Archive for फ़रवरी, 2011

फ़रवरी 28, 2011

ईमानभक्षी खटमल

जीवन का कुछ पता नहीं चलता कि यह किस करवट सोयेगा और कैसी अंगड़ाई लेकर जागेगा।

लोगों को बात का पता भी न चलता यदि उस दिन कार्यालय में सभी ने खुद अपनी आँखों देखा न होता और अपने कानों सुना न होता।

ऐसा होना लोगों को संभव नहीं लगता था पर ऐसा सोचने वाले लोगों ने ही देखा कि अबकी बार तो उन दोनों में ही ठन गयी।

उन दोनों, मतलब छोटे साहब और बड़े साहब।

बड़े साहब के कक्ष का दरवाजा खुला और छोटा साहब चिल्ला कर बड़े साहब से कह रहा था,” तू समझता क्या है अपने आप को… मैं भी तुझे दिखाता हूँ.. तू भी यहीं है और मैं भी… तेरी नाक के नीचे से ऑर्डर लेकर जाउँगा…तू रुका रह कुछ दिन”।

बड़ा साहब भी गुस्से में बिलबिला रहा था,” चल चल जो होता हो तेरे से करके देख ले… वहाँ तो तुझे जाने नहीं दूँगा मैं”।

पहले पहल तो लोगों को विश्वास न हुआ क्योंकि छोटे साहब की बड़े साहब की कुर्सी पर बैठने वाले हरेक अधिकारी के साथ बरसों से जुगलबंदी चल रही थी। छोटा साहब रेत से पानी निकालने और कागजों पर दुनिया की सबसे मजबूत इमारतें, पुल और सड़कें बनाने में माहिर था। वह खुद भी धन-धान्य से भरपूर जीवन जीता और अपने से ऊपर के अधिकारियों के थैले भी भरे रखता था।

भ्रष्ट ठेकेदार छोटे साहब को देवता की तरह पूजते थे। वैसे भी ठेकेदार नामक प्रजाति में ईमानदार इंसान ढूँढ़ना ऐसा ही है जैसे रविवार की रात यह सोचकर सोना कि जब कल सोमवार को सुबह जागना होगा तो भारत में अमीर-गरीब और ऊँच-नीच के भेद न रहेंगे। ठेकेदारी का तो मूल ही भ्रष्टाचार पर टिका हुआ है।

बहरहाल उस वक्त्त की सच्चाई यही थी कि छोटे और बड़े साहब में किसी बात को लेकर ठन गयी थी।

दोनों पक्षों के चमचा-इन-चीफ अपने आपने आका के घायल अहं को सहलाने और दुलराने पहुँच गये। चमचों के इन मुखियाओं के अन्य चमचों से ही बात बाहर आयी।

मामला था एक बहुत ही महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पर नियुक्त्ति का। प्राकृतिक रुप से छोटा साहब यह सोचकर बैठा हुआ था कि बड़ा साहब उसी की नियुक्त्ति वहाँ करेगा। उसकी नियुक्त्ति वहाँ हुयी भी पर प्रोजेक्ट के मुख्य कार्य पर नहीं बल्कि एक सहायक परियोजना में। छोटे साहब ने अपने सूत्र खंगाले तो पता चला कि एक ऐसे आदमी को वहाँ नियुक्त्ति देने का निर्णय लिया गया था, जो कि कुछ सालों से प्रतिनियुक्त्ति पर एक अर्ध-सरकारी निगम में गया हुआ था। उसे वापस बुलाकर मुख्य परियोजना में नियुक्त्ति दी जा रही थी। सत्यता यह थी कि वह आदमी खुद वापस आ रहा था और उसने अपनी तरफ से हर जगह अपने धन के बलबूते सेटिंग करके इस नियुक्त्ति का इंतजाम किया था।

छोटे साहब के तन-बदन में आग लग गयी सच्चाई जानकर। वह दनदनाते हुये बड़े साहब के पास पहुँच गया। बड़े साहब ने उसे समझाया कि सहायक परियोजना में भी बहुत पैसा है पर छोटा साहब बहुत समय से यह सोचकर बैठा था कि उसकी नियुक्त्ति मुख्य परियोजना में होगी। उसने अपने चहेते ठेकेदारों की सूची भी बनानी शुरु कर दी थी।

बात बढ़ती गयी छोटे और बड़े साहब के बीच। बड़े साहब ने एक रास्ता भी सुझाया कि यदि छोटा साहब दस लाख रुपये दे तो उसकी और अन्य अधिकारी की नियुक्त्ति आपस में बदली जा सकती हैं।

छोटा साहब इस नियुक्त्ति पर अपना अधिकार समझता था और उसने बड़े साहब को बताया कि उसके सम्पर्क ऊपर तक हैं और वह मुख्यालय से ही वहाँ नियुक्त्ति लेकर दिखा देगा।

बातचीत बढ़ती रही और दोनों के अहं का मामला बन गया और छोटा साहब बड़े साहब को धमकी देकर चला गया।

बड़े साहब ने अगले ही दिन छोटे साहब के स्थानांतरण के आदेश जारी कर दिये। छोटा साहब भी कच्ची गोलियां खेलने वालों में से नहीं था, वह मेडिकल लगाकर अवकाश पर चला गया।

