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सितम्बर 15, 2016

सबसे दिली दोस्त … (कमलेश)

सबसे भले दोस्त

गायब हो जायेंगें भीड़ में |

सबसे दुखी दोस्त

झूठे पड़ जायेंगें उम्मीद में|

सबसे बड़े दोस्त

छूट जायेंगें मंजिल के पहले|

सबसे दिली दोस्त

गरीब हो जायेंगें विपत्ति में|

(कमलेश)

(साभार – समास – १४)

 

मार्च 21, 2016

चलना हमारा काम है… (शिवमंगल सिंह सुमन)

ShivMangalSinghSumanचलना हमारा काम है
गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूँ दर दर खड़ा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पड़ा
जब तक न मंज़िल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है, चलना हमारा काम है।

 

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गईं
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ, राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।

जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरुद्ध, इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।

इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पड़ा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पड़ा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ, मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोड़ा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।

साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रुकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम, उसीकी सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।

फकत यह जानता
जो मिट गया वह  गया
मूँदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिश्रित गरल, वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।

(शिवमंगल सिंह सुमन)

नवम्बर 15, 2013

बाँट सकूं, ऐसा आत्म-ज्ञान कहाँ से लाऊं ?

jhulaghat-001आज उसका फोन आने पर एकबारगी ख्याल आया कि पिछले तीस सालों में लगभग हर दस सालों में उससे एक भेंट हुयी है और इन भेंटों ने याद के एक कोने में सुरक्षित स्थान घेर लिया है|

दस बरस पूर्व उससे हुयी मुलाक़ात याद आ गयी|

* * * * * * *

वह मंडली में नाच रहा था| सहसा उसकी दृष्टि मुझ पर पडी और वह लपक कर मेरे पास आ गया|

बीस साल पहले अजय घिल्डियाल और मैं एक ही कक्षा में पढ़ा करते थे, पढ़ने के दौरान भी कोई खास दोस्ती उससे नहीं रही थी| छोटी सी पर्वतीय जगह, तकरीबन एक बड़े गाँव जैसी, में सभी एक दूसरे को जानते ही हैं, एक दूसरे की आदतों को पहचानते हैं, गुणों -अवगुणों की जानकारी रखते हैं| याद आता है कई मर्तबा वह कक्षा न लगने के कारण खाली समय में या मध्यांतर में लंच के दौरान मेरे पास आ बैठता था और कुछ न कुछ बात बताता रहता था| मैं भी उसकी बातों के सिलसिले को आगे बढ़ा दिया करता था|

उसके कुछ करीबी मित्र उसे स्नेह से ‘जलया’ बुलाया करते थे पर याद नहीं पड़ता मैंने कभी उसे इस नाम से पुकारा हो| मेरे लिए वह हमेशा अजय ही रहा| स्कूल के बाद पढ़ने मैदानी इलाकों में आ गया और छुट्टियों में घर जाना होता तो कभी कभार उससे भी मुलाक़ात हो जाती थी|बाद में नौकरी करने लगा तो घर जाना भी उतना जल्दी जल्दी नहीं हो पाता था| पर उसके बारे में पता चला था कि वह भी इंटर कालेज में अध्यापक बन गया था|

आज बरसों बाद, कम से कम दस बरस बाद उससे मिल रहा था|

विचारों की श्रंखला उसके स्पर्श और बोलने से टूटी| वह कह रहा था,

“यार, मैं कुछ दिनों से तेरे ही बारे में सोच रहा था, मुझे विश्वास था कि तू इस शादी में जरुर ही आएगा, आखिर तेरे चचेरे भाई की शादी ठहरी|”

मैं मुस्कराया,”हाँ आना ही पड़ा, महेश ने दिल्ली आकर ऐसा माहौल मेरे इर्दगिर्द रच दिया कि कोई और चारा था ही नहीं| फिर खुद भी सर्दी में घर आना चाहता था| बरसों हो गये पहाड़ की सर्दी में समय बिताए हुए…दिन में धूप सेके| कुछ थक भी गया था दिल्ली की चहल-पहल भरी जिंदगी से सो अपनी बैटरी चार्ज करने आ गया| जहाज का पंछी जहाज पर आएगा ही”|

