जीवन का कुछ पता नहीं चलता कि यह किस करवट सोयेगा और कैसी अंगड़ाई लेकर जागेगा।
लोगों को बात का पता भी न चलता यदि उस दिन कार्यालय में सभी ने खुद अपनी आँखों देखा न होता और अपने कानों सुना न होता।
ऐसा होना लोगों को संभव नहीं लगता था पर ऐसा सोचने वाले लोगों ने ही देखा कि अबकी बार तो उन दोनों में ही ठन गयी।
उन दोनों, मतलब छोटे साहब और बड़े साहब।
बड़े साहब के कक्ष का दरवाजा खुला और छोटा साहब चिल्ला कर बड़े साहब से कह रहा था,” तू समझता क्या है अपने आप को… मैं भी तुझे दिखाता हूँ.. तू भी यहीं है और मैं भी… तेरी नाक के नीचे से ऑर्डर लेकर जाउँगा…तू रुका रह कुछ दिन”।
बड़ा साहब भी गुस्से में बिलबिला रहा था,” चल चल जो होता हो तेरे से करके देख ले… वहाँ तो तुझे जाने नहीं दूँगा मैं”।
पहले पहल तो लोगों को विश्वास न हुआ क्योंकि छोटे साहब की बड़े साहब की कुर्सी पर बैठने वाले हरेक अधिकारी के साथ बरसों से जुगलबंदी चल रही थी। छोटा साहब रेत से पानी निकालने और कागजों पर दुनिया की सबसे मजबूत इमारतें, पुल और सड़कें बनाने में माहिर था। वह खुद भी धन-धान्य से भरपूर जीवन जीता और अपने से ऊपर के अधिकारियों के थैले भी भरे रखता था।
भ्रष्ट ठेकेदार छोटे साहब को देवता की तरह पूजते थे। वैसे भी ठेकेदार नामक प्रजाति में ईमानदार इंसान ढूँढ़ना ऐसा ही है जैसे रविवार की रात यह सोचकर सोना कि जब कल सोमवार को सुबह जागना होगा तो भारत में अमीर-गरीब और ऊँच-नीच के भेद न रहेंगे। ठेकेदारी का तो मूल ही भ्रष्टाचार पर टिका हुआ है।
बहरहाल उस वक्त्त की सच्चाई यही थी कि छोटे और बड़े साहब में किसी बात को लेकर ठन गयी थी।
दोनों पक्षों के चमचा-इन-चीफ अपने आपने आका के घायल अहं को सहलाने और दुलराने पहुँच गये। चमचों के इन मुखियाओं के अन्य चमचों से ही बात बाहर आयी।
मामला था एक बहुत ही महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पर नियुक्त्ति का। प्राकृतिक रुप से छोटा साहब यह सोचकर बैठा हुआ था कि बड़ा साहब उसी की नियुक्त्ति वहाँ करेगा। उसकी नियुक्त्ति वहाँ हुयी भी पर प्रोजेक्ट के मुख्य कार्य पर नहीं बल्कि एक सहायक परियोजना में। छोटे साहब ने अपने सूत्र खंगाले तो पता चला कि एक ऐसे आदमी को वहाँ नियुक्त्ति देने का निर्णय लिया गया था, जो कि कुछ सालों से प्रतिनियुक्त्ति पर एक अर्ध-सरकारी निगम में गया हुआ था। उसे वापस बुलाकर मुख्य परियोजना में नियुक्त्ति दी जा रही थी। सत्यता यह थी कि वह आदमी खुद वापस आ रहा था और उसने अपनी तरफ से हर जगह अपने धन के बलबूते सेटिंग करके इस नियुक्त्ति का इंतजाम किया था।
छोटे साहब के तन-बदन में आग लग गयी सच्चाई जानकर। वह दनदनाते हुये बड़े साहब के पास पहुँच गया। बड़े साहब ने उसे समझाया कि सहायक परियोजना में भी बहुत पैसा है पर छोटा साहब बहुत समय से यह सोचकर बैठा था कि उसकी नियुक्त्ति मुख्य परियोजना में होगी। उसने अपने चहेते ठेकेदारों की सूची भी बनानी शुरु कर दी थी।
बात बढ़ती गयी छोटे और बड़े साहब के बीच। बड़े साहब ने एक रास्ता भी सुझाया कि यदि छोटा साहब दस लाख रुपये दे तो उसकी और अन्य अधिकारी की नियुक्त्ति आपस में बदली जा सकती हैं।
छोटा साहब इस नियुक्त्ति पर अपना अधिकार समझता था और उसने बड़े साहब को बताया कि उसके सम्पर्क ऊपर तक हैं और वह मुख्यालय से ही वहाँ नियुक्त्ति लेकर दिखा देगा।
बातचीत बढ़ती रही और दोनों के अहं का मामला बन गया और छोटा साहब बड़े साहब को धमकी देकर चला गया।
बड़े साहब ने अगले ही दिन छोटे साहब के स्थानांतरण के आदेश जारी कर दिये। छोटा साहब भी कच्ची गोलियां खेलने वालों में से नहीं था, वह मेडिकल लगाकर अवकाश पर चला गया।
…
बड़े साहब और छोटे साहब के बीच घटे विवाद को तकरीबन दो माह हो चले थे।