बड़े साहब और छोटे साहब के बीच घटे विवाद को तकरीबन दो माह हो चले थे।

इस बीच छोटा साहब प्रदेश की राजधानी में स्थित अपने विभाग के मुख्यालय के चक्कर लगा लगाकर परेशान हो चुका था। उसके वहाँ पहुँचने से पहले ही उसका मामला वहाँ पहुँच गया था और लिपिकों की तो बात ही अलग है विभाग के अर्दलियों तक ने अपने दाँत पैने कर लिये थे और वे अपनी जेबें खाली रख कर ही बैठते थे ताकि छोटे साहब से कुछ लेकर उन्हे फिर से भर सकें। मुख्यालय में उच्च अधिकारियों से मिलने के लिये भी छोटे साहब को रिश्वत देनी पड़ती। इस कक्ष से उस कक्ष तक जाते जाते उसकी जेबें हर चक्कर में ढ़ीली होतीं रहतीं।

जिस काम को करवाने में उसे दस-पंद्रह दिन से ज्यादा का वक्त्त नहीं लगना था उसमें दो माह लग गये।

एक कारण यह था कि छोटे साहब के दुर्भाग्य से प्रदेश में राजनीतिक रुप से “आया राम गया राम” का दौर चल रहा था। और जब उसे लगा कि शायद वह काम करवा लेगा तभी सरकार गिर गयी और नयी सरकार बनी तो उसके मंत्री भी बदले और उसके विभाग के नये मंत्री ने मुख्यालय में अधिकारियों की अदला-बदली की और जिस अधिकारी से छोटे साहब को उम्मीद थी वह वहाँ से चला गया। उस पद पर आये नये अधिकारी से भी छोटे साहब की झड़प हो गयी।

छोटे साहब के विरोधी भी हर स्तर पर सक्रिय थे। उन्हे भी उसके हर कदम की जानकारी अपने सूत्रों से मिल जाती थी। नौकरी पर न जाने की वजह से छोटे साहब को जिला मुख्यालय के स्तर पर निलम्बित कर दिया गया। निलम्बन की उसे चिंता न थी वह जानता था कि यह सब उसके बायें हाथ का खेल है।

कुंठित होकर छोटे साहब ने तय कर लिया कि अब तो सीधे मंत्री से ही निलम्बन हटाने और प्रोजेक्ट पर नियुक्त्ति के आदेश लेकर आऊँगा।

उसने पूरी जान लगा दी मंत्री से मिलने के लिये। जितने भी उसके सम्पर्क सूत्र थे वे सब उसने खंगाल दिये। पंद्रह दिन की भागदौड़ के बाद उसे मंत्री से मिलने का समय मिला।

छोटा साहब मंत्री से मिलने पहुँचा।

समाज को भय, भ्रष्टाचार, भूख और गरीबी से मुक्त्ति देने का नारा और दिलासा देकर सत्ता में आये दल का मंत्री माथे पर टीका लगाये अपनी कुर्सी पर बैठा था।

छोटे साहब ने लगभग आधा झुककर मंत्री को नमस्कार किया। वह मंत्री की मेज के सामने खड़ा हो गया। मंत्री ने उसे बैठने को कहा।

छोटे साहब ने अपना मामला संक्षेप में मंत्री को बताया। उसके जिस सम्पर्क ने मंत्री से मुलाकात का प्रबंध किया था वह पहले ही मंत्री को सारा मामला बता चुका था। छोटे साहब के भाग्य से संयोग से मंत्री उसी के जाति-वर्ग से सम्बंध रखता था।
मंत्री ने उससे मामला सुनकर कहा,” अरे बावले! वहीं जिला मुख्यालय में पैसे देकर मामला सुलटा लेता और जहाँ नियुक्त्ति मिल रही थी वहीं ले लेता तो इतनी परेशानी तो न उठानी पड़ती। जितना तूने इतने दिन में खोया है उससे कितना ज्यादा धन अब तक बना चुका होता। सस्पैंड भी न होता। धन तो तूझे अभी भी खर्च करना पड़ेगा। चल खैर जब तू आ ही गया है और सोर्स भी तू हमारे खास आदमी का लाया है, काम तो तेरा करना ही पड़ेगा। निलम्बन समाप्त होने और बहाली का आदेश तो तू आज यहीं से ले जाना। प्रोजेक्ट पर नियुक्त्ति का आदेश भी तुझे एक-दो दिन में जिला मुख्यालय में ही मिल जायेगा। तू ऐसा कर बाहर वेट कर, मेरा एक सहायक अभी तुझे मिलेगा। वह सब काम कर देगा तेरा। उसे एक संस्था के लिये धन दे देना। एमाऊंट वह बता देगा। एक के करीब एक नम्बर में देना और बाकी दो नम्बर में। और ये लड़ाई-झगड़े छोड़ और काम कर। जम के कमा और यहाँ भेज। तेरी पत्नी की कुछ रुचि समाज सेवा और राजनीति में हो बता, तेरे जिले में उसे अपने दल की महिला शाखा में कोई पद दे देंगे। तू हमारे दल को वहाँ धन आदि की सहायता देते रहना”

