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मार्च 23, 2017

भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव : आज का भारतीय उन्हें श्रद्धांजलि देने लायक है भी?

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत पर उनकी शान में आज की तारीख में कसीदे काढने वाली भारतीय जनता में से बहुसंख्यक क्या जीते जागते इन क्रांतिकारियों को आज की परिस्थितियों में स्वीकार भी कर पाते?

भगत सिंह और उनके साथी तो आज भी समाज के सबसे निचले पायदान पर जी रहे वंचित तबके के हितों के लिए संघर्ष कर रहे होते, आदिवासियों के हितों, देश के जंगल, पानी और आकाश और पर्यावरण की रक्षा के लिए अलख जगा रहे होते और निश्चित तौर पर वे जन-शोषक कोर्पोरेट हितों के विरुद्ध खड़े होते, और निश्चित ही किसी भी राजनैतिक दल की सरकार भारत में होती वह उन्हें पसंद नहीं करती|

उन पर तो संभवतः आजाद भारत में भी मुक़दमे ही चलते|

झूठे कसीदों से फिर क्या लाभ, सिवाय फील गुड एहसासात रखने के कि कितने महान लोगों की स्मृति में हम स्टेट्स लिख रहे हैं ?

भगत सिंह एवं उनके साथियों के पक्ष में खड़ा होना आज भी क्रांतिकारी ही है और आधुनिक भारत का बाशिंदा इस बात से मुँह नहीं मोड़ सकता कि अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के वशीभूत होने के कारण किसी भी किस्म के सजग आंदोलन के पक्ष में वह खड़ा हो नहीं सकता|

आज भगत सिंह और उनके साथी होते तो उनके क्रांतिकारी विचारों के कारण, सोशल मीडिया पर ट्रोल्स उन्हें गरिया रहे होते, उनके साथ गाली-गलौज भी हो सकती थी|

ऐसे में भगत सिंह और उनके साथियों को श्रद्धांजलि देने के प्रयास दोहरेपन के सिवाय कुछ भी नहीं हैं| उनके कार्यों की ताब आज की तारीख में न सहने की मानसिकता के कारण उन्हें झूठी श्रद्धांजलि देने के प्रयास २५ साल से कम उम्र में ही देश की खातिर फांसी पर चढ़ जाने वाले इस महावीर और उनके साथियों के बलिदान के प्रति अवमानना ही कहे जायेंगें|

पुनश्चा:

१) डा. राम मनोहर लोहिया का जन्म २३ मार्च को हुआ पर वे इन शहीदों की सहादत की स्मृति में अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे|

२) पंजाब के अनूठे कवि पाश, भगत सिंह और उनके शहीद साथियों के बहुत बड़े प्रशंसक थे, और संयोगवश पंजाब में आतंकवादियों दवारा उनकी ह्त्या भी इसी दिन २३ मार्च १९८८ को हुयी|

 

#BhagatSingh #Sukhdev #Rajguru

 

फ़रवरी 28, 2017

जंग न होने देंगें …अटल बिहारी बाजपेयी

gurmehar विश्व शांति के हम साधक हैं,
जंग न होने देंगे!
कभी न खेतों में फिर खूनी खाद फलेगी,
खलिहानों में नहीं मौत की फसल खिलेगी,
आसमान फिर कभी न अंगारे उगलेगा,
एटम से नागासाकी फिर नहीं जलेगी,
युद्धविहीन विश्व का सपना भंग न होने देंगे।
जंग न होने देंगे।
हथियारों के ढेरों पर जिनका है डेरा,
मुँह में शांति,
बगल में बम,
धोखे का फेरा,
कफन बेचने वालों से कह दो चिल्लाकर,
दुनिया जान गई है उनका असली चेहरा,
कामयाब हो उनकी चालें,
ढंग न होने देंगे।
जंग न होने देंगे।
हमें चाहिए शांति,
जिंदगी हमको प्यारी,
हमें चाहिए शांति, सृजन की है तैयारी,
हमने छेड़ी जंग भूख से, बीमारी से,
आगे आकर हाथ बटाए दुनिया सारी।
हरी-भरी धरती को खूनी रंग न लेने देंगे जंग न होने देंगे।
भारत-पाकिस्तान पड़ोसी, साथ-साथ रहना है,
प्यार करें या वार करें, दोनों को ही सहना है,
तीन बार लड़ चुके लड़ाई,
कितना महँगा सौदा,
रूसी बम हो या अमेरिकी,
खून एक बहना है।
जो हम पर गुजरी,
बच्चों के संग न होने देंगे।
जंग न होने देंगे।
(अटल बिहारी बाजपेयी)

