Archive for ‘ओशो’

सितम्बर 19, 2023

गणपति पूजन और विसर्जन (गणेश चतुर्थी) … ओशो

ध्यान करो लेकिन ध्यान रखना कि छोड़ना है| एक दिन छोड़ना है ध्यान को भी।

“विधि” का एक दिन विसर्जन कर देना है।

हिंदू इस संबंध में बड़े कुशल हैं। गणेश जी बना लिए मिट्टी के, पूजा इत्यादि कर ली| अब ले जा कर समुद्र में समो आए। दुनिया का कोई धर्म इतना हिम्मतवर नहीं है। अगर मंदिर में मूर्ति रख ली तो फिर सिराने की बात ही नहीं उठती। फिर वे कहते हैं, अब इसकी पूजा जारी रहेगी। हिंदुओं को हिम्मत देखते हो! पहले बना लेते हैं, मिट्टी के गणेश जी| मिट्टी के बना कर उन्होंने भगवान का आरोपण कर लिया। नाच-कूद, गीत, प्रार्थना-पूजा सब हो गई। फिर अब वह कहते हैं, अब चलो महाराज, अब हमें दूसरे काम भी करने हैं! अब आप समुद्र में विश्राम करो, फिर अगले साल उठा लेंगे।

यह हिम्मत देखते हो? इसका अर्थ क्या होता है? इसका बड़ा सांकेतिक अर्थ है| अनुष्ठान का उपयोग कर लो और समुद्र में सिरा दो। विधि का उपयोग कर लो, फिर विधि से बंधे मत रह जाना।

जहां हर चीज आती है, जाती है,  वहां भगवान को भी बना लो, मिटा दो। जो भगवान तुम्हारे साथ करता है वही तुम भगवान के साथ करो| वह तुम्हें बनाता, मिटा देता। उसकी कला तुम भी सीखो। तुम उसे बना लो, फिर उसे विसर्जित कर दो।

जब बनाते हैं हिंदू तो कितने भाव से? दूसरे धर्मों के लोगों को बड़ी हैरानी होती है। कितने भाव से बनाते, कैसा रंगते, मूर्ति को कितना सुंदर बनाते, कितना खर्च करते! महीनों मेहनत करते हैं। जब मूर्ति बन जाती, तो कितने भाव से पूजा करते, फूल— अर्चन, भजन, कीर्तन! मगर अदभुत लोग हैं! फिर आ गया उनके विसर्जन का दिन। फिर वे चले बैंड—बाजा बजाते, नाचते गाते। जन्म भी नृत्य है, मृत्यु भी तो नृत्य होना चाहिए। चले परमात्मा को सिरा देने! जन्म कर लिया था, मृत्यु का वक्त आ गया।

इस जगत में जो भी चीज बनती है वह मिटती है। और इस जगत में हर चीज का उपयोग कर लेना है और किसी चीज से बंधे नहीं रह जाना है—परमात्मा से भी बंधे नहीं रह जाना है। मैं नहीं कहता कि हिंदुओं को ठीक—ठीक बोध है कि वे क्या कर रहे हैं। लेकिन जिन्होंने शुरू की होगी यात्रा उनको जरूर बोध रहा होगा। लोग भूल गये होंगे। अब उन्हें कुछ भी पता नहीं  कि वे क्या कर रहे हैं? मूर्च्छा में कर रहे होंगे। पुरानी परंपरा है कि बनाया, विसर्जन कर दिया| लेकिन उसका सार तो समझो। सार इतना ही है कि विधि उपयोग कर ली। फिर विधि से बंधे नहीं रह जाना है। अनुष्ठान पूरा हो गया, विसर्जन कर दिया।

वही मैं तुमसे कहता हूं : नाचो, कूदो, ध्यान करो, पूजा, प्रार्थना—इसमें उलझे मत रह जाना। यह पथ है, मार्ग है; मंजिल नहीं। जब मंजिल आ जाए तो तुम यह मत कहना कि मैं इतना पुराना यात्री, अब मार्ग को छोड़ दूं? छोड़ो! इतने दिन जन्मों-जन्मों तक इस मार्ग पर चला, अब आज मंजिल आ गई, तो मार्ग को धोखा दे दूं? दगाबाज, गद्दार हो जाऊं? जिस मार्ग से इतना साथ रहा और जिस मार्ग ने यहां तक पहुंचा दिया, उसको छोड़ दूं? मंजिल छोड़ सकता हूं, मार्ग नहीं छोड़ सकता। ‘तब तुम समझोगे कि कैसी मूढ़ता की स्थिति हो गई। इसी मंजिल को पाने के लिए मार्ग पर चले थे; मार्ग से नाता-रिश्ता बनाया था-वह टूटने को ही था।

मार्ग की सफलता ही यही है कि एक दिन घड़ी आ जाए जब मार्ग छोड़ देना पड़े।

ध्यान के जो परम सूत्र हैं, उनमें एक सूत्र यह भी है कि जब ध्यान छोड़ने की घड़ी आ जाये तभी ध्यान पूरा हुआ। जब तक ध्यान छूट न सके, तब तक जानना अभी कच्चा है, अभी पका नहीं। जब फल पक जाता है तो वृक्ष से गिर जाता है। और जब ध्यान का फल पक जाता है, तब ध्यान का फल भी गिर जाता है। जब ध्यान का फल गिर जाता है तभी तो समाधि फलित होती है।

पतंजलि ने ध्यान की प्रक्रिया को तीन हिस्सों में बांटा. धारणा, ध्यान, और समाधि धारणा छोटी सी पगडंडी है, जो तुम्हें राजपथ से जोड़ देती है। तुम जहां हो वहां से राजपथ नहीं गुजरता। एक छोटी सी पगडंडी है, जो राजपथ से जोड़ती है। मार्ग, जो राजमार्ग से जोड़ देता है वह है धारणा। फिर राजमार्ग- ध्यान। फिर राजमार्ग मंजिल से जोड़ देता है, अंतिम गंतव्य से। धारणा छूट जाती है, जब ध्यान शुरू होता है। ध्यान छूट जाता है, जब समाधि आ जाती है।

इसलिए ध्यान करना-उतने ही भाव से जैसे गणेश को हिंदू निर्मित करते हैं, उतने ही अहोभाव से! ऐसा मन में खयाल मत रखना कि इसे छोड़ना है तो क्या तो रंगना? कैसे भी बना लिया क्या फिक्र करनी कि सुंदर है कि असुंदर है, कोई भी रंग पोत दिए, चेहरा जंचता है कि नहीं जंचता, आंख उभरी कि नहीं उभरी, नाक बनी कि नहीं-क्या करना है? अभी चार दिन बाद तो इसे विदा कर देना होगा, तो कैसे ही बना-बनूँ कर पूजा कर लो।

नहीं, तो फिर पूजा हुई ही नहीं।

तो छोड़ने की घड़ी आएगी ही नहीं।

जब बने ही नहीं गणेश तो विसर्जन कैसे होगा?

ओशो

सन्दर्भ – अष्‍टावक्र महागीता प्रवचन श्रंखला –

सितम्बर 8, 2023

कबीर, बुद्ध और महावीर जैसे राजपुत्रों से भिन्न – ओशो

कबीर जीवन के लिए बड़ा गहरा सूत्र हो सकते हैं। इसे तो पहले स्मरण में ले लें। इसलिए कबीर को मैं अनूठा कहता हूं। महावीर सम्राट के बेटे हैं; कृष्ण भी, राम भी, बुद्ध भी; वे सब महलों से आये हैं। कबीर बिलकुल सड़क से आये हैं; महलों से उनका कोई भी नाता नहीं है|

कबीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; वे-पढ़े-लिखे हैं, इसलिए पढ़े-लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति-पांति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की — शायद मुसलमान के घर पैदा हुए, हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति-पांति से परमात्मा का कुछ लेना-देना नहीं है।

कबीर जीवन भर गृहस्थ रहे — जुलाहे-बुनते रहे कपड़े और बेचते रहे; घर छोड़ हिमालय नहीं गये। इसलिए घर पर भी परमात्मा आ सकता है, हिमालय जाना आवश्यक नहीं। कबीर ने कुछ भी न छोड़ा और सभी कुछ पा लिया। इसलिए छोड़ना पाने की शर्त नहीं हो सकती।

