Posts tagged ‘Hawa’

सितम्बर 23, 2015

फसल… (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना)

हल की तरह
कुदाल की तरह
या खुरपी की तरह
पकड़ भी लूँ कलम तो
फिर भी फसल काटने
मिलेगी नहीं हम को ।

हम तो ज़मीन ही तैयार कर पायेंगे
क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आयेंगे
हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को
सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को ।

कल जो भी फसल उगेगी, लहलहाएगी
मेरे ना रहने पर भी
हवा से इठलाएगी
तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी
जिन्होने बीज बोए थे
उन्हीं के चरण परसेगी
काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे
हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोयेंगे ।

मार्च 6, 2015

लीक पर वे चलें जिनके…

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं

साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं

शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़;
हिलती क्षितिज की झालरें
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं ।

लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं ।

(सर्वेश्वरदयाल सक्सेना)

दिसम्बर 18, 2014

जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है

सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है !
सुना है शेर का जब पेट भर जाये
तो वो हमला नही करता ,
दरख्तों की घनी छाओँ जा कर लेट जाता है !
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है !!
सुना है जब किसी नदी के पानी में
हवा के तेज़ झोंके जब दरख्तों को हिलाते हैं
तो मैना अपने घर को भूल कर
कौवे के अंडो को परों से थाम लेती है |
सुना है घोंसले से कोई बच्चा गिर पड़े तो ,
सारा जंगल जाग जाता है |
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है !!
सुना है जब किसी नद्दी के पानी में
बये के घोंसले का गुन्दुमी साया लरज़ता है |
तो नदी की रुपहली मछलियाँ उसको
पडोसी मान लेती हैं |
नदी में बाढ़ आ जाये ,
कोई पुल टूट जाये तो ,
किसी लकड़ी के तख्ते पर
गिलहरी, सांप ,बकरी और चीता
साथ होते हैं |
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है !!
ख़ुदा-वंदा , जलील-ओ -मोतबर , दाना-ओ-बीना
मुंसिफ-ओ-अकबर
मेरे इस शहर में
अब जंगलों ही का कोई क़ानून नाफ़िस कर
कोई दस्तूर नाफ़िस कर |
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है !!

(ज़ेहरा निगाह)

