रहते थे। गांधी ने स्वच्छ, साफ रहने की कोशिश की। वे अत्यधिक साफ अज्ञानी व्यक्ति थे। मुझे उनकी साफ-सफाई, स्वच्छता बहुत पसंद है। सभी धर्मों के प्रति उनका आदरभाव भी मुझे पंसद है। हालांकि हमारे कारण अलग-अलग है। पर कम से कम उन्हेांने सब धर्मों का आदर किया। निश्चित रूप से, गलत कारण की वजह से। उन्हें पता ही न था कि सच क्या है, तो वे कैसे तय करते कि क्या सही है या कोई भी धर्म सही है। सब सही है या कोई भी कभी सही हो सकता है। कोई रास्ता न था। आखिर वे एक व्यापारी थे इसलिए क्यों किसी को दुःखी-परेशान करना, क्यों उपद्रव करना? कम से कम इतनी बुद्धि तो उनमें थी कि वे समझ सके कि गीता, कुरान, बाईबिल और तालमुद सब एक ही बात कहते है। याद रखना ‘’कम से कम’’ इतनी बुद्धि तो थी कि समानता खोज सके। यह कोई कठिन बात नहीं है। किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए। इसीलिए मैं कहता हूं, कम से कम, इतनी बुद्धि तो थी पर सच मैं बुद्धिमान नहीं थे। सच में बुद्धिमान तो सदा विद्रोही होते है। और वे कभी विद्रोह न कर सके किसी ट्रैडीशनल का—हिंदू, क्रिश्चियन, या बौद्धों का। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि एक बार गांधी भी ईसाई बनने का विचार कर रहे थे। क्योंकि यही एक ऐसा धर्म है जो गरीबों की बहुत सेवा करता है। परंतु जल्दी ही उनकी समझ में यह आ गया कि इनकी सेवा सिर्फ दिखावा है, असली धंधा तो पीछे छिपा है। इनका उद्देश्य है लोगो को ईसाई बनाना— सेवा के बहाने ये धर्मपरिवर्तन करते है। क्यों? क्योंकि इससे शक्ति आती है। जितने ज्यादा लोग तुम्हारे पास हों उतनी ज्यादा शक्ति होती है। अगर तुम सारे जगत को ईसाई,यहूदी या हिंदू बना दो तो तुम्हारे पास सबसे ज्यादा शक्ति होगी, जितनी कभी किसी के पास न थी। इसकी तुलना में सिकंदर भी फिका पड जाएगा। यह सब शक्ति का झगड़ा है।

जैसे ही गांधी ने यह देखा—और मैं फिर कहता हूं, वे इतना देखने के लिए काफी बुद्धिमान थे—उन्होंने ईसाई बनने का विचार छोड़ दिया। सच तो यह है कि भारत में हिंदू होना ज्यादा फायदेमंद था ईसाई होने के बजाए। भारत में ईसाई केवल एक प्रतिशत है इसलिए वे कोई राजनीतिक शक्ति नहीं बन सकते थे। हिंदू बने रहना ही अधिक लाभदायक था, मेरा मतलब है उनके महात्मापन के लिए। किंतु वे काफी होशियार थे कि सी.एफ.एंड्रूज़ जैसे ईसाइयों को बौद्धों और जैनों को और फ्रंटियर गांधी जैसे मुसलमान को भी प्रभावित कर सके। सीमांत गांधी पखतून जाति के थे जो भारत के सीमांत प्रदेश में रहती है। पखतून बहुत ही सुदंर ओर खतरनाक भी होते है। ये लोग मुसलमान है, और जब उनका नेता गांधी का अनुयायी बन गया। स्वभावत: वे भी अनुयायी बन गए। भारत के मुसलमानों ने कभी सीमांत गांधी को माफ नहीं किया। क्योंकि उन्होंने सोचा कि उसने अपने धर्म के साथ गद्दारी की है, धोखा दिया है।

मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि उसने क्या किया। मैं कह रहा हूं कि गांधी ने स्वयं पहले जैन बनने के बारे में बारे में भी सोचा था। उनका पहला गुरु जैन ही था। जिसका नाम था श्रीमद्राजचंद्र। और हिंदू अभी भी इस बात का बुरा मानते है कि उन्होंने एक जैन के पैर छुए। उनका दूसरा गुरु था, रस्किन। इससे हिंदुओं को और भी ज्यादा तकलीफ हुई। रस्किन की एक पुस्तक था: अन टू दिस लास्ट। इसने गांधी के जीवन को ही परिवर्तित कर दिया था पुस्तकें चमत्कार कर सकती है। तुमने शायद इस पुस्तक के बारे में सुना भी न हो—अन टू दिस लास्ट। यह एक छोटी सह पुस्तिका है। जब गांधी एक यात्रा पर जा रहे थे, तो उनके एक मित्र ने उनको यह पुस्तिका दी, क्योंकि उसे यह बहुत पसंद आई थी गांधी ने उसे रख लिया था। सोचा भी न था कि पढेंगे। पर रास्ते में जब समय मिला तो उन्होंने सोचा के क्यों न इसे देख लिया जाए। और इस पुस्तिका ने उनके जीवन को ही बदल दिया। उनकी फिलासफी इसी पुस्तिका पर आधारित है। मैं उनकी इस फिलासफी के विरूद्ध हूं, किंतु यह पुस्तक महान है। उसका दर्शन किसी योग्य नहीं है—परंतु गांधी तो कचरा इकट्ठा करते थे। वे तो सुंदर जगहों पर भी कचरा खोज लेते थे। ऐसे लोग होते है, तुम जानते हो, जिन्हें तुम सुंदर बग़ीचे में ले जाओ, वे ऐसी जगह खोज लेंगे और तुम्हें दिखाइंगे कि यह नहीं होना चाहिए। उनकी सारी एप्रोच ही नकारात्मक होती है। ये कचरा इक्ट्ठा करने वाले लोग होते है। वे अपने आप को कला को इक्ट्ठा करने वाला कहते है। अगर मैंने इस पुस्तक को पढ़ा होता, जैसा गांधी ने पढ़ा, तो मैं उस निष्कर्ष पर न पहुंचता जिस पर गांधी पहुंचे है। सवाल पुस्तक का नहीं है। सवाल पढ़ने वाले का है। वही चुनता है ओर इकट्ठा करता हे। हम एक ही जगह पर जाएं तो भी अलग-अलग चीजें इकट्ठी करेंगे। मेरे हिसाब से उनका कलक्शन मूल्य-रहित है। मैं नहीं जानता और कोई नहीं जानता कि उन्होंने मेरे कलक्शन के बारे में क्या सोचा होता। जहां तक मैं जानता हूं वह बहुत ही सिंसियर आदमी थे। इसीलिए मैं नहीं कह सकता कि उन्होंने ऐसा ही कहा होता जैसा मैं कह रहा है। उनका सारा कलेक्शन जंक है, कचरा है। शायद उन्होंने कहा होता,शायद न कहा होता—यही उनमें मुझे पसंद है। वे उसकी भी तारीफ कर सकते थे जो उनके लिए एलियन, अपरिचित था—और अपनी पूरी कोशिश करते खुले रहने की, उसे एब्जार्ब करने की। वे मोरारजी देसाई की तरह न थे जो कि पूरी तरह बंद, कलोज्ड है। मुझे तो कभी-कभी लगता है कि वह श्वास कैसे लेते होंगे क्योंकि उसके लिए कम से कम नाक तो खुला चाहिए। किंतु महात्मा गांधी मोरारजी देसाई जैसे आदमी नहीं थे। मैं उनसे असहमत हूं किंतु फिर भी…| वे स्पष्ट और संक्षिप्त लिखते थे। कोई भी उतना सरल नहीं लिख सकता था। और न ही कोई उतनी कोशिश करता था सरल लिखने की। अपने वाक्य को सरल और संक्षिप्त बनाने में वे घंटों लगाते थे। जितना संभव हो उसे उतना छोटा और सरल बनाते। वे जो भी सच मानते थे उसके अनुसार ही जीते थे। यह अलग बात है कि वह सत्य न था, पर इसके लिए वे क्या सामना करते थे। मैं उनकी इस सच्चाई और ईमानदारी का आदर करता हूं। इस ईमानदारी के कारण ही उन्हें अपने जीवन से हाथ धोने पड़े। गांधी की हत्या के साथ भारत का समस्त अतीत खो गया क्योंकि इसके पहले भारत में कभी किसी को गोली नहीं मारी गई थी। कभी किसी को सूली नहीं लगाई गई थी। यह कभी इस देश का तरीका न था। ऐसा नहीं कि यह बडे उदार लोग है। बल्कि इतने अहंकारी, दंभी है कि वह किसी को इस योग्य ही नहीं समझते कि उसे सूली दी जाए। उससे अपने को बहुत ऊपर मानते है।

