Archive for दिसम्बर, 2015

दिसम्बर 8, 2015

विद्रोही : जेएनयू की चेतना के जनकवि का अंततः चले जाना

जेएनयू के नाम के साथ एकाकार हो चुके जनकवि रमा शंकर यादव ‘विद्रोही’ की मृत्यु, चेतना की उस परम्परा की मौत है, जो संभवतः अब कभी जेएनयू  या किसी अन्य भारतीय विश्वविद्यालय में कभी देखने को न मिले|

दशकों जेएनयू के कैम्पस में जंगल और चट्टानों पर बसेरा करने वाले विद्रोही को जग संभवतः पागल या अर्द्ध पागल तो कहेगा पर जेएनयू में उनसे पहले और उनके बाद प्रवेश पाने वाला हर जीवित व्यक्ति, दुनिया में कहीं भी बैठा हो, उनकी मृत्यु की खबर पढ़ आँखों में नमी भी महसूस करेगा| जिन प्रशासकों ने उन्हें जेएनयू कैम्पस से बाहर निकाला होगा, उन्हें भी आज कुछ छूटता महसूस हुआ होगा| छात्रों के हर आंदोलन में उनके साथ खड़े विद्रोही की कवितायेँ जेएनयू के चप्पे चप्पे पर बरसों, दशकों तक गूंजती रहेंगी और कैम्पस से बाहर की बाकी दुनिया में भी कहीं न कहीं किसी न किसी के माध्यम से जीवित रहेंगीं, पुनर्जीवित हो होकर! निराला जीवन तो था ही इस जनकवि का|

Vidrohi

(रमा शंकर यादव ‘ विद्रोही )

दिसम्बर 3, 2015

प्रेम – एक थीसिस

shashisimi-001मैत्री,सख्य, प्रेम – इन का विकास धीरे-धीरे होता है ऐसा हम मानते हैं: ‘प्रथम दर्शन से ही प्रेम’ की सम्भावना स्वीकार कर लेने से भी इस में कोई अन्तर नहीं आता| पर धीरे-धीरे होता हुआ भी यह सम गति से बढ़ने वाला विकास नहीं होता, सीढ़ियों की तरह बढ़ने वाली उस की गति होती है, क्रमश: नये-नये उच्चतर स्तर पर पहुँचने वाली|

कली का प्रस्फुटन उस की ठीक उपमा नहीं है, जिस का क्रम-विकास हम अनुक्षण देख सकें: धीरे-धीरे रंग भरता है, पंखुड़ियाँ खिलती हैं, सौरभ संचित होता है, और डोलती हवाएँ रूप को निखार देते जाती हैं|

ठीक उपमा शायद सांझ का आकाश है : एक क्षण सूना, कि सहसा हम देखते हैं, अरे वह तारा! और जब तक हम चौंक कर सोचें कि यह हम ने क्षण-भर पहले क्यों न देखा – क्या तब नहीं था? तब तक इधर-उधर, आगे, ऊपर कितने ही तारे खिल आए, तारे ही नहीं, राशि-राशि नक्षत्र-मंडल, धूमिल उल्कान्कुल, मुक्त्त-प्रवाहिनी नभ-पयम्बिनी- अरे, आकाश सूना कहाँ है, यह तो भरा हुआ है रहस्यों से, जो हमारे आगे उद्घाटित है…प्यार भी ऐसा ही है; एक समोन्नत ढलान नहीं, परिचिति के, आध्यात्मिक संस्पर्श के, नये-नये स्तरों का उन्मेष…उस की गति तीव्र हो या मंद, प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, वांछित हो य वान्छातीत| आकाश चन्दोवा नहीं है कि चाहे तो तान दें, वह है तो है, और है तो तारों-भरा है, नहीं है तो शून्य-शून्य ही है जो सब-कुछ को धारण करता हुआ रिक्त बना रहता है…

(अज्ञेय : उपन्यास ‘नदी के द्वीप‘ में)