अजय हंस पड़ा| पर उसकी हँसी हँसी जैसी नहीं थी| लगा जैसे वह वहाँ था ही नहीं और कोई और ही हंस रहा था और वह कहीं दूर खड़ा था| उसके चेहरे पर व्यथा के चिह्न साफ़ दिखाई पड़ रहे थे|

उसने गहरी निगाहों से मुझे देखा और धीमे स्वर में बोला,

“यार, ये मत सोचना कि शराबी बन गया हूँ| चार पैग लगाये हैं, तब तुझसे बात करने की हिम्मत जुटा पाया हूँ| उतर जायेगी तब थोड़े ही न तुझसे बात कर पाउँगा|”

उसका चेहरा रुआंसा हो चला था|

वह कह रहा था,” तब तो शर्म आयेगी न”|

मैं कुछ चौकन्ना हो गया| मुझे ऐसी किसी मुलाक़ात की आशा नहीं थी| मैंने हल्के से बातों का रुख पलट कर वहाँ से खिसकना चाहा पर वह प्रयास मुझे व्यर्थ लगा| उसने मुझे नहीं छोड़ा और खाना खाने की और बांह पकड़ कर ले गया|

हम लोग साथ साथ बैठ गये|

“यार तू तो जानकार ठहरा|”

मैंने प्रश्नात्मक दृष्टि उस पर डाली|

मेरी निगाहें पढकर वह बोला,”देख यार पांच सौ लोगों के सामने मुझे मत रुला| बस मेरी इस शंका का समाधान कर दे यार, मुझे रास्ता बता दे भाई|”

“देख यार दस साल पहले भी मैंने तुझसे यही पूछा था पर तू टाल गया था| अब बता दे यार, वरना मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचेगा|”

अब उसने वाकई रोना शुरू कर दिया| मेरी हालत अजीब थी, मैंने शास्त्रीय औपचारिकता अपनाते हुए उसे सामान्य बनाने की कोशिश की| पर सब व्यर्थ|

वह रोते रोते कह रहा था,”देख यार मुझे बहलाने की कोशिस मत कर| दस साल पहले भी तूने ऐसे ही मुझे दिलासा दे दिया था|”

मैंने समझाने की गरज से पहली बार उसे उस नाम से पुकारा जिससे उसके घनिष्ठ मित्र पुकारा करते थे, अब भी पुकारते होंगे|

” यार, जलया, सब कुछ तो ठीक है| बीवी है बच्चे हैं, घर है, नौकरी है| क्या तकलीफ है…कुछ भी तो नहीं|”

“देख यार, जलया कह कर ज्यादा भावुकता मत दिखा| मैं जानता हूँ मैं कौन हूँ|”

“तू कौन है?”

“देख यार क्यों मुझे रुला रहा है| बता दे मुझे आत्मिक संतोष कैसे मिलेगा| कैसे मेरी सोल सेटिसफाई होगी?”

उसने फिर से रोना शुरू कर दिया|

मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ| उसके ऊपर गुस्सा भी आ रहा था| इच्छा तो हुयी कि कहूँ कि भरी शादी में कई तरफ की कुंठाओं के नीचे दबा हुआ है क्या आत्मिक संतोष, जो परतें हटाकर ऊपर उभर आएगा?|

अपनी आवाज से इस आकस्मिक, मैत्रीपूर्ण हमले से उत्पन्न हैरानी और हल्की नाराजगी के असर को दबाकर उससे कहा,”देख यार, मुझे ऐसा लगता है कि जहाँ तक आत्मिक संतोष की बात है, मुझे व्यक्तिगत तौर पर ऐसा लगता है कि मुझमे, तुझमे, और इन सबमें, उधर हमारे से पहली पीढ़ी के और इधर हमसे बाद वाली पीढ़ी के लोग, जो खाने में रस ले रहे हैं, किसी में भी कोई अंतर नहीं है| किसी  के पास आत्मिक जागृति का कोई अनुभव नहीं है| तुम्हारे अंदर इसे जानने की जिज्ञासा है, अभी तक न जान पाने की पीड़ा भी है, हम सबमें तो वह भी नहीं है| हम सब बस जिए जा रहे हैं|”