सितम्बर 17, 2016

एक अभिनेता की डायरी का पन्ना

तकरीबन  19 बरस की उम्र रही होगी जब मेरी शादी 17 बरस की मेहरुन्निमा के संग हुयी| आजादी के पूर्व के भारत में बड़े होते हुए मैं ब्रितानी संस्कृति से बहुत प्रभावित हो चला था| मैंने बढ़िया तरीके से अंग्रेजी बोलने में पारंगत हासिल कर ली थी, मैंने अंग्रेजी स्टाइल में नफीस सूट पहनने का शौक पाल लिया था, मैंने अंग्रेजों के आकर्षक तौर-तरीके कायदे से समझ कर जीवन में उतार लिए थे| लेकिन मेहरुन्निमा मुझसे एकदम उलट थी – वह एक बिल्कुल घरेलू किस्म की महिला थी| मेरी तमाम सलाहें और चेतावनियाँ उस पर बेअसर रहीं और उसकी मूलभूत प्रकृति में कोई सुधार न आया| वह एक आज्ञाकारी पत्नी थी, बच्चों से स्नेह करने वाली एक बहुत अच्छी माँ थी, और कुल मिलाकर कुशल गृहणी थी| लेकिन मैं तो ऐसी पत्नी नहीं चाहता था|

जितना ही मैं उसे बदलने का प्रयास करता उतनी ही दूरी हम दोनों के मध्य बढ़ती जाती| धीरे धीरे एक खुशनुमा लड़की से वह आत्मविश्वास से रहित खामोश स्त्री में परिवर्तित हो गई| इस बीच मैं अपने साथ काम करने वाली एक अभिनेत्री के प्रति आकर्षित हो गया| वह बिल्कुल वैसी थी जैसी स्त्री को मैं अपनी पत्नी के रूप में देखना चाहता था| विवाह के दस साल बाद मैंने मेहरुन्निमा को तलाक दे दिया और उसे, अपने बच्चों और अपने घर को छोड़कर मैंने अपनी अभिनेत्री साथी के संग शादी कर ली| मेहरुन्निमा और अपने बच्चों की आर्थिक सुरक्षा का इंतजाम मैंने कर दिया था|

6-7 महीनों तक सब सही चला| उसके बाद मुझे एहसास होने लगा कि मेरी दूसरी पत्नी में न तो देखभाल कर सकने की क्षमता थी न ही उसे अपने से इतर किसी से स्नेह था| उसे केवल अपनी खूबसूरती, महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं और जरूरतों से मतलब था| कभी कभी मुझे मेहरुन्निमा के लगाव भरे स्पर्श और सदा मेरी और बच्चों की भलाई के लिए उसका प्रयासरत रहना याद आता था| 

जीवन आगे बढ़ता गया| मैं और मेरी दूसरी पत्नी एक मकान में रह रहे थे जहां न जीवंत इंसानों का कोई वजूद था और न ही घर होने का कोई लक्षण| मैंने जीवन में पीछे मुड कर देखा भी नहीं कि मेहरुन्निमा और बच्चे किस हाल में रह रहे थे?


दूसरे विवाह के तकरीबन 6-7 सालों के बाद अचानक एक दिन मैंने एक लेख पढ़ा जो किसी जो कि एक प्रसिद्धि पाती हुयी महिला शैफ के बारे में था, जिसने हाल ही में अपनी व्यंजन विधियों पर किताब लिखी थी| जैसे ही मेरी निगाह, आकर्षक, खूबसूरत, आत्मा विश्वास से लबरेज और गरिमामयी दिखाई देती लेखिका के  फोटो पर पड़ी, मैं स्तब्ध रह गया| मुझे बहुत बड़ा झटका लगा| यह तो मेहरुन्निमा थी! लेकिन यह प्रसिद्द शैफ कैसे मेहरुन्निमा हो सकती थी?

बहरहाल उसके बारे में पता लगाने से मुझे मालूम हुआ कि उसने न केवल दुबारा विवाह कर लिया था बल्कि अपना नाम भी बदल लिया था|

मैं उस वक्त विदेश में फिल्म की शूटिंग में व्यस्त था| मेहरुन्निमा अमेरिका में रहने लगी थी| मैंने अमेरिका जाने के लिए फ्लाईट पकड़ी और मेहरुन्निमा के निवास स्थान आदि का विवरण जुटाकर उससे मिलने उसके घर पहुँच गया| मेहरुन्निमा ने मुझसे मिलने से इंकार कर दिया| मेरे बच्चों, मेरी बेटी 14 साल की हो चुकी थी, और बेटा 12 का, ने मेहरुन्निमा से कहा कि वे एक अंतिम बार मुझसे मिलना और बात करना चाहते हैं|मेहरुन्निमा का वर्त्तमान पति उनकी बगल में बैठा था, वही अब मेरे बच्चों का कानूनी रूप से पिता था|

आज तक भी मैं वह सब नहीं भुला पाता जो मेरे बच्चों ने मुझसे कहा!