वापसी की यात्रा में छोटा साहब हिसाब लगा रहा था कि धन तो उसका उससे कहीं ज्यादा खर्च हो गया जितना खर्च करके वह जिला मुख्यालय से ही काम करा सकता था परंतु अब वह ठसके से अपने पद पर वापस जा सकता है और इतने दिन की परेशानी, भागदौड़ और इतना धन खर्च करने के बावजूद यह भी तो हो गया कि मंत्री से उसकी व्यक्त्तिगत पहचान हो गयी।

कितना धन कितने दिन में कमाना है वह इसकी योजना बनाने में खो गया।

…[राकेश]

फ़रवरी 26, 2011

जीवन दबे पाँव आता है

इन्साफ तेरा सदा सच्चा मगर बंदानवाज़
आदमी के होंटों पर रोती हुई फ़रियाद है
हर किये गए गुनाह की सजा मुझे मिले
गुनाह सिखाने वाला शैतान तो आज़ाद है
…….

अनगिनत चले गए बेशुमार आते हैं
एक उठ जा रहा है तो हज़ार आते हैं
यह दुनिया का बाज़ार भी है अजीब
यहाँ बिकने के लिए खरीदार आते हैं
…….

सुबहदम फूल जब खिलखिलाता है
ओस के कतरे उससे कुछ कहते हैं
जीवन संगीत बजता है बांसुरी में
छेद हैं बहुत फिर भी सुर बहते हैं
………

हर आदमी की जुदा है तकदीर
कोई सुखी तो कोई दुखी क्यों है
उस निगाह में जब सब बराबर
फिर भी दुनिया दो-रंगी क्यों है
………..

कुछ पाने की इच्छा में दरअसल
सब कुछ खोने का पता लिखा है
मिल जाए तो माटी है सोना भी
न मिले तो भी सब माटी होना है
……….

धडकन की सदा सुनकर मन ने सोचा
किसकी आहट है जाने कौन आता है
सांस की आँख ने पहचान कर कहा
पगले! दबे पाँव ये तो जीवन जाता है

(रफत आलम)

फ़रवरी 25, 2011

ठूंठ…

तुम किसी मोड़ पर तो मिलोगे
क्या कहोगे?
कुछ कह भी सकोगे?
भाषा विचारों को अभिव्यक्त्त न कर पाये तो भी
विचार नहीं मरते
भाव नहीं गलते।

पर, दिक्कत वहाँ जरुर होती है
जहाँ विचार साथ छोड़ गये हों
वहाँ अगर शब्द मिल भी गये तो क्या
व्यक्त्त भी हुये तो क्या?
जिस्म और रुह
का ठूंठ होना
इसी को कहते हैं
हरियाली में सूख गये
पेड़ की मानिंद।

{कृष्ण बिहारी}

फ़रवरी 25, 2011

उपलब्धि का अहंकार…(संत सिद्धार्थ)

मित्रों!

उपलब्धियाँ अक्सर एकांगी होती है और इनसे प्राप्त अहंकार जीवन को एकरंगी बना देता है। जीवन तो भिन्न- भिन्न अनुभव लेने से समृद्ध होता है।

एक क्षेत्र में उपलब्धि हासिल करके चादर तान के सो गये और मन में सोच लिया कि संसार फतेह कर लिया तो बहुत बड़ी भूल-भूलैया में फँस गये।

दौलत तुमने बहुत कमा ली या माता-पिता से मिल गयी और इसी कारण फूले-फूले रहने लगे तो तब तो तुम बहुत बड़े गरीब रह गये जीवन में। धन की अधिकता में तुमसे जीवन भर यह अहसास तो अनछुआ ही रह जायेगा कि अभाव क्या है?

बहुत बड़े पद पर पहुँच गये हो तो इस बात का अहंकार मत करना कि बस अब सारा जीवन तुम्हारी मुट्ठी में आ गया है, तुम अपने विभाग के सबसे छोटे पद पर काम करने वाले कर्मचारी के जीवन से एकदम अपरिचित हो। वह क्या सोचता है? उसकी क्या सीमायें हैं?

पाने का ही नाम जीवन नहीं है बल्कि अभाव भी एक जीवंत अनुभव है।

तुम बहुत बड़े कवि बन गये हो, पर जरा सोचो तो कि कितने अच्छे अच्छे गद्य लेखक दुनिया में तुम्हारे साथ ही विचरण कर रहे हैं और तुमने अभी तक श्रेष्ठ किस्म का गद्य रचने का आनंद नहीं लिया।

तुम तो सिर्फ अपने जैसा जीवन जानते हो। दिन के बहुत सारे घंटे व्यवसाय में ऊँचाई पाकर किसी बड़े पद पर आसीन होने की मह्त्वाकांक्षा का पीछा करने में खर्च हो जाते हैं तो ऐसी जीवनशैली से उत्पन्न व्यस्तता और अहंकार से तुम बहुत सारे अन्य तरह के भावों से अनभिज्ञ ही रह जाओगे।

अपने से अलग लोगों को, भले ही वे तुम्हारे सामने आर्थिक रुप से गरीब हों, उपलब्धियों में कमतर लगते हों, निम्न भाव से न देखना, किसी न किसी मामले में वे तुमसे ज्यादा उपलब्धि रखते होंगे।

केवल सफलतायें तुम्हे बहुत गहरे नहीं ले जा सकतीं। तुम्हे इसे भी जानना है कि असल में असफलता क्या है?

