Archive for जून, 2013

जून 28, 2013

यह अधिकार तुम्हारा ही है…

अनुभव की मंडी में जाकर

सबसे ऊँचा दाम लगाकर

जिसे खरीद लिया है मैंने

यह अधिकार तुम्हारा ही है…

जो सूरज डूबा करता है

थका थका ऊबा करता है

उसको सुबह मना लाते हो

यह उपकार तुम्हारा ही है

यह अधिकार तुम्हारा ही है…

कलाकार ने चित्र बनाकार

अमर बनाया तुम्हे धरा पर

अब तुम उससे रंग छीन लो

हक सौ बार तुम्हारा ही है

यह अधिकार तुम्हारा ही है…

अपना ही गम किससे कम है

ऊपर से तेरा भी गम है

मुझे चुकानी होगी कीमत

यह अधिभार तुम्हारा ही है

यह अधिकार तुम्हारा ही है…

{कृष्ण बिहारी}

जून 25, 2013

ओशो : श्रीपाद अमृत डांगे (कम्यूनिस्ट नेता)

OshoDangeजब मैंने कहा, तकरीबन बीस बरस पहले, कि आदमी-आदमी समान नहीं हैं, भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (सी.पी.आई) ने मेरी आलोचना करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया और कम्यूनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष – एस. ऐ . डांगे ने घोषणा की कि शीघ्र ही उनका दामाद, जो कि एक प्रोफ़ेसर है, एक किताब लिखने वाला है मेरे विचार – कि आदमी आदमी समान नहीं होते-  के खिलाफ| उसने मेरे खिलाफ एक किताब लिखी है, हालांकि उसमें कोई तर्क नहीं है, वहाँ है केवल गुस्सा, गालियाँ और झूठ- कहीं कोई तर्क नहीं यह सिद्ध करने को कि आदमी समान होते हैं|

उसने मेरे खिलाफ थीसीस लिखी है क्योंकि मैं लोगों के दिमागों को भ्रमित कर रहा हूँ| ठीक ठीक यह पता लगाना असंभव है कि मैं ईश्वरवादी हूँ या अनीश्वरवादी, मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूँ या धर्मो की खिलाफत करने वाला| पूरी थीसिस में वह यह सुनिश्चित करने की कोशिश करता है कि – मैं कौन हूँ- और यह काम असंभव जान पड़ता है और वह निष्कर्ष निकालता है कि मैं केवल भ्रम उत्पन्न करने वाला व्यक्ति हूँ|

अमृत डांगे, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष और दुनिया के सबसे पुराने कम्यूनिस्टों में से एक, रशियन क्रान्ति के समय अन्तर्राष्ट्रीय कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य भी थे, लेनिन और ट्रोट्स्की के साथ वे भी एक सदस्य थे| संयोग से हम दोनों एक ही कूपे में यात्रा कर रहे थे|

उन्होंने मुझसे कहा,” क्या आपने देखा, मेरे दामाद ने आपके बारे में एक किताब लिखी है| वह तीन साल तक आपका अध्ययन करता रहा है| आपने इतना ज्यादा साहित्य रच दिया है कि आपके ऊपर शोध करना लगभग असंभव काम है| वह रात दिन लगा हुआ था और पागल हुआ जा रहा था| और आप असंभव लक्ष्य प्रतीत होते हैं| केवल यही नहीं कि आप पहले अपने ही कहे के विरोध में कहते हैं बल्कि आप इस नये कहे के भी विरोध में कहते हैं और उससे नये कहे के भी विरोध में कह देते हैं और अंत में यह पता लगाना असंभव हो जाता है कि आप क्या कहना चाहते हैं… और अंत में वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचा है|”

मैंने कहा,”आप इस किताब को ट्रेन से बाहर फेंक दें| उनसे कहियेगा कि वे मूर्ख हैं| उन्होंने क्यों तीन साल बर्बाद कर दिए| जीवन इतना छोटा है और आप एक कम्यूनिस्ट हैं: ऋणं कृत्वा  घृतं पिवेत | मेरे जैसे पागल आदमी के ऊपर इतना समय क्यों बर्बाद करना?” मैंने उनके हाथ से किताब ली और खिड़की से बाहर फेंक दी|

उन्होंने कहा,” यह क्या किया आपने| यह तो बहुत हो गया|”

मैंने कहा,” आप इमरजेंसी चेन खींच सकते हैं| आखिर यह लाल चेन किसलिए हमेशा लटकी रहती है|” पर तब तक ट्रेन मीलों दूर आ चुकी थी और मध्य रात्री का वक्त था|

