Archive for ‘बतकही’

जून 22, 2011

बतकही : जाम

बतकही : आरम्भ ,
सोनिया गाँधी और संघ परिवार ,
और उदारीकरण और भारत
से आगे :-

…9 जनवरी, 2005…

विजय और हरि भी बोले,” सुनील जी बधाई”।

सुनील बैठते हुये बोले,” हमें भी रात ही पता चला बेटे के फोन से। मिठाई आप लोगों के घर पहुँच गयी होगी अभी छोटे बेटे को बोलकर ही चला था कि आप सबके यहाँ मिठाई देकर आये। आप लोग मेरे साथ चलोगे ही घर पर वहीं चाय मिठाई हो जायेगी।”

अजी ये सब तो होता रहेगा। बड़े दिनों बाद ढ़ंग की धूप निकली है जरा आनन्द तो उठा लें धूप का। हरीश जी बोले।

हाँ ये भी ठीक है। यहाँ धूप में गपशप कर लें। लौटते समय हमारे यहाँ से होकर निकल लेना। सुनील बोले।

आप तो कुछ समय पहले बता भी रहे थे कि बेटे का प्रमोशन ड्रयू है। विजय बाबू ने कहा।

हाँ होना तो पिछले साल फरवरी में ही था पर कोई कमीशन बैठा था उसकी रिपोर्ट आने के बाद ही इस जनवरी में आदेश हो पाये।

चलिये अब तो हो गया प्रमोशन। उसने तो वेलिंग्टन कालेज वाला कोर्स भी कर रखा है। अब तो काफी आगे तक जायेगा।

देखिये विजय बाबू जाना तो चाहिये ऊपर तक। बाकी सब तो किस्मत है। सुनील ठण्डी साँस छोड़कर बोले।

अजी सही उम्र में सब कुछ हो रहा है जायेगा कैसे नहीं अपनी निर्धारित प्रगति तक? पर आप ये तो बताओ कहाँ रह गये थे आप हम लोग तो कब से आपकी राह देख रहे हैं। रहा है जैसे पूरा बाजार ही घर ले आये हो। अशोक ने कहा।

गया था मिठाई लेने। एक दो काम और भी थे घंटाघर की तरफ। सोचा पहले वहीं के काम निबटाता चलूँ। वहाँ से काम करके वापिस आने ही लगा था कि पाया कि छात्रों का जलूस निकल रहा है विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के चुनावों के ​सिलसिले में। ऐसा जाम लगा कि एक घंटे से ज्यादा वहीं फंसे रहे न आगे जा सके न पीछे। सुनील रोष से बोले।

एक तो शहर की सड़कें ही इतनी चौड़ी हैं कि मुश्किल से एक ही गाड़ी निकल पाती है और ऊपर से बाजार में इतनी भीड़ हो गयी है कि अब तो ट्रैफिक के कारण डर और लगता है बाजार जाने में। ये भीड़ भड़क्का कहीं आने जाने लायक छोड़गा ही नहीं इस शहर को। वहीं पैदल, साइकिल, रिक्शा चल रहे हैं वहीं घोड़ा ताँगा और वहीं स्कूटर, मोटरसायकिल, कार, बसे और ट्रक चल रहे हैं। बस एक रेल की कमी रह गयी है। और मंडी की तरफ तो बहुत ही बुरा हाल है। हम तो चला नहीं पाते बाजार में कोई भी वाहन। एक जगह खड़ा करके पैदल ही काम निबटाते हैं। विजय बाबू शिकायती लहजे में बोले।

अजी इतने ट्रैफिक में भी इन लड़कों को देखो कैसे सायं सायं करते हुये आड़े तिरछे चलाते हैं मोटरसायकिल। और मोटरसायकिल तो हो गया है पुराना शब्द। अब तो सीधे बाइक बोला जाता हैं। एक भी हेलमेट नहीं लगाता और रोज एक्सीडैन्ट होते हैं इनके और या तो ये बाइक वाले खुद चोट खाते हैं या दूसरों को चोट देते हैं। अशोक ने कहा।

अशोक बाबू कहीं न कहीं घर के लोग भी जिम्मेदार हैं। बारह चौदह साल के लड़कों को बाइक दे देते हैं और लड़कियाँ ही कौन सा कम हैं जब से सेल्फ स्टार्ट वाले दुपहिया वाहन आ गये हैं लड़कियाँ भी दौड़ी घूम रही हैं। लाइसेंस लेने की उम्र हुयी या न हुयी हो बस बाइक लेकर निकल पड़ते हैं शहर में। सुनील बोले।

सुनील जी बच्चे भी क्या करें। स्कूल कालेज से छुटकर कोई कोचिंग करने जा रहा है कोई कुछ अन्य रूचि की चीज सीखने जा रहा है। समय बदल गया है और लोगों की जरूरतें भी पर शहर की सुविधायें वहीं की वहीं हैं जहाँ बीस तीस साल पहले थीं। सड़कें तो उतनी ही चौड़ी हैं और संख्या में गाडि़याँ बढ गयी हैं बेतहाशा जाम न लगे तो क्या हो। विजय ने कहा।

हरि बोले,” जाम लगने की अच्छी बात कही। परसों का सुनो। पिछले हफ्ते नातिन आयी हुयी थी नये साल की छुट्टियाँ मनाने पर यहाँ आकर उसे लग गयी ठंड। तो मैं उसे छोड़ने रूड़की चला गया। रात में सोचा कि जब रूड़की तक आ गया हूँ तो अगले दिन सुबह जल्दी हरिद्वार जाकर वहीं से वापसी की बस ले लूँगा। बस सुबह हरिद्वार पहुँच गया और गंगा जी के दर्शन करके बारह बजे की बस ले ली सोचा था पाँच नहीं तो छह घंटे में घर पहुँच ही जाऊँगा। रूड़की तक पहुँचते-पहुँचते आँख भी लग गयी। नींद खुली तो पाया कि बस रूकी हुयी थी। दूर दूर तक गाडि़याँ ही गाडि़याँ दिखायी दे रही थीं। बड़ा तगड़ा जाम लग रहा था। बस में चाट और मूंगफली बेचने वाले लड़के चढ़े तो मैने पूछा कि माजरा क्या है और कहाँ रूके हुये हैं। उसने बताया कि पुरकाजी से करीब आधा किमी पहले बस खड़ी है और पहले आगे ​सिखों का कोई जलूस निकल रहा था और जिसके कारण पुरकाजी के दोनों ओर जाम लग गया जो अब इतनी खराब ​स्थिति में पहुँच चुका है कि जल्दी खुलने वाला है नही। बस से नीचे उतरे तो देखा बसें, ट्रक, ट्रैक्टर अपनी लम्बी ट्रालियों सहित, कारें,  और भैंसा-बुग्गी, आदि सब कुछ आपस में गडमड होकर फंसे हुये थे। दर्जनों ट्रक तो गन्ने से लदे दिखायी दे रहे थे। दो तीन सेना के ट्रक भी दिखायी दे रहे थे।

थोड़ा रूककर हरि बोले,” दिखायी तो दे ही रहा था कि जाम जल्दी खुलने वाला है नहीं पर दिल को कैसे राहत हो। हर आदमी को जल्दी होती है। नीचे खड़े लोगों में से कुछ जलूस को कोस रहे थे कि इसे भी आज ही निकलना था। जलूस वाले तो अपना काम कर गये पर इस जाम में फंसे लोगों के कामों का क्या होगा।

अशोक बोले,” जब से डा. मनमोहन ​सिंह पी.एम बने हैं तबसे सिखों में जोश भी बहुत ज्यादा आ गया है। रोज़ ही इनके जलूस निकल रहे हैं”।

हरि हँस कर बोले,” अजी और क्या अब तो पहली बार सेना प्रमुख भी एक ​सिख बने हैं। जोश तो आना ही चाहिये। सही मायने में नारा सही हो गया है कि राज करेगा खालसा। पर अभी कुछ साल पहले ही तो खालसा के तीन सौ साल पूरे होने के जश्न मनाये गये थे। अब कौन सा अवसर आ गया इतना बड़ा जलूस निकालने का। और वह भी पुरकाजी जैसी छोटी जगह में?”

अब सरकार को गम्भीरता से सोचना चाहिये इन धार्मिक और राजनीतिक जलूसों के बारे में कोई नीति बनाने के बारे में। रोज ही कोई न कोई जलूस निकल रहा है और जनता परेशान होती रहती है। हर सम्प्रदाय और राजनीतिक दल को इस जलूस निकालने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना चाहिये। विजय ने कहा।

सुनील भी सहमति में बोले,” हाँ जी कोई जनहित याचिका होनी चाहिये इस पर भी। सुप्रीम कोर्ट आदेश देगा तब ही कुछ हो पायेगा। कोई भी सरकार अपने आप कुछ करने वाली है नहीं ऐसे मामले में सबको सबके वोट चाहियें। फिर यहाँ तो ये हाल है कि दूसरे सम्प्रदाय और दूसरे दल के जलूस आदि खराब हैं और हमारे तो मतलब से ही निकलते हैं।”

हरि ने कहा,” अजी आप आगे तो सुनो जाम की बात। हमारी बस के एक यात्री ने अपने मोबाइल से किसी को फोन किया तो पता चला कि वे महाशय भी इसी जाम में फंसे हुये हैं जबकि वे हमारी बस से दो घंटे पहले वाली बस से चल पड़े थे। मतलब दो घंटे पहले से तो जाम लगा ही हुआ था। हमारी बस करीब दो बजे जाम में आकर रूकी थी और करीब चार बजे जाम खुलने पर खिसकी। रात़े साढ़े आठ बजे घर पहुँचे। रास्ते में कहीं मौका नहीं लगा कि घर पर फोन करके बता दें। बस वाला फिर कहीं रूका ही नहीं सवारियों को उतारने के अलावा।”

हाँ जी चिन्ता तो हो ही जाती है घर पर। मोबाइल का बड़ा फायदा है ऐसे समय। कहीं भी फंसे हों ऐसी ​स्थिति में कम से कम घर पर फोन से बता तो सकते हैं। अशोक ने कहा।

उस दिन तो हमें भी मोबाइल के फायदे नजर आये। पर सबसे खराब लगा एक एम्बूलैंस को देखकर। जब जाम खुला तो थोड़ा सा चलने के बाद ही हमारी बस को क्रॉस किया एम्बूलैंस ने। कहीं पास में दुघर्टना हुयी होगी और घायल लोग भी कब से जाम में फंसे पड़ होंगें। एम्बूलैंस लगभग जाम के बीच में फंसी हुयी थी। ना तो रूड़की की तरफ जा सकते थे और ना ही वापस मुजफ्फरनगर की ओर। छोटे बच्चों का अलग बुरा हाल था। हरि बोले।

जलूस निकालने वालों या जाम लगाने वालों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि उनके काम का दूसरे लोगों पर क्या फर्क पड़ रहा हैं। ये लोग तो अपनी ही धुन की ऊर्जा से भरे हुये होते हैं इन्हे कुछ दिखायी नहीं देता अपनी जरूरत के ​सिवा। विजय ने कहा।

सुनील बोले,” सड़क जाम करना तो सबसे आसान काम है अपने देश में। इलाके का ट्रांसफारमर फूक गया है तो सड़क जाम कर दो। सरकार की किसी बात से नाराजगी है तो सड़क जाम कर दो। ये सरकार को संदेश पहुँचाने का एक आसान तरीका लगता है लोगों को। जाम वाले ये नहीं सोचते कि सड़क पर चल कौन रहा है किसे अपने काम पर जाने की जल्दी है? उनके जैसे ही जनता के आम लोग। इन मंत्रियों और बड़े अधिकारियों का क्या फर्क पड़ता है ऐसे जामों से। भुगतना तो आम आदमी को ही पड़ता है”।

एक और बात भी तो है किस तरह सरकार तक अपनी आवाज पहुँचायी जाये। खैर छोड़ो इस बात को। तो सुनील जी जी शहर में आज छात्रों का चुनाव प्रचार चल रहा है। अशोक ने पूछा।

हाँ कारों की छतों पर बैठकर छात्र छात्रायें चुनाव प्रचार कर रहे थे। इतनी कारें, स्कूटर, मोटरसायकिलें थीं उन लोगों के काफिले में कि अचरज होता है सोचकर कि ये कालेजों के छात्रसंघ के चुनाव के लिये प्रचार हो रहा है। ऐसा लगता था जैसे एम.एल.ए या सभासद के चुनाव के चुनाव के लिये निकले हों।

अरे छात्रसंघों के चुनावों से लाभ क्या होना है इन कालेजों और विश्वविद्यालयों का। चारों तरफ दीवारें पोस्टरों से पाट देते हैं। चुनाव तो ये लोग ऐसे अन्दाज़ में लड़ते हैं जैसे विधायकी या सांसदी का चुनाव लड़ रहे हों। ऊपर से चुनाव में होने वाले इन इन लोगों के झगड़े। हरि बोले।

विजय बोले,”चुनाव की जरूरत क्या है और चुनाव हो भी तो प्रत्याशियों के लिये पढ़ाई में मेरिट सबसे बड़ा क्राइटेरिया होना चाहिये। अभी तो ये हाल हो गया है कि चुनाव वे छात्र लड़ते हैं जिनका पढ़ने लिखने से कोई मतलब नहीं रह गया है। राजनीति तो कालेज स्तर से ही खराब हो जाती है। वहीं से युवा लोग गुंडों के सामने नत-मस्तक होना सीख जाते हैं क्योंकि जहाँ बहुमत शिक्षा प्राप्त करके अपना जीवन संवारने के लिये वहाँ जाता है वहीं राजनीतिक महत्वाकांक्षा लिये हुये गुंडे टाइप युवा सिर्फ राजनीति चमकाने कालेजों में पड़े रहते हैं और अच्छे विधार्थियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते हैं”।