मेरे इतना बोलने से वह आंसू पोछकर एकटक मेरी ओर देखने लगा|

अपनी ओर उत्सुकता से देखता पा मैंने आगे उसे कहा,” ऐसा लगता है कि हम सबको जीवन में एक सुपरिभाषित फ्रेम मिलता है और उस फ्रेम के अंदर हम सबको अपना सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयत्न करना चाहिए और गाहे-बेगाहे उस फ्रेम के बाहर झांककर अपने जीवन की परिधि को बढ़ाने का प्रयास भे एकारना चाहिए|”

“देख, अजय, एकदम सच सच कहूँ तो तेरी बात से मेरे अंदर गुस्सा उत्पन्न हो रहा है| यह सब ज्ञान देते हुए मुझे ऐसा लग रहा है जैसे खुद कुछ भी न जानते हुए भी मैं तुझे बता रहा हूँ| होता क्या है कि जब हम दूसरों के दुख सुनते हैं और दुखड़ों के समाधान सुझाने का प्रयत्न करते हैं तो चीजें हमें एकदम दुरुस्त, समझ में आ जाने वाली लगती हैं और शब्द सरस्वती के बोलों की तरह झरते हैं|”

मेरी बात सुन वह कुछ हैरानी से मेरी ओर देख रहा था|

“कितना सरल लगता है सुझाव देना, यह सब कहना| परन्तु वास्तविक जीवन में लक्ष्य निर्धारित करना बेहद कठिन काम है| अगर मंजिल पता हो तो मानव राह तो किसी न किसी तरह खोज लेता है बना लेता है पर असल समस्या उसी मंजिल की तो है जिसको पाने से हम वास्तव में ऐसा महसूस कर सकें कि हाँ अब कुछ किया, अब सच्ची स्थायी खुशी मिली| ऐसी मंजिल दिखाई नहीं पड़ती सो हम छोटे-छोटे संतोष देने वाली मंजिलों को चुनकर उन पर चलकर अच्छा महसूस करने लगते हैं|”

* * * * * * *

कुछ ऐसा ही दर्शन देकर मैंने उस मुलाक़ात का समापन किया था| बाद में दिल्ली आ गया और  नौकरी और जीवन के अन्य कार्यों में व्यस्त होने से उसकी और उस मुलाक़ात की स्मृति हल्की पड़ कर एक कोने में पसर गयी|

इन दस बरसों में लगभग दस ही बार घर जाना हुआ तो उसके बारे में परिचितों से पता चला कि वहाँ से उसका स्थानांतरण हो गया और अब वह दूसरी जगह दूसरे स्कूल में पढाता है|

आज उसके फोन ने उससे जुडी स्मृतियाँ ताजी कर दीं|

उसने बताया कि उसके बेटे को आई.आई.टी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने के लिए दिल्ली रहना है और उसे कोचिंग में प्रवेश दिलवाने और उसके रहने खाने का बंदोबस्त करने वह दिल्ली आ रहा है| मेरा फोन उसने घर पर मेरे पिताजी से लिया| उसने मुझसे पूछा कि अगर मुझे असुविधा न हो तो वह मेरे घर एक रोज ठहर कर यह सब इंतजाम करके वापस लौट जाएगा| मैंने उसे निसंकोच दिल्ली में मेरे घर आने को कहा और कहा कि मैं उसके बेटे के लिए कोचिंग आदि के प्रबंध करने में उसकी मदद कर दूंगा|

अगले  हफ्ते वह आएगा| पर अब मुझे कुछ उत्सुकता भी है और भय भी कि अगर उसकी आत्मिक संतोष की भावना अभी तक उसे पीड़ा देती है तो क्या वह फिर से मुझसे समाधान पूछेगा?

मैं क्या समाधान दूंगा?

