कविताऐं महज भावनाऐं नहीं हैं, वे अनुभव हैं।
एक कविता सीखने की खातिर तुम्हे शहरों, लोगों और चीजों को देखना होता है।
तुम्हे समझना होता है, महसूस करना पड़ता है कि पक्षी कैसे उड़ते हैं,
और इन इशारों को जानना होता है जो नन्हे फूल सुबह उठते ही दर्शाते हैं।
कला “पाब्लो पिकासो” की दृष्टि में
हर कोई कला को समझना चाहता है। चिड़िया के गाये गीत को समझने की चेष्टा क्यों नहीं करते? पेंटिंग के मामले में लोगों को समझना होता है... पर क्यों?
वे लोग जो चित्रों की व्याख्या करना चाहते हैं सरासर गलती पर होते हैं।
कभी आँखों से गिरे होंगे अश्रु
पानी की बहती बूंदे थाम लेने के वास्ते
तब, एक रेशमी आँचल था।
आसान था धूप का सफर भी
घनेरी जुल्फ के साये में
जिंदगी सुस्ता लेती थी।
फिर चल पड़ता था आशाओं का कारवां
मरीचिकाएं भी उन दिनो
मंजिलों के निशान हुआ करती थीं
हर प्यास का इलाज थे
अमृत भरे होठ किसी के।
समय के घने कोहरे पीछे
छिप गए सायों का ज़िक्र ही क्या?
खुद अपना अस्तित्व तक
बेबसी के अँधकार के पास गिरवी है
ना राह, ना सफर, ना मंजिल की आरजू
बस सोचता है शून्य सा दिमाग
किसी तरह साँसों का क़र्ज़ कटे
किसी तरह हाड-माँस की केद से
मुक्त हो अर्थहीन काया
इससे पहले कि,
भूखे–नंगे,
आसमान से बगावत कर बैठते,
उलट जाते मठाधीशों के सिंहासन,
जिल्लेसुभानी बनने वालों के
ताज नोंच दिए जाते,
इससे पहले कि बराबरी का
हक मांगने के लिए
लहू पसीने की अंतिम क्रांति
उठ खड़ी होती,
पोथियों–उपदेशों-बाजों ने
‘वह सबकी परीक्षा लेता है-
धीरज रखो बन्दों’
‘उसके घर देर है अँधेर नही’
की अफीम देकर
सुला दीं फैले हुए हाथों की फरियादें।
फिर भी कोई आवाज़ अगर
इन्साफ के लिए कराही
तुरंत ज़बान काट कर खामोश
कर दी गयी।
समय के जंजाल में फँसा
हिमालय कचरे का ढ़ेर बन गया है
मैली हो गई पवित्र गँगा भी
पर महलों-अट्टालिकाओं की आभा है वही
वही है फतवों–धर्मादेशों की चमक
वही है अभावों की चक्की में
पिसता आदमी।
न कुछ बदला है न बदलेगा
चींटी के पगों आवाज़ सुनने वाले
तेरे घर सदा देर है!
(रफत आलम)
……….
चे-ग्वारा के संघर्ष करने के तौर तरीकों को लेकर मतभेद हो सकते हैं पर इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि बीसवीं सदी को प्रभावित करने वाली चंद बड़ी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की शख्सियतों में एक वे भी थे और जब तक विश्व में किसी भी तरह के कमजोर वर्ग पर शक्तिशाली वर्ग अत्याचार करता रहेगा तब तक चे-ग्वारा और उन जैसे योद्धाओं की आवश्यकता बनी रहेगा और वे जन्मते रहेंगे। उन्होने विश्वपटल पर जैसे नौजवानों को प्रभावित किया वह विचारणीय है, प्रशंसनीय है।
वे मृतप्राय व्यक्ति नहीं थे कि जैसा चल रहा था उसे वैसा ही स्वीकार करके एक समझौतापरक जीवन जीते। वे एक जीवंत आत्मा थे और उन्होने अपने समय के विश्व को बदलने का पुरजोर प्रयास किया। 9 अक्टूबर 1967 को केवल 39साल की आयु में दुनिया से कूच कर गये पर इस कम आयु वाले जीवन में भे उन्होने दुनिया को अपने कर्मो और सोच से हिला दिया था। उनकी चवालिसवीं पुण्यतिथि पर उनका स्मरण करते हुये उनके संघर्षशील व्यक्तित्व को नमन।
CHE GUEVARA
(June 14, 1928-Oct.9, 1967.)