महात्मा गांधी के साथ भारत का एक अध्याय समाप्त होता है और नया अध्याय आरंभ होता है। मैं इसलिए नहीं रोया कि वे मर गए। एक दिन तो सभी को मरना ही है। इसमें रोने की कोई बात नहीं है। अस्पताल में बिस्तर पर मरने के बजाए गांधी की मौत मरना कहीं अच्छा है खासकर, भारत में। एक तरह से वह साफ और सुंदर मृत्यु थी। और मैं हत्यारे नाथूराम गोडसे का पक्ष नहीं ले रहा हूं। और उसके लिए मैं नहीं कह सकता कि उसे माफ कर देना क्योंकि उसे पता नहीं कि वह क्या कर रहा है। उसे अच्छी तरह से पता था कि वह क्या कर रहा है। उसे माफ नहीं किया जा सकता । न ही मैं उस पर कुछ जोर-जबरदस्ती कर रहा हूं बल्कि सिर्फ तथ्यगत हूं। बाद में जब मैं वापस आया तो यह सब मुझे अपने पिताजी को समझाना पड़ा और इसमें कई दिन लग गए। क्योंकि मेरा और गांधी का संबंध बहुत ही जटिल है। सामान्यत: या तो तुम किसी की तारीफ करते हो या नहीं करते हो। लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं है। और सिर्फ महात्मा गांधी के साथ के साथ ही नहीं। मैं अजीब ही हूं। हर क्षण मुझे यह महसूस होता है। मुझे कोई खास बात किसी कि अच्छी लग सकती है लेकिन उसी समय साथ ही साथ ऐसा कुछ भी हो सकता है जो मुझे बिलकुल पसंद न हो, और तब फिर तय करना होगा। क्योंकि मैं उस व्यक्ति को दो में नहीं बांट सकता। मैंने महात्मा गांधी के विरोध में होना तय किया। ऐसा नहीं कि उनमें ऐसा कुछ न था जो पंसद न था—बहुत कुछ था। परंतु बहुत बातें ऐसी थीं जिनके दूरगामी परिणाम पूरे जगत के लिए अच्छे नहीं थे। इन बातों के कारण मुझे उनका विरोध करना पडा। अगर वे विज्ञान, टेकनालॉजी, प्रगति और संपन्नता के विरूद्ध न होते तो शायद मैं उनको बहुत पंसद करता। वे तो उस सब चीजों के विरोध में थे। मैं पक्ष में हूं—और अधिक टेकनालॉजी, और अधिक विज्ञान, और अधिक संपन्नता के। मैं गरीबी के पक्ष में नहीं हूं, वे थे। मैं पुरानेपन के पक्ष में नहीं हूं वे थे। पर फिर भी, जब भी मुझे थोड़ी सी भी सुंदरता दिखाई देती है। मैं उसकी तारीफ करता हूं। और उनमें कुछ बातें थीं जो समझने योग्य है। उनमें लाखों लोगों की एक साथ नब्ज परखने की अद्भुत क्षमता थी। कोई डाक्टर ऐसा नहीं कर सकता एक आदमी की नब्ज परखना भी अति कठिन है। खासकर मेरे जैसे आदमी की। तुम मेरी नब्ज परखने की कोशिश कर सकते हो। तुम अपनी भी नब्ज खो बैठोगे, या अगर पल्स नहीं तो पर्स खो बैठोगे जो कि बेहतर ही है। गांधी में जनता की पल्स, नब्ज पहचानने की क्षमता थी। निश्चित ही मैं उन लोगों में उत्सुकता नहीं रखता हूं। पर वह अलग बात है। मैं हजारों बातों में उत्सुक नहीं हूं,पर इसका यह अर्थ नहीं कि जो लोग सच्चे दिल से काम में लगे हैं, समझदारी पूर्वक किन्हीं गहराइयों को छू रहे है, उनकी तारीफ न की जाए। गांधी में वह क्षमता थी। और मैं उसकी तारीफ करता हूं। मैं अब उनसे मिलना पसंद करता। क्योंकि जब मैं सिर्फ दस वर्ष का बच्चा था। वे मुझसे सिर्फ वे जे तीन रूपये ले सके। अब मैं उन्हें पूरा स्वर्ग दे सकता था—पर शायद इस जीवन में ऐसा नहीं होना था।

जनवरी 24, 2023

नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गांधी : ओशो

मुझे एक युवक याद आते हैं| उनका नाम सुभाष चंद्र बोस था। वे एक महान क्रांतिकारी बने और मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान है, क्योंकि वे भारत में एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने महात्मा गांधी का विरोध किया; वे देख सकते थे कि यह सब महात्मापन केवल राजनीति है और कुछ नहीं। भारतीय खुद को बहुत धार्मिक मानते हैं। यह सिर्फ एक मान्यता है – कोई भी धार्मिक नहीं है। और महात्मा गांधी देश के बहुसंख्यकों का नेता बनने के लिए एक संत की भूमिका निभा रहे थे। वे सभी जो सोचते थे कि वे धार्मिक हैं, महात्मा गांधी के पक्ष में होने के लिए बाध्य थे।

सिर्फ एक अकेले आदमी, सुभाष ने इसका विरोध किया और तुरंत ही छलावा स्पष्ट हो गया। यह क्या हुआः महात्मा गांधी कहा करते थे, मैं प्रेम और घृणा से परे हूं। मैं क्रोध से, हिंसा से परे हूं।

सुभाष, महात्मा गांधी के साथ सहमत नहीं होने के लिए जाने जाते थे, हालांकि वे एक ही पार्टी में थे। एक ही पार्टी थी जो देश की आजादी के लिए लड़ रही थी, इसलिए सभी स्वतंत्रता प्रेमी पार्टी में थे। और सुभाष कांग्रेस के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए, और तुरंत ही महात्मा गांधी की  कुटिलता प्रकट हो गयी।

एक तरफ वे सिखा रहे थे कि दुश्मन से भी प्यार करना है और फिर देखते ही देखते सुभाष अगर कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए तो उनके दर्शन और नेतृत्व के लिए खतरनाक हो जाएंगे, वे एकदम अलग तरह के आदमी बन गए. सुभाष पाखंड में विश्वास नहीं करते थे, और उनके जीतने की संभावना थी। एकमात्र व्यक्ति जो उन्हें हरा सकता था, वे स्वयं महात्मा गांधी थे, लेकिन यह उन्हें उनकी महान संतता से बहुत नीचे गिरा देता।