मैंने इन दस बरस में कितनी आत्मिक प्रगति कर ली है?

आंतरिक जगत में मैंने ऐसा क्या खोज लिया है जो मैं उसे दे पाउँगा?

कार्यक्षेत्र में और दुनियावी मामलों में दैनिक स्तर पर समस्याएं आती हैं , एक से एक जटिल लोग मिलते हैं पर उन सबसे निबटने में कभी कोई परेशानी नहीं होती|

पर अजय के आने की बात ने मुझे अंदर से थोड़ा हिला दिया है|

जीवन में सफलता पाने की आपाधापी में क्या मैंने पाया है जिससे अजय को ज्ञान दे सकूंगा?

उसके आने की प्रतीक्षा भी है और एक भय भी है|

अपनी मानसिक समस्या उसने मुझे दे दी है क्या?

Yugalsign1

फ़रवरी 27, 2013

बस ऐसे जीवन बीत गया

कितने तूफानों से गुजरा

कितनी गहराई में उतरा

दोनों का ही कुछ पता नहीं

बस ऐसे जीवन बीत गया |

राजीव-नयन तो नहीं मगर मद भरे नयन कुछ मेरे थे

इन उठती-गिरती पलकों में खामोश सपन कुछ मेरे थे |

कुछ घने घनेरे से बादल

कब बने आँख का गंगाजल

दोनों का ही कुछ पता नहीं

बस ऐसे जीवन बीत गया

कब कैसे यह घट रीत गया|

जगती पलकों पर जब तुमने अधरों की मुहर लगाईं थी

तब दूर क्षितिज पर मैंने भी यह दुनिया एक बसाई थी |

कितनी कसमें कितने वादे

आकुल-पागल कितनी यादें

दोनों का ही कुछ पता नहीं

किस भय से मन का मीत गया

मैं  हार गया वह जीत गया|

तुम जब तक साथ सफर में थे, मंजिल क़दमों तक खुद आई

अब मंजिल तक ले जाती है मुझको मेरी ही तन्हाई|

कब कम टूटा कब धूप ढली

उतरी कब फूलों से तितली

दोनों का ही कुछ पता नहीं

कब मुझसे दूर अतीत गया

बस ऐसे जीवन बीत गया

{कृष्ण बिहारी}

सितम्बर 27, 2011

दूर और कुछ जाना है

साथ तुम्हारे ही चलकर के दूर और कुछ जाना है
पथ से है पहचान तुम्हारी पथ मेरा अंजाना है
चिर परिचित से मुझे लगे हो
शायद जन्मों साथ रहे हो
या फिर कोई और बात है
सुख-दुख जो तुम साथ सहे हो
मुझको तो ऐसा लगता है मन जाना-पहचाना है,
पथ से है पहचान तुम्हारी…
मिलना और झगड़ना मिलकर
यह तो अपनी आम बात है
जीत मिली है हरदम तुमको
मुझको तो बस मिली मात है
सारी उम्र मुझे तो शायद हरदम तुम्हे मनाना है,
पथ से है पहचान तुम्हारी…
जब-जब भी मिल जाते हो तुम
मन पर चाँद उतर आता है
दूर तुम्हारे होते ही पर
सुख जैसे सब छिन जाता है
बहुत रोकता हूँ मैं आँसू पर वह तो बाहर आना है,
पथ से है पहचान तुम्हारी…
अपने पीछे था कल बचपन
आज द्वार पर आया यौवन
कल तक कोई रोक नहीं थी
आज लग गये मन पर बंधन
इनसे डरकर मेरे मन अब और नहीं घबराना है,
पथ से है पहचान तुम्हारी…
प्रेम हमारा दीया-बाती
या फिर है चातक-स्वाति
निस दिन इसको बढ़ना ही है
जैसे नदिया चलती जाती
हमको भी तो मंजिल अपनी आज नहीं कल पाना है
पथ से है पहचान तुम्हारी…

{कृष्ण बिहारी}

सितम्बर 6, 2011

कैसे हुई बदनाम कहानी?

