दाहिने हाथ की उठी हथेली ;
नग्न कच्चे कुचों –
कटी के मध्य देश- –
लौह की जाँघों से
आंतरिक अरुणोदय की झलक मारता है
ओ चित्र में अंकित युवती:
तुम सुंदर हो!
मौन खड़ी भी तुम विद्रोही शक्ति हो!
(केदारनाथ अग्रवाल – ०९ अक्टूबर १९६०)
Life creates Art and Art reciprocates by refining the Life
मेरी किताब का चरचा
कहीं कहीं पे हुआ
जहाँ उम्मीद थी मुझ को
वहीं वहीं पे हुआ
मेरी उडान भी मंसूब
ना थी चाँद तारों से
तभी तो एहतिराम
सोच की जमी पे हुआ
ना था अलफाज मे
तारीफ का उलझा हुआ चेहरा
मेरे सुखन का अक्स
डूबती नमी पे हुआ
अगर पलट दिया पन्ना
किन्हीं हाथों ने बिन बाँचे
मुझे तो रंज उस पे
तैरती कमी पे हुआ
उदास शाम थी
और जिक्र था उदासी का
मसि का रंग उजागर
मेरी जबीं पे हुआ
मेरी किताब के किरदार
सब मेरे गम हैं
उन से मिलना हुआ जब भी
किसी गमी पे हुआ
(रमेश गोस्वामी)
इस सावन में बरसी आँखें
काई जमी इंतज़ार की मुंडेर पे
रखे हाथ कंपकपाते हैं
सब कुछ छूट जाने को जैसे
पैरों के नीचे से ज़मीन
बहुत गहरी खाई हो गयी
आँखे पता नहीं किसके लिए
आकाश ताकती हैं…
साँसों की आदमरफ्त रोक के
जिसको फुर्सत दी सजदे के लिए
उस खुदा को और बहुत
एक मेरी निगहबानी के सिवा…
मुझे कोई गिला नहीं…
शिकवा कमज़र्फी है…
हाथ कंपकपाते ज़रूर हैं
अभी मगर फिसले नहीं हैं…
इन ख़्वाबों को
मैंने तुम्हारे गिर्द रोज़ बुने हैं
गुलाबी से चंद ख्वाब हैं मेरे
तुम्हारे हाथ हाथों में लेके
सूरज से आँख मिलाने का
ख्वाब
तुम्हारे साथ चल कर
क्षितिज तक जाने का
ख्वाब
और उस से भी पहले
तुम्हारी आँखों में
डूब जाने का
ख्वाब
और भी
बहुत, बहुत रंगों के
सपने हर वक़्त देखता हूँ मैं
तुम्हारे रंग से रंगे
तुम्हारे रंग में ढले
आ जाओ
इन्हें जीवन दे दो
अगर कोई भी बहाना
तुम्हे यहाँ ला सकता हो तो
आ जाओ…
रात की खुमारी,
तेरे बदन की खुशबू,
नथुनों में समाती मादक गंध
तेरे होठों से चूती शराब…
तेरे सांचे में ढले बदन की छुअन
रेशम में आग लगी हो जैसे
तराशे हुए जिस्म पे तेरे
फिरते मेरे हाथ
वो लरजना
वो बहकना
वो दहकना
वो पिघलना
हाय वो मिलना
अगर वो ख्वाब था तो इतना कम क्यूँ था
अगर वो ख्वाब था तो ज़िन्दगी ख्वाब क्यूँ न हुयी…
(रजनीश)