तो उन्होंने जो किया वह यह था: उन्होंने एक व्यक्ति विशेष, डॉक्टर पट्टाभि सीतारमैय्या को अपने उम्मीदवार के रूप में समर्थन दिया। और उन्होंने सोचा कि चूंकि वे उसे अपना उम्मीदवार घोषित कर रहे हैं, इसलिए डॉक्टर निश्चित रूप से जीत जाएगा। लेकिन सुभाष से युवा लोगों, युवा रक्त को बहुत प्यार था, और सुभाष चन्द्र की लोकप्रियता के उलट, डॉक्टर पट्टाभि, बिल्कुल अनजान व्यक्ति था। वह महात्मा गांधी का आज्ञाकारी अनुयायी था, इसलिए गांधी जी की सेवा करता था, लेकिन देश उसे  नहीं जानता था।

और सुभाष एक शेर थे: वे लड़े और अविश्वसनीय रूप से जीत गए। गांधी उस सभा में शामिल नहीं हुए जहां सुभाष को अध्यक्ष घोषित किया जाने वाला था। गांधी अपना सारा तत्वज्ञान भूल गये। वास्तव में सुभाष कहीं अधिक महान व्यक्ति सिद्ध हुए। यह देखते हुए कि गांधी कांग्रेस में विभाजन पैदा करने की कोशिश कर रहे थे – जो देश की मुक्ति के लिए आंदोलन को हानि पहुंचाता, – उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, ताकि आंदोलन में एकता रहे। उन्होंने अपने आप को पूर्ण रूप से बलिदान कर दिया; ताकि लड़ाई में न पड़ें, और देश से बाहर चले गए।

उन्होंने शुरू से ही यह ईमानदारी दिखाई। वे इंग्लैंड में शिक्षित थे, बंगाल के एक बहुत अमीर परिवार से ताल्लुक रखते थे, और शीर्ष नौकरशाहों में से एक होने वाले थे| उन्हें ब्रिटेन में भारतीय सिविल सेवा के लिए प्रशिक्षित किया गया था, जैसा कि सभी शीर्ष नौकरशाह थे, जिनमें से अधिकांश अंग्रेज़ थे। बहुत कम ही किसी भारतीय को चुना गया – एक प्रतिशत से अधिक नहीं। वरना किसी भी छोटे बहाने से भारतीयों को रिजेक्ट कर दिया जाता था।

श्री अरबिंदो को अस्वीकार कर दिया गया था, और किस आधार पर? आप विश्वास नहीं करेंगे। अरबिन्दो हर विषय में प्रथम आये थे, वे इस सदी के महान बुद्धिजीवियों में से एक थे| केवल घुड़सवारी में ही वे सफल नहीं हो सके। लेकिन घुड़सवारी का एक शीर्ष अधिकारी होने के साथ क्या संबंध है? यह एक रणनीति थी: वे एक विद्वान थे और वे विश्व प्रसिद्ध हुए, लेकिन उन्हें आई सी एस में अस्वीकार कर दिया गया।

भारतीयों को नकारने के लिए हर हथकंडा आजमाया गया। सुभाष को वे अस्वीकार नहीं कर सके। वे उनकी सभी रणनीतियों पर काबू पाने में सफल रहे, इसलिए ब्रिटेन ने अनिच्छा से सुभाष को आईसीएस के लिए स्वीकार कर लिया। एक बात और रह गई, जो एक औपचारिकता थी: प्रत्येक आईसीएस अधिकारी को गवर्नर-जनरल के समक्ष व्यक्तिगत साक्षात्कार के लिए उपस्थित होना पड़ता था। परीक्षा पास करने के बाद यह सिर्फ एक औपचारिकता थी। सुभाष गवर्नर-जनरल के कार्यालय में दाखिल हुए।

बंगाली हमेशा एक छाता लेकर चलते हैं – कोई नहीं जानता क्यों। बारिश हो या न हो, गर्मी हो या न हो; यह सर्दी हो सकती है और इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन वे इसे लेकर चलेंगे। एक बंगाली के लिए छाता एक नितांत आवश्यकता है। अगर आप किसी को छाता लिए हुए देखते हैं, तो आप समझ सकते हैं: वह बंगाली है। अब वायसराय के दफ्तर में छाता ले जाने की जरूरत नहीं है; कम से कम आपको इसे बाहर छोड़ देना चाहिए। लेकिन बंगाली अपना छाता नहीं छोड़ेंगे।

सुभाष ने अपनी टोपी पहन रखी थी और वे अपना छाता कार्यालय में ले गये। अन्दर कक्ष में घुसते ही वे गवर्नर जनरल की मेज के सामने रखी कुर्सी पर बैठ गए| गवर्नर जनरल बहुत क्रोधित हो गया। उसने कहा, ”युवक, तुम शिष्टाचार नहीं समझते। तुम्हें आई.सी.एस. की परीक्षा में किसने पास किया?”