जब तक एक ही भाव के दोनों पूरक हिस्सों को नहीं जान लोगे तब तक दोनों ही से परे होने का अहसास नहीं जान पाओगे।

न पाने में अटकना है और न ही अभाव में। किसी भी एक भाव में अटक गये तो जीवन बेकार ही जाने के पूरे पूरे आसार बन जाते हैं। जीवन तो इन सब भावों से परे जाने के लिये है और इसके लिये एक भाव के दोनों परस्पर विपरित रुपों को जानना, पहचानना और जीना आवश्यक है।

किसी भी क्षेत्र में उपलब्धि पाना बहुत बड़ी योग्यता है और इसके लिये जीतोड़ प्रयास करो पर उपलब्धियों का अहंकार भूल कर भी न करो।

वास्तव में उपलब्धि जनित अहंकार का अकेला तत्व ही मनुष्य के जीवन को गरीब बना कर छोड़ देता है। इस अहंकार की उपस्थिति में आध्यात्मिक विकास असंभव है।

ये सब साधारण उपलब्धियाँ, जो तुम्हे बहुत बड़ी लगती हैं, और ये सारे अभाव जो तुम्हे बहुत बड़े लगते हैं, ये सारी बातें माध्यम हैं तुम्हे एक बड़े लक्ष्य की यात्रा से दूर रखने के। इन्ही सब बातों में अटक गये तो इन्ही के होकर रह गये।

जब जीवन में साधारण उपलब्धियों और अभावों से गुजर जाओगे तब तुम्हे आभास होगा उस अभाव का जिसे भरने के लिये की गयी यात्रा ही मनुष्य जीवन में सार्थकता ला पाती है।

बस साक्षी बने रहो, एक दिन वह प्यास जगेगी जरुर, एक दिन तुम उस परम यात्रा पर निकलोगे जरुर।

फ़रवरी 24, 2011

पत्थरों की बस्ती…

शिकवे दुनिया भर के थे लबों पर आया कभी नाम क्या
इससे बढ़ कर करते हम तेरी जफ़ाओ का एहतराम क्या

गीला तकिया गवाह है किस हालत में गुजरी रात मेरी
तन्हा बिस्तर ये बता काफी नहीं अश्कों का इनाम क्या

हम आवारा लोग ठहरे भटकते रहना हमारी किस्मत है
ए मंजिलों के सौदाई बता तुझको मिल गया मुकाम क्या

काँटों की नोक पर बैठे फूलों से अक्सर पूछा है हमने
मुस्कराते फिरने से ज़ख्म को मिलता है आराम क्या

जिस्म की आग ने मुझको गन्दी नालियों में जा डुबोया
एक भले आदमी को देख हवस से मिला है इनाम क्या

पल दो पल को आँखे बोल लेती थी क्यों पर्दा कर भागे
तुम दूर खिडकी की ओट में बैठे भी हुए बदनाम क्या

जान की खैर मनाओ यहाँ से चल निकलो आलम साब
पत्थरों की इस बस्ती में तुमसे शीशाबदनों का काम क्या

(रफत आलम)

फ़रवरी 23, 2011

विचारों में बसते हैं नाग…

पाँव पाँव डसते हैं नाग
जीवन के रस्ते हैं नाग

नाज़ुक-कोमल कांधों पर
भारी भारी बस्ते हैं नाग

घरों में टूटी लाठी नहीं
छतों से बरसते हैं नाग

अमृत घोलती हुई ज़बाने
विचारों में बसते हैं नाग

शहर की भूख खा गयी
विष को तरसते हैं नाग

कालेधन पर कुंडली मारे
लाकरों में बसते हैं नाग

गफलत ही मौत है यार
नींद में ही डसते हैं नाग

सच्चे तो चाम खिंचा मरे
बचे अब मन के हैं नाग

सर उठा कर डसने वाले
पेट बल खिसकते हैं नाग

बेबस विश्वास पर आलम
कुंडलियाँ कसते हैं नाग

(रफत आलम)

फ़रवरी 23, 2011

Buddhism चीन से आया भारत : Paulo Coelho

बहुधा ऐसा हो जाता है कि विश्व प्रसिद्ध विदेशी लेखक अपनी पुस्तकों में भारत से जुड़ी बातों को गलत ढ़ंग से प्रस्तुत करते हैं। कई बार तो उन्हे जानकारी ही नहीं होती और वे केवल अनुमान के भरोसे कुछ लिख डालते हैं और कई दफा वे भारत के बारे में फैले भ्रमों के कारण उसे हल्के ढ़ंग से लेने के कारण इसे और इससे जुड़े मामलों को गम्भीरता से नहीं लेते और गलत तथ्यों का समावेश अपनी पुस्तकों में कर डालते हैं। फिल्म निर्देशक भी इन मामलों में पीछे नहीं हैं।

Buddhism और भारत के जुड़ाव के सम्बंध में विदेशी लेखकों में अक्सर भ्रम देखने को मिलता है। आयरलैंड के रहने वाले प्रसिद्ध लेखक J. H. Brennan अपनी पुस्तक Tibetan Magic and Mysticism में तिब्बत पर Buddhism के पड़ने वाले असर की चर्चा करते हुये लिखते हैं –

There is no question at all that the doctrines of the Buddha helped change Tibetan history. All the same, Buddhism alone is no guarantee of a peaceful culture. India, the home of Gautam Buddha, has been to war twice in my life time.