और कबीर के जीवन में कोई भी विशिष्टता नहीं है। इसलिए विशिष्टता अहंकार का आभूषण होगी; आत्मा का सौंदर्य नहीं।

कबीर न धनी हैं, न ज्ञानी हैं, न समादृत हैं, न शिक्षित हैं, न सुसंस्कृत हैं। कबीर जैसा व्यक्ति अगर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो तुम्हें भी निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए कबीर में बड़ी आशा है।

बुद्ध अगर पाते हैं तो पक्का नहीं की तुम पा सकोगे। बुद्ध को ठीक से समझोगे तो निराशा पकड़ेगी; क्योंकि बुद्ध की बड़ी उपलब्धियां हैं पाने के पहले। बुद्ध सम्राट हैं। इसलिए सम्राट अगर धन से छूट जाए, आश्चर्य नहीं। क्योंकि जिसके पास सब है, उसे उस सब की व्यर्थता का बोध हो जाता है। गरीब के लिए बड़ी कठिनाई है-धन से छूटना। जिसके पास है ही नहीं, उसे व्यर्थता का पता कैसे चलेगा? बुद्ध को पता चल गया, तुम्हें कैसे पता चलेगा? कोई चीज व्यर्थ है, इसे जानने के पहले, कम से कम उसका अनुभव तो होना चाहिए। तुम कैसे कह सकोगे कि धन व्यर्थ है? धन है कहां? तुम हमेशा अभाव में जिए हो, तुम सदा झोपड़े में रहे हो — तो महलों में आनंद नहीं है, यह तुम कैसे कहोगे? और तुम कहते भी रहो, तो भी यह आवाज तुम्हारे हृदय की आवाज न हो सकेगी; यह दूसरों से सुना हुआ सत्य होगा। और गहरे में धन तुम्हें पकड़े ही रहेगा।

बुद्ध को समझोगे तो हाथ-पैर ढीले पड़ जाएंगे।

बुद्ध कहते हैं, स्त्रियों में सिवाय हड्डी, मांस-मज्जा के और कुछ भी नहीं है, क्योंकि बुद्ध को सुंदरतम स्त्रियां उपलब्ध थीं, तुमने उन्हें केवल फिल्म के परदे पर देखा है। तुम्हारे और उन सुंदरतम स्त्रियों के बीच बड़ा फासला है। वे सुंदर स्त्रियां तुम्हारे लिए अति मनमोहक हैं। तुम सब छोड़कर उन्हें पाना चाहोगे। क्योंकि जिसे पाया नहीं है वह व्यर्थ है, इसे जानने के लिए बड़ी चेतना चाहिए।

कबीर गरीब हैं, और जान गये यह सत्य कि धन व्यर्थ है। कबीर के पास एक साधारण-सी पत्नी है, और जान गये कि सब राग-रंग, सब वैभव-विलास, सब सौंदर्य मन की ही कल्पना है।

कबीर के पास बड़ी गहरी समझ चाहिए। बुद्ध के पास तो अनुभव से आ जाती है बात; कबीर को तो समझ से ही लानी पड़ेगी।

गरीब का मुक्त होना अति कठिन है। कठिन इस लिहाज से कि उसे अनुभव की कमी बोध से पूरी करनी पड़ेगी; उसे अनुभव की कमी ध्यान से पूरी करनी पड़ेगी। अगर तुम्हारे पास भी सब हो, जैसा बुद्ध के पास था, तो तुम भी महल छोड़कर भाग जाओगे; क्योंकि कुछ और पाने को बचा नहीं; आशा टूटी, वासना गिरी, भविष्य में कुछ और है नहीं वहां-महल सूना हो गया!

आदमी महत्त्वाकांक्षा में जीता है। महत्त्वाकांक्षा कल की — और बड़ा होगा, और बड़ा होगा, और बड़ा होगा… दौड़ता रहता है। लेकिन आखिरी पड़ाव आ गया, अब कोई गति न रही — छोड़ोगे नहीं तो क्या करोगे? तो महल या तो आत्मघात बन जाता है या आत्मक्रांति। पर कबीर के पास कोई महल नहीं है।

बुद्ध बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। जो भी श्रेष्ठतम ज्ञान था उपलब्ध, उसमें दीक्षित किये गये थे। शास्त्रों के ज्ञाता थे। शब्द के धनी थे। बुद्धि बड़ी प्रखर थी। सम्राट के बेटे थे। तो सब तरह से सुशिक्षा हुई थी।

कबीर सड़क पर बड़े हुए। कबीर के मां-बाप का कोई पता नहीं। शायद कबीर नाजायज संतान हों। तो मां ने उसे रास्ते के किनारे छोड़ दिया था — बच्चे को-पैदा होते ही। इसलिए मां का कोई पता नहीं। कोई कुलीन घर से कबीर आये नहीं। सड़क पर ही पैदा हुए जैसे, सड़क पर ही बड़े हुए जैसे। जैसे भिखारी होना पहले दिन से ही भाग्य में लिखा था। यह भिखारी भी जान गया कि धन व्यर्थ है, तो तुम भी जान सकोगे। बुद्ध से आशा नहीं बंधती। बुद्ध की तुम पूजा कर सकते हो। फासला बड़ा है; लेकिन बुद्ध-जैसा होना तुम्हें मुश्किल मालूम पड़ेगा। जन्मों-जन्मों की यात्रा लगेगी। लेकिन कबीर और तुम में फासला जरा भी नहीं है। कबीर जिस सड़क पर खड़े हैं-शायद तुमसे भी पीछे खड़े हैं; और अगर कबीर तुमसे भी पीछे खड़े होकर पहुंच गये, तो तुम भी पहुंच सकते हो।

कबीर जीवन के लिए बड़ा गहरा सूत्र हो सकते हैं। इसे तो पहले स्मरण में ले लें। इसलिए कबीर को मैं अनूठा कहता हूं। महावीर सम्राट के बेटे हैं; कृष्ण भी, राम भी, बुद्ध भी; वे सब महलों से आये हैं। कबीर बिलकुल सड़क से आये हैं; महलों से उनका कोई भी नाता नहीं है। कहा है कबीर ने कि कभी हाथ से कागज और स्याही छुई नहीं-‘मसि कागद छुओ न हाथ।’

ऐसा अपढ़ आदमी, जिसे दस्तखत करने भी नहीं आते, इसने परमात्मा के परम ज्ञान को पा लिया-बड़ा भरोसा बढ़ता है। तब इस दुनिया में अगर तुम वंचित हो तो अपने ही कारण वंचित हो, परिस्थिति को दोष मत देना। जब भी परिस्थिति को दोष देने का मन में भाव उठे, कबीर का ध्यान करना। कम से कम मां-बाप का तो तुम्हें पता है, घर-द्वार तो है, सड़क पर तो पैदा नहीं हुए। हस्ताक्षर तो कर ही लेते हो। थोड़ी-बहुत शिक्षा हुई है, हिसाब-किताब रख लेते हो। वेद, कुरान, गीता भी थोड़ी पढ़ी है। न सही बहुत बड़े पंडित, छोटे-मोटे पंडित तो तुम भी हो ही। तो जब भी मन होने लगे परिस्थिति को दोष देने का कि पहुंच गए होंगे बुद्ध, सारी सुविधा थी उन्हें, मैं कैसे पहुंचूं, तब कबीर का ध्यान करना। बुद्ध के कारण जो असंतुलन पैदा हो जाता है कि लगता है, हम न पहुंच सकेंगे — कबीर तराजू के पलड़े को जगह पर ले आते हैं। बुद्ध से ज्यादा कारगर हैं कबीरबुद्ध थोड़े-से लोगों के काम के हो सकते हैं। कबीर राजपथ हैं। बुद्ध का मार्ग बड़ा संकीर्ण है; उसमें थोड़े ही लोग पा सकेंगे, पहुंच सकेंगे।