सुभाष ने कहा, ”कैसा शिष्टाचार?”

गवर्नर-जनरल ने कहा, “आपने अपनी टोपी नहीं उतारी और आपने मुझसे बैठने की अनुमति नहीं मांगी।”

गवर्नर-जनरल को पता नहीं था कि यह कैसा आदमी है। सुभाष ने तुरंत अपना छाता उठाया और गवर्नर-जनरल के गले में फँसा दिया। वे ऑफिस में अकेले थे, इसलिए…. और सुभाष ने गवर्नर-जनरल से कहा,

‘यदि आप शिष्टाचार चाहते हैं, तो आपको भी शिष्टाचार सीखना चाहिए। आप बैठे रहे। मेरे अन्दर आने पर आपको पहले खड़ा होना चाहिए था। मैं एक अतिथि था। आपने अपनी टोपी नहीं उतारी। मुझे अपना हैट क्यों हटाना चाहिए? आपने मुझसे बैठने की अनुमति नहीं मांगी, मैं आपसे अनुमति क्यों मांगूं? आप कौन हो, क्या अपने आप को सोचते हो? ज्यादा से ज्यादा आप मुझे आईसीएस के लिए रिजेक्ट कर सकते हैं, लेकिन मैं इसे आपके हाथों में नहीं छोड़ूंगा। मैं स्वयं ही इस ब्रितानी सेवा में शामिल नहीं होना चाहता।

और गवर्नर-जनरल को लगभग सदमे में छोड़कर वे कार्यालय से बाहर चले आये|

गवर्नर जनरल ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि कोई ऐसा भी कर सकता है!

सत-चित्त-आनंद” (ओशो)

मार्च 24, 2017

सेक्युलरवाद से संवाद – योगेन्द्र यादव

 उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे। उसी घड़ी एक सेक्युलर मित्र से सामना हो गया। चेहरे पर मातम, हताश और चिंता छायी हुई थी। छूटते ही बोले “देश में नंगी साम्प्रदायिकता जीत रही है। ऐसे में आप जैसे लोग भी सेक्युलरवाद की आलोचना करते हैं तो कष्ट होता है।”

मैं हैरान था: “आलोचना तो लगाव से पैदा होती है। अगर आप किसी विचार से जुड़े हैं तो आपका फर्ज़ है कि आप उसके संकट के बारे में ईमानदारी से सोचें। सेक्युलरवाद इस देश का पवित्र सिद्धांत है। जिन्हें इस सिद्धांत में आस्था है उनका धर्म है कि वो सेक्युलरवाद के नाम पर पाखंडी राजनीति का पर्दाफाश करें।”

वो संतुष्ट नहीं थे। कहने लगे “अब जलेबी न बनायें। मुझे सीधे-सीधे बताएं कि योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से आपको डर नहीं लगता?”

मैंने सीधी बात कहने की कोशिश की: ” डर तो नहीं लगता, हाँ दुःख जरूर हुआ। जिसे इस देश में गर्व हो उसे ऐसे किसी नेता के इतनी ऊँची कुर्सी पर बैठने पर शर्म कैसे नहीं आएगी? जिसे योग में सम्यक भाव अपेक्षा हो वो आदित्य नाथ जी योगी कैसे मान सकता है? जो धर्म को कपड़ों में नहीं आत्मा में ढूँढता है वो घृणा के व्यापार को धार्मिक कैसे कह सकता है?”

अब उनके चेहरे पर कुछ आत्मीयता झलकी “तो आप साफ़ कहिये न, कि मोदी, अमित शाह और संघ परिवार देश का बंटाधार करने पर तुले हैं।”

मैं सहमत नहीं था: “सेक्युलरवादी सोचते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दुष्प्रचार, संघ परिवार के घृणा फैलाने के अभियान और भाजपा की राजनीति ने आज सेक्यूलरवाद को संकट में पहुंचा दिया है। लेकिन इतिहास में हारी हुई शक्तियां अपने विरोधियों को दोष देती है। सच यह है कि इस देश में सेक्यूलरवाद स्वयं सेक्यूलरवाद के एकांगी विचार और सेक्यूलरवादियों की कमजोर और पाखंडी राजनीति के कारण संकट में है।”

उनके चेहरे पर असमंजस को देखकर मैंने कुछ विस्तार दिया: “संकट की इस घड़ी में सेक्यूलर राजनीति दिशाहीन है, घबराई हुई है। जनमानस और सड़क पर सांप्रदायिकता का प्रतिरोध करने की बजाय सत्ता के गलियारों में शॉर्टकट ढूंढ़ रही है, भाजपा की हर छोटी-बड़ी हार में अपनी जीत देख रही है। हर मोदी विरोधी को अपना हीरो बनाने को लालायित है। सांप्रदायिक राजनीति अपने नापाक इरादों के लिए संकल्पबद्ध है, इस मायने में सच्ची है। आत्मबल और संकल्प विहीन सेक्यूलर राजनीति अर्धसत्य का सहारा लेने को मजबूर है। सांप्रदायिकता नित नई रणनीति खोज रही है, अपनी जमीन पर अपनी लड़ाई लड़ रही है। सेक्यूलरवाद लकीर का फकीर है, दूसरे की जमीन पर लड़ाई हारने को अभिशप्त है। सांप्रदायिकता आक्रामक है तो सेक्यूलरवाद रक्षात्मक। सांप्रदायिकता सक्रिय है, सेक्यूलरवाद प्रतिक्रिया तक सीमित है। सांप्रदायिकता सड़क पर उतरी हुई है, सेक्यूलरवाद किताबों और सेमिनारों में कैद है। सांप्रदायिकता लोकमत तक पहुंच रही है, सेक्यूलरवाद पढ़े-लिखे अभिजात्य वर्ग के अभिमत में सिमटा हुआ है। हमारे समय की यही विडम्बना है-एक ओर बहुसंख्यकवाद का नंगा नाच है तो दूसरी ओर थके-हारे सेक्यूलरवाद की कवायद।”