अमृत डांगे ने कहा,”अब चेन खींचने से कोई लाभ नहीं होगा, अगर मैं चेन खींच भी दूँ …हम मीलों दूर आ चुके हैं और आधी रात हो चुकी है- हम कहाँ किताब को तलाशेंगे| वैसे भी बहुत चिंता की बात नहीं है| मेरे दामाद के पास इस किताब का पूरा का पूरा संस्करण पड़ा हुआ है| एक भी किताब बिकी नहीं है| क्योंकि लोग कहते हैं – भारत में एक स्पष्ट विभाजन था , या तो लोग मेरे पक्ष में थे या विरोध में, जो मेरे पक्ष में थे वे मेरी किताबें पढ़ रहे थे और वे उनके दामाद की लिखी किताब पर समय नष्ट करने की बात सोचते भी नहीं और जो मेरे विरोध में थे वे मेरा नाम भी सुनना नहीं चाहते थे- मुझ पर लिखी किताब पढ़ना तो दूर की बात है|”

सो अमृत डांगे ने कहा,”हमारे पास सारी किताबें हैं| शायद आप ठीक कहते हैं, मेरा दामाद मूर्ख है| उसने तीन साल नष्ट कर दिए और यह किताब उसने अपने पैसे से छपवाई है क्योंकि कोई भी प्रकाशक तैयार नहीं था इसे छापने के लिए, “क्योंकि”, उन्होंने कहा,” इस विषय में भारत में एक स्पष्ट विभाजन है, निष्पक्ष लोग हैं ही नहीं तो इस किताब को खरीदेगा कौन”| उसने अपने पैसे से किताब छपवाई और अब उनके ढेर पर बैठा हुआ है|”

मैंने कहा,” आप इसे बाँट सकते हैं जैसे आपने मुझे दी| बाँट दीजिए| लोगों को पढ़ने दीजिए| हालांकि उन्हें कुछ सार्थक सामग्री नहीं मिलेगी, क्योंकि आपके दामाद तीन साल लगा कर भी नहीं खोज पाए कि मेरा तात्पर्य क्या है| यह कोई भी नहीं जान सकता क्योंकि में कोई तार्किक, दार्शनिक सिद्धांत नहीं कह रहा हूँ…मैं पूर्ण अस्तित्व हूँ|”

विश्वसनीय धर्म न तो ईश्वरवादी होगा और न ही अनीश्वरवादी!

विश्वसनीय धर्म न तो भौतिकवादी होगा और न ही आध्यात्मिक!

विश्वसनीय धर्म पूर्णतावादी होगा!

यह जीवन को खांचों में विभाजित नहीं करेगा| यह पापी और पुण्यात्मा, और स्वर्ग और नरक के सारे विभाजनों को नष्ट करेगा|

मैंने बहुत सारे कम्यूनिस्टों से पूछा है, बहुत पुराने कम्यूनिस्टों से …

मैंने डांगे से पूछा,”क्या आपने कभी ध्यान (मेडिटेशन) किया है?”

उन्होंने कहा,”ध्यान? किसलिए? मुझे ध्यान क्यों करना चाहिए?”

मैंने कहा,” अगर आपने कभी ध्यान नहीं किया तो आपके पास अधिकार नहीं है यह कहने का कि कोई आत्मा नहीं है, कोई ईश्वर नहीं है, कोई चेतना नहीं है| अपने अंदर गहरे में उतरे बिना आप कैसे कह सकते हैं कि अंदर कोई नहीं है? और ऐसे कथनों की निरर्थकता देखिये- कौन कह रहा है कि अंदर कोई नहीं है? निषेध के लिए भी आपको यह स्वीकार करना होगा कि कोई है| यह भी कहने के लिए कि कोई नहीं है इस बात की कल्पना करनी होगी कि कोई है|”

जून 14, 2013

तन्हाई में रो दोगे तुम

बेमौसम जब फूल खिले थे

इन्द्रधनुष के रंग मिले थे

तभी लगा था बहुत जल्द ही

इक दिन मुझको खो दोगे तुम

तन्हाई में रो दोगे तुम…

सुनो अकेले मत होना तुम

बोझ अकेले मत ढोना तुम

मित्र! न ऐसा कर पाए तो

बाग बबूल का बो दोगे तुम

तन्हाई में रो दोगे तुम…

तुमने जो उपहार दे दिया

लेने से इनकार कब किया

मैं सब कुछ स्वीकार करूँगा

मुझे खुशी से जो दोगे तुम

तन्हाई में रो दोगे तुम…

सूख नदी का जल जाएगा

औ’ सागर भी घट जाएगा

खुशबू से जो नाम लिख दिया

उसको कैसे धो दोगे तुम

तन्हाई में रो दोगे तुम…

{कृष्ण बिहारी}

जून 7, 2013

कार्तिक साहनी चले स्टैनफोर्ड : आई.आई.टी संस्थानों की दृष्टिहीनता

डी.पी.एस, आर.के.पुरम स्कूल में 12वीं कक्षा के 18 साल Kartik

के छात्र – कार्तिक साहनी, ने CBSE बोर्ड की 12वीं की

परीक्षा 95.8 % अंकों के साथ उत्तीर्ण की है|

इसमें खास क्या है, बहुत सारे अन्य छात्रों ने

भी इतने या इससे ज्यादा अंक प्राप्त किये होंगे|

खास दो बाते हैं :-

कार्तिक नेत्रहीन हैं और

– उन्होंने इतने अंक विज्ञान विषय लेकर प्राप्त किये हैं|

इतना बड़ा किला फ़तेह करने के बाद कार्तिक अमेरिका जा रहे हैं| क्यों?