उन्होंने कहा – कि उनके नये पिता को सच्चे प्रेम का अर्थ पता है| उसने मेहरुन्निमा को उसके प्राकृतिक रूप में स्वीकार किया और कभी भी उसे अपने जैसा या उसके मूल स्वभाव से अलग स्वभाव का इंसान बनाने का प्रयास नहीं किया, क्योंकि उसने स्वंय से ज्यादा मेहरुन्निमा से प्रेम किया|  उसने मेहरुन्निमा को सहजता से और उसके अपने तरीके से उसकी अपनी गति से निखरने, खिलने और संवरने का भरपूर मौक़ा दिया और कभी भी उस पर अपनी इच्छा नहीं लादी| उसने मेहरुन्निमा को बिल्कुल उसी रूप में स्वीकार किया और उसे सम्मान दिया जैसी की वह थी| अपने दूसरे पति के निश्छल प्रेम, स्वीकार और बढ़ावा देने से मेहरुन्निमा एक गरीमामयी, स्नेहमयी और भरपूर आत्मविश्वास से भरी हुयी स्त्री के रूप में खिल गई थी|


जबकि मेरे साथ रहने के दौर में मेरे दवारा उस पर अपनी इच्छाएं लादने से, उसके प्राकृतिक स्वभाव और विकास पर हमेशा उंगली उठाने से और मेरी स्वहित देखने की प्रवृत्ति के कारण वह बुझ गई थी और इस सबके बावजूद भी मैंने ही उसे छोड़ दिया था|
शायद मैंने उसे कभी प्रेम किया ही नहीं, मैं तो स्वयं से ही प्रेम करता रहा|

अपने ही प्रेम में घिरे लोग दूसरों से कभी प्रेम नहीं कर पाते!


(अभिनय से जीवन जीता एक अभिनेता) 

सितम्बर 17, 2016

मकबूल फ़िदा हुसेन : चित्रकार का कवि बनना

MF Hussain

विश्व प्रसिद्द भारतीय चित्रकार, दिवंगत मकबूल फ़िदा हुसेन के जन्मदिवस – 17 सितम्बर के अवसर पर उनकी रची एक कविता प्रस्तुत है –

मुझे बर्फ से लिपटा आकाश भेजना
जिस पर कोई धब्बा न हो
मैं सफेद शब्दों से उस पर उभारों से भरे चित्र बनाऊँगा
तुम्हारी असीम पीड़ा के
जिस समय मैं चित्र बनाऊँ
तुम आकाश को
हाथों में थामे रखना
क्योंकि अपने कैनवास का तनाव
मेरे लिये अपरिचित है।

(मकबूल फ़िदा हुसेन)

नीचे प्रस्तुत है फिल्म्स डिवीजन दवारा एम. एफ. हुसेन पर बनवाया गया वृतचित्र (Documentary)

सितम्बर 5, 2016

शिक्षक हो तो ऐसा!

Teacher@UPयह घटना उत्तर प्रदेश के रामपुर के शाहबाद स्थित रामपुरा गांव के एक प्राइमरी स्कूल मास्टर ने अपने छात्रों में शिक्षा की ऐसी अलख जगाई कि मिसाल कायम कर दी और मौजूदा दौर में एक अनूठी कहानी रच दी| एक ऐसे वक्त में जब प्राथमिक शिक्षा का स्तर न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश में बुरी स्थिति में हैं और शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बावजूद लाखों करोड़ों बच्चे प्राथमिक स्तर की स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते हैं और जहां प्राथमिक शिक्षा में सुविधाओं का बेहद अकाल है, यह घटना बहुत ज्यादा महत्व की बन जाती है| प्राथमिक शिक्षा से जुड़े हर भारतीय को इस घटना के बारे में जानना चाहिए और सम्बंधित संस्थाओं एवं सरकारों को ऐसे आदर्श शिक्षक को पुरस्कृत करना चाहिए जिसने शिक्षा का ज्ञान से संबंध अपने उच्चतम आदर्श रूप में कायम रखा है|

रामपुरा के स्कूल में जब अध्यापक मुनीश  कुमार की तैनाती बतौर प्राथमिक शिक्षक हुई तो उस  इलाके में बहुत से बच्चे स्कूल नहीं आते थे| ऐसे बच्चों के माँ-बाप के लिए उनके बच्चे उनके कामकाज में हाथ बंटाने वाले जीव थे| जितने ज्यादा हाथ उतनी ज्यादा घर की कमाई!