शायद कहता नहीं तो रह जाती गुमनाम कहानी
किन्तु मुझे भी ज्ञात नहीं है कैसे हुई बदनाम कहानी,

कुहरे की मैं शाम हो गया
घर-बाहर नीलाम हो गया
तेरे साथ घड़ी भर रहकर
जीवन भर बदनाम हो गया

तेरी-मेरी खास बात थी मगर बन गई आम कहानी
किन्तु मुझे भी ज्ञात नहीं है कैसे हुई बदनाम कहानी,

चर्चित भी मैं खूब हुआ हूँ
गली रही हो या चौराहा
मधुर-मिलन के पहले लेकिन
आना था आया दोराहा

अलग वहाँ से होनी ही थी अपनी वो सरनाम कहानी
किन्तु मुझे भी ज्ञात नहीं है कैसे हुई बदनाम कहानी,

तुम क्या छूटे मंजिल छूटी
दिल टूटा पर प्रीत न टूटी
जैसे किसी सुहागन की हो
यौवन में ही किस्मत फूटी

सब कुछ तो लुट गया मगर शेष रही नाकाम कहानी
किन्तु मुझे भी ज्ञात नहीं है कैसे हुई बदनाम कहानी,

यूँ तो सारा खेल जगत में
विधि का ही बस रचा हुआ है
लेकिन मेरे भोले मन पर
एक प्रश्न यह खिंचा हुआ है

आखिर उजले मन की ही क्यों बन जाती है श्याम कहानी
किन्तु मुझे भी ज्ञात नहीं है कैसे हुई बदनाम कहानी।

{कृष्ण बिहारी}

अगस्त 2, 2011

तुम खारे क्यों हो समंदर बाबा?

अपने पैरों पे एतबार हो जायेगा मेरे रास्ते पर चल के देख
तुझे भी काँटों से प्यार हो जायेगा मेरे रास्ते पर चल के देख
मंजिल मिलने की आस को ठुकराने की हिम्मत कर तो सही
जीवन मार्ग खुशगवार हो जायगा मेरे रास्ते पर चल के देख
* * *

क़तरा भर की औकात है मेरी मगर फिर भी
मीठे नदी-तालों को भरती हूँ अपने असर से
इतने बड़े होकर भी आप खारे क्यों हो बाबा!
नन्ही बूँद ने यूँ ही पूछा था कभी समंदर से
* * *

कुछ जवाब हैं जो कभी किसी को नहीं मिलते
सुबह धरती पर पड़ी ओस में छिपे बड़े भेद हैं
सितारों को सुना जाते हैं हँसते हुए कई पागल
मेरी चादर से कहीं ज़्यादा आसमान में छेद हैं
* * *

एक एक पल मांगता है अपने होने की कीमत
ये कहना आसान है के जिंदगी को खेल समझ
दुनियादारों की इस बस्ती में सादा दिल हैं जो
तजुर्बे के पैमाने पर उन लोगों को फेल समझ
* * *

नाउम्मीदी ने उम्मीद की शमा जला रखी है
बीमार-ए-ग़म की तबियत आज अच्छी है
साँसों को आने लगी अपनी माटी की खुशबु
जिंदगी तेरी मंजिल पास आ गयी लगती है

(रफत आलम)