इस बीच छोटा साहब प्रदेश की राजधानी में स्थित अपने विभाग के मुख्यालय के चक्कर लगा लगाकर परेशान हो चुका था। उसके वहाँ पहुँचने से पहले ही उसका मामला वहाँ पहुँच गया था और लिपिकों की तो बात ही अलग है विभाग के अर्दलियों तक ने अपने दाँत पैने कर लिये थे और वे अपनी जेबें खाली रख कर ही बैठते थे ताकि छोटे साहब से कुछ लेकर उन्हे फिर से भर सकें। मुख्यालय में उच्च अधिकारियों से मिलने के लिये भी छोटे साहब को रिश्वत देनी पड़ती। इस कक्ष से उस कक्ष तक जाते जाते उसकी जेबें हर चक्कर में ढ़ीली होतीं रहतीं।
जिस काम को करवाने में उसे दस-पंद्रह दिन से ज्यादा का वक्त्त नहीं लगना था उसमें दो माह लग गये।
एक कारण यह था कि छोटे साहब के दुर्भाग्य से प्रदेश में राजनीतिक रुप से “आया राम गया राम” का दौर चल रहा था। और जब उसे लगा कि शायद वह काम करवा लेगा तभी सरकार गिर गयी और नयी सरकार बनी तो उसके मंत्री भी बदले और उसके विभाग के नये मंत्री ने मुख्यालय में अधिकारियों की अदला-बदली की और जिस अधिकारी से छोटे साहब को उम्मीद थी वह वहाँ से चला गया। उस पद पर आये नये अधिकारी से भी छोटे साहब की झड़प हो गयी।
छोटे साहब के विरोधी भी हर स्तर पर सक्रिय थे। उन्हे भी उसके हर कदम की जानकारी अपने सूत्रों से मिल जाती थी। नौकरी पर न जाने की वजह से छोटे साहब को जिला मुख्यालय के स्तर पर निलम्बित कर दिया गया। निलम्बन की उसे चिंता न थी वह जानता था कि यह सब उसके बायें हाथ का खेल है।
कुंठित होकर छोटे साहब ने तय कर लिया कि अब तो सीधे मंत्री से ही निलम्बन हटाने और प्रोजेक्ट पर नियुक्त्ति के आदेश लेकर आऊँगा।
उसने पूरी जान लगा दी मंत्री से मिलने के लिये। जितने भी उसके सम्पर्क सूत्र थे वे सब उसने खंगाल दिये। पंद्रह दिन की भागदौड़ के बाद उसे मंत्री से मिलने का समय मिला।
छोटा साहब मंत्री से मिलने पहुँचा।
समाज को भय, भ्रष्टाचार, भूख और गरीबी से मुक्त्ति देने का नारा और दिलासा देकर सत्ता में आये दल का मंत्री माथे पर टीका लगाये अपनी कुर्सी पर बैठा था।
छोटे साहब ने लगभग आधा झुककर मंत्री को नमस्कार किया। वह मंत्री की मेज के सामने खड़ा हो गया। मंत्री ने उसे बैठने को कहा।
छोटे साहब ने अपना मामला संक्षेप में मंत्री को बताया। उसके जिस सम्पर्क ने मंत्री से मुलाकात का प्रबंध किया था वह पहले ही मंत्री को सारा मामला बता चुका था। छोटे साहब के भाग्य से संयोग से मंत्री उसी के जाति-वर्ग से सम्बंध रखता था।
मंत्री ने उससे मामला सुनकर कहा,” अरे बावले! वहीं जिला मुख्यालय में पैसे देकर मामला सुलटा लेता और जहाँ नियुक्त्ति मिल रही थी वहीं ले लेता तो इतनी परेशानी तो न उठानी पड़ती। जितना तूने इतने दिन में खोया है उससे कितना ज्यादा धन अब तक बना चुका होता। सस्पैंड भी न होता। धन तो तूझे अभी भी खर्च करना पड़ेगा। चल खैर जब तू आ ही गया है और सोर्स भी तू हमारे खास आदमी का लाया है, काम तो तेरा करना ही पड़ेगा। निलम्बन समाप्त होने और बहाली का आदेश तो तू आज यहीं से ले जाना। प्रोजेक्ट पर नियुक्त्ति का आदेश भी तुझे एक-दो दिन में जिला मुख्यालय में ही मिल जायेगा। तू ऐसा कर बाहर वेट कर, मेरा एक सहायक अभी तुझे मिलेगा। वह सब काम कर देगा तेरा। उसे एक संस्था के लिये धन दे देना। एमाऊंट वह बता देगा। एक के करीब एक नम्बर में देना और बाकी दो नम्बर में। और ये लड़ाई-झगड़े छोड़ और काम कर। जम के कमा और यहाँ भेज। तेरी पत्नी की कुछ रुचि समाज सेवा और राजनीति में हो बता, तेरे जिले में उसे अपने दल की महिला शाखा में कोई पद दे देंगे। तू हमारे दल को वहाँ धन आदि की सहायता देते रहना”
वापसी की यात्रा में छोटा साहब हिसाब लगा रहा था कि धन तो उसका उससे कहीं ज्यादा खर्च हो गया जितना खर्च करके वह जिला मुख्यालय से ही काम करा सकता था परंतु अब वह ठसके से अपने पद पर वापस जा सकता है और इतने दिन की परेशानी, भागदौड़ और इतना धन खर्च करने के बावजूद यह भी तो हो गया कि मंत्री से उसकी व्यक्त्तिगत पहचान हो गयी।
कितना धन कितने दिन में कमाना है वह इसकी योजना बनाने में खो गया।
…[राकेश]