…जारी…

जून 19, 2011

उदारीकरण और भारत

बतकही : आरम्भ और
सोनिया गाँधी और संघ परिवार से आगे
:-
9 जनवरी, 2005

तीनों लोग धीरे धीरे चलकर पार्क में पहुँच गये। एक तरफ कुछ बच्चे टेनिस की बॉल से क्रिकेट खेल रहे थे। तीनो लोग पार्क के दूसरे कोने की और बढ़ गये जहाँ सीमेन्ट की बैंचें भी लगी हुयी थीं।
तीनों ने बैंचों पर न बैठकर नीचे घास में ही आसन जमा लिया। हरीश बाबू तो अपनी दायीं करवट से लेट ही गये और ​िसर को दायें हाथ के सहारे से उठा दिया। विजय बाबू ने बैठकर अपने दोनो हाथों को शरीर से पीछे जमीन पर टिका दिया।

अशोक बाबू सुखासन की मुद्रा में बैठ कर बोले ये विकास प्राधिकरण द्वारा विक​सित कालोनियों में ये बात अच्छी है कि ये पार्क आदि के लिये प्रावधान रखते हैं। कभी कभार यहाँ आकर बैठना हो जाता है और बच्चों को खेलने की जगह मिल जाती है वरना सड़क पर खेलते रहते हैं।

ये बात तो है ही। फिर सारी चीजें पूर्वनियोजित रहती हैं ऐसी परियोजनाओं में। नब्बे डिग्री पर आपस में काटती सड़के मिलती हैं। सीवेज ​सिस्टम पहले से मिलता है। फिर अपनी इस कालोनी के तो बहुत सारे फायदे हैं। शहर के कोलाहल और प्रदुषण से दूर। बस एक परिवहन की समस्या है यदि अपना वाहन खराब हो या न हो तो शहर जाने की दिक्कत है। पर ये भी दो तीन सालों में ठीक हो जायेगा। विजय बाबू ने कहा।

कुछ सालों में नहीं विजय बाबू। साल भर में ही। आपको पता है मेन रोड से जो डबल लेन हमारी कालोनी की तरफ आ रही है वहाँ शुरूआत में ही ​स्थित बाग वाली जमीन का विवाद सुलझ गया है और जमीन बिक गयी है। वहाँ जल्दी ही एक मल्टीप्लैक्स और एक शापिंग मॉल बनने वाला है। हरि बाबू ने सूचित करते हुये कहा।

अजी वो आम के बाग वाली जमीन की बात तो नहीं कर रहे आप। वो तो जमीन ही करोड़ों की है, किसने ले ली? अशोक बाबू ने अचरज प्रकट किया।

हाँ जी वही जमीन जो कारगिल मे शहीद हुये मेजर के नाम पर खुले पैट्रोल पम्प के पीछे है। ऐसा सुना जा रहा है कि जो उद्योगपति इस बार एम.पी. की सीट के लिये चुनाव में खड़ा हुआ था, उसी ने सारी जमीन खरीदी है। हरि बाबू ने आगे बताया।

इनका क्या है, धनी लोग हैं। जो चाहे खरीद लें जो चाहे बना लें जैसा चाहे बना लें। दिक्कत तो आम आदमी की है। यदि मकान में एक खिड़की भी बाद में अतिरिक्त बनवानी पड़ जाये तो ये प्राधिकरण और नगर निगम वाले खून पी जाते हैं आदमी का कि आपने बना कैसे ली बिना उनकी मंजुरी के। विजय बाबू ने कहा।

बात आप सही कह रहे हो जनाब। हमारे घर से दो मकान छोड़कर विकास प्राधिकरण का इंजीनियर रहता है। उसने पूरे मकान का नक्शा ही बदल दिया है कौन उसे कहने आयेगा। और एक हमारे पीछे पेपर मिल का इंजीनियर रहता है। बेचारे ने पीछे वाली खाली जमीन पर दो कमरों का सैट बनवा लिया ये सोचकर कि प्राइवेट नौकरी है और कम्पनी की हालत डांवाडोल चल रही है। बन्द भी हो सकती है और ऐसा हो गया तो नये बनाये दो कमरे किराये पर दे देगा।
एकदम से दूसरी नौकरी मिले न मिले। उसे रूला मारा प्राधिकरण वालों ने। मेरे पास आया था सोचकर कि शायद मेरी पहचान होगी विकास प्राधिकरण के इंजीनियर से। हम गये भी पर इससे बस इतना हुआ कि जो पैसा उससे माँगा जा रहा था उसमें कुछ घटोत्तरी हो गयी। हमारी तो समझ में आता नहीं कि जब प्राधिकरण मकान बेच दिये पीछे की खाली जमीन के भी पूरे पैसे लेकर तो अब खरीदने वाला आदमी कुछ भी करे उस जमीन का चाहे तो अमरूद के पेड़ लगाये या ताजमहल बनाये। उसकी मर्जी। भाई अगर कोई ऊपर की मंजिल बना रहा है या मकान के आगे की सरकारी जमीन हड़प रहा है तब तो विरोध की बात समझ में आती है पर जिस जमीन का पैसा प्राधिकरण पहले ही ले चुका है उस पर निर्माण करनें से उनके पेट में दर्द क्यों होता है? अशोक बाबू गुस्से में बोले।

इन सरकारी दफतरों का हिसाब ऐसा ही है। जहाँ जिसे जो पावर मिली हुयी है वह उसी का रोब दिखाकर कमाई कर रहा है। इन दफतरों के चक्कर में फंस कर अच्छा भला आदमी पागल हो जाये। आदमी को ये इतने कानून बता देंगे कि आदमी उस काम से ही तौबा कर लेगा। यहाँ अपने देश में तो एक ही चीज चलती है मुद्रा। पैसा दो और काम कम बाधाओं के साथ कराओ। घूस लेना देना फैशन हो गया है और अब तो लगता ही नहीं कि कोई ऐसा विभाग भी होगा जहाँ आज भी बिना धन दिये काम हो सकता हो। विजय बाबू ने कहा।

अजी आप लोगों को भले ही पसन्द न हो भाजपा पर भाजपा के राज में ही इंस्पेक्टर राज खत्म हो रहा था। सब तरह के कंट्रोल सरकार हटा रही थी। पहले रसोई गैस सिलिन्डर का क्या हाल था बुक कराने के कितने समय बाद कनेक्शन मिलता था अब आज के आज ले लो। पहले स्कूटर बुक कराने के सालों बाद स्कूटर घर में आ पाता था आज एक दिन में बीस स्कूटर आप खरीद लो। ऐसा ही टेलिफोन के साथ है। भाजपा ने सोने की तस्करी का तो धंधा ही बंद करा दिया। सड़कों वाली स्वर्णिम चतुर्भज परियोजना को ही देख लो। आठ आठ लेन के हाइवे। कुछ साल और भाजपा रह जाती तो इतना चमका जाती देश को कि विश्व शक्ति तो भारत दस सालों में ही बन जाता। अशोक बाबू गर्व से बोले।

अजी दस साल कहाँ। भाजपा ने तो भारत को पिछले लोकसभा चुनावों में ही चमका दिया था। आप भूल गये क्या “इंडिया शाइनिंग” को? हरि बाबू ने मुस्कुराते हुये कहा।

अशोक बाबू को अपनी ओर देखता पाकर वे आगे बोले ऐसा नहीं है कि भाजपा ने काम नहीं किया। पर जितने आपने काम गिनाये उनमें से बहुत सारे काम या तो राव सरकार में शुरू हो गये थे बल्कि कुछ योजनाओं पर अमल तो राजीव गांधी ही शुरू करवा चुके थे जैसे टेलिफोन की बात आपने की। भारत में दूरसंचार क्रान्ति राजीव गांधी की देन है। इसी काम के लिये राजीव ने अमेरिका से सैम पित्रोदा को बुलाया था। सी डॉट आप भूल गये क्या। उस समय कितनी आलोचना राजीव की होती थी कि वह पित्रोदा जैसे टैक्नोक्रेट पर देश का पैसा लुटा रहे हैं। स्वर्णिम चतुर्भज सड़क परियोजना का पूरा खाका राव सरकार तैयार कर चुकी थी और ये हो सकता है कि बाद की संयुक्त मोर्चे की सरकारें इस पर अमल न कर पायी हों और राव सरकार द्वारा बोयी फसल भाजपा ने काटी। ये सब भी ठीक है पर दिक्कत तब आती है जब आप जब आप योजना बनाने वाले को इतना श्रेय भी न दो कि कम से कम उसने सोचा तो कि ऐसा हो सकता है। आप ही बताओ जब भाजपा ने किसी भी अच्छे काम का श्रेय अपने पूर्ववर्तियों को नहीं दिया तो भाजपा को कौन श्रेय देना चाहेगा।

विजय बाबू ने हरीश जी की बात समाप्त होते ही कहा आप एकदम लेटस्ट बात लो अशोक बाबू। अभी पिछले दिनों राव साहब का देहान्त हुआ और अटल जी ने कहा कि परमाणु विस्फोट की सब रूपरेखा राव के समय में ही बन गयी थी और तैयारी पूरी थी पर राव सरकार किसी कारण से ​विस्फोट नही करा पायी। अटल जी ने कहा कि जब वे पी0एम बने तो राव ने उनके हाथ में एक पर्चा दिया था जिस पर लिखा था कि सब तैयारी है आप आगे बढ़कर श्रीगणेश करें। अब अटल जी ने करीब छह साल सरकार चलायी और कितनी ही बार ऐसी बातें उठीं की कितनी ही ऐसी योजनायें हैं जो राव सरकार के समय में या तो निर्धारित हो गयीं थीं या शुरू हो गयी थीं और इन बातों का श्रेय राव सरकार को मिलना चाहिये पर न तो भाजपा ने न ही अटल जी ने ऐसी किसी बात का स्वागत किया बल्कि संघ परिवार इसी बात को गाता रहा कि भाजपा भाजपा के राज से पहले भारत में कुछ नहीं हुआ और देश गर्त में जा रहा था और पुरानी सब सरकारें बेकार थीं खास तौर पर कांग्रेस की सरकारें। अब अटल जी का बहुत पुराना सम्बंध राव साहब से रहा है और हो सकता है कि मित्र के देहान्त पर शोकाकुल होकर अटल जी ने भावावेश मे सच कह दिया हो और इस बात का आज की राजनीति से कोई मतलब न रहा हो। पर जब कहने का समय था तो अटल जी ने ये बात नहीं स्वीकारी। हमारी तो अटल जी से ये शिकायत रही ही है कि वे बात को तभी स्वीकारते हैं बाद में जब उस बात का कोई मतलब नहीं रहता और जब बात स्वीकारने का महत्व था तब वे राजनीति के दबाव के कारण चुप्पी साधे बैठे रहे। कितने ही ऐसे मामले हैं उनके छह साल के शासन में।

देखो जी भाजपा ने भारत को सड़े गले समाजवादी विचारों से और बाजार को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराया। अशोक बाबू कुछ हठधर्मिता के साथ बोले।

उदारीकरण तो राव सरकार के समय डा. मनमोहन ​सिंह ने शुरू कर दिया था और भाजपा और अन्य विपक्षी दल तब पानी पी पीकर उदारीकरण को कोसते थे। ढंग से याद नहीं आ रहा किस विपक्षी नेता ने संसद में कहा था कि राव साहब आप और मनमोहन ​सिंह जी आप सुन लें आने वाली पीढ़ियाँ आप दोनों को कभी माफ़ नहीं करेंगीं। हरि बाबू ने कहा।

अजी विपक्ष में रहकर सरकार का विरोध तो करते ही हैं राजनीतिक दल। भाजपा ने भी कर दिया होगा उदारीकरण का विरोध शुरू में। पर मुख्य बात तो ये है कि जब भाजपा की सरकार बनी तो उसने बाजार को उदार बनाया या नहीं। अशोक बाबू कुछ समझौते के स्वर में बोले।

विजय बाबू ने भी सहमति में ​सिर हिलाते हुये कहा कि ठीक कह रहे हो आप हमारे राजनीनिक दल सत्ता में रहकर एक ढ़ंग से व्यवहार करते हैं और विपक्ष में रहकर दूसरे ढ़ंग से। बल्कि कई बार तो अपनी ही सरकार द्वारा चलाये कार्यक्रमों का भी विरोध करने लग जाते हैं जब वही काम दूसरी सरकार चलाये रखना चाहती है। पर इन राजनीतिक चालबाजियों से अलग बात करूं तो जब इन्दिरा जी की सरकार फिर से बनी थी जनता पार्टी के शासन के बाद तो सन उन्नासी या सन अस्सी में ही इन्दिरा जी ने स्वराज पॉल को अनुमति दी थी भारत में उद्योगों में पैसा निवेश करने की और स्वराज पॉल ने अच्छी खासी रकम दो भारतीय उद्योगों में लगायी थी। याद नहीं आ रहा किस ग्रुप के उद्योग थे पर भारतीय उद्योगपति इतने सीधे हैं नहीं। उन्होने स्वराज पॉल के पौण्डस तो लगवा लिये थे अपने उद्योगों में पर उन्हे शेयर देने के समय मुकर गये थे और घबराकर या चालाकी में कोर्ट में चले गये थे। स्वराज पॉल का तो पैसा ही डूबा पर इन्दिरा गांधी के भारतीय बाजार में उदारीकरण लाने के प्रयासों पर तो पानी फिर गया वरना भारत भी चीन की तरह अपने बाजार विश्व के लिये सन अस्सी में ही खोल देता और भारत को सन नब्बे के शर्मनाक दौर से न गुजरना पड़ता जब विदेशी मुद्रा के लिये देश को सोना गिरवी रखना पड़ा।

सही कह रहे हो आप। भारतीय उद्योगपति बहुत चालाक रहा है। जब इनके पास इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं था तो इन्होने सरकार को खूब सराहा बड़े बड़े सार्वजनिक उपक्रम खड़ा करने के लिये ताकि इन्हे सस्ते रॉ मैटिरियल मिलते रहें और सालों तक ये लोग खुद चाहते रहे थे कि बाजार पर सरकार इस तरह से नियंत्रण रखे जिससे दूसरे लोगों को लाइसेंस न मिल सके उस उत्पाद को बनाने का जिसे ये बनाते रहे हैं और उनकी मोनोपॉली चलती रहे। अब जब हर तरफ वैश्वीकरण का जोर है और ये लोग बिना किसी मल्टीनेशनल कम्पनी से गठजोड़ किये बाजार में रह नहीं सकते क्योंकि नयी तकनीक तो इन्होने विक​सित की नहीं कभी भी तो अब ये सरकार को कोसते हैं। पुराने ​सिस्टम को कोसते हैं। और हर गलत चीज सरकार के माथे मढ़ देते हैं। मानो इनके उद्योगों में शोध एवं विकास का कार्य करने भी उद्योगमंत्री जाता। हरि बाबू ने कहा।