बुद्ध की भाषा भी उन्हीं की है — चुने हुए लोगों की। एक-एक शब्द बहुमूल्य है; लेकिन एक-एक शब्द सूक्ष्म है। कबीर की भाषा सबकी भाषा है — बेपढ़े-लिखे आदमी की भाषा है। अगर तुम कबीर को न समझ पाए, तो तुम कुछ भी न समझ पाओगे। कबीर को समझ लिया, तो कुछ भी समझने को बचता नहीं। और कबीर को तुम जितना समझोगे, उतना ही तुम पाओगे कि बुद्धत्व का कोई भी संबंध परिस्थिति से नहीं। बुद्धत्व तुम्हारी भीतर की अभीप्सा पर निर्भर है — और कहीं भी घट सकता है; झोपड़े में, महल में, बाजार में, हिमालय पर; पढ़ी-लिखी बुद्धि में, गैर-पढ़ी-लिखी बुद्धि में, गरीब को, अमीर को; पंडित को, अपढ़ को; कोई परिस्थिति का संबंध नहीं है। #ओशो#सुनो_भई_साधो#Osho#Kabeer#Kabir#Buddha#Mahaveer#Mahavir#बुद्ध#महावीर

फ़रवरी 1, 2023

भारतीय धार्मिक गुरु (शिक्षक/टीचर) की पांच श्रेणियां : ओशो

अमेरिका में 1981 में ओशो के शिष्यों ने ओशो की तरफ से पी. आर. प्राप्त करने का आवेदन पत्र भरा था| 14 October, 1982 को Portland Oregon में इस सिलसिले में अमेरिकी इमिग्रेशन सर्विसेज़ ने ओशो का साक्षात्कार लिया और उनके सवाल

” क्या आप स्वयं को एक धार्मिक गुरु मानते हैं?”

के उत्तर में ओशो ने कहा था

ओशो – मुझे इसे विस्तार से समझाना पड़ेगा!

अधिकारी – आप मुझे  समझा सकते हैं|

ओशो :

भारत में शिक्षकों की पांच श्रेणियां हैं।

पहली श्रेणी को अरिहंता कहा जाता है; वह एक शिक्षक है और एक मास्टर भी है। गुरु होने का अर्थ है कि उसने जो कहा है उसे अनुभव किया है। उदाहरण के लिए, जीसस को अरिहंता कहा जाएगा, क्योंकि वे जो कुछ भी कहते हैं, वह उनका अपना बोध है। वह कहते हैं, “यह मेरे अपने अधिकार पर है। (दिस इज़ ऑन माई ओन अथॉरिटी)”

दूसरी श्रेणी को सिद्ध कहा जाता है। सिद्ध केवल एक गुरु है। उसने महसूस किया है लेकिन वह इसे संप्रेषित करने में असमर्थ है। वह नहीं कह सकता कि उसने क्या अनुभव किया है; एक तरह से वह गूंगा है। और दुनिया में ऐसे बहुत से संत हुए हैं जो बोले नहीं हैं क्योंकि वे शब्दों के भीतर परे को लाने में सक्षम नहीं हैं। उसे भी बुद्ध कहा जाता है, शिक्षक।

तीसरी श्रेणी को आचार्य कहा जाता है – जो केवल शिक्षक है, गुरु नहीं। वह ठीक-ठीक जानता है कि वह क्या सिखा रहा है, परन्तु अपने अधिकार से नहीं। पोप एक आचार्य हैं। यदि जीसस अरिहंत हैं, तो पोप आचार्य हैं। वह बाइबल के अधिकार पर बोल रहा है, अपने स्वयं के अधिकार पर नहीं।

चौथी श्रेणी को उपाध्याय कहा जाता है – वह जो अपनी बात के बारे में निश्चित भी नहीं है। शायद टुकड़े सच हैं। पी.डी. ऑस्पेंस्की ने गुरजिएफ पर एक किताब लिखी है: इन सर्च ऑफ द मिरेकुलस। इसका उपशीर्षक “एक अज्ञात शिक्षण के टुकड़े (Fragments of an Unknown Teaching)” है, और वह उपशीर्षक लिखने में बहुत सच्चा है – केवल टुकड़े, क्योंकि वह इसके कुछ हिस्सों को ही समझ सकता था; बाकी हिस्से उसके परे थे। उसे भी शिक्षक कहा जा सकता है।

और पांचवें को साधु कहते हैं। एक साधु वह है जिसने हासिल नहीं किया है लेकिन हासिल करने के लिए ईमानदारी से कोशिश कर रहा है। वह आपसे सिर्फ एक कदम आगे हो सकता है, लेकिन वह इतना ही सिखा सकता है। वह उपलब्धि का दावा नहीं कर सकता; वह निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि ऐसा है।

अंग्रेजी उस तरह से कमजोर भाषा है| अंग्रेजी कई मायनों में असमर्थ है, विशेषकर जहां तक ​​धर्म का संबंध है। तो आपके पास हर चीज के लिए एक ही शब्द है, शिक्षक। लेकिन हमारे लिए इसका मतलब बहुत निचली श्रेणी है।

अधिकारी : पांच श्रेणियों की इस सूची में आप खुद को कहां रखेंगे?

ओशो :

मैं एक अरिहंता हूं। आप मुझे सुपर टीचर कह सकते हैं, क्योंकि मैं अपने अधिकार से बोलता हूं। मुझे जीसस, या बुद्ध, या कृष्ण के कथनों का सहारे की आवश्यकता नहीं है| मैं जो कहता हूं, मैं जानता हूं। अगर मुझे नहीं पता, तो मैं उसे नहीं कहता।

सन्दर्भ : The Rajneesh Times, 26th August 1983

जनवरी 30, 2023

गांधी हत्या : ओशो का रुदन, और ओशो के गांधी पर अंतिम वचन

नोट – “ओशो ने 10 अप्रैल 1981 को पुणे में सार्वजनिक मौन धारण कर लिया था और 1 जून 1981 को ओशो अमेरिका चले गए| वहां के प्रवास में भी सार्वजनिक मौन कायम रहा और अंततः ढाई साल से ज्यादा की अवधि के बाद 30 अक्तूबर 1984 को ओशो ने सार्वजनिक रूप से प्रवचन देना आरम्भ किया| सार्वजनिक मौन की अवधि में रजनीशपुरम, अमेरिका में ओशो ने अपनी दन्त चिकित्सा के दौरान अपने डेंटिस्ट शिष्य डा . देवागीत और उनकी सहायक नर्सों के समक्ष, जब ओशो पर दर्द नाशक के रूप में नाइट्रस ऑक्साइड का इस्तेमाल किया जाता था, अपने जीवन विशेषकर बचपन की घटनाओं को स्मृति में पुनः जीकर, बोलकर लिखवाया| ओशो की स्मृतियों के उन संग्रहों को ” Gimpses of a Golden Childhood” नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया, जिसका हिन्दी अनुवाद “स्वर्णिम बचपन” शीर्षक से छपा| उन्हीं स्मृति सेशंस के दौरान उन्होंने महात्मा गांधी पर पुनः बोला और कहा कि चूंकि गांधी के सौ वर्ष मनाये जाने के समय 1969 में उन्होंने गांधी की आलोचना से भरे कई प्रवचन दिए थे अतः गांधी के बारे में ये बातें भी नोट कर लें| यह गांधी के बारे में उनके अंतिम कथन हैं|”

मैं महात्मा गांधी के विचारों से बिलकुल सहमत नहीं हूं और मैंने सदा उनकी आलोचना की है। जब उन्हें गोली मारी गई तो मैं सत्रह साल का था, और मेरे पिता ने मुझे रोते हुए देख लिया।

उन्हें बड़ा अचरज हुआ। उन्होंने कहा: तुम और महात्मा गांधी के लिए रो रहे हो? तुमने तो सदा उनकी आलोचना की है। मेरा सारा परिवार गांधी-भक्त था। वे सब गांधी का अनुसरण करते हुए जेल जा चुके थे। केवल मैं ही अपवाद था। स्वभावत: उन्होंने पूछा: तुम रो क्यों रहे हो? मैंने कहां: मैं सिर्फ रो ही नहीं रहा हूं,मुझे अभी गाड़ी पकड़नी है क्योंकि मुझे उनकी शवयात्रा में शामिल होना है। मेरा समय खराब मत करो, यही अंतिम ट्रेन है जो समय पर वहां पहुंचाएगी। वो तो भौचक्के रह गए। उन्होंने कहा: मैं भरोसा नहीं कर सकता। तुम तो पागल हो गए हो।

