सितम्बर 16, 2016
कितने अकेले तुम रह सकते हो?
अपने जैसे कितनों को खोज सकते हो तुम?
अपने जैसे कितनों को बना सकते हो?
हम एक गरीब देश के रहने वाले हैं
इसलिए
हमारी मुठभेड़ हर वक्त रहती है ताकत से
देश के गरीब होने का मतलब है
अकड़ और अश्लीलता का
हम पर हर वक्त हमला
(रघुवीर सहाय)
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सितम्बर 1, 2016
यह क्या है जो इस जूते में गड़ता है
यह कील कहाँ से रोज़ निकल आती है
इस दु:ख को रोज़ समझना क्यों पड़ता है?
हम सहते हैं इसलिए कि हम सच्चे हैं
हम जो करते हैं वह ले जाते हैं वे
वे झूठे हैं लेकिन सबसे अच्छे हैं
पर नहीं, हमें भी राह दीख पड़ती है
चलने की पीड़ा कम होती जाती है
जैसे-जैसे वह कील और गड़ती है
हमको तो अपने हक सब मिलने चाहिए
हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन
कम से कम वाली बात न हमसे कहिए
(रघुवीर सहाय)
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मई 2, 2016
पानी पानी
बच्चा बच्चा
हिन्दुस्तानी
मांग रहा है
पानी पानी
जिसको पानी नहीं मिला है
वह धरती आजाद नहीं
उस पर हिन्दुस्तानी बसते हैं
पर वह आबाद नहीं
पानी पानी बच्चा बच्चा
मांग रहा है
हिन्दुस्तानी
जो पानी के मालिक हैं
भारत पर उनका कब्जा है
जहां न दें पानी वहां सूखा
जहां दें वहां सब्जा है
अपना पानी
मांग रहा है
हिन्दुस्तानी
बरसों पानी को तरसाया
जीवन से लाचार किया
बरसों जनता की गंगा पर
तुमने अत्याचार किया
हमको अक्षर नहीं दिया है
हमको पानी नहीं दिया
पानी नहीं दिया तो समझो
हमको बानी नहीं दिया
अपना पानी
अपनी बानी हिन्दुस्तानी
बच्चा बच्चा मांग रहा है
धरती के अंदर का पानी
हमको बाहर लाने दो
अपनी धरती अपना पानी
अपनी रोटी खाने दो
पानी पानी
पानी पानी
बच्चा बच्चा
मांग रहा है
अपनी बानी
पानी पानी
पानी पानी
पानी पानी
[‘हँसो हँसो जल्दी हँसो’ (1978)]
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जून 5, 2013
या तो हिन्दुस्तानी कुछ मामलों में भोले होते हैं या अति चालाक| जीवन भर जिसे शातिर और निकम्मा, एक नंबर का आलसी, हमेशा अपना हित देखने वाला, मानते रहते हैं उसके मरते ही उसकी शान में कसीदे कढने शुरू कर देते हैं और ऐसा लगने लगता है कि मानों हाल ही में मृत आदमी से महान कोई अन्य व्यक्ति मुश्किल से ही धरती पर निकट के वर्षों में जन्मा होगा| नेताओं में तो यह बीमारी बहुत ज्यादा पाई जाती है| कवि रघुवीर सहाय ने दलीय राजनीति का भी स्वाद कुछ बरस चखा (आपातकाल के आसपास और उस दौरान) पर कवि की दृष्टि तो वे राजनीति में जाकर भी छोड़ न पाए होंगे| उनकी एक कविता मनुष्य की इसी दोगली बात को नग्न करती है|
दो बातें मरने पर कहते हैं
-वह अमर रहे
और
-उसे बहुत कुछ करना था|
किसी को भी लो और मार दो
और यह पाओगे
कि उसे बहुत काम करना था|
पर कौन जानता है कि
वह उन्हें क्यों नहीं कर रहा था
काम जो हम चाहते हैं करें,
पर स्थगित करते रहते हैं
बर्बर लोगों की तरह कर नहीं डालते
ऐसे अधूरे काम
जिनकी याद मरने का बाद आती है
कौन जानता है
क्यों अच्छी तरह सोचे भी नहीं गये|
(रघुवीर सहाय)
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जुलाई 31, 2011
सुप्रसिद्ध कवि स्व. रघुवीर सहाय ने मनुष्य के जीवन की गति और दिशा और जीवन-दर्शन और जीवन के प्रति समझ में आने वाले उतार-चढ़ाव पर बहुत ही अच्छी कविता लिखी थी।
मधुर यौवन का मधुर अभिशाप मुझको मिल चुका था
फूल मुरझाया छिपा कांटा निकलकर चुभ चुका था
पुण्य की पहचान लेने, तोड़ बंधन वासना के
जब तुम्हारी शरण आ, सार्थक हुआ था जन्म मेरा
क्या समझकर कौन जाने, किया तुमने त्याग मेरा
अधम कहकर क्यों दिया इतना निठुर उपलंभ यह
अंत का प्रारंभ है यह!
जगत मुझको समझ बैठा था अडिग धर्मात्मा क्यों,
पाप यदि मैंने किये थे तो न मुझको ज्ञान था क्यों
आज चिंता ने प्रकृति के मुक्त्त पंखों को पकड़कर
नीड़ में मेरी उमंगों के किया अपना बसेरा
हो गया गृहहीन सहज प्रफुल्ल यौवन प्राण मेरा
खो गया वह हास्य अब अवशेष केवल दंभ है यह
अंत का प्रारंभ है यह!
है बरसता अनवरत बाहर विदूषित व्यंग्य जग का
और भीतर से उपेक्षा का तुम्हारा भाव झलका
अनगिनत हैं आपदायें कहाँ जाऊँ मैं अकेला
इस विमल मन को लिये जीवन हुआ है भार मेरा
बुझ गये सब दीप गृह के, काल रात्रि गहन बनी है
दीख पड़ता मृत्यु का केवल प्रकाश स्तंभ है यह
अंत का प्रारंभ है यह!
(रघुवीर सहाय)
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