कविताऐं महज भावनाऐं नहीं हैं, वे अनुभव हैं।
एक कविता सीखने की खातिर तुम्हे शहरों, लोगों और चीजों को देखना होता है।
तुम्हे समझना होता है, महसूस करना पड़ता है कि पक्षी कैसे उड़ते हैं,
और इन इशारों को जानना होता है जो नन्हे फूल सुबह उठते ही दर्शाते हैं।
कला “पाब्लो पिकासो” की दृष्टि में
हर कोई कला को समझना चाहता है। चिड़िया के गाये गीत को समझने की चेष्टा क्यों नहीं करते? पेंटिंग के मामले में लोगों को समझना होता है... पर क्यों?
वे लोग जो चित्रों की व्याख्या करना चाहते हैं सरासर गलती पर होते हैं।
सारे दिन उदास रहने के बाद
शाम भी अगर उदासी में गुजर जाये
और हर पल
अपनी खामोशी में
ठहर जाये
तो लगता है कि
ज़िंदगी का सबसे संवेदनशील हिस्सा
बगैर छटपटाए मर गया है
या फिर
ज़िंदगी की नस-नस में
तेज ज़हर भर गया है।
मैं नहीं जानता मेरे दोस्त!
मुझे बताओ
कि ऐसा क्यों होता है
तमाम हलचलों के बाद भी
आदमी एक खालीपन
क्यों ढ़ोता है
या
चीख-पुकारों
शोर-शराबों के बावजूद
आदमी के ईर्द-गिर्द
बर्फ की तरह जमा हुआ
सन्नाटा क्यों होता है?
तुम कुछ भी कह सकते हो
दर्शन और तर्क में बह सकते हो
मगर
दर्शन और तर्क
मेरी समस्या का
समाधान नहीं है।
मेरे दोस्त!
मेरा सवाल
इतना आसान नहीं है
आओ मेरे साथ
तुम्हे वे चित्र दिखाऊं
ऐसा कुछ बताऊं
जिसे दिखाने और बताने में
एक पूरी व्यवस्था डरती है
और बड़ी निर्ममता से
सेंसर करती है।
ज्यादा दिन नहीं हुये
उसके बेटे को गोली लगी थी
और उसका बेटा
पूरे देश का बेटा हो गया था
क्योंकि
उसने प्रशासन के खिलाफ
आंदोलन किया था।
कितना अच्छा लगता है
दूर से सुनना
देश के किसी बेटे के बारे में
खासतौर पर तब
जब
वह अपने घर में पैदा न हुआ हो
अच्छा लगता है
भगत सिंह के खून से
मातृभूमि की मांग में
सिंदूर बोना
मगर किन्ही आँखों का
जीवन भर रोना
न दिखायी पड़ता है
न सुनाई पड़ता है
आखिर,
यह कैसी जड़ता है!
और,
उस दिन
जब अंधेरा घिरने से पहले ही
कुछ लुटेरे
उसके घर में
जबरन घुस आये थे
तब उसके नेत्र
प्रशासन की नहीं
मात्र अपनी असमर्थता पर
छलछलाये थे।
खेती क्या रखवालों से बचती है!
तब उसकी आँख
न रो रही थी
न गा रही थी
हाँ,
उसकी जवान बेटी
उसे समझा रही थी
कि
कुछ भी तो नहीं हुआ
सिवाय इसके कि
उसकी दोनों जाँघों के बीच
हेलीपैड समझकर
हेलीकॉप्टर उतर गये।
पशु और मशीन में
जो थोड़ा- सा सूक्ष्म अंतर है
वह बुद्धि के प्रयोग का है
और
बुद्धि दोनों के पास नहीं है।
फर्क बस इतना है कि
आदमी का पशु होना खतरनाक है
और,
यह घटना
एक आज़ाद मुल्क के
फिर से गुलाम होने की
शुरुआत है।
और,
वह रात
जिसमें एक खास बात
अपने आप हो गयी थी
जिसके फलस्वरुप
अनेक तकदीरें हमेशा के लिये
असमय सो गयीं थीं
चाहे वह अलीगढ़ हो
या फिर जमशेदपुर
या लखनऊ हो
या फिर
कानपुर
मैं नहीं समझता कि
इन जगहों के लोगों के बीच
कोई फर्क आ गया था
हाँ,
अगर आप मानें
तो मैं कहूँ कि –
एक सफेदपोश बड़ी चालाकी से
फिरकापरस्ती बो गया था।
फिर जो कुछ हुआ
उसे न व्यवस्था बता पाई
और न आप जान पाये।
….. ये तो सिर्फ घटनायें हैं
जो चंद सिरफिरे करते हैं।
ऐसा सफेदपोश कहते हैं।
और –
आप और हम
ज़िंदगी के मरे हुये हिस्से का
अनचाहा बोझ सहते हैं।
गंगा-जमनी संस्कृति कभी जनमानस में कविता, दर्शन और गायकी द्वारा रंग, उमंग और उलासमयी जीवन भरा करती थी। अनेकता में एकता की यह पारद बूँद बंटवारे की राजनीति के चलते बिखरती–बिखरती समाप्त सी होकर अब काव्यगोष्ठियों और समिनारों में सिमट गयी है। गुज़रे गए सुनहरे वक्त के आकाश पर सूफियत और प्रेम के जगमग सितारों में से एक हज़रत नजीर अकबराबादी १८वी सदी में पुरनूर थे। उनकी रचनायें उस धवल दौर का सच्चा प्रतिबिम्ब हैं जिसमें ईद के उल्लास साथ होली भी रंगीनियाँ भी बराबर की भागीदार हैं।
होली के रसमय और रंगमय दिन के लिए उनकी होली सम्बंधित रचनाओं में से एक मस्त नज़्म प्रस्तुत है।
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की। और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की। परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की। ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की। महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो। कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो। मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो। उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो। सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के, हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के, कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के, कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के, कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।
ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो लड़भिड़ के ‘नज़ीर’ भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।