मैंने कहा: हम उसकी बाद में बात कर लेंगे। चिंता मत करो। मैं वापस आ रहा हूं। मैं उसी समय दिल्ली के लिए रवाना हो गया और जब दिल्ली स्टेशन पर मेरी गाड़ी रुकी तो प्लेटफार्म पर मस्तो मेरा इंतजार कर रहा था। उसने कहा; मुझे मालूम था कि तुम आओगे। गांधी की आलोचना करने के बावजूद तुम्हारे भीतर उनके लिए आदर भी है। इसलिए मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। मुझे मालूम था कि केवल यही गाड़ी तुम्हारे गांव से होकर यहां आती है। और तुम इसी गाड़ी से आ सकते हो। इसीलिए मैं तुम्हें लेने के लिए आ गया।

मैंने मस्तो से कहा: अगर तुमने गांधी के प्रति मेरे भावों की कभी बात की होती तो मैंने तर्क-वितर्क न किया होता लेकिन तुम सदा कुछ स्वीकार करवाना चाहते थे और तब भावना का फिर कोई सवाल नहीं उठता, फिर तो शुद्ध तर्क-वितर्क की बात है। या तो तुम जीतते हो या दूसरा। अगर एक बार भी तुमने भावना की बात की होती तो मैंने कुछ न कहा होता। क्योंकि तब फिर कोई तर्क-वितर्क न होता। खासकर यह बात रिकार्ड में आ जाए इसीलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं। जब कि महात्मा गांधी के जीवन संबंधी विचार मुझे नापसंद है। फिर भी उनकी बहुत से विशेषताओं की मैं सराहना भी करता हूं। उनकी बहुत सी बातें है जिनकी मैं तारीफ करता हूं, किंतु जो कहने से रह गई हैं। अब उन्हें रिकार्ड में ले लेते है।

मुझे उनकी सच्चाई बहुत पसंद है। उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला। वे चारों और झूठ से घिरे हुए थे फिर भी वे सच पर अडिग रहे। मैं शायद उनके सच से सहमत न होऊं पर मैं यह नहीं कह सकता कि वे सच्चे नहीं थे। उन्होंने जिसको सच माना, फिर उसे नहीं छोड़ा। यह बिलकुल भिन्न बात है कि मैं उनके सच को किसी मूल्य का नहीं मानता पर वह मेरी समस्या है उनकी नहीं। उन्होंनेकभी झूठ नहीं बोला। मैं उनकी इस सच्चाई का अवश्य आदर करता हूं। जब कि उनको उस सत्य के बारे में कुछ नहीं मालूम था जिसकी चर्चा मैं करता हूं। जिसमें छलांग के लिए सदा कहता हूं।वे मुझसे कभी सहमत नहीं हो सकते थे। सोचने से पहले छलांग लगा दो, नहीं वे तो व्यापारी बुद्धि के आदमी थे। दरवाजे से बाहर कदम उठाने से पहले वे तो सैंकड़ों बार सोचते थे,छलांग की बातकहां।

उनको ध्यान के बारे में कुछ नहीं मालूम था और वे उसे समझ सकते थे। इससे उनका दोष नहीं था। उनको अपने जीवन में कोई गुरु नहीं मिला जो उनको निर्विचार मन या शुन्य मन के बारे में बताता। और उस समय भी ऐसे लोग उपस्थित थे। मेहर बाबा ने एक बार उन्हें पत्र लिखा था। स्वयं तो नहीं लिखा था, पर उनकी और से किसी ने गांधी को पत्र लिखा था। मेहर बाबा तो सदा मौन रहते थे, कभी कुछ लिखा नहीं, किन्तु इशारों से अपनी बात समझाते थे। कुछ लोग ही समझ पाते थे कि मेहर बाबा क्या कहते है। मेहर बाबा ने अपने पत्र में गांधी से कहा था कि हरे राम, हरे कृष्ण बोलने से कोई लाभ नहीं होगा। अगर तुम सचमुच कुछ जानना चाहते हो तो मुझसे पूछो और मैं तुम्हें बताऊंगा। परंतु गांधी और उनके अनुयायी मेहर बाबा के इस पत्र पर बहुत हंसे क्योंकि उन्होंने इसे मेहर बाबा का अंहकार समझा। यह अहंकार नहीं उनकी करूणा थी। किंतु लोग प्राय: इस करूणा को अंहकार ही समझते है। बहुत अधिक करूणा, शायद बहुत अधिक करूणा है इसलिए अहंकार लगता है। गांधी ने मेहर बाबा को तार से धन्यवाद देते हुए उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि मैं तो अपने ही रास्ते पर चलूंगा। जैसे कि उन्हें रस्ता मालूम था। उन्हें तो कोई रास्ता मालूम ही नहीं था। फिर चलने का प्रश्न ही नहीं उठता था।

परंतु गांधी की कुछ बातें मुझे बहुत प्रिय थी उनका मैं आदर करता हूं। जैसे उनकी स्वच्छता और सफाई। अब तुम कहोगे कि इतनी छोटी-छोटी बातों के लिए आदर, नहीं ये छोटी बातें नहीं है। खासकर भारत में जहां संत, तथाकथित संत सब प्रकार की गंदगी में रहते थे। गांधी ने स्वच्छ, साफ रहने की कोशिश की। वे अत्यधिक साफ अज्ञानी व्यक्ति थे। मुझे उनकी साफ-सफाई, स्वच्छता बहुत पसंद है। सभी धर्मों के प्रति उनका आदरभाव भी मुझे पंसद है। हालांकि हमारे कारण अलग-अलग है। पर कम से कम उन्हेांने सब धर्मों का आदर किया। निश्चित रूप से, गलत कारण की वजह से। उन्हें पता ही न था कि सच क्या है, तो वे कैसे तय करते कि क्या सही है या कोई भी धर्म सही है। सब सही है या कोई भी कभी सही हो सकता है। कोई रास्ता न था। आखिर वे एक व्यापारी थे इसलिए क्यों किसी को दुःखी-परेशान करना, क्यों उपद्रव करना? कम से कम इतनी बुद्धि तो उनमें थी कि वे समझ सके कि गीता, कुरान, बाईबिल और तालमुद सब एक ही बात कहते है। याद रखना ‘’कम से कम’’ इतनी बुद्धि तो थी कि समानता खोज सके। यह कोई कठिन बात नहीं है। किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए। इसीलिए मैं कहता हूं, कम से कम, इतनी बुद्धि तो थी पर सच मैं बुद्धिमान नहीं थे। सच में बुद्धिमान तो सदा विद्रोही होते है। और वे कभी विद्रोह न कर सके किसी ट्रैडीशनल का—हिंदू, क्रिश्चियन, या बौद्धों का। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि एक बार गांधी भी ईसाई बनने का विचार कर रहे थे। क्योंकि यही एक ऐसा धर्म है जो गरीबों की बहुत सेवा करता है। परंतु जल्दी ही उनकी समझ में यह आ गया कि इनकी सेवा सिर्फ दिखावा है, असली धंधा तो पीछे छिपा है। इनका उद्देश्य है लोगो को ईसाई बनाना— सेवा के बहाने ये धर्मपरिवर्तन करते है। क्यों? क्योंकि इससे शक्ति आती है। जितने ज्यादा लोग तुम्हारे पास हों उतनी ज्यादा शक्ति होती है। अगर तुम सारे जगत को ईसाई,यहूदी या हिंदू बना दो तो तुम्हारे पास सबसे ज्यादा शक्ति होगी, जितनी कभी किसी के पास न थी। इसकी तुलना में सिकंदर भी फिका पड जाएगा। यह सब शक्ति का झगड़ा है।