हाँ कांग्रेस के जमाने में भारत में एक ही कार एम्बेस्डर बनती थी और उससे छूटो तो फियेट मिलती थी आज देखो बाजार अटा पड़ा है तरह तरह की कारों से। अशोक बाबू ने कहा।

अशोक जी मारूति भी कांग्रेस सरकार की ही देन है। इसके लिये सजंय गांधी की अच्छी खासी फजीहत हुयी थी विपक्ष द्वारा। जैसे राजीव गांधी की ऐसी तैसी कर रखी थी तब के विपक्ष ने कम्पयूटर के नाम पर कि देश का पैसा बिना मतलब ऐसी मशीनों पर खर्च किया जा रहा है जिनकी भारत को जरूरत ही नहीं है। आज मारूति सबसे ज्यादा कारें बेच रही है और निर्यात भी कर रही है। और कम्पयूटर का क्षेत्र विक​सित न होता भारत में तो जो नवयुवकों की फौज सॉफ्टवेयर आदि के काम में जुटी पड़ी है इसे कहाँ से तो रोजगार मिलता? आज तो ये लोग देश विदेश में झंडे गाड़ रहे हैं पर तब क्या होता? । हरि बाबू ने कहा।

अशोक बाबू ने भी हामी भरते हुये कहाये तो बात है। चाहे ​सिविल इंजीनियरिंग का स्टुडैन्ट हो या मैकेनिकल का नौकरी सब सॉफ्टवेयर में कर रहे हैं । विजय बाबू को सोच में डूबा देखकर उन्होने पूछा आप किस सोच में पड़ गये?

मैं ये सोच रहा था कि सारी सरकारें सार्वजनिक उपकरणों को क्यों बन्द करना चाहती हैं? अब ये नये पेटेन्ट कानून का हल्ला उड़ा हुआ है कि इसके लागू होने के बाद दवाइयों के दाम आसमान छूने लगेंगे। अच्छा खासा आइ.डी.पी.एल था। जीवनरक्षक दवाइयां बनाता था और इस और इस कारण बाजार में ऐसी दवाइयों के मूल्य पर नियंत्रण रहता था। सरकार ने घाटे के नाम पर बन्द करा दिया सारा का सारा आइ.डी.पी.एल जबकि उसकी सब यूनिटें तो घाटे में थी नहीं। जो घाटे में थीं उन्हे बन्द कर देते। वैसे भी नेहरू के समय आइ.डी.पी.एल कोई लाभ कमाने के लिये तो लगा नहीं था। बाजार में जीवनरक्षक दवाइयों की आपूर्ति करना और कीमतों पर नियंत्रण रखना ये दो उददेश्य थे।

अजी सरकारी कम्पनियों के साथ सौ बबाल होते हैं। कितने ही सरकारी विभाग ऐसे होंगे जिन पर कम्पनी का बकाया होगा क्योंकि कोई भी सरकारी विभाग दूसरे सरकारी विभाग को समय पर भुगतान तो करता नहीं। और हमें तो पता चला था कि दवाई बनाने के मामले में तो कम्पनी अच्छी थी पर अपनी दवाइयां बेच नहीं पाती थी बाजार में। हरि बाबू ने कहा।

बेचती भी कैसे। प्राइवेट कम्पनियाँ तो डाक्टरों को कमीशन दे सकती हैं गिफ्ट दे सकती हैं जिससे डाक्टर लोग उनकी बनायी दवा को मरीजों को रिकमेन्ड करें। सरकारी कम्पनी कहाँ से कमीशन और गिफ्ट देगी। आइ.डी.पी.एल ने भी मार्केटिंग में मात खायी होगी। हमने तो सुना है कि एक प्राइवेट दवा कम्पनी आइ.डी.पी.एल से बल्क में दवा का पाउडर खरीदती थी। कैपसूलेशन अपने आप करती थी और अस्सी के दशक में एक कैपसूल साढ़े तीन रूपये का बेचती थी। जबकि आइ.डी.पी.एल का उसी दवा का अपना बनाया कैपसूल पिच्चहत्तर पैसे या एक रूपये में मिला करता था पर तब भी डाक्टर प्राइवेट दवा कम्पनी वाले कैपसूल को खरीदने को कहते थे। इन सार्वजनिक उपकरणों का मैनेजमैंट भी सुस्त रहा होगा जो अपनी दवाओं की मार्केटिंग प्राइवेट कम्पनियों से ठेके पर नहीं करवा पाये। विजय बाबू बोले

अरे सरकारी कर्मचारी काम कहाँ करके देते हैं। फिर यूनियनबाजी। पचासों अन्य कारण रहे होंगे घाटे में जाने के। हमें तो याद आता है कि राव सरकार के समय ही बंद हो गयी थी आइ.डी.पी.एल। अशोक बाबू ने कहा।

नहीं बंद तो शायद छियानवें में हुयी है पर बी.आइ.एफ.आर ने इसे बीमार घोषित तो सन बयानवें में ही कर दिया था। विजय बाबू ने कहा।

और बेवकूफियां देखो कैसी कैसी चलती हैं भारत में। सरकारें गाना गाये जाती हैं कि टैक्स पेयर्स का पैसा ऐसे बर्बाद नहीं किया जा सकता हानि में चलने वाली यूनिटों को चलाने में और उधर आइ.डी.पी.एल जैसी यूनिटों के केस चल रहे हैं कोर्ट में। अब सरकार पैसा देती है ऐसे कर्मचारियों को जिन्होने वी.आर.एस नही लिया और जो अभी केस लड़ रहे हैं इस आशा में की कभी तो फैक्टरी दुबारा चलेगी। भले ही सरकार छह छह महीने का पैसा देती है ऐसे कर्मचारियों को पर ये पैसा क्या पेड़ से टपक रहा है? ये पैसा भी टैक्स देने वाले लोगों का ही है। अब जब तक फैक्टरी का निश्चित फैसला नहीं हो जाता तब तक सरकार ऐसे ही पैसा देगी वो भी बिना कुछ काम लिये हुये। एक तो इतना बड़ा क्षेत्र जहाँ फैक्टरी थी आावासीय कालोनी थी स्कूल थे अस्पताल था सब रखरखाव के अभाव में खंडहर हो रहा होगा दूसरे यदि खुदा न खास्ता कभी फैक्टरी को दुबारा चलाना तय हो गया तो सरकार को कितना धन खर्च करना पड़ेगा सब टूटे फूटे को फिर से संवारने में। अगर फैक्टरी चलती रहती तो कम से कम दवाओं का निर्माण तो होता रहता और हो सकता है कि मुक्त बाजार के दौर में ये कम्पनी भी उठ जाती। हरि बाबू ने कहा।

बात तो आप एकदम खरी कह रहे हो। ये जो आई.आई.एम और ऐसे अन्य मैनेजमैंट संस्थानों का इतना हल्ला है और हर साल अखबार छापते रहते हैं कि इस बार यहाँ के स्टूडैन्ट को इतने लाख रूपये का पैकेज मिला और वहाँ के स्टूडैन्ट को उतने लाख का। तो ये क्या पढ़ाते हैं वहाँ। एक भी स्टूडैन्ट ऐसे संस्थानों से नहीं निकलता जो कहे कि मुझे दो ​सिक यूनिट और मैं इसे ढ़ंग से चलाकर दिखाऊंगा। और क्या वहाँ पढ़ाने वाले प्रोफेसर करते हैं जो एक के पास भी समाधान नहीं है बीमार सार्वजनिक उपकरणों की दशा सुधारने का? अशोक बाबू ने शंका प्रकट की।

ये प्रोफेसर इतने उद्यमी होते तो अपने कई उद्योग खड़े कर चुके होते क्लासरूम में लैक्चर न दे रहे होते और सारे संस्थान लाइन लगा देते देश भर में रतन टाटा राहुल बजाज अम्बानी और प्रेमजी जैसों की। ये लोग तो नौकरी कर सकते हैं। जो कम्पनी चल रही है उसी में काम करके पैसा कमा सकते हैं। कुछ विद्धार्थी होते हैं उद्यमी भी, पर उनकी गिनती बहुत कम है। हरि बाबू ने कहा।

अशोक बाबू को बहुत मजेदार लगी बात और वे हँसकर बोले,” सही कह रहे हो आप जो कभी आई.आई.टी न निकाल पाये ऐसे अक्सर कोचिंग देते हैं जे.ई.ई पास करने की”।

विजय बाबू भी हास्य में योगदान देते हुये बोले,” याद नहीं आपको इस लोकसभा चुनाव में दिल्ली से एक मैनेजमैंट गुरू भी लोकसभा चुनाव में खड़ा हुआ था। अब खुद ही हार गया। पता नहीं जमानत भी बची थी या नहीं। स्लोगन बड़ा अच्छा है उसका- विनर्स डोन्ट डू डिफरेन्ट थिंग्स दे डू थिंग्स डिफरेन्टली। अब दिल्ली में कितने लोगों ने उसकी किताब पढ़ी होगी? मैनेजमैंट के स्टूडैन्टस ही वोट दे सकते हैं”।

अशोक बाबू भी हँसते हुये बोले,” हाँ जी पर उपदेश कुशल बहुतेरे”। लो जी सुनील जी भी आ गये आओ सुनील जी पहले तो आप बधाई स्वीकार करो बेटे के प्रमोशन की। हमें तो विजय बाबू से पता चला।

…जारी…

जून 19, 2011

सोनिया गाँधी और संघ परिवार

बतकही : आरम्भ से आगे :-

…9 जनवरी, 2005…

सही कह रहे हो आप। उन्ही अटल जी की कविताओं को अमिताभ द्वारा स्वर दिये जाने की बात थी लोकसभा चुनावों से पहले। ये तो वक्त वक्त की बात है। भाजपा, शिव सेना ने बच्चन परिवार का जीना मुश्किल कर दिया था और शिवसेना ने तो अमिताभ की शहंशाह फिल्म की रिलीज पर जमकर हँगामा किया था। आज अमिताभ को कहना पड़ता है कि बाल ठाकरे तो उनके मित्र हैं। आज तो अमिताभ सपा के साथ खड़े दिखायी देते हैं जबकि मुलायम ​सिंह यादव ने भी बोफोर्स के दिनों में वी.पी.सिंह के समर्थन में बच्चन परिवार के खिलाफ जम कर सभायें की होंगी। आपको याद होगा कि सपा ने अमिताभ बच्चन की लोकप्रियता अपने पक्ष में भुनाने के लिये ब्लड डोनेशन कैम्प लगवाये थे क्योंकि अमिताभ अब राजनीति में सीधी भागीदारी से बचते हैं और ऐसे ही किसी जगह उन्होने कह दिया था कि मुलायम सिंह यादव तो उनके लिये पिता समान हैं। तब भाजपायी नेताओं ने पूरे चुनावों के दौरान अमिताभ की खिल्ली उड़ायी थी कि साठ साल का पुत्र और पैंसठ साल का पिता। अब अमिताभ ने जो कहा था वह एक भावनात्मक बात थी। और आप ताज्जुब देखो कि कुछ समय बाद जब अटल जी की कविताओं को लता मंगेशकर ने गाया था और कैसेट के विमोचन पर लता जी कह रही थीं कि अग्रेंजी में नाम लिखने पर लता का उल्टा अटल है और अटल का उल्टा लता और अटल जी मेरे पिता समान हैं तो भाजपायी भावविभोर होकर धन्य हो धन्य हो का कोरस गान कर रहे थे। अब भाजपाइयों जैसा कोई कह ही सकता था कि अठत्तर साल की पुत्री और अस्सी साल का पिता। पर माफ करना अशोक जी ऐसी टिप्पणियाँ सामान्यत: भाजपा के खेमे से ही निकलती रही हैं। बरसों ये लोग विपक्ष में रहे हैं सो बिना किसी जवाबदेही के कुछ भी बोलने की आदत पड़ गयी है जो छह साल की सत्ता मिलने के बाद भी नहीं गयी है।

आप तो विजय बाबू ऐसे कह रहे हो जैसे मैंने पूरी भाजपा का ठेका ले लिया हो। अरे कह दिया होगा किसी राज्य स्तर के छोटे मोटे नेता ने कुछ। सबके मुँह से फिसल जाता है। भाजपा का केन्द्रिय नेतृत्व देखिये कितना शालीन है। आडवाणी जी को देखो। मजाल है कोई फालतू बात मुँह से निकल जाये जैसे फिल्टर लगा हो मुँह में और हर बात छनकर बाहर आती हो। आपको याद दिला दूँ कि त्याग की मूर्ति सोनिया गांधी ने अटल जी के लिये कहा था कि जिनके अपने घुटने कमजोर हों वे देश क्या संभालेंगें। अभी इनकी पुत्री प्रियंका गांधी ने लोकसभा चुनाव के दौरान अटल जी जैसे वष्ठितम राजनेता के खिलाफ टिप्पणी कर दी थी वह भी थी उनके स्वास्थ्य को लेकर। अब ये हैं क्या अटल जी के सामने। अशोक बाबू भड़कते हुये बोले।