मुनीश कुमार ने गांव में घर-घर जाकर लोगों से सम्पर्क किया| उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ी पर धीरे धीरे मुनीश की मेहनत रंग लाई और सभी ग्रामीण  अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे|
स्कूल में विधार्थी लाने के बाद मुनीश कमरतोड मेहनत करके दिन रात एक करके अपने स्कूल के बच्चों को शिक्षित बनाने के काम में जुट गये|

मुनीश का तबादला हुआ तो स्थानीय लोगों को ऐसा लगा मानों उनके बच्चों से उनका अध्यापक और गाइड और उनसे दूर जा रहे हों|

मुनीश  अपने पीछे ज्ञान की ऐसी ज्योति जलती छोड़ गये जो उस इलाके से अज्ञानता के अँधेरे को बहुत सालों तक रोशन करती रहेगी|शिक्षक हो तो ऐसा!

अगस्त 9, 2016

रूरल डेवेलपमेंट … (महात्मा गाँधी)

“भारत गाँवों में बसता है, अगर गाँव नष्ट होते हैं तो भारत भी नष्ट हो जायेगा|

इंसान का जन्म जंगल में रहने के लिए नहीं हुआ बल्कि समाज में रहने के लिए हुआ है|

एक आदर्श समाज की आधारभूत ईकाई के रूप में हम एक ऐसे गाँव की कल्पना कर सकते हैं जो कि अपने आप में तो स्व-निर्भरता से परिपूर्ण हो, पर जहां लोग पारस्परिक निर्भरता की डोर से बंधे हुए हों| इस तरह का विचार पूरे संसार में फैले मानवों के बीच एक संबंध कायम करने की तस्वीर प्रस्तुत करता है|

ऐसा कुछ भी शहरों को उत्पादित करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए जो कि हमारे गाँव उत्पादित कर सकते हों|

स्वतंत्रता बिल्कुल नीचे के पायदान से आरम्भ होनी चाहिए|

और इसीलिए हरेक गाँव को स्व:निर्भर होना ही चाहिए और इसके पास अपने सभी मामले स्वंय ही सुलझाने की क्षमता होनी चाहिए|

गांवों की ओर लौटना ही एकमात्र रास्ता दिखाई देता है|

मेरा आदर्श गाँव मेरी कल्पना में वास करता है|

एक ग्रामीण को ऐसे जीवन व्यतीत नहीं करना चाहिए जैसे किसी मलिन अँधेरे कमरे में कोई जानवर रहता है|

मेरे आदर्श गाँव में मलेरिया, हैजा और चेचक जैसी बीमारियों के लिए कोई जगह नहीं होगी| वहाँ कोई भी सुस्ती, काहिली से घिरा और ऐश्वर्य भोगने वाला जीवन नहीं जियेगा|

मेरा स्पष्ट विचार है कि यदि भारत को सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त करनी है और भारत के माध्यम से पूरे संसार को सच्ची स्वतंत्रता का स्वाद चखना है तो हमें गाँवों में झोंपडों में ही रहना होगा न कि महलों में|

गाँव की पंचायत स्थानीय सरकार चलाएगी| और इनके पास पूर्ण अधिकार होंगे| पंचायत के पास जितने ज्यादा अधिकार होंगे उतना लोगों के लिए अच्छा होगा|

पंचायतों का दायित्व होगा कि वे ईमानदारी कायम करें और उधोगों की स्थापना करें|

पंचायत का कर्तव्य होगा कि वह ग्रामीणों को सिखाये कि वे विवादों से दूर रहें और उन्हें स्थानीय स्तर पर ही सुलझा लें|

यदि हमने सच्चे रूप में पंचायती राज की स्थापना कर दी तो हम देखेंगें कि एक सच्चा लोकतंत्र स्थापित होगा और जहां पर कि सबसे नीची पायदान पर खड़ा भारतीय भी ऊँचे स्थानों पर बैठे शासकों के समां बर्ताव और अधिकार पायेगा|

मेरे आदर्श गाँव में परम्परागत तरीके से स्वच्छता के ऊँचे मानदंड स्थापित होंगे जहां मानव और पशु जनित कुछ भी ऐसी सामग्री व्यर्थ नहीं फेंकी जायेगी जो कि वातावरण को गंदा करे|

पांच मील के घेरे के अंतर्गत उपलब्ध सामग्री से ही ऐसे घर बनाए जायेंगें जो कि प्राकृतिक रूप से ही हवा और रोशनी से भरपूर हों| इन घरों के प्रांगणों में इतनी जगह होगी कि ग्रामीण वहाँ अपने उपयोग के लिए सब्जियां उगा सकें और अपने पशु रख सकें|

गावों की गालियाँ साफ़ सुथरी और धूल से मुक्त होंगी|  हर गाँव में पर्याप्त मात्रा में कुंएं होंगे जिन तक हर गांववासी की पहुँच होगी|

