Archive for मार्च, 2011

मार्च 31, 2011

ज़िंदगी का सफर

ढ़ल चली शाम लोग तो अपने घर जायेंगे
हम चौराहे से उठ कर जाने किधर जायेंगे

कैंचियों की बंदिश में हैं आजकल परवाज़ें
हौसले बचा भी लिए तो परिंदों पर जायेंगे

तालाब गन्दा मगरमच्छों ने किया है मगर
इलज़ाम हर हाल मछलियों के सर जायेंगे

लम्हे फूलों की सेज पर भी कहाँ ठहरे यार
लम्हे काँटों के बिस्तर पे भी गुज़र जायेंगे

उगते तारे देख जी खुश हो रहा था बहुत
क्या पता था आँसू पलकों में उतर जायेंगे

फूल नहीं हैं जो मुस्करा उठेंगे फिर कल
हम बिखरे तो सदा के लिए बिखर जायेंगे

ऐसे भी बदनसीब हैं जो जिंदा ही मर गए
वक्त आने पर तो माना सभी मर जायेंगे

मौत के बाद भी निजात जाने हो के नहीं
इस कश्मकशे जिंदगी से तो गुज़र जायेंगे

सदियों का सवाल आज भी वही है सवाल
कहाँ से आये हैं हम आखिर किधर जायेंगे

कसक मिटे न मिटे ये और बात है आलम
वक्त के साथ माना ज़ख्म तो भर जायेंगे

(रफत आलम)

मार्च 30, 2011

दर्द तो है ना

दर्द मेरा दोस्त सच्चा
दर्द मेरा दोस्त बावफा

दर्द मेरा दोस्त अच्छा
दर्द मेरा दोस्त मेरा आइना

दर्द मेरा दोस्त आठों पहर का
दर्द मेरा दोस्त कभी साथ नहीं छोडता

कैसे मानूँ कोई किसी का नहीं जहान में!

 

(रफत आलम)

 

मार्च 29, 2011

बैरन नींद…

बिस्तर देख जिस्म की जलन जागी
बिस्तर देख गर्मी ए बदन जागी

बिस्तर देख रगों में धडकन जागी
बिस्तर देख यादों की चुभन जागी

बिस्तर देख तन्हाई की घुटन जागी
बिस्तर देख अहसास की थकन जागी

आँखों से कहो पथरा जाएँ जो नींद आये!

(रफत आलम)

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मार्च 28, 2011

रिश्ते…

रिश्ते पिघल गए बर्फ के टुकड़ों की तरह
रिश्ते पिघल गए मोम की कंदीलों की तरह

रिश्ते पिघल गए जमे हुए आंसुओं की तरह
रिश्ते पिघल गए कोहरे के मंज़रों की तरह

रिश्ते पिघल गए वक्त के लम्हों की तरह
रिश्ते पिघल गए माटी के जिस्मों की तरह

बंजर माहौल में बस कैक्टस जिंदा रहते हैं

(रफत आलम)

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मार्च 28, 2011

अपरिवर्तनीय खुदा…

एक से नहीं रहते हालात
एक से नहीं रहते ताल्लुकात

एक से नहीं रहते सवालात–जवाबात
एक से नहीं रहते तजुर्बात

एक से नहीं रहते दिन-रात
एक से नहीं रहते अवराकेकायनात

खुदा के सिवा एक सा कोई नहीं है!

(रफत आलम)

मार्च 26, 2011

मरना कौन चाहता है

जिंदगी सितमगर ही सही
जिंदगी ज़हर ही सही

जिंदगी पत्थर ही सही
जिंदगी दर-ब-दर ही सही
जिंदगी मुख़्तसर ही सही

जिंदगी सिफ़र ही सही
फिर भी मरना कौन चाहता है

(रफत आलम)

मार्च 26, 2011

खुदकुशी…

जब छिन गए हाथ से जाम
जब रास नहीं आया मैकदे का निजाम

जब मिले नहीं मंजिल और मुकाम
जब आगाज़ के साथ मिला अंजाम

जब रूठ गए-सलाम
जब जीने की हर कोशिश हुई नाकाम

तब जा के किसी ने ख़ुदकुशी की है!

 

 

 

 

(रफत आलम)

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मार्च 22, 2011

भगत सिंह का खून (कृष्ण बिहारी)

सारे दिन उदास रहने के बाद
शाम भी अगर उदासी में गुजर जाये
और हर पल
अपनी खामोशी में
ठहर जाये
तो लगता है कि
ज़िंदगी का सबसे संवेदनशील हिस्सा
बगैर छटपटाए मर गया है
या फिर
ज़िंदगी की नस-नस में
तेज ज़हर भर गया है।

मैं नहीं जानता मेरे दोस्त!
मुझे बताओ
कि ऐसा क्यों होता है
तमाम हलचलों के बाद भी
आदमी एक खालीपन
क्यों ढ़ोता है
या
चीख-पुकारों
शोर-शराबों के बावजूद
आदमी के ईर्द-गिर्द
बर्फ की तरह जमा हुआ
सन्नाटा क्यों होता है?