उन्हें Stanford University में दाखिला मिल गया है पूरी छात्रवृत्ति के साथ|

यहाँ तक भी ठीक, आखिरकार अमेरिका को लाख कोसने के बाद भी इस बात को झुठलाना आसान कम नहीं कि वहाँ के शिक्षा संस्थानों में गजब की क्षमता, उदारता, मानवता और दूरदृष्टि है दुनिया भर के श्रेष्ठ दिमागों को अपने यहाँ आकर्षित करने की उन्हें अपने यहाँ पढाने की और ये ही वे दिमाग रहे हैं जिन्होने अमेरिका की उन्नति में दशकों से भागीदारी की है|

अब हिन्दुस्तान का हाल देखिये| पहले तो कार्तिक को सी.बी.एस.ई बोर्ड में विज्ञान विषयों में दाखिला लेने के लिए हजार किस्म की समस्याओं का सामना करना पड़ा क्योंकि ने केवल भारतीय बल्कि भारतीय संस्थान  भी लकीर के फ़कीर बन चुके हैं और खुली दृष्टि की संभावना यहाँ लगभग मृतप्रायः है| यहाँ कोई भी कर्मचारी सन 1860 में बने किसी घटिया से क़ानून का पीला जर्द पड़ा कागज़ का टुकड़ा लेकर खड़ा हो जाएगा और उस फटीचर कागज़ के बल पर आवेदनकर्ता को बाहर भगाकर मेज पर पैर रखकर या तो सो जाएगा या अपने जैसे ही किसी मूढ़ मगज साथी के साथ क्रिकेट, शेयर बाजार, या आर्तों के बेचने वाले बाजार आदि की चर्चा में मशगूल हो जाएगा|

12वीं पास करके गणित और विज्ञान के  ज्यादातर छात्रों का सपना होता है आई.आई.टी संस्थानों में  अपने मनपसंद इंजीनियरिंग क्षेत्र में दाखिला लेना| पर महामहिम आई.आई.टी कैसे किसी नेत्रहीन छात्र को अपने यहाँ घुसने दे सकते हैं?

उनकी शान में गुस्ताखी हो जायेगी कि उनके दुनिया भर में प्रसिद्द प्रोफेसर्स के चेहरे उस समय अगर छात्र ने देख पाए जब वे क्लास में पढ़ा रहे होते हैं?

पूरी तरह से सरकारी पैसे पर निर्भर आई.आई. टी संस्थानों के गुरुर पर शोध हो सकते हैं कि इतने हवाई संस्थान इतने घमंड का सहारा लेकर ज़िंदा कैसे हैं| इन्हें चलाने का पैसा आ कहाँ से रहा है| हिन्दुस्तानी टैक्स देने वालों से ही न!

दुनिया के श्रेष्ठ सौ संस्थानों में इनका नाम तक नहीं होता पर इनका व्यवहार ऐसा रहता है जैसे हावर्ड, ऑक्सफोर्ड, स्टैनफोर्ड, और एम्.आई.टी आदि तो इनके सामने दूध पीते बच्चे हैं| हालत यह है कि अगर खोज की जाए कि कब किसी आई.आई.टी ने विज्ञान की प्रतिष्ठित नेचर जर्नल में कोई शोध पत्र छापा था तो इनके निदेशकों और प्रोफेसरों को सर्दी में पसीने छूट जायें|

बहरहाल कार्तिक देश में रहकर आई.आई.टी में पढ़ना चाहते थे पर दृष्टिहीन आई.आई.टी ने अपने दरवाजे खोलना तो दूर उन्हें अंदर आने के लिए आवेदन तक न करने दिया|

यह भी तय है कि आई.आई.टी में पढकर शायद कार्तिक और उनके माता-पिता को कई परेशानियों का सामना करना पड़ता पर अमेरिका के गैर मुल्क होने और भारत से बहुत दूर होने के बावजूद कार्तिक को तमाम सुविधाएँ मिलेंगी स्टैनफोर्ड में जो उन्हें मिलनी चाहिए|

ताज्जुब तो यह है कि न तो आई.आई.टी, न ही मानव संसाधन मंत्रालय, न ही देश के बुद्धिजीवी वर्ग और उन माफिया किस्म के भारी भरकम व्यक्ति, का जो हिन्दुस्तान में उच्च शिक्षा के क्षेत्र को नियंत्रित करते हैं, एक भी हरकत करते दिखाई देते इस खबर पर| लानत ही भेजी जा सकती है ऐसी जड़ मानसिकता पर|

पूर्व राष्ट्रपति ड़ा अब्दुल कलाम आजाद ने कार्तिक से एकदम सही कहा था,

“What is required is a vision and not vision”.