शोध करके लिखने वाले लेखकों का यह हाल है कि वे अपने समय के भारत के बारे में भी इस सत्य को नज़रअंदाज कर जाते हैं कि सन 1947 के बाद से ही भारत ने किसी भी देश पर अपनी ओर से आक्रमण नहीं किया है। विभाजन के बाद पहले कश्मीर को लेकर, बाद में सन 1965 में और 1971 में और 1999 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण करके शांतिप्रिय लोकतांत्रिक देश पर युद्ध थोपे थे।  1962 में साम्राज्यवादी चीन ने भारत पर धोखे से आक्रमण किया और अपने इस शांतिप्रिय पड़ोसी देश को युद्ध में घसीटा।

दुनिया में बहुत बड़े-बड़े विदेशी विद्वान हैं जो भारत और चीन को एक ही शीशे से देखते हैं।  और सब बातों में उनके विचार सटीक पाये जाते हैं तब भारत के मामले में वे कैसे इतनी लापरवाही का परिचय दे देते हैं। भारत चीन जैसा शक्त्तिशाली देश नहीं है और न ही चीन की तरह उसे यू.एन में वीटो पॉवर मिली हुयी है और न ही वह चीन की भाँति दुनिया भर को घुड़की देता घूमता है। भारत एक सॉफ्ट देश है और यह बात सभी मुल्क जानते हैं।

दशकों से दक्षिण एशिया के ज्यादातर देशों से लोग विकसित पश्चिमी देशों में काम करने या रहने जाते रहे हैं। प्रवासी चीनी लोग लगभग हर विकसित देश में बहुत बड़ी संख्या में रहते हैं और वे वहाँ एक समूह के रुप में रहते हैं और वहाँ भी उनकी एक सामुहिक शक्त्ति कायम रहती है। जबकि भारतीय एकल रुप में विकास करने में ज्यादा रुचि लेते हैं और पूजाघरों और अन्य सामाजिक स्थलों पर मेलमिलाप का दिखावा करने के अलावा वे अंदर से बाहर के देशों में भी बँटे ही रहते हैं।

विश्व प्रसिद्ध लेखक Paulo Coelho सन 2005 में प्रकाशित होने वाले उपन्यास – The Zahir में एक स्थान पर लिखते हैं कि Buddhism चीन से भारत में आया।

And he started telling me about his life, while I tried to remember what I knew about the Silk Road, the old commercial route that connected Europe with the countries of the East. The traditional route started in Beirut, passed through Antioch and went all the way to the shores of the Yangtse in China; but in Central Asia it became a kind of web, with roads heading off in all directions, which allowed for the establishment of trading posts, which, in time, became towns, which were later destroyed in battles between rival tribes, rebuilt by the inhabitants, destroyed, and rebuilt again. Although almost everything passed along that route—gold, strange animals, ivory, seeds, political ideas, refugees from civil wars, armed bandits, private armies to protect the caravans—silk was the rarest and most coveted item. It was thanks to one of these branch roads that Buddhism traveled from China to India.

दुनिया में ऐसे भी लोग होंगे जिन्हे भारत और बुद्ध के बारे में न पता हो और Paulo Coelho की किताब में लिखा गलत तथ्य उन्हे सही जानकारी लगेगा और वे इसे ही सत्य मानेंगे।

सन 2006 के फरवरी माह में उन्हे लिखे एक ईमेल में उनकी पुस्तक में उपस्थित इस गलती की ओर उनका ध्यान दिलवाये जाने पर उन्होने जवाब तो लिखा पर इस मुद्दे पर कोई भी बात नहीं लिखी। चूँकि पुस्तक शायद स्पेनिश से अंग्रेजी में अनुवादित होकर प्रकाशित हुयी थी तो बहुत संभावना है कि अनुवाद के कारण ऐसी गलती रह गयी हो। आशा थी कि आने वाले संस्करण में ऐसी तथ्यागत गलती का सुधार करवा लेंगे परंतु हाल ही में The Zahir का एक नया संस्करण देखने को मिला और उसमें गलती अभी तक उपस्थित है।

ऐसी गलती वे अमेरिका और अन्य शक्त्तिशाली देशों से जुड़ी बातों के साथ नहीं करेंगे, परंतु उन्हे भी पता है कि भारत से जुड़ी बातों को कैसे भी प्रस्तुत कर दो।

नेतृत्व से बहुत फर्क पड़ता है कि भारत के नेता कैसा व्यवहार भारत से बाहर करते हैं। कहीं भारत के नेताओं के कपड़े उतार लिये जाते हैं और कहीं भारतीयों से बदसलूकी की जाती है पर भारत के विदेश मंत्रालय के कानों पर जूँ नहीं रेंगती।

सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि विदेश मत्रांलय और इससे जुड़े अधिकारी बाहर के देशों में जाने वाले ज्यादातर भारतीयों को अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्त्ति मानकर चलती है, ज्यादातर तो उनका व्यवहार ऐसा ही रहता है कि अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों पर आने-जाने वाला हर साधारण भारतीय कबूतरबाजी या अवैध किस्म के कागजों से विदेश जा रहा है या वहाँ से आया है।

भारत का नेतृत्व और मीडिया इसी बात से खुश रहता है कि किसी शक्त्तिशाली देश ने विदेश यात्रा के दौरान हमारे नेता को भोज दिया या  अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में अपने पड़ोस में बैठा लिया या भोज के बाद हाथ धोने के लिये जाते समय रुककर मुस्कुराकर बातें कीं।

चीन अपने लिये जितने फायदे अपने लिये दूसरे देशों से ले लेता है उतनी समझ और उतने ठसके की कल्पना भी भारत नहीं कर सकता।

दूसरों को सम्मान देने का मतलब उनकी गलत-सलत माँगों के सामने बिछना नहीं होता।

पिछले कम से कम बीस-पच्चीस सालों में भारत में उच्च तबके में समृद्धि भले ही बढ़ी हो पर भारतीय नेतृत्व की कमजोरी भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज्यादा दिखायी देती रही है। इसे चाहें तो गठबंधन सरकारों का साइड इफेक्ट कह लें या कि बिजनेस के दौर में माँगते रहने की प्रवृत्ति के कारण हर बात को पैसे से तोलने की नयी प्रवृत्ति से अपने को कमजोर समझकर आत्मसम्मान में कमी का प्रभाव।

ताज्जुब होता है यह पढ़कर या सुनकर कि 1971 में बांगलादेश मुक्त्ति के संघर्ष के समय जब अमेरिका ने अपने जहाजी बेड़े भारत की हदों में समुद्र में लाकर खड़े कर दिये थे तब भी भारत गरीब होते हुये भी इस घुड़की में नहीं आया था और देश ने आत्म सम्मान को ज्यादा तवज्जो दी थी।

अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में तब भी भारत के रुख के खिलाफ दुष्प्रचार फैलाया जा रहा था।

उसी दौरान बीबीसी को दिये एक साक्षात्कार से, उस वक्त्त देश की प्रधानमत्रीं रहीं श्रीमति इंदिरा गाँधी के तेवर देख कर रोमांच हो उठता है कि एक गरीब और विकासशील देश दुनिया की आँखों में आँखें डालकर भारत के खिलाफ फैलाये जा रहे दुष्प्रचार का जवाब दे सकता है और विश्व  शक्त्तियों को उनके गलत कार्यों की याद दिला सकता है।

अगर सत्तर के दशक की भारतीय प्रधानमंत्री ऐसा आत्मविश्वास और आत्मसम्मान दुनिया को दिखा सकीं तो आज जबकि भारत पहले से ज्यादा समृद्ध है तब भारत को क्या हो गया है जो वैश्विक मंचों पर एक भ्रष्टाचारी, कमजोर और लुंजपुंज देश के रुप में अपने को प्रस्तुत कर रहा है। भारत अवैध घुसपैठ का मसला हो या बाहरी शक्त्तियों द्वारा देश में फैलाये आतंकवाद का या मुक्त्त व्यापार के नाम पर भारत से ठगी करने का, चुप्पी साधे सब सहन करता जाता है।

भारत और भारतीयों को अपने आत्मसम्मान की फिक्र करनी चाहिये और देश के बारे में फैली किसी भी गलत बात का विरोध उचित मंच पर करना चाहिये।

दंभी होना निम्नस्तरीय दोष है पर एक देश सज्जन होते हुये भी अपने आत्मसम्मान के लिये चारित्रिक दृढ़ता संसार को दिखा सकता है और इस लक्ष्य को पाने में देश में रहने वाले और दुनिया में हर जगह रहने वाले भारतीयों के प्रयास महत्वपूर्ण हैं।

देश की साख होगी तो प्रवासियों को भी उचित स्थान और सम्मान हर देश में मिलेगा। केवल अपने भले के लिये देश की साख पर बट्टा लगाने वाली बातों की अनदेखी इस लोभ से करना कि उनके व्यक्तिगत हितों को विदेश में नुकसान न पहुँचे, भारतीयों को कम से कम ऊँचाई पर तो नहीं ले जाता।

खुले दिमाग वाले विदेशी इस बात को कहते भी हैं कि जाने क्यों भारतीयों को अपने देश के गौरवशाली इतिहास और नायकों को सम्मान देना नहीं आता। विदेशियों की निगाहों में अच्छा और उदार दिखने के लिये भारतीय अपने नायकों को नीचे घसीटने से कभी पीछे नहीं रहते।

जिन भारतीय नायकों को विदेशी भी सर्वोच्च स्थान पर रखते हैं उन्हे भी भारतीय कोसने से बाज नहीं आते।

अनुचित अंधी प्रशंसा न करें पर द्वेषपूर्ण अंधी आलोचना भी तो न करें। एक संतुलित दृष्टिकोण रखना तो अनुचित बात नहीं है न।

राजनीतिक दलों के आपसी द्वंदों में फँसकर आम भारतीय भी बंट गया है और यह बँटवारा भारत की विरासत के साथ अत्याचार कर रहा है। भारत की सामुहिक चेतना का ऐसे टुकड़े टुकड़े होना देश के सम्मान को हर दिशा से खोखला कर रहा है।