तुम कुछ भी कह सकते हो
दर्शन और तर्क में बह सकते हो
मगर
दर्शन और तर्क
मेरी समस्या का
समाधान नहीं है।

मेरे दोस्त!
मेरा सवाल
इतना आसान नहीं है
आओ मेरे साथ
तुम्हे वे चित्र दिखाऊं
ऐसा कुछ बताऊं
जिसे दिखाने और बताने में
एक पूरी व्यवस्था डरती है
और बड़ी निर्ममता से
सेंसर करती है।

ज्यादा दिन नहीं हुये
उसके बेटे को गोली लगी थी
और उसका बेटा
पूरे देश का बेटा हो गया था
क्योंकि
उसने प्रशासन के खिलाफ
आंदोलन किया था।

कितना अच्छा लगता है
दूर से सुनना
देश के किसी बेटे के बारे में
खासतौर पर तब
जब
वह अपने घर में पैदा न हुआ हो
अच्छा लगता है
भगत सिंह के खून से
मातृभूमि की मांग में
सिंदूर बोना
मगर किन्ही आँखों का
जीवन भर रोना
न दिखायी पड़ता है
न सुनाई पड़ता है
आखिर,
यह कैसी जड़ता है!

और,
उस दिन
जब अंधेरा घिरने से पहले ही
कुछ लुटेरे
उसके घर में
जबरन घुस आये थे
तब उसके नेत्र
प्रशासन की नहीं
मात्र अपनी असमर्थता पर
छलछलाये थे।

खेती क्या रखवालों से बचती है!

तब उसकी आँख
न रो रही थी
न गा रही थी
हाँ,
उसकी जवान बेटी
उसे समझा रही थी
कि
कुछ भी तो नहीं हुआ
सिवाय इसके कि
उसकी दोनों जाँघों के बीच
हेलीपैड समझकर
हेलीकॉप्टर उतर गये।

पशु और मशीन में
जो थोड़ा- सा सूक्ष्म अंतर है
वह बुद्धि के प्रयोग का है
और
बुद्धि दोनों के पास नहीं है।
फर्क बस इतना है कि
आदमी का पशु होना खतरनाक है
और,
यह घटना
एक आज़ाद मुल्क के
फिर से गुलाम होने की
शुरुआत है।

और,
वह रात
जिसमें एक खास बात
अपने आप हो गयी थी
जिसके फलस्वरुप
अनेक तकदीरें हमेशा के लिये
असमय सो गयीं थीं
चाहे वह अलीगढ़ हो
या फिर जमशेदपुर
या लखनऊ हो
या फिर
कानपुर
मैं नहीं समझता कि
इन जगहों के लोगों के बीच
कोई फर्क आ गया था
हाँ,
अगर आप मानें
तो मैं कहूँ कि –
एक सफेदपोश बड़ी चालाकी से
फिरकापरस्ती बो गया था।
फिर जो कुछ हुआ
उसे न व्यवस्था बता पाई
और न आप जान पाये।

….. ये तो सिर्फ घटनायें हैं
जो चंद सिरफिरे करते हैं।
ऐसा सफेदपोश कहते हैं।
और –
आप और हम
ज़िंदगी के मरे हुये हिस्से का
अनचाहा बोझ सहते हैं।

आदमी मर गया है!

{कृष्ण बिहारी}

मार्च 19, 2011

फागुन में बहारें होली की

गंगा-जमनी संस्कृति कभी जनमानस में कविता, दर्शन और गायकी द्वारा रंग, उमंग और उलासमयी जीवन भरा करती थी। अनेकता में एकता की यह पारद बूँद बंटवारे की राजनीति के चलते बिखरती–बिखरती समाप्त सी होकर अब काव्यगोष्ठियों और समिनारों में सिमट गयी है। गुज़रे गए सुनहरे वक्त के आकाश पर सूफियत और प्रेम के जगमग सितारों में से एक हज़रत नजीर अकबराबादी १८वी सदी में पुरनूर थे। उनकी रचनायें उस धवल दौर का सच्चा प्रतिबिम्ब हैं जिसमें ईद के उल्लास साथ होली भी रंगीनियाँ भी बराबर की भागीदार हैं।

होली के रसमय और रंगमय दिन के लिए उनकी होली सम्बंधित रचनाओं में से एक मस्त नज़्म प्रस्तुत है।

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।

हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।

और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।

ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के ‘नज़ीर’ भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।

[ ख़ूम शीश-ए-जाम – मदिरानशापात्र ,   गुलरू – पुष्प सामान यहाँ सुन्दरी,   अहंग – शोले-जोश ]

प्रस्तुती – रफत आलम

मार्च 17, 2011

ज़िंदगी फकत एक लहर लम्हों की (रफत आलम)

कौन रोया किसकी आँख पानी हुई
दीवाना मर गया खत्म कहानी हुई

जिंदगी क्या थी वक्त के समंदर में
एक लहर लम्हों की आनी जानी हुई

अपने आप झुकने लगे बाप के कंधे
घर में बिटिया जब कोई सयानी हुई

ईमानदारी का सबक सुन के बाप से
आज के बच्चों को बहुत हैरानी हुई

रसूख का पैमाना है घूस या घोटाला
चोरी हुई साहब ये के हुक्मरानी हुई

बेगुनाह प्यार को बेसबूत जला दिया
झुकने नहीं दी गाँव ने मूँछ तानी हुई

मज़हब कई थे पर मज़हबी कोई नहीं
बंदगी हुई हमसे या जाने शैतानी हुई

अहसास के आंसू हैं ये अर्थहीन शब्द
आलम हमसे कब गज़ल-ख्वानी हुई

(रफत आलम)