मैने पहले भी सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी की टिप्पणियों की आलोचना की थी। शारीरिक अवस्था पर टिप्पणी स्वस्थ बात नहीं है। वैसे इस तरह की शुरूआत तो चीन युद्ध के बाद डा.लोहिया की बीमार नेहरू पर की गयी टिप्पणी से ही हो गयी थी। बाद में उन्होने इंदिरा गाँधी पर भी व्यक्तिगत टिप्पणी की थी। शायद उन्होने या उनके किसी समकालीन बड़े नेता ने उन्हे गूँगी गुड़िया कहा था। किसी ने उनके बारे में कहा था कि संसद में अब एक हसीन चेहरा देखने को मिल जायेगा। वैसे अशोक जी मेरा मानना है कि भाजपा और सोनिया गांधी के मामले मे पहल भाजपा द्वारा की गयी है। बरसों ऊटपटांग टिप्पणियां सोनिया पर की गयी हैं और आज भी की जाती हैं। अभी पिछले राजस्थान चुनावों की बात ले लो। भाजपा की तो जबर्दस्त जीत हुयी थी वहाँ। इंडियन एक्सप्रेस के संपादक शेखर गुप्ता की रिपोर्ट थी। शेखर जब चुनाव की कवरेज के लिये जयपुर–कोटा राजमार्ग पर ​स्थित एक गाँव में चाय की दुकान पर ठहरे तो वहाँ भाजपा समर्थक दावा कर रहा था कि उसने आर.एस.एस की किसी पत्रिका में पढ़ा था कि कुछ पत्रकार इटली में सोनिया गांधी के गाँव में गये थे और उन्हे वहाँ बताया गया था कि सोनिया इटली में कैबरे डांसर हुआ करती थीं। शेखर ने कहा कि ऐसा नहीं है और मान लो किसंघ की पत्रिका में ऐसा छपा भी हो तो आप लोग ऐसी बात को गम्भीरता से नहीं ले सकते। पर भाजपा समर्थक मानने को तैयार नहीं थे। मान लो शेखर गुप्ता झूठ बोल रहे थे उनका भाजपा से दुराव और कांग्रेस से लगाव रहा होगा। दूसरा किस्सा सुनो जो हमारा अपना ही सुना हुआ है। लोकसभा चुनावों की बात है। उन्ही दिनों हमने बच्चों से इंटरनेट प्रयोग करना सीखा था। टाइम्स आफ इण्डिया की वेब साइट हमने खोली और समाचार पढ़ने लगे। वहाँ हमने रेडियो पर भी समाचार सुने। वहीं हमारी दृष्टि पड़ी एक खबर पर राहुल गांधी के खिलाफ खड़े भाजपा के उम्मीदवार श्री वेदांती से वार्ता। मै‍र्ने उस वार्ता के लिंक पर क्लिक कर दिया। एक से बढ़कर एक वचन सुनायी दिये वेदांती जी के सुमुख से नेहरू–गांधी परिवार के खिलाफ खासकर सोनिया और राहुल के खिलाफ। वेदांती जी को पता चला कहीं से कि राहुल का प्रेम चल रहा है किसी कोलम्बियन लड़की से तो वेदांती जी लगे पड़े थे कि अमेठी में कोलम्बिया की एक हजार लड़कियां घूम रही हैं नवयुवकों के वोट राहुल को दिलवाने के लिये। शाम को बागों में अश्लील नृत्य चल रहे हैं।

साक्षात्कार लेने वाले ने पूछा कि वेदांती जी क्या आपने खुद देखा है किसी विदेशी लड़की को। तो वेदांती जी बोले कि हमारे देखने की जरूरत नहीं है सब जानते हैं। और आगे सुनो। वेदांती जी ने सोनिया गांधी को अपशकुनी बता दिया कि सोनिया के आने से सबसे पहले संजय गांधी की अकाल मृत्यु हुयी और फिर इन्दिरा और राजीव गांधी की हत्यायें। अब वेदांती जी की परिभाषा से मेनका गांधी क्या हुयी ये तो वही जाने। और इस सोच से वरुण गाँधी कितने भाग्यशाली हुये अपने पिता के लिये? आप खुद ही बताओ ऐसी दकियानूसी बातें कहाँ मिलेंगी?

अजी विजय बाबू ऐसे एक दो तो हरेक पार्टी में होते हैं। कौन सा किसी को जीतना था राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी से? ये तो इस फैमिली की घर की सीट है।

अशोक बाबू बात यह है कि क्या ऐसे लोगों को टिकट देकर भाजपा लोकतंत्र को मजबूत बना रही है? आज सीटे जीतने के लिये आप जनता की भावनाओं को भड़काने के लिये कैसे ही लोगों को टिकट दे दो पर इतिहास गवाह है कि अन्त में मुसीबत आपकी भी आनी है। आखिर छह साल सत्ता में रहते हुये भाजपा ने झेला ही था विहिप आदि के तानों को। ये तो भाजपा को सोचना है कि वह परिपक्व राजनीति करना चाहती है या ​सिर्फ सत्ता पाने के लिये शार्टकट इस्तेमाल करना चाहती है।

आप ये बताओ विजय जी कि ये नेहरू–गांधी परिवार और बच्चन परिवार में ऐसा क्या झगड़ा हो गया? अखबार तो ये लिखते हैं कि अब दोनो परिवार एक दूसरे से बिल्कुल नहीं मिलते और कहाँ तो ऐसी निकट की दोस्ती थी कि राजीव गांधी छुट्टियाँ तक अमिताभ बच्चन के साथ बिताते थे। हमने तो सुना है कि जब अमिताभ बच्चन को चोट लगी थी सन बयासी में तो इन्दिरा गांधी विदेश से अपनी सरकारी यात्रा अधूरी छोड़कर वापिस आ गयीं थीं और राजीव गांधी भी अमेरिका से तुरन्त आ गये थे और सीथे अस्पताल पहुँचे थे। हमने तो ये तक सुना है कि शुरू में सोनिया गांधी बच्चन परिवार के यहाँ ही ठहरी थी जब राजीव गांधी से शादी हुयी थी। अब ऐसा क्या हो गया? आप ये न कह देना कि इन दोनों परिवारों में अलगाव भी भाजपा का कराया हुआ है। अशोक बाबू हँसकर विषय बदलते हुये बोले।

अजी बड़े लोग हैं। क्यों मनमुटाव हो गया क्या हो गया ये सब बातें तो उन लोगों का आपसी मामला है। फिर सोनिया गांधी ने तो कभी कुछ कहा नहीं सार्वजनिक रूप से। या तो अमिताभ ने कहा था कि हम रंक हैं और नेहरू–गांधी परिवार राजा है और सम्बंध रखना न रखना तो राजा के हाथ में होता है। अब ये पत्रकार लोग भी तो हलक में माइक डाले खड़े रहते हैं। अब क्या पता है कि जया बच्चन ने चुनाव सभा में कहा कि नहीं कहा कि नेहरू–गांधी परिवार ने संकट में बच्चन परिवार का साथ छोड़ दिया। अब पत्रकारिता तो सेंसेशन वाली हो गयी है। पत्रकार लोग तुरन्त राहुल गांधी के पास पहुँच गये पूछने कि जया बच्चन तो उनके परिवार को धोखा देने वाला बता रहीं हैं। राहुल गाँधी का कहा भी सुर्खियाँ बन गया कि लोग जानते हैं कि किसने अपनी वफादारी बदली है और उनका परिवार कभी किसी का साथ नहीं छोड़ता।

विजय बाबू जया बच्चन ने कहा तो था ही कि नेहरू–गांधी परिवार ने बच्चन परिवार को मझदार में छोड़ दिया जब हम मुसीबतों से गुजर रहे थे और अमर ​सिंह और मुलायम ​सिंह ने उनका साथ दिया और ये लोग भरोसे वाले लोग हैं। हरेक अखबार में छपा था। बाद में राहुल गांधी ने कड़ा बयान दिया था। और अमिताभ ने भी कुछ कहा था।

अमिताभ बच्चन ने जो कहा था कि यदि जया ने ऐसा कोई बयान दिया है तो गलत किया है और नेहरू–गांधी परिवार तथा बच्चन परिवार की दोस्ती जया और सोनिया के इन परिवारों में आने से बहुत पहले की है तो वह एक संवेदनशील बात कह रहे थे और ऐसी बयानबाजी के कारण उनको हुआ दुख स्पष्ट पता चल रहा था। आप देखो कि उनके बयान के बाद कोई भी बयान इस ​सिलसिले में नहीं आया किसी का भी। अब अन्दर की बात तो वे लोग ही जाने पर हमें एक बात तो लगती ही है कि जितने खुले रूप में बच्चन परिवार अमर ​सिंह या सपा के साथ खड़ा दिखा दिखायी देता है उतने खुले रूप में वे लोग सोनिया गांधी के साथ खड़े दिखायी नहीं दिये राजीव गांधी की हत्या के बाद। या ये कह लो कि समय ही खराब था दोनो परिवारों के लिये कि जब दोनो परिवारों को एक दूसरे के साथ की जरूरत थी तब दोनो ही मुश्किलों में फंसे हुये थे। या शायद बच्चन परिवार को लगा हो कि गांधी परिवार तो हर तरह से सक्षम है उन्हे सहायता की क्या जरूरत है ? कुछ न कुछ गलतफहमी तो जरूर रही होगी। पर कोई भी बात एकतरफा नहीं हो सकती चाहे दोस्ती हो या दुश्मनी। अमिताभ हैं कलाकार और कलाकार बेहद भावुक होते हैं। बोफोर्स के आरोपों से त्रस्त होकर अमिताभ ने राजनीति से तौबा कर ली थी। जबकि हमारे विचार में राजीव गांधी उनसे कहीं ज्यादा परेशानी में थे बोफोर्स के कारण और उन्हे भी मित्रों के साथ की जरूरत थी पर अमिताभ राजनीति का ताप न सह पाये और मैदान छोड़ गये। लन्दन में भी तो उन्होने केस लड़ा अपने को निर्दोष साबित करने के लिये। ये काम वे सांसद बने रहकर भी कर सकते थे। उनका उस समय इस्तीफा देना मित्रधर्म नहीं था। बाद में भले ही वे राजनीति से हट जाते पर तब उन्हे राजीव के साथ मजबूती से खड़ा होना था। बोफोर्स मामले में राजीव को उनके मित्रों के ऐसे कदम पीछे हटाने से बहुत नुकसान उठाना पड़ा। अरूण ​सिंह का मसला भी ऐसा ही था। राजीव के जाने के बाद भी अमिताभ समय समय पर राजनीति से दूर रहने कि बात दोहराते रहे तो फिर सपा के केस में ऐसा क्या हो गया? भले ही समाज सेवा के बहाने से अमिताभ ने सपा के लिये समर्थन माँगा पर माँगा तो है ही। अब पता नहीं सच है कि नहीं पर अखबार में ही पढ़ा हमने कि अमिताभ ने एक निर्देशक की फिल्म साइन करने के बाद छोड़ दी ये कहकर कि उस निर्देशक को उनके पारिवारिक मित्र अमर ​सिंह से समस्यायें थीं और वे ऐसे निर्देशक के साथ कैसे काम कर सकते हैं। यदि इतनी दृढ़ता अमिताभ ने नेहरू–गांधी परिवार के प्रति भी दिखायी होती तो शायद दोनो परिवारों की दोस्ती बनी रहती। और एक राजनीतिक सच ये भी है कि उ.प्र. में यदि कांग्रेस मजबूत होती है तो सपा को राजनीतिक हानी होनी ही है । सपा परोक्ष रूप से कई बार सोनिया गांधी का विरोध कर चुकी है विदेशी मूल के मामले में। तो बच्चन परिवार तो धर्म संकट में रहता ही कि कैसे दो राजनीतिक रूप से प्रतिद्वन्द्वी दलों के मुखियाओं से दोस्ती निभाये। फिर कांग्रेस में कितने ही ऐसे होंगे जो कभी नहीं चाहेंगे कि बच्चन परिवार नेहरू–गांधी परिवार के पास आये ताकि वे सोनिया गांधी के नजदीक जा सकें। समय तो चलायमान है। चीजें बनती बिगड़ती रहती हैं।

अशोक बाबू लम्बा व्याख्यान सुनकर बोले अजी हमें क्या मतलब है इन लोगों की मित्रता से कल टूटती तो आज टूट जाये। न इनकी मित्रता से देश का भला हो रहा और ना ही मित्रता के न रहने से देश गर्त में जा रहा। सब ड्रामा है। और आप अमिताभ बच्चन की क्या बात करते हो। कांग्रेस ने इन साहब को इलाहाबाद से खड़ा किया हेमवती नन्दन बहुगुणा जैसे वरिष्ठ राजनेता को हराने के लिये। अमिताभ ने फिल्मी लटकों झटकों से उन्हे हराया होगा। बेचारे बहुगुणा जी का राजनीतिक जीवन ही खत्म हो गया उस हार से। ये ठीक लगता है आपको?