जैसे ही गांधी ने यह देखा—और मैं फिर कहता हूं, वे इतना देखने के लिए काफी बुद्धिमान थे—उन्होंने ईसाई बनने का विचार छोड़ दिया। सच तो यह है कि भारत में हिंदू होना ज्यादा फायदेमंद था ईसाई होने के बजाए। भारत में ईसाई केवल एक प्रतिशत है इसलिए वे कोई राजनीतिक शक्ति नहीं बन सकते थे। हिंदू बने रहना ही अधिक लाभदायक था, मेरा मतलब है उनके महात्मापन के लिए। किंतु वे काफी होशियार थे कि सी.एफ.एंड्रूज़ जैसे ईसाइयों को बौद्धों और जैनों को और फ्रंटियर गांधी जैसे मुसलमान को भी प्रभावित कर सके। सीमांत गांधी पखतून जाति के थे जो भारत के सीमांत प्रदेश में रहती है। पखतून बहुत ही सुदंर ओर खतरनाक भी होते है। ये लोग मुसलमान है, और जब उनका नेता गांधी का अनुयायी बन गया। स्वभावत: वे भी अनुयायी बन गए। भारत के मुसलमानों ने कभी सीमांत गांधी को माफ नहीं किया। क्योंकि उन्होंने सोचा कि उसने अपने धर्म के साथ गद्दारी की है, धोखा दिया है।

मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि उसने क्या किया। मैं कह रहा हूं कि गांधी ने स्वयं पहले जैन बनने के बारे में बारे में भी सोचा था। उनका पहला गुरु जैन ही था। जिसका नाम था श्रीमद्राजचंद्र। और हिंदू अभी भी इस बात का बुरा मानते है कि उन्होंने एक जैन के पैर छुए। उनका दूसरा गुरु था, रस्किन। इससे हिंदुओं को और भी ज्यादा तकलीफ हुई। रस्किन की एक पुस्तक था: अन टू दिस लास्ट। इसने गांधी के जीवन को ही परिवर्तित कर दिया था पुस्तकें चमत्कार कर सकती है। तुमने शायद इस पुस्तक के बारे में सुना भी न हो—अन टू दिस लास्ट। यह एक छोटी सह पुस्तिका है। जब गांधी एक यात्रा पर जा रहे थे, तो उनके एक मित्र ने उनको यह पुस्तिका दी, क्योंकि उसे यह बहुत पसंद आई थी गांधी ने उसे रख लिया था। सोचा भी न था कि पढेंगे। पर रास्ते में जब समय मिला तो उन्होंने सोचा के क्यों न इसे देख लिया जाए। और इस पुस्तिका ने उनके जीवन को ही बदल दिया। उनकी फिलासफी इसी पुस्तिका पर आधारित है। मैं उनकी इस फिलासफी के विरूद्ध हूं, किंतु यह पुस्तक महान है। उसका दर्शन किसी योग्य नहीं है—परंतु गांधी तो कचरा इकट्ठा करते थे। वे तो सुंदर जगहों पर भी कचरा खोज लेते थे। ऐसे लोग होते है, तुम जानते हो, जिन्हें तुम सुंदर बग़ीचे में ले जाओ, वे ऐसी जगह खोज लेंगे और तुम्हें दिखाइंगे कि यह नहीं होना चाहिए। उनकी सारी एप्रोच ही नकारात्मक होती है। ये कचरा इक्ट्ठा करने वाले लोग होते है। वे अपने आप को कला को इक्ट्ठा करने वाला कहते है। अगर मैंने इस पुस्तक को पढ़ा होता, जैसा गांधी ने पढ़ा, तो मैं उस निष्कर्ष पर न पहुंचता जिस पर गांधी पहुंचे है। सवाल पुस्तक का नहीं है। सवाल पढ़ने वाले का है। वही चुनता है ओर इकट्ठा करता हे। हम एक ही जगह पर जाएं तो भी अलग-अलग चीजें इकट्ठी करेंगे। मेरे हिसाब से उनका कलक्शन मूल्य-रहित है। मैं नहीं जानता और कोई नहीं जानता कि उन्होंने मेरे कलक्शन के बारे में क्या सोचा होता। जहां तक मैं जानता हूं वह बहुत ही सिंसियर आदमी थे। इसीलिए मैं नहीं कह सकता कि उन्होंने ऐसा ही कहा होता जैसा मैं कह रहा है। उनका सारा कलेक्शन जंक है, कचरा है। शायद उन्होंने कहा होता,शायद न कहा होता—यही उनमें मुझे पसंद है। वे उसकी भी तारीफ कर सकते थे जो उनके लिए एलियन, अपरिचित था—और अपनी पूरी कोशिश करते खुले रहने की, उसे एब्जार्ब करने की। वे मोरारजी देसाई की तरह न थे जो कि पूरी तरह बंद, कलोज्ड है। मुझे तो कभी-कभी लगता है कि वह श्वास कैसे लेते होंगे क्योंकि उसके लिए कम से कम नाक तो खुला चाहिए। किंतु महात्मा गांधी मोरारजी देसाई जैसे आदमी नहीं थे। मैं उनसे असहमत हूं किंतु फिर भी…| वे स्पष्ट और संक्षिप्त लिखते थे। कोई भी उतना सरल नहीं लिख सकता था। और न ही कोई उतनी कोशिश करता था सरल लिखने की। अपने वाक्य को सरल और संक्षिप्त बनाने में वे घंटों लगाते थे। जितना संभव हो उसे उतना छोटा और सरल बनाते। वे जो भी सच मानते थे उसके अनुसार ही जीते थे। यह अलग बात है कि वह सत्य न था, पर इसके लिए वे क्या सामना करते थे। मैं उनकी इस सच्चाई और ईमानदारी का आदर करता हूं। इस ईमानदारी के कारण ही उन्हें अपने जीवन से हाथ धोने पड़े। गांधी की हत्या के साथ भारत का समस्त अतीत खो गया क्योंकि इसके पहले भारत में कभी किसी को गोली नहीं मारी गई थी। कभी किसी को सूली नहीं लगाई गई थी। यह कभी इस देश का तरीका न था। ऐसा नहीं कि यह बडे उदार लोग है। बल्कि इतने अहंकारी, दंभी है कि वह किसी को इस योग्य ही नहीं समझते कि उसे सूली दी जाए। उससे अपने को बहुत ऊपर मानते है।

महात्मा गांधी के साथ भारत का एक अध्याय समाप्त होता है और नया अध्याय आरंभ होता है। मैं इसलिए नहीं रोया कि वे मर गए। एक दिन तो सभी को मरना ही है। इसमें रोने की कोई बात नहीं है। अस्पताल में बिस्तर पर मरने के बजाए गांधी की मौत मरना कहीं अच्छा है खासकर, भारत में। एक तरह से वह साफ और सुंदर मृत्यु थी। और मैं हत्यारे नाथूराम गोडसे का पक्ष नहीं ले रहा हूं। और उसके लिए मैं नहीं कह सकता कि उसे माफ कर देना क्योंकि उसे पता नहीं कि वह क्या कर रहा है। उसे अच्छी तरह से पता था कि वह क्या कर रहा है। उसे माफ नहीं किया जा सकता । न ही मैं उस पर कुछ जोर-जबरदस्ती कर रहा हूं बल्कि सिर्फ तथ्यगत हूं। बाद में जब मैं वापस आया तो यह सब मुझे अपने पिताजी को समझाना पड़ा और इसमें कई दिन लग गए। क्योंकि मेरा और गांधी का संबंध बहुत ही जटिल है। सामान्यत: या तो तुम किसी की तारीफ करते हो या नहीं करते हो। लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं है। और सिर्फ महात्मा गांधी के साथ के साथ ही नहीं। मैं अजीब ही हूं। हर क्षण मुझे यह महसूस होता है। मुझे कोई खास बात किसी कि अच्छी लग सकती है लेकिन उसी समय साथ ही साथ ऐसा कुछ भी हो सकता है जो मुझे बिलकुल पसंद न हो, और तब फिर तय करना होगा। क्योंकि मैं उस व्यक्ति को दो में नहीं बांट सकता। मैंने महात्मा गांधी के विरोध में होना तय किया। ऐसा नहीं कि उनमें ऐसा कुछ न था जो पंसद न था—बहुत कुछ था। परंतु बहुत बातें ऐसी थीं जिनके दूरगामी परिणाम पूरे जगत के लिए अच्छे नहीं थे। इन बातों के कारण मुझे उनका विरोध करना पडा। अगर वे विज्ञान, टेकनालॉजी, प्रगति और संपन्नता के विरूद्ध न होते तो शायद मैं उनको बहुत पंसद करता। वे तो उस सब चीजों के विरोध में थे। मैं पक्ष में हूं—और अधिक टेकनालॉजी, और अधिक विज्ञान, और अधिक संपन्नता के। मैं गरीबी के पक्ष में नहीं हूं, वे थे। मैं पुरानेपन के पक्ष में नहीं हूं वे थे। पर फिर भी, जब भी मुझे थोड़ी सी भी सुंदरता दिखाई देती है। मैं उसकी तारीफ करता हूं। और उनमें कुछ बातें थीं जो समझने योग्य है। उनमें लाखों लोगों की एक साथ नब्ज परखने की अद्भुत क्षमता थी। कोई डाक्टर ऐसा नहीं कर सकता एक आदमी की नब्ज परखना भी अति कठिन है। खासकर मेरे जैसे आदमी की। तुम मेरी नब्ज परखने की कोशिश कर सकते हो। तुम अपनी भी नब्ज खो बैठोगे, या अगर पल्स नहीं तो पर्स खो बैठोगे जो कि बेहतर ही है। गांधी में जनता की पल्स, नब्ज पहचानने की क्षमता थी। निश्चित ही मैं उन लोगों में उत्सुकता नहीं रखता हूं। पर वह अलग बात है। मैं हजारों बातों में उत्सुक नहीं हूं,पर इसका यह अर्थ नहीं कि जो लोग सच्चे दिल से काम में लगे हैं, समझदारी पूर्वक किन्हीं गहराइयों को छू रहे है, उनकी तारीफ न की जाए। गांधी में वह क्षमता थी। और मैं उसकी तारीफ करता हूं। मैं अब उनसे मिलना पसंद करता। क्योंकि जब मैं सिर्फ दस वर्ष का बच्चा था। वे मुझसे सिर्फ वे जे तीन रूपये ले सके। अब मैं उन्हें पूरा स्वर्ग दे सकता था—पर शायद इस जीवन में ऐसा नहीं होना था।

