अपने इस गटापार ची बबुए के
पैरों में शहतीरें बांधकर
चौराहे पर खड़ा कर दो,
फिर, चुपचाप ढ़ोल बजाते जाओ,
शायद पेट भर जाए :
दुनिया विवशता नहीं
कुतूहल खरीदती है|
भूखी बिल्ली की तरह
अपनी गरदन में संकरी हाँडी फँसाकर
हाथ-पैर पटको,
दीवारों से टकराओ,
महज छटपटाते जाओ,
शायद दया मिल जाए:
दुनिया आँसू पसन्द करती है
मगर शोख चेहरों के|
अपनी हर मृत्यु को
हरी-भरी क्यारियों में
मरी हुई तितलियों-सा
पंख रंगकर छोड़ दो,
शायद संवेदना मिल जाए :
दुनिया हाथों-हाथ उठा सकती है
मगर इस आश्वासन पर
कि रुमाल के हल्के-से स्पर्श के बाद
हथेली पर एक भी धब्बा नहीं रह जाएगा|
आज की दुनिया में
विवशता,
भूख,
मृत्यु,
सब सजाने के बाद ही
पहचानी जा सकती है|
बिना आकर्षण के दुकानें टूट जाती हैं|
शायद कल उनकी समाधियां नहीं बनेंगी
जो मरने के पूर्व
कफ़न और फूलों का
प्रबन्ध नहीं कर लेंगें|
ओछी नहीं है दुनिया:
मैं फिर कहता हूँ,
महज उसका सौंदर्य-बोध
बढ़ गया है|
(सर्वेश्वरदयाल सक्सेना)