अब वो “ऊँची बात कर दी श्रीमान ने” वाली मुद्रा में थे। तय नहीं कर पा रहे थे कि मैं दोस्त हूँ या दुश्मन। इसलिए मैंने इतिहास का सहारा लिया।

“आजादी से पहले सेक्यूलर भारत का सपना राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा था और सभी धर्मों के भीतर सामाजिक सुधार के लिए कटिबद्ध था।

आजादी के बाद से सेक्यूलरवाद इस देश की मिट्टी से कट गया। सेक्यूलरवादियों ने मान लिया कि संविधान में लिखी इबारत से सेक्यूलर भारत स्थापित हो गया। उन्होंने अशोक, अकबर और गांधी की भाषा छोड़कर विदेशी मुहावरा बोलना शुरू किया। सेक्यूलरवाद का सरकारी अनुवाद ‘धर्मनिरपेक्षता’ इसी उधारी सोच का नमूना है। धर्म के संस्थागत स्वरूपों और अलग-अलग पंथ के बीच तटस्थ रहने की नीति धीरे-धीरे धर्म के प्रति निरपेक्षता में बदल गई। सेक्यूलरवाद का अर्थ नास्तिक होना और एक औसत भारतीय की आस्था से विमुख होना बन गया। सेक्यूलरवाद का विचार भारत के जनमानस से कटता गया।”

अब उनसे रहा नहीं गया: “यानि कि आप भी मानते हैं कि सेक्युलरवाद वोट बैंक की राजनीति है?”

“ये कड़वा सच है। आजादी के आंदोलन में सेक्यूलरवाद एक जोखिम से भरा सिद्धांत था। आजादी के बाद सेक्यूलरवाद एक सुविधाजनक राजनीति में बदल गया। चुनावी राजनीति में बैठे-बिठाए अल्पंसख्कों के वोट हासिल करने का नारा बन गया। जैसे-जैसे कांग्रेस की कुर्सी को खतरा बढ़ने लगा, वैसे-वैसे अल्पसंख्यकों के वोट पर कांग्रेस की निर्भरता बढ़ने लगी। अब अल्पसंख्यकों, खासतौर पर मुसलमानों, को वोट बैंक की तरह बांधे रखना कांग्रेस की चुनावी मजबूरी हो गई।”
“तो अब आप ये भी कहेंगे कि मुसलमानों का तुष्टिकरण भी एक कड़वा सच है?” अब उनकी दृष्टि वक्र थी।

” नहीं। तुष्टिकरण मुसलमानों का नहीं, उनके चन्द मुल्लाओं का हुआ। आजादी के बाद मुस्लिम समाज उपेक्षा, पिछड़ेपन और भेदभाव का शिकार था। देश के विभाजन के चलते अचानक नेतृत्वविहीन इस समाज को शिक्षा और रोजगार के अवसरों की जरूरत थी। लेकिन उनकी इस बुनियादी जरूरत को पूरा किए बिना उनके वोट हासिल करने की राजनीति ने सेक्यूलरवाद की चादर ओढ़ना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि सेक्यूलर राजनीति मुसलमानों को बंधक बनाए रखने की राजनीति हो गई-मुसलमानों को खौफज़दा रखो, हिंसा और दंगों का डर दिखाते जाओ और उनके वोट अपनी झोली में बंटोरते जाओ। नतीजतन मुस्लिम राजनीति मुसलमानों के बुनियादी सवालों से हटकर सिर्फ सुरक्षा के सवाल और कुछ धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों (उर्दू, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, शादी-ब्याह के कानून) के इर्द-गिर्द सिमट गई।