जब तक चल रहा है दृष्टिहीन आई.आई.टी संस्थानों की स्तुति चलती रहे!

जून 6, 2013

ओशो : राहुल सांकृत्यायन (बौद्ध भिक्षु और वामपंथी लेखक)

Osho rahulमेरे एक मित्र, संस्कृत, पाली और प्राकृत के विद्वान, बौद्ध भिक्षु थे| लेकिन वे कम्यूनिज्म की ओर भी आकर्षित हो गये, और इसका कारण साधारण सी समानता थी, कि बुद्ध के यहाँ भी ईश्वर की परिकल्पना नहीं  है और मार्क्स के यहाँ भी नहीं है| सो वे मार्क्सिज्म की ओर आकर्षित हो गये और अंततः कम्यूनिस्ट बन गये| और सोवियत यूनिवर्सिटी ने उन्हें कहा कि वे वहाँ जाकर  संस्कृत पढाएं और वे मॉस्को चले गये|

भारत से बाहर, मॉस्को में हर चीज अलग थी| यहाँ उनके लिए असंभव था कि बौद्ध भिक्षु भी बने रहते और किसी स्त्री से प्रेम भी कर लेते| सोवियत यूनियन  में ऐसी कोई परेशानी नहीं थी| वे वहाँ एक स्त्री के प्रेम में पड़ गये| लोला– उसी यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर थी और उसके दो बच्चे भी थे|

सोवियत सरकार ने उन्हें अनुमति नहीं दी कि वे लोला और उसके बच्चों को सोवियत संघ के बाहर ले जाएँ, अलबत्ता वहाँ वे उनके साथ रह सकते थे| पर राहुल भारत वापिस आना चाहते थे|  और वे घबराये हुए भी थे| एक तरह से सोवियत सरकार उनकी अंदुरनी इच्छा ही पूरी कर रही थी – कैसे वे पत्नी और दो बच्चों के साथ भारत जा सकते थे? सबने उनकी निंदा की होती, खासकर बौद्धों ने,”तुम एक भिक्षु हो|” सो एक तरह से वे खुश भी थे कि सोवियत सरकार ने उन्हें अनुमति नहीं दी सो अब वह प्रश्न ही खड़ा नहीं हुआ|

वे वापिस आ गये| उन्होंने मुझे बताया,” जब मैं पहले पहले सोवियत संघ पहुंचा मैंने एक छोटे लड़के से पूछा,” क्या तुम ईश्वर में विश्वास रखते हो|” उसने कहा,”ईश्वर! लोग अंधे युगों में उसमें विश्वास किया करते थे| अगर आपको ईश्वर की मूर्ति देखनी हो तो आप म्यूजियम में जा देख सकते हैं|” ”

लेकिन ये सब भी प्रोग्रामिंग है| ऐसा नहीं है कि ऐसे छोटे लड़के जानते हैं कि ईश्वर नहीं है या कि कार्ल  मार्क्स ही जनता था कि ईश्वर नहीं है| केवल ध्यान में गहरे उतरने वाला व्यक्ति ही जां सकता है कि ईश्वर है या नहीं|

आप सब लोग किसी न किसी सांचे में ढाले गये लोग हो| आपकी प्रोग्रामिंग की गई है| और तुम्हारे साथ यह इतने गहरे में किया गया है कि तुम समझने लगे हो कि यह तुम्हारा स्वभाव है| तुम्हारी कल्पनाएं, तुम्हारी आशा, तुम्हारा भविष्य …कुछ भी प्राकृतिक नहीं है|

प्रकृति इस क्षण के सिवाय कुछ नहीं जानती| प्रकृति कुछ नहीं जानती, आशा, इच्छाएं , लालसा| प्रकृति तो आनंद उठाती है उसका जो इस क्षण, अभी और यहीं, उपलब्ध है|

राहुल ने मुझे बताया,” रशियन लोगों के लिए सबसे बड़ी अचरज की बात थी मेरे हाथ|”

मैंने कहा,” आपके हाथ!”