…[राकेश]

फ़रवरी 22, 2011

नहीं रहा…

एक ज़ख्म हरा था नहीं रहा
दर्द खुद मसीहा था नहीं रहा

दिल का रिश्ता था नहीं रहा
वह दोस्त मेरा था नहीं रहा

जम गया दर्द सूनी आंखों में
पानी का झरना था नहीं रहा

कोई भी अब याद नहीं आता
मुझे अपना पता था नहीं रहा

अपनों का सलूक क्या कहिये
ज़माने से गिला था नहीं रहा

अमीर खुद है वक्त का खुदा
गरीब का खुदा था नहीं रहा

लोग आज कुरान बेच खाते हैं
ईमान कभी जिंदा था नहीं रहा

काला धंधा काली हकीकत है
रोज़गार सपना था नहीं रहा

डूबती कश्ती में ठहरता कौन
नाखुदा से गिला था नहीं रहा

गम की लौ में जलबुझा दिल
मोम का टुकड़ा था नहीं रहा

रोती होंगी सन्नाटों भरी राहें
आलम आवारा था नहीं रहा

(रफत आलम)

फ़रवरी 21, 2011

अपना जूता अपने सर

कुछ साल पहले ही देश में युवाओं को अट्ठारह साल की उम्र में वोट देने का अधिकार दे दिया गया था। केबल टी.वी ने भी देश में धूम मचा दी थी।

चारों लड़के- अ, ब, स, और द, वोट देने का अधिकार पा गये थे। टी.वी, सिनेमा, किताबें और अखबार आदि में परोसी जाने वाली सामग्री उनके अंदर बन रहे हार्मोन्स  की गतिविधियों को और ज्यादा उछाल दे रही थी।  उनकी शारीरिक और मानसिक इच्छाओं ने ऐसा गठबंधन कर लिया था कि सारे समय वे इन्ही सब बातों में खोये रहते थे।

केवल लड़को को शिक्षा देने वाले कॉलेज में कक्षा में बैठें हो या घर पर, राह पर चल रहे हों या बिस्तर पर लेटकर सोने की तैयारी कर रहे हों, उनके दिलोदिमाग पर स्त्रीजाति ही छायी रहती। उनकी बातें भी घूमफिर कर स्त्री-पुरुष के मध्य होने वाले शारीरिक सम्बंधों पर पहुँच जाती।

उनकी अतृप्त इच्छायें उन्हे ऐसी सामग्री भी पढ़वाने और दिखवाने लगीं जिन्हे समाज में छिपाकर इस्तेमाल किया जाता है और कानून पकड़ ले तो पुलिस वाले घूसखोर हुये तो ठीक मामला कुछ या बहुत कुछ देकर रफादफा किया जा सकता था पर अगर पुलिस वाले को ईमानदारी के कीड़े ने काटा हुआ हो तो मामला काफी जिल्लत भरी स्थितियाँ सामने ला सकता था।

एक जैसी सोच वाले और एक जैसे मर्ज वाले लोग बड़ी जल्दी मिल जाते हैं और कॉलेज में भी इन लड़कों को उकसाने वाले ऐसे साथी मिल जाते जो उनकी इच्छाओं को कुछ झूठी और कुछ सच्ची कहानियाँ मिर्च मसाला सुनाकर और भड़का रहे थे। किसी के पास होली के अवसर की कहानियाँ थीं। कोई ऐसा भाग्यवान था जहाँ किसी स्त्री ने उसे डाक्टरेट तक की शिक्षा ही दे दी थी।

इन किस्सों को सुनकर इन लड़कों को लगता कि एक वे ही संसार में भाग्यहीन हैं जिन्हे अपनी इच्छायें पूरी करने का मौका नहीं मिलता वरना दुनिया तो ऐश में जी रही है।

एक शाम ट्यूशन पढ़कर लौटने के बाद अपनी किस्मत को कोसते हुये चारों लड़के नदी किनारे लगी बेंच पर बैठे हुये अपने पसंदीदा विषय पर चर्चा कर रहे थे। पास ही उनकी साइकिलें खड़ी थीं। कॉलेज से छुट्टी होने के बाद वे वहीं बाजार में कुछ खाकर ट्यूशन के लिये चले जाया करते थे। ट्यूशन से लौटते तो इधर उधर घूमकर शाम को अंधेरा होने के बाद ही घर लौटा करते थे।

सड़क के एक ओर नदी और दूसरी ओर पत्थर की बाड़ सड़क के साथ साथ लगी हुयी थी। बाड़ करीब बीस फुट ऊँची होगी और नदी किनारे वाली इस सड़क के साथ-साथ ही ऊपर भी एक सड़क थी। ऊपर की सड़क से नीचे आने के लिये जगह- जगह सीढ़ियाँ भी थीं और थोड़ा आगे जाकर दोनों सड़कें एक मोड़ पर मिल भी जाती भी थीं और वहाँ से ऊँची सड़क पर वाहन चला कर भी जाया जा सकता था।