जनवरी 24, 2023

नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गांधी : ओशो

मुझे एक युवक याद आते हैं| उनका नाम सुभाष चंद्र बोस था। वे एक महान क्रांतिकारी बने और मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान है, क्योंकि वे भारत में एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने महात्मा गांधी का विरोध किया; वे देख सकते थे कि यह सब महात्मापन केवल राजनीति है और कुछ नहीं। भारतीय खुद को बहुत धार्मिक मानते हैं। यह सिर्फ एक मान्यता है – कोई भी धार्मिक नहीं है। और महात्मा गांधी देश के बहुसंख्यकों का नेता बनने के लिए एक संत की भूमिका निभा रहे थे। वे सभी जो सोचते थे कि वे धार्मिक हैं, महात्मा गांधी के पक्ष में होने के लिए बाध्य थे।

सिर्फ एक अकेले आदमी, सुभाष ने इसका विरोध किया और तुरंत ही छलावा स्पष्ट हो गया। यह क्या हुआः महात्मा गांधी कहा करते थे, मैं प्रेम और घृणा से परे हूं। मैं क्रोध से, हिंसा से परे हूं।

सुभाष, महात्मा गांधी के साथ सहमत नहीं होने के लिए जाने जाते थे, हालांकि वे एक ही पार्टी में थे। एक ही पार्टी थी जो देश की आजादी के लिए लड़ रही थी, इसलिए सभी स्वतंत्रता प्रेमी पार्टी में थे। और सुभाष कांग्रेस के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए, और तुरंत ही महात्मा गांधी की  कुटिलता प्रकट हो गयी।

एक तरफ वे सिखा रहे थे कि दुश्मन से भी प्यार करना है और फिर देखते ही देखते सुभाष अगर कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए तो उनके दर्शन और नेतृत्व के लिए खतरनाक हो जाएंगे, वे एकदम अलग तरह के आदमी बन गए. सुभाष पाखंड में विश्वास नहीं करते थे, और उनके जीतने की संभावना थी। एकमात्र व्यक्ति जो उन्हें हरा सकता था, वे स्वयं महात्मा गांधी थे, लेकिन यह उन्हें उनकी महान संतता से बहुत नीचे गिरा देता।

तो उन्होंने जो किया वह यह था: उन्होंने एक व्यक्ति विशेष, डॉक्टर पट्टाभि सीतारमैय्या को अपने उम्मीदवार के रूप में समर्थन दिया। और उन्होंने सोचा कि चूंकि वे उसे अपना उम्मीदवार घोषित कर रहे हैं, इसलिए डॉक्टर निश्चित रूप से जीत जाएगा। लेकिन सुभाष से युवा लोगों, युवा रक्त को बहुत प्यार था, और सुभाष चन्द्र की लोकप्रियता के उलट, डॉक्टर पट्टाभि, बिल्कुल अनजान व्यक्ति था। वह महात्मा गांधी का आज्ञाकारी अनुयायी था, इसलिए गांधी जी की सेवा करता था, लेकिन देश उसे  नहीं जानता था।

और सुभाष एक शेर थे: वे लड़े और अविश्वसनीय रूप से जीत गए। गांधी उस सभा में शामिल नहीं हुए जहां सुभाष को अध्यक्ष घोषित किया जाने वाला था। गांधी अपना सारा तत्वज्ञान भूल गये। वास्तव में सुभाष कहीं अधिक महान व्यक्ति सिद्ध हुए। यह देखते हुए कि गांधी कांग्रेस में विभाजन पैदा करने की कोशिश कर रहे थे – जो देश की मुक्ति के लिए आंदोलन को हानि पहुंचाता, – उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, ताकि आंदोलन में एकता रहे। उन्होंने अपने आप को पूर्ण रूप से बलिदान कर दिया; ताकि लड़ाई में न पड़ें, और देश से बाहर चले गए।

उन्होंने शुरू से ही यह ईमानदारी दिखाई। वे इंग्लैंड में शिक्षित थे, बंगाल के एक बहुत अमीर परिवार से ताल्लुक रखते थे, और शीर्ष नौकरशाहों में से एक होने वाले थे| उन्हें ब्रिटेन में भारतीय सिविल सेवा के लिए प्रशिक्षित किया गया था, जैसा कि सभी शीर्ष नौकरशाह थे, जिनमें से अधिकांश अंग्रेज़ थे। बहुत कम ही किसी भारतीय को चुना गया – एक प्रतिशत से अधिक नहीं। वरना किसी भी छोटे बहाने से भारतीयों को रिजेक्ट कर दिया जाता था।

श्री अरबिंदो को अस्वीकार कर दिया गया था, और किस आधार पर? आप विश्वास नहीं करेंगे। अरबिन्दो हर विषय में प्रथम आये थे, वे इस सदी के महान बुद्धिजीवियों में से एक थे| केवल घुड़सवारी में ही वे सफल नहीं हो सके। लेकिन घुड़सवारी का एक शीर्ष अधिकारी होने के साथ क्या संबंध है? यह एक रणनीति थी: वे एक विद्वान थे और वे विश्व प्रसिद्ध हुए, लेकिन उन्हें आई सी एस में अस्वीकार कर दिया गया।

भारतीयों को नकारने के लिए हर हथकंडा आजमाया गया। सुभाष को वे अस्वीकार नहीं कर सके। वे उनकी सभी रणनीतियों पर काबू पाने में सफल रहे, इसलिए ब्रिटेन ने अनिच्छा से सुभाष को आईसीएस के लिए स्वीकार कर लिया। एक बात और रह गई, जो एक औपचारिकता थी: प्रत्येक आईसीएस अधिकारी को गवर्नर-जनरल के समक्ष व्यक्तिगत साक्षात्कार के लिए उपस्थित होना पड़ता था। परीक्षा पास करने के बाद यह सिर्फ एक औपचारिकता थी। सुभाष गवर्नर-जनरल के कार्यालय में दाखिल हुए।

बंगाली हमेशा एक छाता लेकर चलते हैं – कोई नहीं जानता क्यों। बारिश हो या न हो, गर्मी हो या न हो; यह सर्दी हो सकती है और इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन वे इसे लेकर चलेंगे। एक बंगाली के लिए छाता एक नितांत आवश्यकता है। अगर आप किसी को छाता लिए हुए देखते हैं, तो आप समझ सकते हैं: वह बंगाली है। अब वायसराय के दफ्तर में छाता ले जाने की जरूरत नहीं है; कम से कम आपको इसे बाहर छोड़ देना चाहिए। लेकिन बंगाली अपना छाता नहीं छोड़ेंगे।

सुभाष ने अपनी टोपी पहन रखी थी और वे अपना छाता कार्यालय में ले गये। अन्दर कक्ष में घुसते ही वे गवर्नर जनरल की मेज के सामने रखी कुर्सी पर बैठ गए| गवर्नर जनरल बहुत क्रोधित हो गया। उसने कहा, ”युवक, तुम शिष्टाचार नहीं समझते। तुम्हें आई.सी.एस. की परीक्षा में किसने पास किया?”