अशोक जी बहुगुणा जी तो हैं नहीं सो कुछ कहना ठीक नहीं पर जब आपने बात छेड़ी है तो आपको बताना जरूरी है कि उस चुनाव में बहुगुणा जी ने किन्नरों को किराये पर बुलाकर सारे लोकसभा क्षेत्र में घुमाया था और जगह जगह किन्नर अमिताभ की खिल्ली उड़ाते घूमते थे गाना गाकर कि मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है। ये अलग बात है कि इस सबके बावजूद अमिताभ ने बहुगुणा जी को अच्छी शिकस्त दी। हमारे ख्याल से तो बहुगुणा जी जैसे वरिष्ठ राजनेता को अपने प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार की इस तरह से खिल्ली उड़ाना शोभा नहीं देता था। अमिताभ का फिल्मों में काम करना उसमें गीत गाना या गाने पर नाचना उनके प्रोफेशन का हिस्सा थे और किसी को भी हक नहीं कि दूसरे के व्यवसाय का मजाक बनाये। यही सब कुछ पिछले चुनाव में गोविन्दा की जीत में सहायक रहा होगा। जनता इतनी मूर्ख नहीं होती जितना कि राजनेता समझ लेते हैं। और फिर आप यह क्यों भूल जाते हैं कि अगर कांग्रेस से इतनी ही दिक्कत थी या है तो बहुगुणा जी के बेटे और बेटी क्यों कांग्रेस में बने हुये हैं? उन्हे तो आपसे और हमसे ज्यादा अपने पिता के मान-सम्मान या अपमान की चिंता होगी।

अजी हमारी समझ में तो आता नहीं कि कैसे हमारे देश के लोग एक विदेशी महिला को समर्थन देते हैं। कहाँ भाजपा की प्रचंड देशभक्ति और कहाँ सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस का ढ़ुलमुलपन। कहीं कोई मुकाबला है भला। दो मिनट तो सोनिया लगातार बोल नहीं सकती यदि लिखकर न दिया जाये। अशोक बाबू तैश में आकर बोले।

अशोक बाबू ने अपनी बात पूरी की ही थी कि हरि बाबू वहाँ पँहुच गये और उनकी बात लपकते हुये बोले,” कौन दो मिनट नहीं बोल सकता बिना लिखे हुये को पढ़े? जरूर आप सोनिया गांधी को गरिया रहे होगे। अरे कभी तो बेचारी को बख्श दिया करो। अब जनता ने भाजपा को फिर से सत्ता नहीं दी तो इसमें सोनिया का क्या कसूर। आपके प्रमोद महाजन के हिसाब से तो सोनिया से माफिक कोई भी नेता विपक्ष नहीं हो सकता था भाजपा के लिये। अपनी काबिलियत से ज्यादा महाजन को सोनिया की नाकाबिलियत पर भरोसा था। कहते थे कि जब तक सोनिया विपक्ष की नेता हैं भाजपा को कोई खतरा नहीं और भाजपा सत्ता में बनी रहेगी। पर हाय री भारत की जनता उसे भाजपा की शुद्ध हिन्दी के बजाय सोनिया की टूटी फूटी इटेलियन टोन वाली हिन्दी ही पसन्द आयी।

देखो जी समर्थन तो कांग्रेस को भी नहीं दिया जनता ने फिर क्यों लपक कर सरकार बना ली और रोज़ गाना गाया जा रहा है कि सोनिया ने ये त्याग किया वो त्याग किया। इतना बड़ा त्याग किया और ऐसे त्याग की मिसाल इतिहास में नहीं मिलती। त्याग मेरी जूती। अजी जब काबिल ही नहीं थी तो पद ग्रहण न करने का नाटक किया। आपने पढ़ा नहीं था बाल ठाकरे का बयान कि राष्ट्रपति ने सोनिया को बुलाकर साफ कह दिया था कि उनके पी.एम. बनने से जटिलतायें खड़ी हो सकती हैं और हो सकता है कि सेना उनका आदेश न माने। सुषमा स्वराज और उमा भारती ने ताल ठोक ही रखी थी आंदोलन करने की। इन्ही सब बातों से घबराकर इस महिला ने कुर्सी छोड़ने का नाटक किया। अजी बहुत चतुर नारी है। अशोक बाबू आवेश में आकर बोले।

बुरा न मानना अशोक बाबू पर कुछ बातों में संघ परिवार से जुड़े घटकों की बातों पर विश्वास कर पाना मुश्किल होता है। ये लोग कैसी भी बातें फैलाते रहते हैं। हमें तो इतना पता है कि बाल ठाकरे की बात जो आप कर रहे हो खुद राष्ट्रपति महोदय ने ऐसी बातों का खंडन ​किया कि उन्होने सोनिया गांधी से इस तरह की कोई चेतावनीयुक्त बात कही थी। हमारे पास तो ऐसा कोई कारण है नहीं कि राष्ट्रपति की बात पर भरोसा न किया जाये। एक तो ऐसा एक भी व्यक्तित्व वर्तमान राजनीति में नहीं है जो देशहित में ही सब बातें सोचता कहता और करता हो। इतना ऊर्जावान राष्ट्रपति हमने तो पहले देखा नहीं कोई भी। साहब हमें तो तो पहली बार कोई राष्ट्रपति पसन्द आया है।

सही बात है हरि बाबू उन्हे पता है कि देश की जरूरत क्या है और आज की वास्तविकता क्या है। तभी उन्होने अपना सारा ध्यान बच्चों पर केन्द्रित किया है। कैसे वे बच्चों में उत्साह जगा रहे हैं। ये सब कुछ सालों में नजर आयेगा। विजय बाबू ने समर्थन किया।

ये बात तो सही कह रहे हो आप आदमी तो प्रोग्रे​सिव है भाजपा बड़ा अच्छा काम कर गयी डा. कलाम को राष्ट्रपति बनाकर। अशोक बाबू ने भी समर्थन करते हुये कहा।

अरे आप दोनो कहाँ चारदिवारी से घिरे बैठे हो। चलकर पार्क में बैठा जाये कुछ घूमना भी हो जायेगा। हरि बाबू ने प्रस्ताव रखा।

हाँ ये ठीक रहेगा बातें वहीं होंगीं अब। अशोक बाबू ने कुर्सी से उठकर अंगड़ायी लेते हुये कहा।

ठीक है मैं जरा अन्दर घर में बता कर आ जाऊँ। विजय बाबू ने कहा और घर के अन्दर चले गये।

कुछ ही देर में विजय बाबू बाहर आ गये और बोले कि चलो सुनील जी को भी देख लिया जाये कहाँ रह गये?

तीनो लोग सड़क पर आ गये। पार्क के रास्ते में सुधीर बाबू का घर पड़ा तो विजय बाबू ने गेट से ही अन्दर खेलते बच्चे से पूछा बेटा बाबा आ गये बाजार से वापिस?

बच्चे ने ना में गरदन हिलायी। तब तक आवाज सुनकर सुनील जी का छोटा बेटा बाहर आया और सबको नमस्ते करके बोला कि अभी तो पापा आये नहीं हैं ।

अरे तुम तो इस बार दो तीन हफ्तों के बाद आ रहे हो। कहाँ अटक गये थे? विजय बाबू ने पूछा।

बस जी काम के चक्कर में आना हो नहीं पाया पहले। फिर सुबह और रात को इतना कोहरा हो जाता है कि ज्यादा शाम को उधर से इधर आने की हिम्मत हुयी और ये भी पता था कि शनिवार की रात को किसी तरह आ भी गया तो सोमवार की सुबह सुबह जाना मुश्किल हो जायेगा और यदि रविवार की शाम को ही वापिस जाना पड़े तो अच्छा नहीं लगता।

सही बात है इतनी भागदौड़ से क्या फायदा। अब कोहरा कम होता जायेगा तो फिर से हर हफ्ते चक्कर लगने लगेंगे। हरि बाबू बोले।

अच्छा बेटा पापा आ जायें तो बोलना कि हम लोग पार्क में बैठे हैं वहीं आ जायें। अशोक बाबू ने कहा।

…जारी…

जून 18, 2011

बतकही : आरम्भ

चारों मित्र अपनी बैठकों को बतकही क्लब कहा करते हैं। इन बैठकों की शुरुआत तो कब हुयी यह इन मित्रों को भी याद न होगा पर सन 2005 के जनवरी माह से ये बैठकें नियमित जरुर हो गयीं। बिरला ही कोई दिन जाता है कि जब चारों घर पर हों और बैठक न लगे।

उसी दौरान की एक बैठक से :-

जनवरी का दूसरा रविवार होने के बावजूद धूप खिलकर निकली थी अत सुबह का नाश्ता समाप्त करते ही अशोक बाबू विजय जी के घर पहुँच गये थे और दोनों लोग इस वक्त धूप का लुत्फ उठाते हुये अखबार पढ़ने में लगे हुये थे।

अशोक बाबू ने अखबार के पन्ने बन्द करके कलाई घड़ी में समय देखकर कहा,” दस बज गये विजय बाबू, ये हरि बाबू और सुनील जी नहीं आये अभी तक। कहाँ रह गये कहीं टी.वी. सीरियलों से तो नहीं चिपक गये बच्चों के साथ- साथ”?

“आते ही होंगे सुनील जी तो शायद बाजार गये होंगे मिठाई लाने उनके बेटे का प्रमोशन हो गया है। मेजर से ले. कर्नल बन गया है और हरि जी भी फंस गये होंगे किसी काम में। आते ही होंगें दोनों। कौन सा यहाँ संसद लगनी है जिसके लिये कोरम पूरा नहीं हो रहा है”, विजय बाबू इत्मिनान से बोले।

सुनील जी ने आपको बताया अपने बेटे के प्रमोशन के बारे में? हमें तो बताया नहीं कल शाम पाँच बजे ही मिले थे हमसे तो। अशोक बाबू शिकायती लहजे़ में बोले।

अजी उन्हे तो खुद कल रात पता चला जब उनके बेटे ने फोन करके बताया। वो तो सुबह दूध लेने जाते समय उनसे मुलाकात हो गयी तो मुझे पता चला। अब अशोक बाबू आप यहाँ हिन्दुस्तान में रहो तब तो कोई आपको बताये कुछ। रोज़ तो आप शहर से बाहर रहते हो। विजय बाबू ने चुटकी ली।

अशोक कुछ कह पाते उससे पहले ही चाय आ गयी।

लो जी चाय पियो आप अशोक बाबू। तभी आपको रस आयेगा बातों में।

अच्छा चाय आ गयी है तो पी लेते हैं पर मुझे लगने लगा है कि चाय आदि पीने से मेरा बी.पी. कुछ बढ़ जाता है।

अजी कुछ बी.पी. ऊपर नीचे नहीं हो रहा चाय पीने से। आप थोड़ा सा ना चिन्ता कम किया करो सब अपने आप ठीक रहेगा। जमाने भर की चिन्ता करना छोड़ दो।

अजी चिन्ता कोई मैल तो है नहीं कि नहा लिये और शरीर से दूर हो गयी। जो चिन्ता है वो है। जब तक काम पूरा नहीं होगा चिन्ता दूर कैसे हो जायेगी? आप भी कैसी बात करते हो? अशोक बाबू ने चाय का कप उठाते हुये कहा।

विजय बाबू ने कोई जवाब नहीं दिया। कुछ देर दोनों चाय की चु​स्कियों के साथ चुपचाप अखबार पढ़ते रहे।

सहसा अशोक बाबू बोले,” विजय बाबू ये शाहरूख खान के बारे में आपका क्या विचार है”?

विजय बाबू ने अशोक जी के अखबार में छपी तस्वीर पर निगाह डालते हुये कहा विचार तो ठीक ठाक सा ही है। तरक्की तो कमाल की है लड़के की। देखो टी0वी के सीरियलों से कहाँ पहुँच गया। कुछ तो बात जरूर होगी उसमें। पर आप एक्टिंग की बात करो तो ये लड़कपन के किरदारों वाली फिल्में तो ठीक हैं पर परिपक्व रोल में मामला जमता नहीं। बड़ा हल्ला सुना था कि शाहरूख की देवदास आ रही है टी.वी. पर। हमने भी देखी पर साहब बात जमीं नहीं। हमारे पास तो शरत बाबू की किताब भी है। दिलीप कुमार की फिल्म देखने के बाद हमने किताब पढ़ी थी और ऐसा लगा था कि जैसे दिलीप कुमार को सोचकर किताब लिखी गयी हो। बड़ा जबर्दस्त अभिनय किया था दिलीप कुमार ने। दिलीप कुमार भी तकरीबन इसी उम्र के रहे होंगे देवदास करते समय जितनी उम्र में शाहरूख देवदास बने हैं पर दिलीप के अभिनय में गहरायी और परिपक्वता थी। या कह लो कि निर्देशक की अपनी समझ है। अपना अपना समय है हो सकता है हम लोग बूढ़े हो गये हैं और पुराना रिकार्ड बजा रहे हैं पर व्यक्तिगत रूप से हमें तो यही लगता है कि नायक के रूप में अभी तक तो कोई भी दिलीप कुमार से आगे नहीं जा पाया। अमिताभ बच्चन को ही थोड़ा करीब मान सकते हैं पर वह भी उन्नीस ही रहे दिलीप कुमार के सामने।

हमें तो विजय बाबू बिल्कुल अच्छा नहीं लगता ये शाहरूख खान और बच्चों को देखो पागल हुये रहते हैं इसके पीछे।

अजी बच्चे तो रितिक या ह्रितिक क्या है उसके दीवाने हैं आजकल।

ये देखो विजय बाबू ये लड़की कह रही है कि इसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी शाहरूख के साथ काम करेगी। मुझे तो बेवकूफी लगती है ऐसी बात।

मुझे तो अशोक बाबू वो लड़का ज्यादा पसन्द है जो कोकाकोला के विज्ञापन में आता है अलग अलग रूपों में। ठंडा माने कोकाकोला कहता हुआ। विजय बाबू चहक कर बोले।

अच्छा आमिर खान। वो तो मुझे भी ठीक लगता है। बल्कि सारे खानों में सबसे सही वही है। वो तीसरा सलमान खान तो मुझे एक आँख नहीं भाता। हमेशा कुछ न कुछ घपला करे रखता है।

हम तो टीवी पर ही देखते हैं अशोक बाबू फिल्में आदि। ​सिनेमा गये तो सालों हो गये। इस सलमान खान की भी एक फिल्म अभी दुबारा देखी थी हम आपके हैं कौन। ये बहुत अच्छी लगी हमें। वैसे अब तो खान ही खान हैं फिल्मों में। अभी फिरोज खान का पुत्र ही जम नहीं पाया था कि संजय खान के पुत्र ने दस्तक देनी शुरू कर दी। पटौदी के साहबजादे हैं ही पहले से। और भी कई होंगें।

विजय बाबू खान तो हमेशा रहे हैं फिल्मों में। ये आपका दिलीप कुमार है तो ये भी कुछ खान ही। इन खानों का मन ही फिल्मों में लगता है।

हाँ अशोक बाबू उधर खान और इधर खन्ना। राजेश खन्ना विनोद खन्ना और अब इनकी सन्तानें। कपूर खानदान तो है ही हमेशा से।

हाँ जी अब तो खानदानी व्यवसाय बन गया है। बच्चन परिवार, देयोल परिवार, चोपड़ा परिवार, रोशन परिवार, कपूर परिवार, भट्ट परिवार। जैसे पहले व्यापारिक संस्थायें हुआ करती थीं एंड संस के नाम से फिल्मों में भी बाकायदा लिखा जाने लगेगा फलाना एंड संस।

अब तो अशोक बाबू ऐसा लगने लगा है कि बाहर के लोग जिनका कोई नहीं है फिल्म इंडस्ट्री में फिल्म लाइन में घुस ही नहीं पायेंगें।

सही बात है। किसी भी उद्योग में सीमित पैसा होता है। जब सारा पैसा इन स्टार संस और डॉटरों पर लग जायेगा तो बाहर से आने वालों को कौन घास डालेगा और कहाँ से डालेगा?