उन्होंने कहा,” हाँ मेरे हाथ! जब भी मैं उनसे हाथ मिलाता, वे तुरंत अपने हाथ खींच लेते और कहते,”तुम जरुर बुजुर्वा हो, तुम्हारे हाथ बताते हैं कि तुमने कभी काम नहीं किया|””

मैंने बौद्ध भिक्षु से कहा,”आप मेरे हाथ का स्पर्श करो| तब आपको पता लगेगा कि आप श्रमजीवी हो और मैं बुजुर्वा| यह आपको बहुत बड़ा दिलासा देगा|”

जून 5, 2013

आत्महत्या : जीने की इच्छा (ओशो)

osho dancingकहा जाता है कि अभिनेता-निर्देशक गुरुदत ने आत्महत्या की थी, और इस बात को मानने वाले इस बात को स्वीकार नहीं करते कि शराब और नींद की गोलियों के मिश्रण से यह एक दुर्घटना मात्र भी हो सकती थी पर तब भी यह प्रश्न उठना तो वाजिब है ही कि वे शराब और नींद की गोलियों के नशे के आदि क्यों बने| इन नशों की लत कहीं न कहीं यह दर्शाती ही है कि वे जीवन का मूल्य कम करके आंकने लगे थे और कहीं न कहीं उनकी नशे की लत उनके जीवन को समय पूर्व ही मौत की ओर ले जा रही थी| ऐसे बहुत से कलाकार हुए हैं जिन्होने आत्महत्या की और ऐसा नहीं कि इनमे वे लोग हैं जिनके जीवन में असफलता ज्यादा थी| ऐसे ऐसे कलाकारों ने भी आत्महत्या का सहारा लेकर जीवन का परित्याग कर दिया जो बेहद सफल थे| इससे यही साबित होता है कि कुछ लोगों में कहीं न कहीं जीवन को त्यागने की इच्छा का बीज छिपा रहता है और किसी भी तरह की समस्याओं से घिरने पर वह बीज अंकुरित हो उठता है और ऐसे लोगों में से कुछ लोग आत्मघात की ओर चले जाते हैं वरना ऐसे लोग भी देखने में आ सकते हैं जिनके दुखों की दास्तान सुनकार रोंगटे खड़े हो जाएँ और सुनने वाला सोचने पर मजबूर हो जाए कि यह आदमी जी कैसे रहा है?
ज्योतिष और अध्यात्म के संबंध पर बोलते हुए ओशो ने जीने की इच्छा और मरने के लिए बहाना ढूँढने की प्रवृत्ति पर भी एक बेहद अच्छी कथा के माध्यम से प्रकाश डाला है|

उन्होने महावीर स्वामी, कभी उनके शिष्य रहे गोशालक और जीने की इच्छा के बारे में एक कथा कही है। इस कथा में सुसाइडल इंस्टिक्ट और जीने की प्रबल इच्छा पर बेहद गहरी समझ उन्होने दुनिया को देकर उसे समृद्ध बनाया है।

प्रस्तुत है वही अनूठी कथा।

महावीर एक गांव के पास से गुजर रहे हैं। और महावीर का एक शिष्य गोशालक उनके साथ है, जो बाद में उनका विरोधी हो गया। एक पौधे के पास से दोनों गुजरते हैं।

गोशालक महावीर से कहता है कि सुनिए, यह पौधा लगा हुआ है। क्या सोचते हैं आप, यह फूल तक पहुंचेगा या नहीं पहुंचेगा? इसमें फूल लगेंगे या नहीं लगेंगे? यह पौधा बचेगा या नहीं बचेगा? इसका भविष्य है या नहीं?

महावीर आंख बंद करके उसी पौधे के पास खड़े हो जाते हैं।

गोशालक पूछता है कि कहिए, आंख बंद करने से क्या होगा? टालिए मत।

उसे पता भी नहीं कि महावीर आंख बंद करके क्यों खड़े हो गए हैं। वे एसेंशियल की खोज कर रहे हैं। इस पौधे के बीइंग में उतरना जरूरी है, इस पौधे की आत्मा में उतरना जरूरी है। बिना इसके नहीं कहा जा सकता कि क्या होगा।

आंख खोल कर महावीर कहते हैं कि यह पौधा फूल तक पहुंचेगा।

गोशालक उनके सामने ही पौधे को उखाड़ कर फेंक देता है, और खिलखिला कर हंसता है, क्योंकि इससे ज्यादा और अतर्क्‍य प्रमाण क्या होगा? महावीर के लिए कुछ कहने की अब और जरूरत क्या है? उसने पौधे को उखाड़ कर फेंक दिया, और उसने कहा कि देख लें। वह हंसता है, महावीर मुस्कुराते हैं। और दोनों अपने रास्ते चले आते हैं।