जिस खेल को पहले कांग्रेस ने शुरू किया, उसे बाद में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड और लेफ्ट ने भी अपना लिया। डर के मारे मुसलमान सेक्यूलर पार्टियों का बंधक बन गया। मुसलमान पिछड़ते गए और सेक्यूलर राजनीति फलती-फूलती रही। मुस्लिम समाज उपेक्षा और भेदभाव का शिकार बना रहा, लेकिन उनके वोट के ठेकेदारों का विकास होता गया। वोट बैंक की इस घिनौनी राजनीति को सेक्यूलर राजनीति कहा जाने लगा। व्यवहार में सेक्यूलर राजनीति का मतलब हो गया अल्पसंख्यकों के पक्ष में खड़े हुए दिखना। पहले जायज हितों की रक्षा से शुरुआत हुई। धीरे-धीरे जायज-नाजायज हर तरह की तरफदारी को सेक्यूलरवाद कहा जाने लगा। धीरे-धीरे एक औसत हिंदू को लगने लगा कि सेक्यूलरवादी लोग या तो अधर्मी है या विधर्मी। उसकी नजर में सेक्यूलरवाद मुस्लिमपरस्ती या अल्पंसख्कों के तुष्टिकरण का सिद्धांत दिखने लगा। उधर मुसलमानों को लगने लगा कि सेक्यूलर राजनीति उन्हें बंधक बनाए रखने का षड्यंत्र है। इससे तो बेहतर है कि वे खुलकर अपने समुदाय की पार्टी बनाए। इस तरह देश का एक पवित्र सिद्धांत देश का सबसे बड़ा ढकोसला बन गया।”

“यानि आप कह रहे हैं कि हम योगी आदित्यनाथ को धन्यवाद दें कि उनके बहाने हमारी आँखे खुल गयीं ” इतना बोल मेरे जवाब का इंतज़ार किये बिना वे आगे बढ़ गए। मुझे लगा उनके चेहरे पर उतनी हताशा नहीं थी, उनकी चाल में एक फुर्ती थी।

मार्च 23, 2017

भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव : आज का भारतीय उन्हें श्रद्धांजलि देने लायक है भी?

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत पर उनकी शान में आज की तारीख में कसीदे काढने वाली भारतीय जनता में से बहुसंख्यक क्या जीते जागते इन क्रांतिकारियों को आज की परिस्थितियों में स्वीकार भी कर पाते?

भगत सिंह और उनके साथी तो आज भी समाज के सबसे निचले पायदान पर जी रहे वंचित तबके के हितों के लिए संघर्ष कर रहे होते, आदिवासियों के हितों, देश के जंगल, पानी और आकाश और पर्यावरण की रक्षा के लिए अलख जगा रहे होते और निश्चित तौर पर वे जन-शोषक कोर्पोरेट हितों के विरुद्ध खड़े होते, और निश्चित ही किसी भी राजनैतिक दल की सरकार भारत में होती वह उन्हें पसंद नहीं करती|

उन पर तो संभवतः आजाद भारत में भी मुक़दमे ही चलते|

झूठे कसीदों से फिर क्या लाभ, सिवाय फील गुड एहसासात रखने के कि कितने महान लोगों की स्मृति में हम स्टेट्स लिख रहे हैं ?

भगत सिंह एवं उनके साथियों के पक्ष में खड़ा होना आज भी क्रांतिकारी ही है और आधुनिक भारत का बाशिंदा इस बात से मुँह नहीं मोड़ सकता कि अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के वशीभूत होने के कारण किसी भी किस्म के सजग आंदोलन के पक्ष में वह खड़ा हो नहीं सकता|

आज भगत सिंह और उनके साथी होते तो उनके क्रांतिकारी विचारों के कारण, सोशल मीडिया पर ट्रोल्स उन्हें गरिया रहे होते, उनके साथ गाली-गलौज भी हो सकती थी|

ऐसे में भगत सिंह और उनके साथियों को श्रद्धांजलि देने के प्रयास दोहरेपन के सिवाय कुछ भी नहीं हैं| उनके कार्यों की ताब आज की तारीख में न सहने की मानसिकता के कारण उन्हें झूठी श्रद्धांजलि देने के प्रयास २५ साल से कम उम्र में ही देश की खातिर फांसी पर चढ़ जाने वाले इस महावीर और उनके साथियों के बलिदान के प्रति अवमानना ही कहे जायेंगें|

पुनश्चा:

१) डा. राम मनोहर लोहिया का जन्म २३ मार्च को हुआ पर वे इन शहीदों की सहादत की स्मृति में अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे|

२) पंजाब के अनूठे कवि पाश, भगत सिंह और उनके शहीद साथियों के बहुत बड़े प्रशंसक थे, और संयोगवश पंजाब में आतंकवादियों दवारा उनकी ह्त्या भी इसी दिन २३ मार्च १९८८ को हुयी|

 

#BhagatSingh #Sukhdev #Rajguru

 

फ़रवरी 13, 2017

कैसे मुसलमां हो भाई…

नवम्बर 11, 2016

कालाधन – विचारार्थ कुछ पहलू …(के.एन. गोविन्दाचार्य)

500 और 1000 के नोट समाप्त करने से केवल 3% काला धन आ सकता है बाहर !!