अजी अब तो टीवी पर भी इन फिल्म वालों का ही कब्जा होता जा रहा है। स्टार प्लस पर आप ये समझो कि कम से कम चार पाँच सीरियल रोज़ आते हैं जितेन्द्र की बेटी एकता कपूर के। करिश्मा कपूर और श्रीदेवी आ ही रही थीं सहारा टीवी पर अब हेमा मालिनी भी आने लगीं।

विजय बाबू हमारी तो समझ में आता नहीं कि हेमा मालिनी को क्या जरूरत है सीरियल आदी करने की। एक फिल्म क्या हिट हो गयी अमिताभ बच्चन के साथ फिर से मैदान में कूद पड़ीं। अब एक तरफ तो इनकी बिटिया फिल्मों में है और ये अभी तक मोह नहीं छोड़ पा रही। ये हालत तो तब है जबकि ये सांसद भी हैं। जाने कब ये जनता के लिये समय निकाल पाती होगीं जाने कौन तो इन्हे संसद में भेज देता है?

अजी ये तो इनकी मर्जी फिल्म या सीरियल करें न करें। आखिरकार इन लोगों का व्यवसाय तो यही है। जीने के लिये कमायेंगे तो है ही। और हेमा मालिनी को तो आपकी भाजपा ने ही संसद में भेजा है और इस बार तो इनके पतिदेव धर्मेन्द्र को भी भेज दिया है। भाजपा का तो पूरा इरादा टीवी वाली तुलसी को भी भेजने का था दिल्ली से संसद में पर दिल्ली की जनता को तुलसी जमी नहीं। विजय बाबू चुटकी लेते हुये बोले।

देखो विजय बाबू ऐसा तो है नहीं कि खाली मेरी भाजपा ही भेज रही है इन फिल्मी ​सितारों को संसद में। इसी लोकसभा में सुनील दत्त और गोविन्दा आये कांग्रेस के टिकट से जीतकर। जया प्रदा और राज बब्बर आये सपा के टिकट पर। सपा ने ही जया बच्चन को भेजा राज्य सभा में। और ये अमिताभ बच्चन आज भले ही सपा के साथ खड़े दिखायी दे रहें हों इन्हे राजनीति में तो राजीव गांधी ही लाये थे कांग्रेस की ओर से। अशोक बाबू कुर्सी पर पहलू बदल कर बोले।

ऐसा है अशोक बाबू सुनील दत्त का मामला ऐसा तो है नहीं कि सीधे फिल्मों से संसद में जाकर बैठ गये हों। सालों से समाजसेवा के काम में जुटे रहे। आतंकवाद से जलते पंजाब में पदयात्रा निकालने गये थे अस्सी के दशक के मध्य में। दत्त साहब आज से तो सांसद हैं नहीं। ऐसा नहीं है कि फिल्म वालों पर कोई पाबन्दी है राजनीति में आने की। पर आप यदि ये कह रहे हैं कि खाली अपनी सेलिब्रिटी छवि का सहारा लेकर ये लोग राजनीति में घुस जाते हैं जो कि गलत है तो मैं भी आपकी बात से सहमत हूँ। खाली फिल्मी ​सितारे ही नहीं बल्कि सब तरह के ​सितारों के लिये ये बात सच है। इनमें से जो लोग ऐसा समझते या करते हैं कि जब और धंधे बन्द हो जाते हैं तो राजनीति में घुसने की कोशिश करने लगते हैं तो ये राजनीतिक दलों राजनीति और देश सबका नुकसान ही ज्यादा करते हैं।

भाजपा तो इसीलिये इन फिल्मी सितारों या अन्य ​सितारों को टिकट दिया नहीं करती थी। शत्रुघन सिन्हा को भी पार्टी से जुड़ने के सालों बाद टिकट दिया। अशोक बाबू कुछ फख्र से बोले।

देखो अशोक जी गलत बयानबाजी़ तो आप करो मत। आपको शायद याद न हो सबसे पहले शत्रुघन सिन्हा, वी.पी.​सिंह के सर्मथन में उतरे थे। ये तो याद नहीं कि ये उनके साथ घूमे भी थे या नहीं पर बयानबाजी अच्छी खासी की थी। और राज बब्बर भी वी.पी के सर्मथन में ही कूदे थे जब वी.पी ने राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स मामले में ताल ठोक रखी थी सन सतासी के आसपास। वो तो बाद में शत्रुघन ​सिन्हा भाजपा में जा पहुँचे और राज बब्बर सपा में। सपा के बढ़ने में खासा पसीना बहा है राज बब्बर का भी। और ऐसा नहीं है कि शत्रुघन ​सिन्हा को बहुत बाद में टिकट दिया गया हो। ये सन इक्यानवें के लोकसभा चुनाव के बाद दिल्ली में हुये उपचुनाव में राजेश खन्ना के खिलाफ भाजपा की ओर से लड़े थे। इस सीट पर पहले आडवाणी जीते थे राजेश खन्ना को ही हराकर पर उनके पास शायद गांधीनगर की सीट भी थी और उन्होने दिल्ली की सीट छोड़ दी थी। उपचुनाव में शत्रुघन ​सिन्हा हार गये थे राजेश खन्ना से और फिर सालों तक भाजपा उनका उपयोग केवल चुनाव के समय भीड़ जुटाने में ही करती रही और बाद में राज्यसभा में ले लायी। और आपको शायद याद आ जाये कीर्ति आजाद चेतन चौहान रामायण वाली सीता यानि दीपिका रावण यानि अरविन्द त्रिवेदी महाभारत के कृष्ण यानि नीतिश भारद्वाज व अन्य की जो भाजपा द्वारा सिर्फ संसद की सीटें जीतने के लोभ में राजनीति में लाये गये थे। जबकि इनमें से किसी का भी समाज सेवा से न पहले मतलब था और न ही बाद में रहा। आखिर जीतने के बाद तो ऐसे ​सितारों को गम्भीर हो जाना चाहिये राजनीति के प्रति।

चलो विजय बाबू मान लिया भाजपा ने भी ​सितारों को टिकट दे दिया। अशोक बाबू कुछ हार मानते हुये बोले। पर ये सारी शुरूआत तो कांग्रेस द्वारा की गयी थी। हमारे पास तो रिकार्ड है नहीं कि कौन कब कहाँ से खड़ा हुआ पर टक्कर में आने को भाजपा को भी ​सितारों की मदद की मदद लेनी पड़ी। कांग्रेसियों ने कितनी फजीहत की बेचारे धर्मेन्द्र की इस चुनाव में। कितना कीचड़ उछाला हेमामालिनी से शादी को लेकर? अशोक बाबू रोष से बोले।

अशोक बाबू हमें तो ये पता है कि आजकल राजनीति का जो स्तर हो गया है उसमें धर्मेन्द्र किसी भी पार्टी से खड़े होते विपक्षी दल यही सब बातें उठाते। हर दल यही सब कर रहा है। शरीफ आदमी है धर्मेन्द्र। पता नहीं क्यों राजनीति के चक्कर में आ जाते हैं ऐसे लोग। वर्तमान की राजनीति का ताप सहना इतना आसान नहीं है। मुझे तो एक बात पता है कि किसी खास राजनीतिक दल से जुड़कर ये फिल्मी ​सितारे अपना नुकसान ही ज्यादा करते हैं। अगर फिल्मों में काम न करना हो आगे तो बात अलग है वरना इन लोगों को बचना चाहिये सक्रिय राजनीति से। समाज सेवा तो आप कैसे भी कर सकते हो। भारत की जनता भावनात्मक रूप से बहुत परिपक्व नहीं है। और जब ये फिल्मी ​सितारे राजनीति में आ टपकते हैं तो अपना मार्केट ही डाउन करते हैं क्योंकि जब तक सत्तारूढ़ दल के साथ हैं तब तक तो ठीक है पर यदि वही दल हार जाये तब? भाई या तो आपके कुछ अपने राजनीतिक विचार हों और आप पूरे तौर पर राजनीति में आ जायें। पर ये हिन्दी ​सिनेमा वाले लोग दोनो नावों की सवारी करना चाहते हैं और कुछ तो पावर के लोभ में राजनीति की ओर दौडते़ हैं।

ना जी विजय बाबू भाजपा कभी ये काम ना करती यदि धर्मेन्द किसी विपक्षी दल के टिकट पर खड़े होते। भाजपा कभी व्यक्तिगत जीवन पर आक्षेप ना लगाती। भाजपा की ट्रेनिंग ही ऐसी नहीं है। भाजपा कभी शालीनता नहीं छोड़ती। सारी दुनिया जानती रही है बच्चन परिवार की नेहरू–गांधी परिवार से निकटता को। पर जब अटल जी पी.एम थे तो एक समारोह में डा. हरिवंश राय बच्चन की जमकर तारीफ की थी और ग्वालियर का उनसे जुड़ा हुआ कोई प्रसंग सुनाया था। अशोक बाबू गर्व से बोले।

अशोक जी आप मेरा मुँह न खुलवाओ। चलो आप पहले बच्चन जी की ही बात ले लो। अटल जी ने बच्चन जी की तारीफ की होगी उनके रचे साहित्य के कारण। बच्चन जी के साहित्य की गुणवत्ता और उनकी प्रसिद्धि से सब वाकिफ हैं। हरेक के अपने अपने क्षेत्र हैं। अब आप ये बुरा न मान जाना कि मैं अटल जी की कविताओं की बुराई कर रहा हूँ या उन्हे साहित्यकार के रूप में कम आँक रहा हूँ। पर हाँ उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले हमने कभी उनकी कविता नहीं सुनी थी। मुझे याद है कई साल पहले अटल जी अमेरिका गये थे किसी सर्जरी के ​सिलसिले में और वहाँ से धर्मयुग या नवभारत टाइम्स के लिये एक संवेदनशील लेख लिख कर भेजा था। बहुत अच्छा लगा था पढ़कर। उनके साहित्यप्रेमी होने और अच्छा लिखने की क्षमता के बारे में तो कोई सन्देह है नहीं।

थोड़ा ठहरकर विजय बाबू बोले अब बच्चन जी तो रहे नहीं। पर जब अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से एम.पी. थे और वी.पी.सिंह सारे देश में राजीव गांधी के विरूद्ध बोफोर्स की अलख जगाते हुये घूम रहे थे तो अटल जी ने भी सारे भारत में बच्चन और नेहरू–गांधी परिवार के खिलाफ मोर्चा संभाला हुआ था। हमने तो तभी अटल जी को साक्षात सुना था। अटल जी ने गरज कर कहा था कि बच्चन जी कहते हैं कि यदि उनके पुत्रों को परेशान किया गया तो वे भी जबान खोल देंगें। अटल जी ने बच्चन जी को मुँह खोलने की चुनौती दी थी और ललकार कर कहा था कि बच्चन परिवार को बताना पड़ेगा कि बोफोर्स की दलाली का पैसा कहाँ गया। तब ये बच्चन परिवार की किसी लोटस कम्पनी का जिक्र किया करते थे।

अजी अटल जी राजनीति में थे तो ​स्थितियों का फायदा तो उठाते ही। वे विपक्ष में थे उनका काम ही था मामले को हर जगह उठाना। वे भला क्यों बच्चन या राजीव गांधी परिवार पर लगे आरोपों से मुक्त होने में उनकी सहायता करते।। अशोक बाबू कुर्सी पर कमर पीछे टिकाते हुये बोले।

…जारी…

दूसरी किस्त : बतकही – सोनिया गाँधी और संघ परिवार

तीसरी किस्त :बतकही – उदारीकरण और भारत

जून 16, 2011

बाबा रामदेव: आर.एस.एस, भाजपा और कांग्रेस


बतकही 1-
बाबा रामदेव: छाप, तिलक, अनशन सब छीनी रे नेताओं ने पुलिस लगाय के

अशोक – एक बार को मान भी लो कि चलो भाई आर.एस.एस ने बाबा रामदेव के कार्यक्रम का समर्थन किया तो ऐसा करना कहाँ गलत है? क्या आर.एस.एस को अधिकार नहीं है भ्रष्टाचार का विरोध करने का? क्या आर.एस.एस भारत का अंग नहीं है।

हरि – अशोक बाबू हमारा आर.एस.एस की अनुदार विचारधारा से हमेशा से मतभेद रहा है परंतु यहाँ हमें भी आपकी बात के कुछ पहलू अनुचित नहीं लगते। कोई भी संगठन क्यों न हो उसका कैसा भी इतिहास क्यों न र्हा हो, उसकी कैसी भी छवि न रही हो, अगर वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष में साथ देना चाहता है तो क्यों उसके इन प्रयासों को गलत नज़र से देखा जाये?

