काई जम गई इंतज़ार की मुंडेर पे
इस सावन में बरसी आँखें
काई जमी इंतज़ार की मुंडेर पे
रखे हाथ कंपकपाते हैं
सब कुछ छूट जाने को जैसे
पैरों के नीचे से ज़मीन
बहुत गहरी खाई हो गयी
आँखे पता नहीं किसके लिए
आकाश ताकती हैं…
साँसों की आदमरफ्त रोक के
जिसको फुर्सत दी सजदे के लिए
उस खुदा को और बहुत
एक मेरी निगहबानी के सिवा…
मुझे कोई गिला नहीं…
शिकवा कमज़र्फी है…
हाथ कंपकपाते ज़रूर हैं
अभी मगर फिसले नहीं हैं…
दिल की लगी
फ़िक्र बहुत थी हमें दुनिया जहान की
सर पे गिरी छत अपने ही मकान की
दिल से दुआ हो हर एक मेहमान की
अल्लाह इज़्ज़त रखे मेरे मेज़बान की
किसी ने कुत्तों में खोजी वफ़ा की बू
वो समझ गया था फितरत इंसान की
कौन समझा दिल की कतरनों का दर्द
लोग तो कैंचियाँ चला गए ज़बान की
रिश्ते बहुत थे मगर कौन से रिश्ते थे
हमने जिनके वास्ते दुनिया वीरान की
मुस्कानों का बहरूप धरे अपनी काया
असल में बस्ती है जंगल बयाबान की
गुलशन के उजड़ने में किसका है दोष
मौसम का फरेब के भूल बागबान की
दीवाने तो तिरछी चितवन पे मर मिटे
ज़रूरत कहाँ पड़ी प्यारे, तीर-कमान की
सर इबादत से उठे ही कब दीवानों के
सजदों को ज़रूरत कहाँ थी अज़ान की
यूँ तो ज़मीन माटी का गोला है मगर
उठाए फिर रही है बुलंदी आसमान की
हमने कब कहा ये है गज़ल ऐ आलम
है दिल की लगी जो दिल ने बयान की
(रफत आलम)