प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा 500 और 1000 के नोट समाप्त करने के फैसले से पहले मैं भी अचंभित हुआ और आनंदित भी। पर कुछ समय तक गहराई से सोचने के बाद सारा उत्साह समाप्त हो गया। नोट समाप्त करने और फिर बाजार में नए बड़े नोट लाने से अधिकतम 3% काला धन ही बाहर आ पायेगा, और मोदी जी का दोनों कामों का निर्णय कोई दूरगामी परिणाम नहीं ला पायेगा, केवल एक और चुनावी जुमला बन कर रह जाएगा। नोटों को इसप्रकार समाप्त करना- ‘खोदा पहाड़ ,निकली चुहिया ” सिद्ध होगा। समझने की कोशिश करते हैं।

अर्थशास्त्रियों के अनुसार भारत में 2015 में सकल घरेलु उत्पाद(GDP) के लगभग 20% अर्थव्यवस्था काले बाजार के रूप में विद्यमान थी। वहीँ 2000 के समय वह 40% तक थी, अर्थात धीरे धीरे घटते हुए 20% तक पहुंची है। 2015 में भारत का सकल घरेलु उत्पाद लगभग 150 लाख करोड़ था, अर्थात उसी वर्ष देश में 30 लाख करोड़ रूपये काला धन बना। इस प्रकार अनुमान लगाएं तो 2000 से 2015 के बीच न्यूनतम 400 लाख करोड़ रुपये काला धन बना है।

रिजर्व बैंक के अनुसार मार्च 2016 में 500 और 1000 रुपये के कुल नोटों का कुल मूल्य 12 लाख करोड़ था जो देश में उपलब्ध 1 रूपये से लेकर 1000 तक के नोटों का 86% था। अर्थात अगर मान भी लें कि देश में उपलब्ध सारे 500 और 1000 रुपये के नोट काले धन के रूप में जमा हो चुके थे, जो कि असंभव है, तो भी केवल गत 15 वर्षों में जमा हुए 400 लाख करोड़ रुपये काले धन का वह मात्र 3% होता है!

प्रश्न उठता है कि फिर बाकी काला धन कहाँ है? अर्थशास्त्रियों के अनुसार अधिकांश काले धन से सोना-चांदी, हीरे-जेवरात, जमीन- जायदाद, बेशकीमती पुराण वस्तु ( अंटिक्स)- पेंटिंग्स आदि खरीद कर रखा जाता है, जो नोटों से अधिक सुरक्षित हैं। इसके आलावा काले धन से विदेशों में जमीन-जायदाद खरीदी जाती है और उसे विदेशी बैंकों में जमा किया जाता है। जो काला धन उपरोक्त बातों में बदला जा चूका है, उन पर 500 और 1000 के नोटों को समाप्त करने से कोई फरक नहीं पड़ेगा।

अधिकांश काला धन घूस लेने वाले राजनेताओं-नौकरशाहों, टैक्स चोरी करने बड़े व्यापारियों और अवैध धंधा करने माफियाओं के पास जमा होता है। इनमें से कोई भी वर्षों की काली कमाई को नोटों के रूप में नहीं रखता है, इन्हें काला धन को उपरोक्त वस्तुओं में सुरक्षित रखना आता है या उन्हें सीखाने वाले मिल जाते हैं। इसीप्रकार जो कुछ नोटों के रूप में उन बड़े लोगों के पास होगा भी, उसमें से अधिकांश को ये रसूखदार लोग इधर-उधर करने में सफल हो जाएंगे। 2000 से 2015 में उपजे कुल काले धन 400 लाख करोड़ का केवल 3% है सरकार द्वारा जारी सभी 500 और 1000 के नोटों का मूल्य । अतः मेरा मानना है कि देश में जमा कुल काले धन का अधिकतम 3% ही बाहर आ पायेगा और 1% से भी कम काला धन सरकार के ख़जाने में आ पायेगा वह भी तब जब मान लें कि देश में जारी सभी 500 और 1000 के नोट काले धन के रूप में बदल चुके हैं।
केवल 500 और 1000 के नोटों को समाप्त करने से देश में जमा सारा धन बाहर आ जाएगा ऐसा कहना या दावा करना, लोगों की आँख में धूल झोंकना है। उलटे सरकार के इस निर्णय से सामान्य लोगों को बहुत असुविधा होगी और देश को 500 और 1000 के नोटों को छापने में लगे धन का भी भारी नुकसान होगा वह अलग ।

 (के. एन. गोविंदाचार्य)
अगस्त 30, 2016

‘प. नेहरु’ का पत्र ‘डा. राम मनोहर लोहिया’ के नाम

NehruLohiaसमाजवादी चिन्तक और राजनेता डा. राम मनोहर लोहिया, ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता पाए भारत में, इसके प्रथम प्रधानमंत्री प. जवाहर लाल नेहरु के घनघोर राजनीतिक आलोचक रहे| परन्तु ब्रिटिश राज से आजादी से पूर्व दोनों बड़े नेताओं के मध्य कैसे संबंध थे यह डा. लोहिया को लिखे प. नेहरु के व्यक्तिगत पत्र से पता लगता है|

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अप्रैल 30, 2016

दिल्ली की चुनावी राजनीति में एक नया प्रयोग

‘स्वराज अभियान’ वजीरपुर – वार्ड ६७, में एमसीडी के उपचुनाव में एक नया राजनीतिक प्रयोग करने जा रहा है| इसकी सफलता भारतीय राजनीति में सुधार की ओर एक सार्थक कदम होगी|