सुनील – यह बात सही है। एक तरफ तो सरकार आतंकवादियों से हथियार छोड़ने, मुख्य धारा में आने और देश के विरोध में अलगाववादी बातें करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही नहीं करती और दूसरी ओर इस आसान से मुद्दे को इतना जटिल बना कर पेश कर रही है। यहाँ असली मुद्दा आर्थिक भ्रष्टाचार का है और अगर आर.एस.एस इस लड़ाई में साथ आना चाहती है तो यह स्वागत योग्य कदम है। भाई या तो आर.एस.एस और अन्य संगठनों को देश निकाला दे दो या फिर उनकी आड़ लेकर भ्रष्टाचार जैसे बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे की धार खत्म मत करो।

विजय – लोकतंत्र की बढ़ोत्तरी के लिये भारत के राजनीतिक और सामाजिक रुख में और उदारता और स्पष्टता लाने की जरुरत है। हर मुद्दे को अलग-अलग ढ़ंग से देखे जाने की जरुरत है। अभी अगर आर्थिक मुद्दा हल हो जाये तो अगला मुद्दा नैतिकता का होगा। और उस मुद्दे पर सभी राजनीतिक और सामाजिक संगठन कमजोर नज़र आते हैं। वहाँ सभी दलों और संगठनों में बहुत ज्यादा सुधार की आवश्यकता है।

हरि- मुझे तो ऐसा लगता है कि अन्ना हज़ारे के अनशन के बाद से जैसा माहौल देश में बना था उसमें ज्यादातर नेता, चाहे वे किसी भी दल के क्यों न हों, अपनी साख खो चुके थे और घायल होकर वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वालों के पीछे हाथ धोकर पड़ गये हैं। कांग्रेस को खुश होना चाहिये कि आर.एस.एस भ्रष्टाचार जैसे एक मुद्दे पर मुख्य धारा से जुड़ना चाहती है और यह ऐसा मुद्दा है जिसने पूरे देश के और इसके सभी वर्गों के लोगों के विकास के काम को बाधित किया है।

अशोक – अजी कांग्रेस के राज में इतना भ्रष्टाचार पनपा है। उसे तो घबराहट होगी ही।

सुनील – अशोक जी, यह एकतरफा सोच है। भ्रष्टाचार तो हरेक सरकार के काल में जम कर पनपा है। भाजपा के काल में भी कम नहीं था भ्रष्टाचार। कुछ को ही सही पर कांग्रेस के काल में कलमाड़ी, ए. राजा, और कनीमोझी जैसे शक्तिशाली नेताओं को जेल में बंद किया गया है। उन पर जाँच चल रही है। अशोक – इन्हे तो जनता के दबाव में अंदर किया गया है।

विजय – सुनील जी, आपकी बात वाजिब है। सनक भरी एकतरफा सोच से तो देश का काम चलेगा नहीं। आपकी बात को थोड़ा आगे बढ़ाऊँ तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि भले ही कांग्रेस द्वारा की जा रही कार्यवाही भ्रष्टाचार के विकराल रुप को देखते हुये ऊँट के मुँह में जीरा लगे पर एक शुरुआत तो हुयी है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने चाहे किन्ही भी दबाव में ऐसा किया हो पर आर.टी.आई आदि जैसी सुविधायें जनता को दी हैं। अपने और सहयोगी दलों के नेताओं को जेल भेजा है। कांग्रेस की बदकिस्मती से वक्त्त ऐसा है कि जनता केवल इतने भर से संतुष्ट नहीं है। जहाँ कांग्रेस आशा कर रही थी कि उसे जनता से सहयोग और शाबासी मिलेगी इन निर्णयों को लेने से वहीं जनता के सामने बहुत बड़े बड़े मामले खुलते जा रहे हैं। विदेश में जमा काला धन, देश में काले धन की समांतर अर्थ-व्यवस्था, मंहगाई, राजनीतिक भ्रष्टाचार और अक्षमता आदि मुद्दे जनता को अधीर कर रहे हैं। अब जनता का बहुत बड़ा हिस्सा मूर्ख बन कर नेताओं को लाभ देते रहने की स्थिति को पार कर चुका है या तेजी से पार करता जा रहा है। कांग्रेस को कुछ और ठोस कदम उठाने पड़ेंगे तभी वह कुछ उजली और सक्षम दिख सकती है अन्य दलों के मुकाबले में।

सुनील- विजय जी सही है आपकी बात। मुझे भी ऐसा ही लग रहा है कि कांग्रेस अपने द्वारा लिये गये कुछ अच्छे निर्णयों पर भी जनता से सराहना नहीं पा सकी है और यही इसकी कुंठा है। इसी कुंठा में वह बाबा रामदेव के मुद्दे को ढ़ंग से सुलटा नहीं पायी। उसे यह भी दिख गया कि अगर वह आगे भी अच्छे निर्णय अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव जैसे गुटों के दबाव के कारण लेगी तो उसे कोई राजनीतिक लाभ नहीं होने वाला है। मुझे लगता है कि कुछ निर्णय कांग्रेस अपने आप लेगी और उसकी ही नहीं बल्कि हर दल के नेताओं की अंदुरनी इच्छा और कोशिश यही होगी कि ऐसे गुट निष्प्रभावी हो जायें ताकि जनता में पैंठ बना चुके इन मुद्दों के राजनीतिक लाभ नेताओं को ही मिलें।

हरि – इन विचारों से मेरे दिमाग में एक बात आयी है कि चूँकि कांग्रेस को आर.टी.आई और कलमाड़ी आदि को जेल भेजने के फैसलों का लाभ नहीं मिल पा रहा था तो उसके सामने साफ हो गया कि ये मुद्दे तो अपनी जगह है पर इन मुद्दों की आड़ में राजनीतिक तंत्र की सारी कालिख कांग्रेस के मुँह पर ही मलने के गुपचुप प्रयास भी हो रहे थे। सरकार घोटालों और महंगाई के बावजूद विपक्ष के मुकाबले मजबूत थी और भाजपा समेत विपक्ष के सामने अगले तीन साल तक सरकार को गिराने का बहुत बड़ा अवसर था नहीं। पाँच साल तक दल इंतजार करने को तैयार नहीं थे, खासकर भाजपा। चूँकि कोई भी दल भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहीम में पाक-साफ नज़र नहीं आ सकता इसीलिये भाजपा और आर.एस.एस ने मौका तलाशते हुये बाबा रामदेव और अन्ना हज़ारे के अंदोलन से उठी जन-जाग्रती की लहर पर सवार होने की चेष्टा की।

अशोक – ऐसा कैसे कहा जा सकता है?

विजय – बात से बात निकलती है। आपकी बात में सच्चाई नज़र आती है सुनील जी। भाजपा खुद ऐसा आंदोलन नहीं खड़ा कर सकती थी क्योंकि उस पर भी भ्रष्टाचार के बहुत बड़े बड़े आरोप लगे हुये हैं। वह ऐसा करती तो दोगली करार दी जाती। तभी जब जनता आंदोलित हो गयी तो भाजपा के प्रवक्त्ता आदि टीवी चैनलों पर एक बात स्थापित करने में जोर लगा रहे हैं कि ये सारे मुद्दे आडवाणी ने उठाये थे। आडवाणी तो उप-प्रधानमंत्री भी रहे हैं और भाजपा अध्यक्ष भी, तब तो उन्होने अपने दल पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के खिलाफ कदम नहीं उठाये। भाजपा की राजनीति के पीछे कहीं न कहीं यह इच्छा भी है कि किसी तरह से आडवाणी एक बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ले लें। अगर तीन साल और इंतजार किया तो जीवन भर यह मौका हाथ नहीं आयेगा। हो सकता है आने वाले तीन सालों में राजनीतिक फिजां बदल जाये और कांग्रेस कुछ और बड़ी मछलियों को जेल भेजे और जनता अंतत: कांग्रेस के पक्ष में हो जाये। ऐसा लगता है कि कलमाड़ी आदि को जेल भेजना विपक्षी दलों को हिला गया है। भ्रष्ट सभी दल हैं और अगर कांग्रेस अपने नेताओं को जेल भेज सकती है तो दूसरे दल के नेताऒ पर कोताही करने का कोई मतलब है ही नहीं।

हरि- आप लोग कह रहे हैं तो मुझे भी दूर की एक कौड़ी सूझी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन तो अब देश में खड़ा होना ही है और हो रहा है पर कांग्रेस जो कह रही है कि बाबा रामदेव के आंदोलन के पीछे आर.एस.एस का हाथ है तो यह कुछ हद तक सही लगता है। खाली आर.एस.एस का ही नहीं बल्कि अन्य ताकतों का भी जो भी कांग्रेस की सप्रंग सरकार को पाँच साल तक सत्ता में देखने को तैयार नहीं है। देखिये हो सकता है दूर की कौड़ी हो परंतु ध्यान दिया जाये तो जून का महीना भारत में राजनीतिक रुप से इमेरजैंसी वाले महीने के रुप में याद दिलाने की चेष्टा गैर-कांग्रेसी दल करते रहे हैं। भाजपा और आडवाणी इस बात पर विशेष तवज्जो देते रहे हैं। रामदेव का अनशन जून के माह में ही क्यों आयोजित किया गया? यह मार्च में भी हो सकता था जब इतनी गर्मी नहीं थी। या कुछ माह बाद सितम्बर या अक्टुबर में। पर इसे जून में किया गया। अगर आंदोलन केवल रामदेव के हाथों में होता तो शायद वे सरकार से कई मुद्दों पर आश्वासन मिलने के बाद अनशन खत्म कर देते पर उनके ऐसा करने से केवल उन्हे और सरकार को ही लाभ और राहत मिलती। विपक्षी दल अपने आप को सारे मामले से अलग महसूस करते। अनशन न तोड़ने देने के लिये जरुर ही रामदेव को शातिर दिमागों ने सलाह दी होगी। रामदेव राजनीति में नौसिखिया हैं। वे इतनी दूर का नहीं सोच सकते। कुछ लोगों को पक्का पता था कि अगर रामदेव दिल्ली में डटे रहें तो सरकार और रामदेव में टकराव होना ही होना है। उन्होने सोचा था कि सरकार सख्ती करेगी और उस पर आपातकाल के आरोप लगाये जायेंगे। अगर सरकार रामदेव के आंदोलन को कुचलती है तो एक तो रामदेव व्यक्तिगत रुप से उसके खिलाफ हो जायेंगे दूसरे सरकार बदनाम होगी और तीसरे भ्रष्टाचार का मुद्दा रामदेव और अन्ना हज़ारे के पास ही न रहकर विपक्षी दलों खासकर भाजपा के पास आ जायेगा। रामदेव का तो ठीक है कि उन्हे राजनीति की समझ नहीं है पर कांग्रेस को क्या कहा जाये वह भी इन चालों के सामने धराशायी हो गयी? एक से एक शातिर राजनीतिक दिमाग कांग्रेस के पास हैं और वे इन संभावनाओं को नहीं देख पाये और अब टीवी चैनलों पर तमतमाये हुये बयान देते घूम रहे हैं और अपनी और ज्यादा फजीहत करा रहे हैं।

अशोक – आपको लगता है कि आर.एस.एस और भाजपा इतनी आगे की सोच सकते हैं? अगर रामदेव उनके बढ़ाये हुये होते तो उन्हे रामदेव की ऐसी हालत करके क्या हासिल होता। रामदेव की समझ में भी तो आयेगा कि उन्हे इस्तेमाल किया गया है।

सुनील- राजनीतिक दल कितनी भी आगे की सोच सकते हैं। हरि भाई आपकी सोच पर चलें तो अब समझ में आता है राजघाट पर खुशी से नाचने का मतलब। अब यह भी लगता है कि अगर आर.एस.एस और भाजपा को भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाना भी है तो उन्हे पहले अपने संगठनों से शुरुआत करनी चाहिये। बल्कि किसी भी राजनीतिक दल को यही करना चाहिये। उन्हे किसने रोका है कि वे अपने दल के आरोपित लोगों के खिलाफ कार्यवाही करें? अभी तो इन सभी दलों ने असली मुद्दे को पीछे ढ़केल दिया है और अपनी अपनी राजनीतिक रोटी सेकने आगे आ गये हैं। आर.एस.एस को खुले रुप में आंदोलन खड़ा करना चाहिये। उनका इतना बड़ा काडर है वे आज तक क्यों भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन नहीं कर पाये। भाजपा का इतना बड़ा समर्थक वर्ग है वह खुद से और अपने समर्थकों से शुरुआत क्यों नहीं करती। मुझे ऐसा लगता है कि कोई भी दल और संगठन गम्भीर नहीं है भ्रष्टाचार को समापत करने के लिये। ऐसा करना उनके हितों के खिलाफ है।

विजय- सही है सुनील जी, रामदेव के आंदोलन से सही ढ़ंग से निबटने में कांग्रेस की विफलता ने भाजपा को वह जगह मुहैया करा दी है जो उसे मिल नहीं रही थी उसके लाख प्रयास के बावजूद। लोगों का जिस तेजी से कांग्रेस से मोह भंग हुआ है उसकी भरपाई करने के लिये कांग्रेस को बहुत बड़े कदम उठाने पड़ेंगे। अभी ऐसा माहौल बना दिया गया है कि कांग्रेस के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन गति नहीं पकड़ पा रहा है। जबकि सच्चाई यह नहीं है। सभी दल भ्रष्ट हैं। कांग्रेस ने दिखावे के लिये ही सही पर थोड़े से कदम उठाये हैं, पर वे काफी नहीं हैं। अपनी जमीन वापिस पाने के लिये उसे बड़े कदम उठाने ही पड़ेंगे। अब कांग्रेस को जमीन में तो दफनाया नहीं जा सकता। आर.एस.एस समर्थित भाजपा से तो लोगों की शंकायें रहेंगी ही। देशव्यापी दलों में कांग्रेस ही है जिस पर देश के बहुत सारे वर्गों का भरोसा रहा है। देश की एकजुटता की खातिर कांग्रेस का बने रहना जरुरी है। कांग्रेस को अपनी और देश की खातिर अपनी सफाई और अपने सुधार से शुरुआत करनी चाहिये।

हरि – कांग्रेस और भाजपा, दोनों बड़ी राजनीतिक शक्तियों को चाहिये कि देश हित में भ्रष्टाचार जैसे राक्षस को समाप्त करने के लिये वे भले ढ़ंग से आपस में सहयोग करें। कांग्रेस को चाहिये कि वह बचे हुए तीन सालों में सत्ता का सदुपयोग करके भ्रष्टाचार समाप्त करने की ओर ठोस कदम उठाये। भाजपा को चाहिये कि एक अच्छे विपक्ष की तरह सरकार पर दबाव बनाये रखे। पिछले दरवाजे से सत्ता नहीं मिलने वाली और अगर मिल भी जाये तो यह दलों की साख गिराती ही है। भारत के लोकतंत्र को स्वच्छ और विकसित बनाने के लिये राजनीतिक दलों को शातिर और कुटिल चालों के बजाय साफ-सुथरी और पारदर्शी राजनीति को स्थान देना ही पड़ेगा।

…जारी…

जून 6, 2011

बाबा रामदेव: छाप, तिलक, अनशन सब छीनी रे नेताओं ने पुलिस लगाय के

बाबा रामदेव के काले धन की विदेश से वापसी और भ्रष्टाचार के खिलाफ किये अनशन से सम्बंधित दुखद घटनाक्रमों ने भारत को हलचल से भर दिया है। कहीं कोलाहल है तो कहीं चुपचाप देखा जा रहा है कि आगे क्या होगा। कल, विजय, अशोक, हरि और सुनील, चार बुजुर्ग मित्रों की रोज़ाना होने वाली बैठक एक बहस-गोष्ठी में बदल गयी। बहुत समय बाद चारों के दिमाग और ज़ुबान दोनों ही राजनीतिक तेवरों से ओत-प्रोत हो रहे थे।

आम तौर पर चारों सुबह दस बजे किसी भी एक के घर मिल बैठ दुनिया जहान की बातें किया करते हैं। दोस्ताना माहौल में वक्त्त अच्छा बीत जाता है। सुख-दुख की बातें हो जाती हैं।

मजमा विजय के घर पर लगा। चारों के हाथों में अलग-अलग अखबार थे।

विजय बाबू ने गहरी साँस भ्रने के बाद गम्भीर स्वर में कहा,” घटनाक्रमों ने बहुत सारे सवाल खड़े कर दिये हैं। सारे मामले के बहुत सारे पहलू उजागर हुये हैं”।

हरि – विजय जी, एक बात तो तय है कि अनशन को तोड़ने के लिये आधी रात को पुलिस बल से जैसी हिंसक कारवाही करवायी गयी है उस निर्णय ने जैसी किरकिरी कांग्रेस पार्टी और सरकार की की है, उसका कलंक आसानी से हटने वाला है नहीं। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की कहावत का इससे अच्छा उदाहरण हो नहीं सकता।

सुनील – ये तो सही कहा आपने हरि भाई। पर विजय बाबू आप कुछ सवाल और पहलुओं की बात कर रहे थे। कुछ बताओ।

अशोक – हाँ पहले आप ही बताओ आपको क्या दिखता है इस मामले में?