सभी ग्रामीण बिना किसी भेदभाव और भय के पूजा अर्चना कर सकें ऐसे पूजा स्थल होंगें| सभी लोगों के उठने बैठने के लिए एक सार्वजनिक स्थान होगा| पशुओं के चारा चरने के लिए मैदान होंगे| सहकारी डेरी होगी| प्राथमिक और सेकेंडरी स्कूल होंगे जहां व्यावहारिक क्राफ्ट्स और ग्राम-उधोगों की पढ़ाई मुख्य होगी| गाँव की अपनी एक पंचायत होगी जो इसके सभी मामले सुलझाएगी| हरेक गानव अपने उपयोग के लिए दूध, अनाज, सब्जियों, फलों और खाड़ी एवं सूती वस्त्रों का उत्पादन करेगा|

सबको इस बात में गर्व महसूस करना चाहिए कि वे कहीं भी और कभी भी उन उपलध वस्तुओं का प्रयोग करते है जो गाँवों में निर्मित की गयी हैं| अगर ठीक ढंग से प्रबंधन किया जाए तो गाँव हमारी जरुरत की सभी वस्तुएं हमें बना कर दे सकते हैं| अगर हम एक बार गानव को अपने दिल और दिमाग में स्थान दे देंगें तो हम पश्चिम का अंधा अनुकरण नहीं करेंगें और मशीनी औधोगीकरण की ओर अंधे बन कर नहीं भागेंगें|”

 

मार्च 16, 2016

जावेद अख्तर : राज्यसभा में विदाई भाषण !

मशहूर पटकथा एवं संवाद लेखक और गीतकार जावेद अख्तर शब्दों के ही नहीं वरन विचारों और हाजिरजवाबी के भी धनी हैं, उनकी बातें रोचक और सही समय पर मुँह से निकलती हैं और इसलिए सुनने वालों को आकर्षित करती हैं| बोलने में मिले अवसर का लाभ बहुत लोग नहीं उठा पाते. जावेद अख्तर अक्सर ही ऐसे अवसरों को हाथ से नहीं जाने देते जब वे वह कह सकते हैं जो वे कहना चाहते हैं और जो सही भी है|

छह साल राज्यसभा के सदस्य रहने के बाद  उच्च सदन से अपनी विदाई के अवसर पर उन्होंने वे बातें बोलीं जो वर्तमान के भारत के लिए बेहद महतवपूर्ण हैं और उन्होंने लगभग वे सभी चेतावनियाँ अपने भाषण में कहीं जिनसे भारत को सचेत रहने की जरुरत है| जावेद अख्तर ने राज्यसभा में अपने अंतिम भाषण में न केवल एक सांसद बल्कि एक नागरिक के कर्तव्यों का निर्वाह किया| ऐसे सचेत और प्रासंगिक भाषण के लिए जावेद अख्तर साधुवाद के पात्र हैं|

मार्च 13, 2016

Zero न होता तो ! भारत का शून्य एवं अन्य अंकों से रिश्ता

भारत और शून्य के मध्य संबंध के बारे में ऑक्सफोर्ड विश्वविधालय के विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ Marcus De Sutoy का कथन –


Being in India, I need to ask you, how important is zero to mathematics?
I think that’s a wonderful act of the imagination, and a really key moment. Whenever new numbers are admitted into the canon, it is a very exciting moment. It seems so obvious to us, now of course! First of all, it facilitates computation – in that sense you were not the first to come up with the zero. The Babylonians had a mark for zero, the Greeks and the Romans didn’t get it, but the Mayans had a symbol for zero, but what you had was your abstract idea of creating something to denote nothingness. The Indians were also the first to come up with the idea of negative numbers. I made a programme for BBC, about the history of mathematics called The Story of Maths and we came to India and explored the development of Brahmagupta’s negative numbers. It is interesting that it is all related to a more philosophical view of the world. In Europe, I think they were frightened of nothing or the void. But in the Indian cultural landscape, it was very acceptable to talk about the zero, to talk about the infinite… in 13th century Florence, the use of zero was banned, it was illegal!

