जेएनयू के नाम के साथ एकाकार हो चुके जनकवि रमा शंकर यादव ‘विद्रोही’ की मृत्यु, चेतना की उस परम्परा की मौत है, जो संभवतः अब कभी जेएनयू या किसी अन्य भारतीय विश्वविद्यालय में कभी देखने को न मिले|
दशकों जेएनयू के कैम्पस में जंगल और चट्टानों पर बसेरा करने वाले विद्रोही को जग संभवतः पागल या अर्द्ध पागल तो कहेगा पर जेएनयू में उनसे पहले और उनके बाद प्रवेश पाने वाला हर जीवित व्यक्ति, दुनिया में कहीं भी बैठा हो, उनकी मृत्यु की खबर पढ़ आँखों में नमी भी महसूस करेगा| जिन प्रशासकों ने उन्हें जेएनयू कैम्पस से बाहर निकाला होगा, उन्हें भी आज कुछ छूटता महसूस हुआ होगा| छात्रों के हर आंदोलन में उनके साथ खड़े विद्रोही की कवितायेँ जेएनयू के चप्पे चप्पे पर बरसों, दशकों तक गूंजती रहेंगी और कैम्पस से बाहर की बाकी दुनिया में भी कहीं न कहीं किसी न किसी के माध्यम से जीवित रहेंगीं, पुनर्जीवित हो होकर! निराला जीवन तो था ही इस जनकवि का|
(रमा शंकर यादव ‘ विद्रोही )