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मई 19, 2012

मूर्त होता प्रेम!

मुझे मालूम है,
मैं जानता हूँ,
और मानता भी हूँ
कि मेरे सिर के सब बाल पक कर सुर्ख हो चुके हैं|
परंतु फिर भी,
अपने सर पर तुम्हारी उँगलियों का स्पर्श,
मेरे माथे पर रखा तुम्हारा सर
और मेरे कानों को छूती
तुम्हारी चोटी की महकती खुशबू|
मुझे मालूम है
 जानता हूँ
और मानता भी हूँ
कि अब वह वक़्त बीत गया
मैं अब उन आखों से ओझल भी हो गया
मगर फिर भी
आज भी अपने भावशून्य चेहरे पर
उनकी चमक कौंधती साफ दिखती है ।
मुझे मालूम है,
मैं जनता हूँ
और मानता भी हूँ
कि इस मानवसागर में मेरे सामने खड़ी
यह एक जोड़ी आँखें तुम्हारी नहीं हैं,
लेकिन फिर आभास होने लगता है
 कि अब सब यादें मूर्त होने लगी हैं तेरी सूरत में।
( बकुल ध्रुव )