मार्च 6, 2016

विद्यार्थी और राजनीति : भगत सिंह

bhagat2इस बात का बड़ा भारी शोर सुना जा रहा है कि पढ़ने वाले नौजवान(विद्यार्थी) राजनीतिक या पोलिटिकल कामों में हिस्सा न लें। पंजाब सरकार की राय बिल्कुल ही न्यारी है। विद्यार्थी से कालेज में दाखिल होने से पहले इस आशय की शर्त पर हस्ताक्षर करवाये जाते हैं कि वे पोलिटिकल कामों में हिस्सा नहीं लेंगे। आगे हमारा दुर्भाग्य कि लोगों की ओर से चुना हुआ मनोहर, जो अब शिक्षा-मन्त्री है, स्कूलों-कालेजों के नाम एक सर्कुलर या परिपत्र भेजता है कि कोई पढ़ने या पढ़ानेवाला पालिटिक्स में हिस्सा न ले। कुछ दिन हुए जब लाहौर में स्टूडेंट्स यूनियन या विद्यार्थी सभा की ओर से विद्यार्थी-सप्ताह मनाया जा रहा था। वहाँ भी सर अब्दुल कादर और प्रोफसर ईश्वरचन्द्र नन्दा ने इस बात पर जोर दिया कि विद्यार्थियों को पोलटिक्स में हिस्सा नहीं लेना चाहिए।

पंजाब को राजनीतिक जीवन में सबसे पिछड़ा हुआ(Politically backward) कहा जाता है। इसका क्या कारण है?क्या पंजाब ने बलिदान कम किये हैं? क्या पंजाब ने मुसीबतें कम झेली है? फिर क्या कारण है कि हम इस मैदान में सबसे पीछे है?इसका कारण स्पष्ट है कि हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी लोग बिल्कुल ही बुद्धू हैं। आज पंजाब कौंसिल की कार्रवाई पढ़कर इस बात का अच्छी तरह पता चलता है कि इसका कारण यह है कि हमारी शिक्षा निकम्मी होती है और फिजूल होती है, और विद्यार्थी-युवा-जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता। उन्हें इस सम्बन्ध में कोई भी ज्ञान नहीं होता। जब वे पढ़कर निकलते है तब उनमें से कुछ ही आगे पढ़ते हैं, लेकिन वे ऐसी कच्ची-कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफसोस कर बैठ जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता। जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक्ल के अन्धे बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं?यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाये। ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्या है? कुछ ज्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं- “काका तुम पोलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो जरूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो। तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमन्द साबित होगे।”

बात बड़ी सुन्दर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं,क्योंकि यह भी सिर्फ ऊपरी बात है। इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक दिन विद्यार्थी एक पुस्तक ‘’‘Appeal to the young, ‘Prince Kropotkin’ (‘नौजवानों के नाम अपील’, प्रिंस क्रोपोटकिन) पढ़ रहा था। एक प्रोफेसर साहब कहने लगे, यह कौन-सी पुस्तक है? और यह तो किसी बंगाली का नाम जान पड़ता है! लड़का बोल पड़ा- प्रिंस क्रोपोटकिन का नाम बड़ा प्रसिद्ध है। वे अर्थशास्त्र के विद्वान थे। इस नाम से परिचित होना प्रत्येक प्रोफेसर के लिए बड़ा जरूरी था। प्रोफेसर की ‘योग्यता’ पर लड़का हँस भी पड़ा। और उसने फिर कहा- ये रूसी सज्जन थे। बस! ‘रूसी!’ कहर टूट पड़ा! प्रोफेसर ने कहा कि “तुम बोल्शेविक हो, क्योंकि तुम पोलिटिकल पुस्तकें पढ़ते हो।”

देखिए आप प्रोफेसर की योग्यता! अब उन बेचारे विद्यार्थियों को उनसे क्या सीखना है? ऐसी स्थिति में वे नौजवान क्या सीख सकते है?

दूसरी बात यह है कि व्यावहारिक राजनीति क्या होती है? महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यावहारिक राजनीति, पर कमीशन या वाइसराय का स्वागत करना क्या हुआ? क्या वो पलिटिक्स का दूसरा पहलू नहीं? सरकारों और देशों के प्रबन्ध से सम्बन्धित कोई भी बात पोलिटिक्स के मैदान में ही गिनी जायेगी,तो फिर यह भी पोलिटिक्स हुई कि नहीं? कहा जायेगा कि इससे सरकार खुश होती है और दूसरी से नाराज? फिर सवाल तो सरकार की खुशी या नाराजगी का हुआ। क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही खुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए? हम तो समझते हैं कि जब तक हिन्दुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफादारी करनेवाले वफादार नहीं, बल्कि गद्दार हैं, इन्सान नहीं, पशु हैं, पेट के गुलाम हैं। तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफादारी का पाठ पढ़ें।

सभी मानते हैं कि हिन्दुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की जरूरत हैं, जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी के लिए न्योछावर कर दें। लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फँसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फँसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो। सिर्फ गणित और ज्योग्राफी का ही परीक्षा के पर्चों के लिए घोंटा न लगाया हो।