जुलाई 29, 2011

जीवन प्रश्न भी और उत्तर भी

किसी दूसरे को
जानने के लिए
पहले स्वयं को
जानना जरूरी है
स्वयं से प्रश्न करना
और
स्वयं ही उसका उत्तर खोजना
इसलिए जरूरी है कि
हर व्यक्ति को
अपने जीवन का रास्ता
स्वयं ही तय करना है
तुम स्वयं ही गुरु हो
और शिष्य भी स्वयं ही हो
यह भूल जाओ कि
तुम कुछ जानते हो
स्वयं से प्रश्न करो कि
जीवन क्या है और क्योँ है?
इस प्रश्न का उत्तर
तुम्हारा मन, बुद्धि और तर्क नहीं दे सकते
इसका उत्तर जीवन की उस
बंद किताब की तरह है
जिसको तुम यदि
खोलने की चेष्टा ही न करो
तो यह तुम्हारी अलमारी के
एक कोने में पड़ी
व्यर्थ सी चीज़ रह जायेगी
तुम्हारी जीवन की किताब के भी
अनेक पन्ने हैं
जिनको तुम्हे
पढ़ने के लिए
जानने के लिए
खोलने का कष्ट
करना ही होगा
जीवन की इस किताब का एक पन्ना
तुम्हारी जीवनयात्रा का
एक कदम मात्र है
तुम्हे जीवनयात्रा
एक एक कदम से
तय करनी है
यदि तुम बिना देखे छलांग लगाओगे तो
तुम्हारा गिरना तय है
इस जीवनयात्रा का कोई शॉर्ट-कट नहीं
न कोई गुरु है
जो तुम्हे
यह घुट्टी पिला दे कि
तुम्हे कहाँ से और
कैसे चलना है
तुम्हे तो
स्वयं ही चलना है
और वह भी कदम कदम पैदल
तभी तो तुम जान पाओगे कि
यह यात्रा कितनी कष्टदायी
और कितनी सुखदायी है
इस यात्रा की मंज़िल और यात्रा
दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं
और तभी यह जीवनयात्रा
‘जीवन’ और ‘यात्रा’
एक दूसरे में
ऐसे समाए हुए हैं
जैसे
जीवन एक प्रश्न
और जीवन ही उसका उत्तर
एक दूसरे में
समाए हुए हैं!

(अश्विनी रमेश)

अप्रैल 25, 2011

किसी ने दीवाना समझा किसी ने सरफिरा

सरमस्ती-ए-इश्क को ज़माने ने कभी भी ना जाना
कोई सरफिरा समझा हमें किसी ने दीवाना जाना

रास्ते को मंजिल समझा मंजिल को रास्ता जाना
तब कहीं जाकर दीवाने ने खुद अपना पता जाना

साक्षात सच को समझने वाले कब डरे सूलियों से
विष के प्याले को भी पगलों ने अमृत भरा जाना

हमारे लिए तो नामालूम सफर का एक ठहराव है
और लोगों ने दुनिया को मंजिल का रास्ता जाना

कुछ भरोसा लुटा कुछ और खलिश दिल को मिली
नादान दिल ने जब कभी किसी को अपना जाना

सब अपने हैं यहाँ हमारे दिल को वहम था बहुत
भरम तोड़ गया किसी का मुँह फेर के चला जाना

डूब गए टूटी हुई पतवार पर भरोसा करके आलम
वो तिनका भी नहीं था जिसे हमने सफीना जाना

(रफत आलम)

अप्रैल 18, 2011

उसकी याद में

गोरे गाल पर
चुम्बन का निशान
कितनी देर ठहरता है
फूल का दिल चीर कर
लम्हों में
उड़ जाती है शबनम
मेरी दोस्त
तुम भी थी
चाँदनी की नाज़ुक रूह
तुम्हे धूप में मरना ही था

गमले में खिला हुआ फूल
पल–पल मुरझाता है
उसने भी
मेरी बाहों में
तिल-तिल मर के
दम तोड़ दिया
मजबूर और बेबस मैं
वक्त को कब पकड़ पाया

मुझसा बेदर्द कौन होगा
माटी के अँधेरे घर में
सुला कर उसे
आंसू और गुलाब सजा कर
कब्र के पास बैठा हूँ
चुपचाप
सदा के लिए

माँ कहती थी
मरने वाले
आकाश में
जगमग तारे बन जाते हैं
शहर की चकाचौंध में
आकाशगंगा कब दिखती है
गांव लौट रहा हूँ
जहाँ
अब भी आकाश निर्मल है
तेरी कब्र के पास

लम्हों की सवारी पर
जारी है जिंदगी का सफर
साथ था सलोना एक हमराही
जो छोड़ कर
मुझे दरबदर
सौंप गया दिन-रात की आवारगी
न राह है अब न मंजिल कोई
रूठी हुई है मुझसे
बेवफा मौत भी

(रफत आलम)