सुभाष ने कहा, ”कैसा शिष्टाचार?”

गवर्नर-जनरल ने कहा, “आपने अपनी टोपी नहीं उतारी और आपने मुझसे बैठने की अनुमति नहीं मांगी।”

गवर्नर-जनरल को पता नहीं था कि यह कैसा आदमी है। सुभाष ने तुरंत अपना छाता उठाया और गवर्नर-जनरल के गले में फँसा दिया। वे ऑफिस में अकेले थे, इसलिए…. और सुभाष ने गवर्नर-जनरल से कहा,

‘यदि आप शिष्टाचार चाहते हैं, तो आपको भी शिष्टाचार सीखना चाहिए। आप बैठे रहे। मेरे अन्दर आने पर आपको पहले खड़ा होना चाहिए था। मैं एक अतिथि था। आपने अपनी टोपी नहीं उतारी। मुझे अपना हैट क्यों हटाना चाहिए? आपने मुझसे बैठने की अनुमति नहीं मांगी, मैं आपसे अनुमति क्यों मांगूं? आप कौन हो, क्या अपने आप को सोचते हो? ज्यादा से ज्यादा आप मुझे आईसीएस के लिए रिजेक्ट कर सकते हैं, लेकिन मैं इसे आपके हाथों में नहीं छोड़ूंगा। मैं स्वयं ही इस ब्रितानी सेवा में शामिल नहीं होना चाहता।

और गवर्नर-जनरल को लगभग सदमे में छोड़कर वे कार्यालय से बाहर चले आये|

गवर्नर जनरल ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि कोई ऐसा भी कर सकता है!

सत-चित्त-आनंद” (ओशो)

नवम्बर 6, 2022

“टॉर्च बेचने वाले” : “ओशो (आचार्य रजनीश)” पर “हरिशंकर परसाई का आक्रमण” और उस पर ओशो का दृष्टिकोण

[“वह पहले चौराहों पर बिजली के टार्च बेचा करता था । बीच में कुछ दिन वह नहीं दिखा । कल फिर दिखा । मगर इस बार उसने दाढी बढा ली थी और लंबा कुरता पहन रखा था ।
मैंने पूछा, ”कहाँ रहे? और यह दाढी क्यों बढा रखी है? ”
उसने जवाब दिया, ”बाहर गया था । ”
दाढीवाले सवाल का उसने जवाब यह दिया कि दाढी पर हाथ फेरने लगा । मैंने कहा, ”आज तुम टार्च नहीं बेच रहे हो? ”
उसने कहा, ”वह काम बंद कर दिया । अब तो आत्मा के भीतर टार्च जल उठा है । ये ‘ सूरजछाप ‘ टार्च अब व्यर्थ मालूम होते हैं । ”
मैंने कहा, ”तुम शायद संन्यास ले रहे हो । जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है, वह इसी तरह हरामखोरी पर उतर आता है । किससे दीक्षा ले आए? ”
मेरी बात से उसे पीडा हुई । उसने कहा, ”ऐसे कठोर वचन मत बोलिए । आत्मा सबकी एक है । मेरी आत्मा को चोट पहुँचाकर आप अपनी ही आत्मा को घायल कर रहे हैं । ”

मैंने कहा, ”यह सब तो ठीक है । मगर यह बताओ कि तुम एकाएक ऐसे कैसे हो गए? क्या बीवी ने तुम्हें त्याग दिया? क्या उधार मिलना बंद हो गया? क्या हूकारों ने ज्यादा तंग करना शुरू कर दिया? क्या चोरी के मामले में फँस गए हो? आखिर बाहर का टार्च भीतर आत्मा में कैसे घुस गया? ”

उसने कहा, ”आपके सब अंदाज गलत हैं । ऐसा कुछ नहीं हुआ । एक घटना हो गई है, जिसने जीवन बदल दिया । उसे मैं गुप्त रखना चाहता हूँ । पर क्योंकि मैं आज ही यहाँ से दूर जा रहा हूँ, इसलिए आपको सारा किस्सा सुना देता हूँ ।” उसने बयान शुरू किया पाँच साल पहले की बात है । मैं अपने एक दोस्त के साथ हताश एक जगह बैठा था । हमारे सामने आसमान को छूता हुआ एक सवाल खड़ा था । वह सवाल था – ‘ पैसा कैसे पैदा करें?’ हम दोनों ने उस सवाल की एक-एक टाँग पकड़ी और उसे हटाने की कोशिश करने लगे । हमें पसीना आ गया, पर सवाल हिला भी नहीं । दोस्त ने कहा – ”यार, इस सवाल के पाँव जमीन में गहरे गड़े हैं । यह उखडेगा नहीं । इसे टाल जाएँ । ”

हमने दूसरी तरफ मुँह कर लिया । पर वह सवाल फिर हमारे सामने आकर खडा हो गया । तब मैंने कहा – ”यार, यह सवाल टलेगा नहीं । चलो, इसे हल ही कर दें । पैसा पैदा करने के लिए कुछ काम- धंधा करें । हम इसी वक्त अलग- अलग दिशाओं में अपनी- अपनी किस्मत आजमाने निकल पड़े । पाँच साल बाद ठीक इसी तारीख को इसी वक्त हम यहाँ मिलें । ”
दोस्त ने कहा – ”यार, साथ ही क्यों न चलें? ”
मैंने कहा – ”नहीं । किस्मत आजमानेवालों की जितनी पुरानी कथाएँ मैंने पढ़ी हैं, सबमें वे अलग अलग दिशा में जाते हैं । साथ जाने में किस्मतों के टकराकर टूटने का डर रहता है । ”

तो साहब, हम अलग-अलग चल पडे । मैंने टार्च बेचने का धंधा शुरू कर दिया । चौराहे पर या मैदान में लोगों को इकु कर लेता और बहुत नाटकीय ढंग से कहता – ”आजकल सब जगह अँधेरा छाया रहता है । रातें बेहद काली होती हैं। अपना ही हाथ नहीं सूझता । आदमी को रास्ता नहीं दिखता । वह भटक जाता है । उसके पाँव काँटों से बिंध जाते हैं, वह गिरता है और उसके घुटने लहूलुहान हो जाते हैं। उसके आसपास भयानक अँधेराहै । शेर और चीते चारों तरफ धूम रहे हैं, साँप जमीन पर रेंग रहे हैं । अँधेरा सबको निगल रहा है । अँधेरा घर में भी है । आदमी रात को पेशाब करने उठता है और साँप पर उसका पाँव पड़ जाता है । साँप उसे डँस लेता है और वह मर जाता है । ”आपने तो देखा ही है साहब, कि लोग मेरी बातें सुनकर कैसे डर जाते थे । भरदोपहर में वे अँधेरे के डर से काँपने लगते थे । आदमी को डराना कितना आसान है!