सात दिन बाद वे वापस उसी रास्ते पर लौट रहे हैं। जैसे ही महावीर और वे दोनों अपने आश्रम में पहुंचे जहां उन्हें ठहर जाना है, बड़ी भयंकर वर्षा हुई। सात दिन तक मूसलाधार पानी पड़ता रहा। सात दिन तक निकल नहीं सके। फिर लौट रहे हैं। जब लौटते हैं तो ठीक उस जगह आकर महावीर खड़े हो गए हैं जहां वे सात दिन पहले आंख बंद करके खड़े थे। देखा कि वह पौधा खड़ा है। जोर से वर्षा हुई, उसकी जड़ें वापस गीली जमीन को पकड़ गईं, वह पौधा खड़ा हो गया।
महावीर फिर आंख बंद करके उसके पास खड़े हो गए, गोशालक बहुत परेशान हुआ। उस पौधे को फेंक गए थे। महावीर ने आंख खोली।

गोशालक ने पूछा कि हैरान हूं, आश्चर्य! इस पौधे को हम उखाड़ कर फेंक गए थे, यह तो फिर खड़ा हो गया है!

महावीर ने कहा, यह फूल तक पहुंचेगा। और इसीलिए मैं आंख बंद करके… खड़े होकर इसे देखा! इसकी आंतरिक पोटेंशिएलिटी, इसकी आंतरिक संभावना क्या है? इसकी भीतर की स्थिति क्या है? तुम इसे बाहर से फेंक दोगे उठा कर तो भी यह अपने पैर जमा कर खड़ा हो सकेगा? यह कहीं आत्मघाती तो नहीं है, सुसाइडल इंस्टिंक्ट तो नहीं है इस पौधे में, कहीं यह मरने को उत्सुक तो नहीं है! अन्यथा तुम्हारा सहारा लेकर मर जाएगा। यह जीने को तत्पर है? अगर यह जीने को तत्पर है तो…मैं जानता था कि तुम इसे उखाड़ कर फेंक दोगे।

गोशालक ने कहा, आप क्या कहते हैं?

महावीर ने कहा कि जब मैं इस पौधे को देख रहा था तब तुम भी पास खड़े थे और तुम भी दिखाई पड़ रहे थे। और मैं जानता था कि तुम इसे उखाड़ कर फेंकोगे। इसलिए ठीक से जान लेना जरूरी है कि पौधे की खड़े रहने की आंतरिक क्षमता कितनी है? इसके पास आत्म-बल कितना है? यह कहीं मरने को तो उत्सुक नहीं है कि कोई भी बहाना लेकर मर जाए! तो तुम्हारा बहाना लेकर भी मर सकता है। और अन्यथा तुम्हारा उखाड़ कर फेंका गया पौधा पुनः जड़ें पकड़ सकता है।

गोशालक की दुबारा उस पौधे को उखाड़ कर फेंकने की हिम्मत न पड़ी; डरा।

पिछली बार गोशालक हंसता हुआ गया था, इस बार महावीर हंसते हुए आगे बढ़े।

गोशालक रास्ते में पूछने लगा, आप हंसते क्यों हैं?

महावीर ने कहा कि मैं सोचता था कि देखें, तुम्हारी सामर्थ्य कितनी है! अब तुम दुबारा इसे उखाड़ कर फेंकते हो या नहीं?

गोशालक ने पूछा के आपको तो पता चल जाना चाहिए कि मैं उखाड़ कर फेंकूंगा या नहीं।

तब महावीर ने कहा, वह गैर अनिवार्य है। उखाड़ कर फेंक भी सकते हो। अनिवार्य यह था कि पौधा अभी जीना चाहता था। उसके पूरे प्राण जीना चाहते थे, वह अनिवार्य था। वह एसेंशियल था। यह तो गैर अनिवार्य है, तुम फेंक भी सकते हो, नहीं भी फेंक सकते हो। यह तुम पर निर्भर हे। लेकिन तुम पौधे से कमजोर सिद्ध हुए हो—हार गए।

महावीर से गोशालक के नाराज हो जाने के कुछ कारणों में एक कारण यह पौधा भी था।

जिस ज्‍योतिष की मैं बात कर रहा हूं उसका संबंध अनिवार्य से एसेंशियल से फाउण्‍ड़ेशनल से है। आपकी उत्‍सुकता ज्‍यादा से ज्‍यादा सेमी एसेंशियल तक आती है। पता लगाना चाहते हे कि कितने दिन जियूंगा, मर तो नहीं जाऊँगा, जीकर क्‍या करूंगा। जी ही लुंगा तो क्‍या करूंगा, आपकी उत्‍सुकता नहीं पहुँचती। मरूंगा तो मरने के बाद क्‍या करूंगा। इस तक भी आपकी उत्‍सुकता नहीं पहुँचती। घटनाओं तक पहुँचती है, आत्‍माओं तक नहीं पहुँचती। जब मैं जी रहा हूं तो यह तो घटना है सिर्फ—जीकर मैं क्‍या हूं। वह मेरी आत्‍मा होगी। हम सब मरेंगे। मरने के मामले में सबकी घटना होगी। लेकिन मरते क्षण में मैं क्‍या होऊंगा, क्‍या करूंगा। मरने के क्षण में हमारी स्‍थिति सब से भिन्‍न होगी। कोई मुस्कराते हुए भी मर सकता है।