क्या इंग्लैण्ड के सभी विद्यार्थियों का कालेज छोड़कर जर्मनी के खिलाफ लड़ने के लिए निकल पड़ना पोलिटिक्स नहीं थी? तब हमारे उपदेशक कहाँ थे जो उनसे कहते- जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो। आज नेशनल कालेज, अहमदाबाद के जो लड़के सत्याग्रह के बारदोली वालों की सहायता कर रहे हैं, क्या वे ऐसे ही मूर्ख रह जायेंगे? देखते हैं उनकी तुलना में पंजाब का विश्वविद्यालय कितने योग्य आदमी पैदा करता है? सभी देशों को आजाद करवाने वाले वहाँ के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं। क्या हिन्दुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पायेंगे? नवजवानों 1919 में विद्यार्थियों पर किये गए अत्याचार भूल नहीं सकते। वे यह भी समझते हैं कि उन्हें क्रान्ति की जरूरत है। वे पढ़ें। जरूर पढ़े! साथ ही पालिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें। अपने प्राणों को इसी में उत्सर्ग कर दें। वरना बचने का कोई उपाय नजर नहीं आता।

[भगत सिंह]

किरती, 1928

अक्टूबर 19, 2015

सेक्युलरिज्म : भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा पाखण्ड (योगन्द्र यादव)

YY1सेक्युलरवाद हमारे देश का सबसे बड़ा सिद्धांत है। सेकुलरवाद हमारे देश की राजनीति का सबसे बड़ा पाखण्ड भी है। सेकुलरवाद अग्निपरीक्षा से गुज़र रहा है।

सेक्युलर राजनीति की दुर्दशा देखनी हो तो बिहार आईये। यहाँ तमाम नैतिक, राजनैतिक, जातीय और संयोग के चलते भाजपा की विरोधी सभी ताकतें सेकुलरवाद की चादर ओढ़ कर चुनाव लड़ रही हैं। उधर लोकसभा चुनाव जीतकर अहंकार में चूर भाजपा और उसके बौने सहयोगी सेक्युलर भारत की जड़ खोदने में लगे हैं। एक तरफ बहुसंख्यकवाद का नंगा नाच है, दूसरी तरफ थके हारे सेकुलरवादियों की कवायद।
सेकुलरवाद कोई नया सिद्धांत नहीं है। सर्वधर्म समभाव इस देश की बुनियाद में है। यह शब्द भले ही नया हो, लेकिन जिसे हमारा संविधान सेक्युलर कहता है, उसकी इबारत सम्राट अशोक के खम्बों पर पढ़ी जा सकती है। पाषान्डो, यानी मतभिन्नता रखने वाले समुदायों के प्रति सहिष्णुता की नीति हमारे सेकुलरवाद की बुनियाद है। इस नीति की बुनियाद सम्राट अकबर के सर्वधर्म समभाव में है। इसकी बुनियाद आजादी के आन्दोलन के संघर्ष में है। इसकी बुनियाद एक सनातनी हिन्दू, महात्मा गाँधी, के बलिदान में है। हमारे संविधान का सेकुलरवाद कोई विदेश से इम्पोर्टेड माल नहीं है। जब संविधान किसी एक धर्म को राजधर्म बनाने से इनकार करता है और सभी धर्मावलम्बियों को अपने धर्म, अपने मत को मानने और उसका प्रचार-प्रसार करने की पूरी आजादी देता है, तो वह हमारे देश की मिट्टी में रचे बसे इस विचार को मान्यता देता है।

लेकिन पिछले ६५ साल में सेकुलरवाद इस देश की मिट्टी की भाषा छोड़कर अंग्रेजी बोलने लग गया। सेकुलरवादियों ने मान लिया कि संविधान में लिखी गयी गारंटी से देश में सेकुलरवाद स्थापित हो गया। उन्होंने अशोक, अकबर और गाँधी की भाषा छोड़कर विदेशी भाषा बोलनी शुरू कर दी। कानून, कचहरी और राज्य सत्ता के सहारे सेकुलरवाद का डंडा चलाने की कोशिश की। धीरे धीरे देश की औसत नागरिकों के दिलो दिमाग को सेक्युलर बनाने की ज़िम्मेदारी से बेखबर हो गए। उधर सेकुलरवाद की जड़ खोदने वालों ने परंपरा, आस्था और कर्म की भाषा पर कब्ज़ा कर लिया। इस लापरवाही के चलते धीरे धीरे बहुसंख्यक समाज के एक तबके को महसूस होने लगा कि हो न हो, इस सेकुलरवाद में कुछ गड़बड़ है। उन्हें इसमें अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की बू आने लगी। इस देश के सबसे पवित्र सिद्धांत में देश के आम जन की आस्था घटने लगी।
बहुसंख्यक समाज के मन को जोड़ने में नाकाम सेक्यूलर राजनीति अल्पसंख्यकों की जोड़ तोड़ में लग गयी। व्यवहार में सेक्युलर राजनीति का मतलब हो गया अल्पसंख्यक समाज, खासतौर पर मुस्लिम समाज, के हितों की रक्षा। पहले जायज़ हितों की रक्षा से शुरुआत हुई, धीरे धीरे जायज़ नाजायज़ हर तरह की तरफदारी को सेकुलरवाद कहा जाने लगा। इधर मुस्लिम समाज उपेक्षा का शिकार था, पिछड़ा हुआ था, और सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक दृष्टि से भेदभाव झेल रहा था, उधर सेक्युलर राजनीति फल फूल रही थी। नतीजा यह हुआ कि सेक्युलर राजनीति मुसलमानों को बंधक बनाने की राजनीति हो गयी। मुसलामानों को डराए रखो, हिंसा और दंगों का डर दिखाते जाओ और उनके वोट लेते जाओ। मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज को न शिक्षा, न रोज़गार, न बेहतर मोहल्लों में मकान। बस मुस्लिम राजनीति केवल कुछ धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों के इर्द-गिर्द घूमती रहे, और औसत मुसलमान डर के मारे सेक्युलर पार्टियों को वोट देता रहे – यह ढकोसला देश में सेकुलरवाद कहलाने लगा।