विजय – पहली बात तो यही है कि बाबा रामदेव, अन्ना हजारे के अनशन के समय से ही सार्वजनिक रुप से मीडिया को दिये साक्षात्कारों में बार-बार कह रहे थे कि वे जून के पहले हफ्ते से अपने एक लाख समर्थकों के साथ भ्रष्टाचार और काले धन की विदेश से वापसी जैसे मुद्दों को सुलझाने के लिये सरकार पर उचित कार्यवाही करने के लिये दबाव बनाने के लिये अनशन पर बैठेंगे। सरकार कहती है कि अनुमति सिर्फ योग-शिविर लगाने के लिये ली गयी थी। अगर ऐसा था तो दिल्ली में जब रामलीला मैदान में शिविर लगाये जा रहे थे तभी सरकार ने उचित कदम क्यों नहीं उठाये? बाबा रामदेव के दिल्ली पहुँचने के बाद भी उनसे स्पष्ट क्यों नहीं कहा कि शिविर की अनुमति के साथ वे शांतिपूर्ण ढ़ंग से भी वहाँ अनशन पर नहीं बैठ सकते।

हरि – सही कह रहे हो विजय बाबू, जब बाबा रामदेव और सरकार दोनों को पता था कि अनुमति सिर्फ योग शिविर लगाने की ली गयी है और सरकार अनशन के दूसरे या तीसरे दिन कानूनी कार्यवाही कर सकती है तो क्यों हजारों लोगों की जान को जोखिम में डाला गया? अनशन से पहले दिन टीवी पर ऐसी बातें भी उठ रही थीं कि रामलीला मैदान में योग शिविर ही रहेगा और अनशन जंतर-मंतर पर किया जायेगा। सरकार के चार बड़ी मंत्रियों ने हवाई-अड्डे पर ही बाबा रामदेव को पकड़ कर क्या इस बात की संभावना उनके दिमाग से हटा दी कि जंतर-मंतर पर अलग से अनशन करने की जरुरत नहीं है और सरकार से बातचीत से उचित हल निकल आयेगा, और बाबा रामदेव जंतर मंतर को भूलकर रामलीला मैदान में ही अनशन की लीला दिखाने लगे और उन्हे लगता था कि सब कुछ ठीक पटरी पर चल रहा है और सब ऐसे ही निबट जायेगा? हमें तो घपला लगता है मामले में।

सुनील – जब अनशन की पहली ही शाम आते आते सरकार और बाबा रामदेव में वार्ता टूट गयी तो क्या सरकार का फर्ज नहीं बनता था कि अनशन स्थल पर बैठे हजारों लोगों की जान की सलामती की फिक्र करती? सरकार का बाबा रामदेव से कुछ भी रिश्ता हो, कोई भी सरकार हजारों लोगों की भीड़ की जान के साथ खिलवाड़ कैसे कर सकती है? बहुत शोर मचाकर कहा जा रहा है कि सांसद संवैधानिक रुप से जनता द्वारा चुने गये हैं तो ऐसे समय में संविधान की मूल भावना की धज्जियाँ उड़ाते हुये इन्ही सांसदों से बनी सरकार ने हजारों लोगों की जान जोखिम में डालते हुये पुलिस को आधी रात को लोगों को वहाँ से हटाने के लिये भेजा? कैसे पुलिस को आदेश देने वाले मंत्रियों ने नहीं सोचा कि अगर पुलिस की लाठियों से लोग बच भी गये तो भगदड़ में महिलायें, बच्चे और वृद्ध अपनी जान बचा पायेंगे या घायल होने से बच पायेंगे? सरकार अनशन पर बैठे लोगों को दिन में नोटिस देकर कुछ घंटे का समय नहीं दे सकती थी जिससे लोगों को पता चल जाये कि सरकार की मंशा अब रामलीला मैदान से लोगों को हटाने की है। अगर अनशन अवैध था तो कोर्ट से नोटिस लाया जा सकता था। पर किसी तरह से भी संविधान का सम्मान न करते हुये लोगों को सबक सिखाने के लिये पुलिसिया कार्यवाही की गयी।

अशोक – अरे सरकार की बदमाशी है। यह सरकार भ्रष्टाचार में आकंठ लिप्त है और संसदीय लोकतंत्र में इनका विश्वास दिखावा है। इन्होने ही तो इमेरजैंसी लगवायी थी, तभी भाजपा राजघाट पर अनशन में बैठ गयी है इनकी करतूतों के विरोध में।

विजय – अशोक बाबू भाजपा भी दूध की धुली नहीं है। राजघाट में कब से उसकी श्रद्धा हो गयी? कल्याण सरकार के दिन भूल गये क्या? कैसे गांधी को पानी पी पी कोसा जाता था। गाँधी से इनका क्या लेना देना। बल्कि किसी भी दल का कुछ लेना देना नहीं है गाँधी से। उन्हे तो अलग ही रखें।

सुनील – कांग्रेस नियंत्रित सप्रंग सरकार की दूसरी पारी के आरम्भ से ही भाजपा निष्क्रिय स्थिति में पड़ी हुयी थी। उसे राजनीतिक जमीन नहीं मिल रही थी। पांच साल का इंतजार उसे और निष्क्रिय बना देता। कांग्रेस की सरकार ने भाजपा में जान डाल दी। उसे मुकाबले में खड़ा कर दिया। कांग्रेस ने बाबा रामदेव को संघ की ओर धकेल दिया। सबको लगता था कि कांग्रेस नियंत्रित सरकार की दूसरी पारी आसानी से अपना कार्यकाल पूरा कर लेगी और कहीं कई अड़चन नहीं आयेगी। ताजे घटनाक्रमों ने दिखा दिया है कि सरकार की आगे की राह मुश्किल हैं। सरदार जी ने माथे पर कलंक लगवा ही लिया। इतिहास तो उन्हे ऐसे प्रधानमंत्री के रुप में याद करेगा जिसकी सरकार ने रात में सोते हुये स्त्री-बच्चों, बूढ़ों और अनशनकारियों पर लाठियाँ बरसवायीं। उन्हे घायल किया और उनकी जान को जोखिम में डाला।

हरि- कांग्रेस की सरकार ने तो भाजपा को थाली में सजाकर मौका दे दिया है। इससे ज्यादा खुश भाजपा और अन्य विपक्षी दल कभी भी नहीं हुये होंगे, पिछले पांच-सात साल में।

अशोक- अजी भाजपा निष्क्रिय नहीं थी। उसी ने मुद्दा उठाया था काले धन की वापसी का, भ्रष्टाचार के खात्मे का।

विजय- अशोक जी भाजपा की ईमानदारी तो कर्नाटक के मुख्यमंत्री और रेड्डी भाइयों के मामलों में चमक ही रही है। गुजरात के मामले में उसकी नैतिकता भी जगजाहिर रही है!

सुनील – भाजपा की बात छोड़ो। मेरे दिमाग में एक प्रश्न बार बार उठ रहा है – क्या शुरु में बाबा रामदेव से मीठी मीठी बातें करने के कुछ घंटो बाद सरकार को वस्तुस्थिति का एहसास हुआ कि अगर बाबा रामदेव के अनशन के कारण उनकी माँगें मानी गयीं तो यह बाबा रामदेव की जीत कहलायेगी और सरकार द्वारा उठाये गये कदम मजबूरी में उठाये गये कदम कहलायेंगे और कांग्रेस को राजनीतिक लाभ नहीं मिल पायेगा।

हरि – सरकार के किन्ही भी सलाहकारों ने ऐसी बर्बरतापूर्ण कार्यवाही करने की सलाह दी हो और उस पर दबाव डाला हो, क्या कांग्रेस को इस घटना के बाद किसी किस्म का राजनीतिक लाभ मिल पायेगा? इसमें पूरा संदेह है।

विजय- कुछ ही दिन पूर्व कांग्रेस मायावाती सरकार द्वारा भट्टा पारसौल में उ.प्र पुलिस द्वारा किसानों पर अत्याचार कराने को लेकर संघर्षरत थी। अब उसकी खुद की सरकार ने वैसा ही कर दिया है। कांग्रेस के पास अब नैतिक चेहरा है ही नहीं किसी अन्य सरकार द्बारा पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्यवाही कराये जाने की निंदा करने का। भारत की जनता हमेशा से ही शोषित के पक्ष में रही है और अब पुराना समय नहीं रहा जब किसी तरह की कोई भी खबर दबायी जा सकती थी। इस इलेक्ट्रानिक युग में कांग्रेस ने ऐतिहासिक राजनीतिक भूल की है और इसका राजनीतिक खामियाजा या तो अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर देगा या फिर उसकी सीटें इतनी कम हो सकती हैं कि वह बड़ी संख्या में दूसरे दलों पर निर्भर हो जाये।

सुनील- देश अगली बार फिर से कई दलों की मिली जुली सरकार के चंगुल में फंसता दिखायी दे रहा है। कांग्रेस का उ.प्र अभियान भी गड्ढ़े में पड़ा समझिये। दुख की बात है कि दो दशकों से ज्यादा समय से उ.प्र क्षेत्रीय स्तर की पार्टियों द्वारा संचालित हो रहा है। विकास कार्य लगभग ठप रहे हैं। वैसे भी पाँच नहीं तो दस साल में सरकारें बदल जानी चाहियें। तभी संतुलन ठीक बना रहता है।

अशोक – कांग्रेस का आरोप है कि बाबा रामदेव के अनशन के पीछे आर.एस.एस का हाथ है। अगर ऐसा है भी तो जब हवाईअड्डे पर सरकार के बड़े मंत्री उनकी अगुवाई करने गये थे तब भी उन्हे इस बात का पता होगा। अगर पता था और उन्हे इस बात से परहेज था तो उन्होने अनशन को शुरु ही क्यों होने दिया?

सुनील- अशोक जी आपकी इस बात से सहमति है। अगर आर.एस.एस से इतना परहेज है तो इस संगठन को कानून का सहारा लेकर प्रतिबंधित क्यों नहीं किया जाता? अगर आर.एस.एस से इतना परहेज है तो कांग्रेस और इसके द्वारा नियंत्रित सरकार आर.एस.एस द्वारा समर्थित और नियंत्रित भाजपा के सांसदों से परहेज क्यों नहीं करती? उन्हे संसद से बाहर का रास्ता दिखा दे। उन्हे किसी भी कमेटी में न रखे। आखिरकार भाजपा को तो आर.एस.एस का पूरा समर्थन है। ऐसा कैसी हो सकता है कि भाजपा के सांसद तो स्वीकार्य हैं पर जो सांसद नहीं हैं और जिन पर शक है कि आर.एस.एस उन्हे समर्थन देता है, वे स्वीकार्य नहीं हैं।

विजय- सबसे बड़ी बात यह है कि भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे, जो भारत को खाये जा रहे हैं, को लेकर जनता को ठोस हल चाहिये और उसे इस बात से क्या मतलब कि भ्रष्टाचार को मिटाने के लिये किये जा रहे प्रयास को आर.एस.एस समर्थन दे रहा है या कोई अन्य संगठन।

हरि- अरे अगर ऐसा है तो आर.एस.एस को देशद्रोही साबित करके प्रतिबंधित कर दो, कानूनी राह पर चला दो और अगर ऐसा साबित हो जाता है तो जनता चूँ भी नहीं करेगी।

विजय- मेरी समझ में तो ऐसा पैरानोइया आता नहीं। आप ये जानो कि जब भाजपा राजनीतिक दौर के शिखर पर थी तब भी उसे केवल 26% मतों का समर्थन हासिल था और जो अब घटकर 20% के आसपास आ गया है। देश की कुल आबादी का 75-80% हिन्दुओं को माना जा सकता है तो ऐसा तो है नहीं कि सभी हिन्दु भाजपा को समर्थन देते हैं और मत देते हैं। फिर क्यों इतनी हायतौबा, क्यों इतना भय? यह देश मुख्यतः सेकुलर रहा है और रहेगा।

…जारी…

बतकही 2 -बाबा रामदेव: आर.एस.एस, भाजपा और कांग्रेस