जनवरी 30, 2014

मीठे गीत जीवन के

कितना छोटा है जीवन

यह तो मीठे गीतों

और

आराम से बहती हवा

का आनंद लेने के लिए है

पर हरेक कहता है

जीवन को शांतिपूर्वक जीना संभव नहीं ,

और हरेक को मुट्ठी तान कर

जीवन में  कठिन, और जटिल रास्तों से जूझना चाहिए |

लेकिन मुझे जो दिखाई देता है

जहां तक मेरी समझ जाती है

जहां तक दृष्टि देख सकती है

जहां तक मेरे हाथ पहुँच सकते हैं

जहां तक मैं चल सकता हूँ

– गीत रहेंगे और हवा के झोंके भी बहेंगे

मुस्कुराहट तुम बने रहना

तमाम बाधाओं और शत्रुओं

से घिरे होने के बावजूद

मैं इन् सबको साथ लेकर

चलता रहूँगा

इनसे पार जाने के लिए

Yugalsign1

जनवरी 17, 2014

बहूँगा धमनियों में इश्क बन के…

मैं  गुज़र भी जाऊंगा अगर,

तो बीत  जाऊँगा  नहीं

रहूँगा यहीं हवाओ में आस पास घुल के

महसूस कर सकोगी मुझे

अपनी आती जाती साँसों में

ये बेनाम दर्द बहेगा

धमनियों में इश्क बन के…

Rajnish sign

दिसम्बर 13, 2013

देखें सूरज को मिलते हुए प्रेयसी रात्रि से

बैठे रहें पास पासsunset1-001

चुपचाप

न हम बोलें ना तुम कुछ,

उठती हुयी तरंगें तुम में

गुज़र जाएँ मुझ में हो कर

बस देखते रहें बेचैन सूरज को

मिलते हुए प्रेयसी रात्रि से,

कितने अधूरे हैं ये उजाले-अँधेरे

एक दूसरे के बगैर

जैसे…हम-तुम…

बस चुपचाप ही समझें इशारे,

 रंग बदलती शाम के

लाल होते आसमान के

घर लौटती चिड़ियों के

झुकती आँखों के

बहकती हुयी साँसों के

दहकते हुए होठों के

कंपकपाती  उंगुलियों के…

बस चुपचाप…

बैठे रहें पास पास

मैं और तुम…

पीते रहें हवा में घुली शराब को

उतर जाए लाल शाम हम में

उतर जाए बुखार साँसों का

बस बैठे रहें सर टिकाये एक दूसरे से

चुपचाप

पास पास  बस बैठे रहें…

Rajnish sign

दिसम्बर 10, 2013

भीड़ में भीड़ से अलग एक चेहरा

ये आखिर हमें हुआ क्या है…baran-001
हर पल में किसी का एहसास
जैसे कोई छोड़ गया हो हवा में
गंध अपनी देह की

आती जाती सांस में

समा जाता है अहसास

जैसे  उसके स्पर्श का
हर तरफ बस

एक ही चेहरा
भीड़ में

भीड़ से अलग जैसा

Rajnish sign

नवम्बर 10, 2013

रात भर चाँद मुस्कराता रहा

moonlit-001न मैं तुम्हे

जानता था

न तुम मुझे,

पर चाँद,

हम दोनों से

परिचित था

रात भर सर्द हवा

चलती रही

सिहराती रही,

रात भर चाँद

मुस्कराता रहा

एक मुट्ठी मैं,

एक मुट्ठी तुम

मिले, घुले

फिर हवा हो गये

Yugalsign1

अक्टूबर 4, 2011

बेज़ुबान अहसास

यूँ ही भटकते हुए पता नहीं
क्यों लौटा था बरसों बाद
पार्क के उस कोने की ओर
जहाँ खुशबू भरे माहौल में
रंगीन सपने बुने जाते थे कभी।

लकड़ी की बेंच अब वहाँ नहीं है
जिस पर बिखरा करता था
अल्हड़ उमंगों का ताना-बाना।

चहचहाते पंछी कब के उड़ गये
प्रेमगीत गाकर
नीम के मोटे तने पर,
नादान उम्मीदों ने गोदे थे नामों
के पहले अक्षर
सूखा ठूठ बना खडा है वह।

आज भी हवाओं के दामन पर
मंज़र दर मंज़र धुंधलाई हुई कहानियाँ
फव्वारों की इंद्रधनुषी फुहारों में
बिखर रही हैं कतरा कतरा।

खामोशी की भाषा पढ़ने वाली आँखे
अब कहाँ उस अहसास के साथ
जिसके पास केवल बेज़ुबानी बची है।

(रफत आलम)

अक्टूबर 1, 2011

अपनी आग में जलते घर

लुटेरों के कमांडर इन चीफ हैं सरकार
पब्लिक प्रोपर्टी के बड़े थीफ हैं सरकार
ये सब पीठ पीछे का गुबार है मालिक
मुहँ आगे आप सबसे शरीफ़ हैं सरकार
………….

तीर सीने के निकाल कर रखना
अमानतों को संभाल कर रखना
वक्त आने पर करना है हिसाब
ज़ख्म दिल में पाल कर रखना
* * *

फेंकने वाले हाथ खुद अपने थे करते भी क्या
कभी सर का लहू देखा कभी पत्थर को देखा
माँ का दूध जब खट्टे रिश्तों में शामिल हुआ
अपनी आग में हमने जलते हुए घर को देखा
* * *

भूल गए हैं हवाओं का एहसान, देख रहे हैं
खुद को मान बैठे हैं आसमान, देख रहे हैं
गुब्बारे कल फुस्स होने हैं फिर कौन देखेगा
अभी तो सब लोग उनकी उड़ान देख रहे हैं
* * *

कहता है खरा सौदा है आओ मुस्कानें बाँटें
रोतों की बस्ती के लिए आराम मांग रहा है
आया कहाँ से है दीवाना कोई पूछो तो सही
आँसू के बदले खुशी का इनाम मांग रहा है

(रफत आलम)