सेक्युलर वाद के सिद्धांत और वोट बैंक की राजनीति के बीच की खाई का भांडा फूटना ही था। बहुसंख्यक समाज सोचता था कि सेकुलरवाद उसे दबाने और अल्पसंख्यक समाज के तुष्टिकरण का औज़ार है। अल्पसंख्यक समाज समझता कि सेकुलरवाद उन्हें बंधक बनाए रखने का षड़यंत्र है। यह खाई सबसे पहले अयोध्या आन्दोलन में दिखाई दी, जिसकी परिणीती बाबरी मस्जिद के ध्वंस में हुई। २००२ गुजरात के नरसंहार में सेकुलरवाद फिर हारा। इस राजनैतिक प्रक्रिया की परिणीती २०१४ चुनाव में हुई।

आज सेक्युलर राजनीति थकी हारी और घबराई हुई है। नरेन्द्र मोदी की अभूतपूर्व विजय और उसके बाद से देश भर में सांप्रदायिक राजनीति के सिर उठाने से घबराई हुई है। पिछले २५ साल में छोटे बड़े लड़ाई हार कर आज मन से हारी हुई है। देश के सामान्य जन को सेक्युलर विचार से दुबारा जोड़ने की बड़ी चुनौती का सामना करने से पहले ही थकी हुई है। इसलिए आज सेक्युलर राजनीति शॉर्ट-कट हो गयी है, किसी जादू की तलाश में है, किसी भी तिकड़म का सहारा लेने को मजबूर है।

बिहार का चुनाव किसी थकी हारी घबराई सेक्युलर राजनीति का नमूना है। जब सेक्युलर राजनीति जन चेतना बनाने में असमर्थ हो जाती है, जब उसे लोकमानस का भरोसा नहीं रहता, तब वो किसी भी तरह से भाजपा को हराने का नारा देती है। इस रणनीति के तहत भ्रष्टाचार क्षम्य है, जातिवाद गठबंधन क्षम्य है और राज काज की असफलता भी क्षम्य है। बस जो भाजपा के खिलाफ खड़ा है, वो सही है, सेक्युलर है। बिहार के चुनाव परिणाम बताएँगे की यह रणनीति सफल होती है या नहीं। अभी से चुनावी भविष्यवाणी करना बेकार है। संभव है कि नितीश-लालू की रणनीति कामयाब हो भी जाए। यह भी संभव है सेकुलरवाद के नाम पर भानुमती का कुनबा जोड़ने की यह कवायद बिहार की जनता नामंज़ूर कर दे। यह तो तय है कि इस गठबंधन के पीछे मुस्लिम वोट का ध्रुवीकरण हो जाएगा। लेकिन यह ही तो भाजपा भी चाहती है, ताकि उसके मुकाबले हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कर सके। अगर ऐसा हुआ तो पासा उल्टा पड़ जाएगा। चुनाव का परिणाम जो भी हो, इस चुनाव में बिहार हारेगा, सेक्युलर राजनीति हारेगी।

अगर देश के पवित्र सेक्युलर सिद्धांत को बचाना है तो सेक्युलर राजनीति को पुनर्जन्म लेना होगा, सेक्युलर राजनीति को दोबारा लोकमानस से सम्बन्ध बनाना होगा, अल्पसंख्यकों से केवल सुरक्षा की राजनीती छोड़कर शिक्षा, रोज़गार और प्रगति की राजनीती शुरू करनी होगी। शायद अशोक का प्रदेश बिहार एक अच्छी जगह है इस राजनीति की शुरुआत के लिए।

(योगेन्द्र यादव)