ओशो (ज्योतिष और अध्यात्म)

जून 5, 2013

अधूरे काम…मरने से रहे (रघुवीर सहाय)

या तो हिन्दुस्तानी कुछ मामलों में भोले होते हैं या अति चालाक| जीवन भर जिसे शातिर और निकम्मा, एक नंबर का आलसी, हमेशा अपना हित देखने वाला, मानते रहते हैं उसके मरते ही उसकी शान में कसीदे कढने शुरू कर देते हैं और ऐसा लगने लगता है कि मानों हाल ही में मृत आदमी से महान कोई अन्य व्यक्ति मुश्किल से ही धरती पर निकट के वर्षों में जन्मा होगा| नेताओं में तो यह बीमारी बहुत ज्यादा पाई जाती है| कवि रघुवीर सहाय ने दलीय राजनीति का भी स्वाद कुछ बरस चखा (आपातकाल के आसपास और उस दौरान) पर कवि की दृष्टि तो वे राजनीति में जाकर भी छोड़ न पाए होंगे| उनकी एक कविता मनुष्य की इसी दोगली बात को नग्न करती है|

दो बातें मरने पर कहते हैं

-वह अमर रहे

और

-उसे बहुत कुछ करना था|

किसी को भी लो और मार दो

और यह पाओगे

कि उसे बहुत काम करना था|

पर कौन जानता है कि

वह उन्हें क्यों नहीं कर रहा था

काम जो हम चाहते हैं करें,

पर स्थगित करते रहते हैं

बर्बर लोगों की तरह कर नहीं डालते

ऐसे अधूरे काम

जिनकी याद मरने का बाद आती है

कौन जानता है

क्यों अच्छी तरह सोचे भी नहीं गये|

(रघुवीर सहाय)

जून 2, 2013

ओशो : यशपाल (वामपंथी लेखक)

Osho Yashpalमेरे एक कम्यूनिस्ट मित्र थे- वे वास्तव में बड़े बौद्धिक थे| उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखीं, सौ के आसपास, और सारी की सारी कम्यूनिस्ट थीम से भरी हुई, पर अपरोक्ष रूप से ही, वे उपन्यासों के माध्यम से यह करते थे|  वे अपने उपन्यासों के माध्यम से कम्यूनिस्म का प्रचार करते थे और इस तरीके से करते कि तुम उपन्यास से प्रभावित होकर कम्यूनिज्म की तरफ मुड जाओ| उनके लिखे उपन्यास प्रथम श्रेणी के हैं, वे बहुत अच्छे रचनात्मक लेखक थे, लेकिन उनके लिखे का अंतिम परिणाम यही होता है कि वे तुम्हे कम्यूनिज्म की तरफ खींच रहे होंगे|

उनका नाम ‘यशपाल’ था| मैंने उनसे कहा,”यशपाल, आप हरेक रिलीजन के खिलाफ हो” – और कम्यूनिज्म हर रिलीजन के खिलाफ है, यह नास्तिक दर्शन है, ” लेकिन जिस तरह आप व्यवहार करते हो और अन्य कम्यूनिस्ट लोग व्यवहार करते हैं वह सीधे-सीधे यही सिद्ध करता है कि कम्यूनिज्म भी एक रिलीजन ही है|”
उन्होंने पूछा,” आपका मतलब क्या है?”

मैंने कहा,” मेरे कहने का तात्पर्य सीधा सा है कि आप भी उतने ही कट्टर हो जितना कि कोई भी मुसलमान, या ईसाई हो सकता है| आपके अपने त्रिदेव हैं : मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन| आपकी अपनी मक्का है – मास्को, आपका अपना काबा है – क्रेमलिन, आपकी अपनी पवित्र किताब है – दस केपिटल, और हालांकि ‘दस केपिटल’ सौ साल पुरानी हो चुकी है पर आप तैयार नहीं हैं उसमे एक भी शब्द का हेरफेर करने के लिए| सौ साल में अर्थशास्त्र पूरी तरह बदल गया है, ‘दस केपिटल’ पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुकी है|”

वे तो लड़ने को तैयार हो गये|

मैंने कहा,” यह लड़ने का प्रश्न नहीं है| यदि आप मुझे मार भे डालते हैं तब भी यह सिद्ध नहीं होगा कि आप सही हैं| वह सीधे सीधे यही सिद्ध करेगा कि मैं सही था और आप मेरे अस्तित्व को सह नहीं पाए| आप मुझे तर्क दें|”