सूरज छिप चुका था।

लड़के साइकिलें चलाते हुये सड़क के रास्ते ऊपर पहुँच गये।

वहाँ वे अपनी अपनी साइकिल पर बैठे बैठे जमीन पर पैर टिकाकर बातें करने लगे।

बातें करते करते एक लड़के की निगाह नीचे वाली सड़क पर गयी और उसने बाकी साथियों को इशारा किया।

अंधेरा छाने लगा था पर इक्का दुक्का स्ट्रीट लाइट्स जल चुकी थीं और उस रोशनी में उन्हे दिखायी दिया कि दूर से एक स्त्री और पुरुष उसी तरफ चलते हुये आ रहे थे जहाँ वे पहले खड़े थे।

दमित इच्छाओं ने लड़कों के सोचने समझने की शक्त्ति को पहले ही अपनी गिरफ्त में ले रखा था। उनके दिमाग में शैतानी से बड़ी खुरापात सर उठाने लगी।

उन्होने योजना बना ली कि आज वे भी नारी शरीर का ऊपरी तौर पर थोड़ा बहुत अनुभव ले सकते हैं।

‘अ’ ने कहा,” मैं और ‘ब’ इधर से साइकिल से आगे जाते हैं और कुछ देर बाद हम दोनों साइकिल ऊपर ही खड़ी करके जोड़े के पीछे पहुँचकर सीढ़ियों से नीचे उतर जायेंगे और तुम दोनों अभी नीचे जाओ और नदी किनारे खड़े रहकर उनका इंतजार करो। ऐसी जगह खड़े रहना जहाँ रोशनी न हो और जब वे पास आ जायें तो तुम दोनों एकदम से आदमी को पकड़ लेना और उसकी आँखों पर रुमाल आदि बाँध देना और हम दोनों महिला को पकड़ लेंगे। अंधेरा होगा वे दोनों कुछ देख नहीं पायेंगे। अपन लोग कुछ मस्ती करके ऊपर भाग लेंगे।”

योजना के मुताबिक अ और ब साइकिल से ऊपरी सड़क पर ही उस दिशा में चल दिये जिधर से जोड़ा आ रहा था और स और द वहीं से सीढ़ियों से नीचे उतर गये और बिजली के खम्बे से कुछ दूर अंधेरे में नदी की ओर मुँह करके खड़े हो गये।

उनकी सांसें तेज चल रही थी और धड़कनें तो दौड़ लगा रही थीं। योजना बनाना और बात है और उस पर अमल करना एकदम अलग बात है।

जोड़ा पास आता जा रहा था| ‘स’ और ‘द’ की घुकधुकी बँधी हुयी थी। स्त्री अपने साथी से कुछ बोल रही थी। लड़कों को लगा कि जोड़ा उनसे दस हाथ की दूरी पर ही होगा, वे मुँह घुमा कर जोड़े की तरफ देखने लगे।

जोड़ों के पीछे ऊपर से पत्थरों की बाड़ के बीच बनी सीढ़ियों से उतरते दो साये भी उन्हे दिखायी दिये।

‘स’ और ‘द’ भ्रमित थे कि क्या करें। ‘द’ ने ‘स’ को कोहनी मारी, तैयार रहने के लिये।

जोड़ा पास आ चुका था। अभी भी स्त्री ही बोल रही थी।

‘स’ और ‘द’ हिले ही थे कि उनकी हलचल से चौंककर जोड़े ने उनकी ओर देखा।

पुरुष के हाथ की टॉर्च चमक उठी और लड़कों के चेहरों पर पड़ी।

अरे तुम दोनों, यहाँ क्या कर रहे हो? घर नहीं गये अभी तक।

आवाज सुनकर ‘स’ और द’ अवाक रह गये। जोड़ा उनके एकदम पास खड़ा था।

भैया आप… भा…भी जी … क…ब आये आ…प… लोग?

‘स’ ने हकला कर कहा।

पीछे सीढ़ियों से उतरते साये जहाँ थे वहीं चिपक कर रह गये।

आज दोपहर बाद। ‘अ’ कहाँ है? अभी तक घर नहीं पहुँचा, तुम्हारे साथ भी दिखायी नहीं दे रहा।

भैय्य्य्य्या वो …वो … यहीं था अभी चला गया है ऊपर वाली रोड से गया है।

जोड़े के पुरुष और महिला ‘अ’ के बड़े भाई और भाभी थे!

उनकी शादी के वक्त्त ही ’अ’ के दोस्तों ने उसकी भाभी को देखा था और अब शादी के लगभग साल भर बाद वे लोग वहाँ आये थे।

…[राकेश]

चित्र : साभार – life.com

फ़रवरी 20, 2011

मुझे आदमी मिला नहीं

आज अरसे बाद
पूछा है तुमने
कैसा हूँ मैं?

आखिर क्या हुआ है जो
देखता भी नहीं अब
मैं तुम्हारी ओर।

क्या करोगे जानकर
मेरी बात मानकर
कि आदमी होकर आदमी के भीतर मुझे
आदमी मिला नहीं।

आज भी जारी है
मेरी तलाश…
मगर तुममें नहीं
भावनाविहीन निर्विकार
चेहरे को देख
क्या पा सकूँगा मैं?
क्या दे सकोगे तुम?

{कृष्ण बिहारी}