‘If you tremble with indignation at every injustice then you are a comrade of mine.’
‘I am not a liberator. Liberators do not exist. The people liberate themselves.’
‘The life of a single human being is worth a million times more then all the property of the richest man on earth.’
‘Justice remains the tool of a few powerful interests; legal interpretations will continue to be made to suit the convenience of the oppressor powers.’
‘It’s a sad thing not to have friends, but it is even sadder not to have enemies.’
‘We must struggle every day so that this love for humanity becomes a reality.’
‘The revolution is not an apple that falls when it is ripe. You have to make it fall’.
‘In a revolution, one triumphs or dies’.
‘Cruel leaders are replaced only to have new leaders turn cruel!’
‘Better to die standing, then to live on your knees.’
‘One has to grow hard but without ever losing tenderness.’
‘I know you have come to kill me. Shoot, you are only going to kill a man.’
प्यार से कोई मेरी ज़ुल्फ को संवार दे
बोझ सभी ज़िंदगी के प्यार से उतार दे
हाथ मेरा थामकर हर सफर में वो चले
इस चमन से जो गई वही मुझे बहार दे
प्रसून सा कहीं खिलूँ फिर कोई निहार ले
एक बार फिर कोई प्यार से पुकार ले…
मेरे नयनों में फिर सपने वो जागने लगें
तस्वीर दिल में फिर वही हम टांगने लगें
मंदिरों में, मस्जिदों में मौन होके या मुखर
साथ उम्र भर का झुके माथ मांगने लगें
घाटियों में प्रेम की, फिर कोई उतार ले
एक बार फिर कोई प्यार से पुकार ले…
नज़र मिला नज़र गिरा, ओट में ही मुस्करा
खुले बहुत मगर फिर भी लाज हो ज़रा-ज़रा
इस तरह लगे कि जैसे अंग-अंग भर उठे
धरा अगर लगे परी तो आसमां भरा-भरा
मन के तार छेड़ दे फिर कोई सितार ले
एक बार फिर कोई प्यार से पुकार ले
कमरे की दीवारों के
सो जाने के बाद
करवटों से उकताई हुई आंखें
छत को तक रही थीं
यूँ ही जाने क्यों ढ़लके
दो आंसू
जैसे कहते गए
तू ही नहीं दुखी
दूर तारों के पार
कोई तुझको रोता है
सुबह फूलों पर पड़ी शबनम
गवाह थी
दूर तारों के पार
ज़रूर कोई रोया था
लुटेरों के कमांडर इन चीफ हैं सरकार
पब्लिक प्रोपर्टी के बड़े थीफ हैं सरकार
ये सब पीठ पीछे का गुबार है मालिक
मुहँ आगे आप सबसे शरीफ़ हैं सरकार
………….
तीर सीने के निकाल कर रखना
अमानतों को संभाल कर रखना
वक्त आने पर करना है हिसाब
ज़ख्म दिल में पाल कर रखना
* * *
फेंकने वाले हाथ खुद अपने थे करते भी क्या
कभी सर का लहू देखा कभी पत्थर को देखा
माँ का दूध जब खट्टे रिश्तों में शामिल हुआ
अपनी आग में हमने जलते हुए घर को देखा
* * *
भूल गए हैं हवाओं का एहसान, देख रहे हैं
खुद को मान बैठे हैं आसमान, देख रहे हैं
गुब्बारे कल फुस्स होने हैं फिर कौन देखेगा
अभी तो सब लोग उनकी उड़ान देख रहे हैं
* * *
कहता है खरा सौदा है आओ मुस्कानें बाँटें
रोतों की बस्ती के लिए आराम मांग रहा है
आया कहाँ से है दीवाना कोई पूछो तो सही
आँसू के बदले खुशी का इनाम मांग रहा है