“कम्यूनिज्म के पास कोई तर्क नहीं हैं|”

मैंने उनसे कहा,” आपका पूरा दर्शन एक विचार पर आधारित है कि पूरी मानव जाति एक समान है| यह मनोवैज्ञानिक रूप से गलत है| सारा मनोविज्ञान कहता है कि हरेक व्यक्ति अद्वितीय है| अद्वितीय कैसे एक जैसे हो सकते हैं?”
लेकिन कम्यूनिज्म कट्टर है| उन्होंने मुझसे बात करनी बंद कर दी| उन्होंने मुझे पत्र लिखने बंद कर दिए| मैं मैं उनके शहर लखनऊ से गुजरकर जाया करता था और वे स्टेशन पर मुझसे मिलने आया करते थे, अब उन्होंने स्टेशन पर आकर मिलना बंद कर दिया|

जब उन्होंने मेरे कई पत्रों का जवाब नहीं दिया तो मैंने उनकी पत्नी को पत्र लिखा| वे एक सुलझी और स्नेहमयी महिला थीं| उन्होंने मुझे लिखा,”आप समझ सकते हैं| मुझे आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि वे एक कट्टर व्यक्ति हैं| और आपने उनकी सबसे बड़ी कमजोरी को छू दिया है| यहाँ तक कि मैं भी सचेत रहती हूँ कि कम्यूनिज्म के खिलाफ कुछ न बोलूं| मैं कुछ भी कर सकती हूँ| उनके खिलाफ कुछ भी कह सकती हूँ| पर मुझे कम्यूनिज्म के खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि वे यह स्वीकार ही नहीं कर सकते कि कोई कम्यूनिज्म के खिलाफ भी हो सकता है|”
यशपाल ने एक बार मुझसे कहा,” हम सारे संसार को नियंत्रित करने जा रहे हैं|”

मैंने कहा'”आपका लक्ष्य छोटा है, यह पृथ्वी तो बहुत छोटी है| आप मेरे लक्ष्य में क्यों नहीं भागीदार बन जाते?”

उन्होंने पूछा,” आपका लक्ष्य क्या है?”

मैंने कहा,” मेरा लक्ष्य बहुत साधारण है| मैं तो एक साधारण रूचि का व्यक्ति हूँ और बहुत आसानी से संतुष्ट हो जाता हूँ| मैं तो केवल ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करने जा रहा हूँ| इतनी छोटी पृथ्वी की क्या चिंता करनी, यह तो ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा हिस्सा भर है| इसके बारे में चिंता क्या करनी|”

लेकिन कम्यूनिस्ट इस बात में विश्वास रखते हैं कि वे सारी पृथ्वी को अपने कब्जे में कर लेंगे| आधी पृथ्वी को उन्होंने कर ही लिया है|

उनकी कट्टरता अमेरिका को कट्टर ईसाई बनाएगी| यही अमेरिकियों को एकमात्र विकल्प लगेगा लेकिन उन्हें नहीं पता कि कम्यूनिज्म से बचे रह सकते हैं पर कट्टर ईसाइयत से बचना मुश्किल है|

एक खतरे से बचने के लिए तुम ज्यादा बड़े खतरे में गिर रहे हो|

खुद को और पूरे संसार को कम्यूनिज्म से बचाने का एक उपाय है और अति सरल उपाय है| लोगों को और ज्यादा धनी बना दो| गरीबी को मिट जाने दो| गरीबी मिट जाने के साथ ही कम्यूनिज्म भी मिट जाएगा| 

जून 1, 2013

थोड़ी और पिला दो भाई

इतना ज्यादा भरा हुआ हूँ

लगता है मैं मरा हुआ हूँ

कोशिश करके धनवन्तरी से

तुम मुझको दिखला दो भाई !

थोड़ी और पिला दो भाई!

अगर इसे मैं पी जाउंगा

शायद मैं कुछ जी जाउंगा

जीवन की अंतिम साँसों को

कुछ तो और जिला दो भाई!

थोड़ी और पिला दो भाई!

खामोशी का टुकड़ा बनकर

एक उदासी बसी है भीतर

सोई हुई झील के जल को

पत्थर मार हिला दो भाई!

थोड़ी और पिला दो भाई!

मांग रहा हूँ मैं आशा से

देह और मन की भाषा से

अमृत की गागर से मुझको

एक तो घूँट पिला दो भाई!

थोड़ी और पिला दो भाई!

मुझे छोड़ जो चला गया है

खुद से ही वह छला गया है

है तो मेरा जानी दुश्मन

पर इक बार मिला दो भाई!

थोड़ी और पिला दो भाई!

{कृष्ण बिहारी}