शासन ने जब आदेश दिया कि
हानिकारक ज्ञान की पुस्तकों को
खुलेआम जला दिया जाय
और चारों तरफ होलिकाओं तक
पुस्तकों से लदी गाड़ियां खींचने के लिए
बैलों को विवश किया गया ,
देश से निर्वासित एक लेखक को,
श्रेष्ठतम में जो गिना जाता था,
जलाई गयी पुस्तकों की तालिका की बारीक जांच करने पर धक्का लगा,
क्योंकि उसकी पुस्तकों की उपेक्षा हुई थी.
क्षोभ के पंखों पर उड़ता हुआ वह लेखक अपनी मेज़ के पास पहुंचा
और सत्ताधारियों को एक पत्र लिखा :
‘मुझको जलाओ !
उड़ती हुई कलम से उसने लिखा,
मुझको जलाओ !
क्या मेरी पुस्तकों ने हमेशा सच नहीं कहा है ?
और यहाँ तुम मेरे साथ ऐसा बर्ताव करते हो , जैसे मैं झूठा हूँ!
मैं तुम्हें आदेश देता हूँ:
मुझे जलाओ !!”
बर्तोल्त ब्रेख्त : (1938)
अनुवाद : चन्द्रबली सिंह
साभार : जनपक्ष पत्रिका (जनवादी लेखक संघ वाराणसी की प्रस्तुती) एवं लेखक उदय प्रकाश