लोग डर जाते, तब मैं कहता – ”भाइयों, यह सही है कि अँधेरा है, मगर प्रकाश भी है । वही प्रकाश मैं आपको देने आया हूँ । हमारी ‘ सूरज छाप ‘ टार्च में वह प्रकाश है, जो अंधकार को दूर भगा देता है । इसी वक्त ‘ सूरज छाप ‘ टार्च खरीदो और अँधेरे को दूर करो । जिन भाइयों को चाहिए, हाथ ऊँचा करें । ”
साहब, मेरे टार्च बिक जाते और मैं मजे में जिंदगी गुजरने लगा ।

वायदे के मुताबिक ठीक पाँच साल बाद मैं उस जगह पहुँचा, जहाँ मुझे दोस्त से मिलना था । वहाँ दिन भर मैंने उसकी राह देखी, वह नहीं आया । क्या हुआ? क्या वह भूल गया? या अब वह इस असार संसार में ही नहीं है?मैं उसे ढूंढ़ने निकल पडा ।

एक शाम जब मैं एक शहर की सडक पर चला जा रहा था, मैंने देखा कि पास के मैदान में खुब रोशनी है और एक तरफ मंच सजा है । लाउडस्पीकर लगे हैं । मैदान में हजारों नर-नारी श्रद्धा से झुके बैठे हैं । मंच पर सुंदर रेशमी वस्त्रों से सजे एक भव्य पुरुष बैठे हैं । वे खुब पुष्ट हैं, सँवारी हुई लंबी दाढी है और पीठ पर लहराते लंबे केश हैं ।
मैं भीड के एक कोने में जाकर बैठ गया ।
भव्य पुरुष फिल्मों के संत लग रहे थे । उन्होंने गुरुगभीर वाणी में प्रवचन शुरू किया । वे इस तरह बोल रहे थे जैसे आकाश के किसी कोने से कोई रहस्यमय संदेश उनके कान में सुनाई पड़ रहा है जिसे वे भाषण दे रहे हैं ।

वे कह रहे थे – ”मैं आज मनुष्य को एक घने अंधकार में देख रहा हूँ । उसके भीतर कुछ बुझ गया है । यह युग ही अंधकारमय है । यह सर्वग्राही अंधकार संपूर्ण विश्व को अपने उदर में छिपाए है । आज मनुष्य इस अंधकार से घबरा उठा है । वहपथभ्रष्ट हो गया है । आज आत्मा में भी अंधकार है । अंतर की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं । वे उसे भेद नहीं पातीं । मानव- आत्मा अंधकार में घुटती है । मैं देख रहा हूँ, मनुष्य की आत्मा भय और पीड़ा से त्रस्त है । ”
इसी तरह वे बोलते गए और लोग स्तव्य सुनते गए ।
मुझे हँसी छूट रही थी । एकदो बार दबातेदबाते भी हँसी फूट गई और पास के श्रोताओं ने मुझे डाँटा ।

भव्य पुरुष प्रवचन के अंत पर पहुँचते हुए कहने लगे – ”भाइयों और बहनों, डरो मत । जहाँ अंधकार है, वहीं प्रकाश है । अंधकार में प्रकाश की किरण है, जैसे प्रकाश में अंधकार की किंचित कालिमा है । प्रकाश भी है । प्रकाश बाहर नहीं है, उसे अंतर में खोजो । अंतर में बुझी उस ज्योति को जगाओ । मैं तुम सबका उस ज्योति को जगाने के लिए आहान करता हूँ । मैं तुम्हारे भीतर वही शाश्वत ज्योति को जगाना चाहता हूँ । हमारे ‘ साधना मंदिर ‘ में आकर उस ज्योति को अपने भीतर जगाओ । ”साहब, अब तो मैं खिलखिलाकर हँस पडा । पास के लोगों ने मुझे धक्का देकर भगा दिया । मैं मंच के पास जाकर खडा हो गया ।

भव्य पुरुष मंच से उतरकर कार पर चढ रहे थे । मैंने उन्हें ध्यान से पास से देखा । उनकी दाढी बढी हुई थी, इसलिए मैं थोडा झिझका । पर मेरी तो दाढी नहीं थी । मैं तो उसी मौलिक रूप में था । उन्होंने मुझे पहचान लिया । बोले – ”अरे तुम! ”मैं पहचानकर बोलने ही वाला था कि उन्होंने मुझे हाथ पकड़कर कार में बिठा लिया । मैं फिर कुछ बोलने लगा तो उन्होंने कहा – ”बँगले तक कोई बातचीत नहीं होगी । वहीं ज्ञानचर्चा होगी । ”
मुझे याद आ गया कि वहाँ ड्राइवर है ।
बँगले पर पहुँचकर मैंने उसका ठाठ देखा । उस वैभव को देखकर मैं थोडा झिझका, पर तुरंत ही मैंने अपने उस दोस्त से खुलकर बातें शुरू कर दीं ।
मैंने कहा – ”यार, तू तो बिलकुल बदल गया । ”
उसने गंभीरता से कहा – ”परिवर्तन जीवन का अनंत क्रम है । ”
मैंने कहा – ”साले, फिलासफी मत बघार यह बता कि तूने इतनी दौलत कैसे कमा ली पाँच सालों में? ”
उसने पूछा – ”तुम इन सालों में क्या करते रहे? ”
मैंने कहा ”मैं तो धूममूमकर टार्च बेचता रहा । सच बता, क्या तू भी टार्च का व्यापारी है? ”
उसने कहा – ”तुझे क्या ऐसा ही लगता है? क्यों लगता है? ”

मैंने उसे बताया कि जो बातें मैं कहता हूँ; वही तू कह रहा था मैं सीधे ढंग से कहता हूँ, तू उन्हीं बातों को रहस्यमय ढंग से कहता है । अँधेरे का डर दिखाकर लोगों को टार्च बेचता हूँ । तू भी अभी लोगों को अँधेरे का डर दिखा रहा था, तू भी जरूर टार्च बेचता है ।
उसने कहा – ”तुम मुझे नहीं जानते, मैं टार्च क्यों बेचूगा! मैं साधु, दार्शनिक और संत कहलाता हूँ । ”

मैंने कहा ”तुम कुछ भी कहलाओ, बेचते तुम टार्च हो । तुम्हारे और मेरे प्रवचन एक जैसे हैं । चाहे कोई दार्शनिक बने, संत बने या साधु बने, अगर वह लोगों को अँधेरे का डर दिखाता है, तो जरूर अपनी कंपनी का टार्च बेचना चाहता है । तुम जैसे लोगों के लिए हमेशा ही अंधकार छाया रहता है । बताओ, तुम्हारे जैसे किसी आदमी ने हजारों में कभी भी यह कहा है कि आज दुनिया में प्रकाश फैला है? कभी नहीं कहा । क्यों? इसलिए कि उन्हें अपनी कंपनी का टार्च बेचना है । मैं खुद भरदोपहर में लोगों से कहता हूँ कि अंधकार छाया है । बता किस कंपनी का टार्च बेचता है? ”

मेरी बातों ने उसे ठिकाने पर ला दिया था । उसने सहज ढंग से कहा – ”तेरी बात ठीक ही है । मेरी कंपनी नयी नहीं है, सनातन है । ” मैंने पूछा – ”कहाँ है तेरी दुकान? नमूने के लिए एकाध टार्च तो दिखा । ‘ सूरज छाप ‘ टार्च से बहुत ज्यादा बिक्री है उसकी ।

उसने कहा – ”उस टार्च की कोई दुकान बाजार में नहीं है । वह बहुत सूक्ष्म है । मगर कीमत उसकी बहुत मिल जाती है । तू एक-दो दिन रह, तो मैं तुझे सब समझा देता हूँ । ”
”तो साहब मैं दो दिन उसके पास रहा । तीसरे दिन ‘ सूरज छाप ‘ टार्च की पेटी को नदी में फेंककर नया काम शुरू कर दिया । ”
वह अपनी दाढी पर हाथ फेरने लगा । बोला – ”बस, एक महीने की देर और है। ”मैंने पूछा -‘ तो अब कौन-सा धंधा करोगे? ”
उसने कहा – ”धंधा वही करूँगा, यानी टार्च बेचूँगा । बस कंपनी बदल रहा हूँ । ”] (हरिशंकर परसाई)


ओशो ने व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई की रचना और एक अखबार में अपने विरुद्ध लिखे लेख को किस तरह लिया? 11 सितम्बर 1976 को पूना आश्रम में “अष्टावक्र महागीता” श्रंखला पर प्रवचनों की शुरुआत करते हुए पहले प्रवचन में ओशो ने परसाई जी के एक लेख की चर्चा की|




प्रवचन के मध्य की कुछ पंक्तियाँ –

” एक तो ढंग है फूल से पीछे की तरफ देखना, और एक है बीज से आगे की तरफ देखना।
गौर से देखो तो दोनों में सार—सूत्र एक ही है, दोनों की आधारभित्ति एक ही है; लेकिन कितना जमीन— आसमान का अंतर हो जाता है!
जो बीज वाला है, वह भी यह कह रहा है कि जो बीज में नहीं है वह फूल में कैसे हो सकता है? यह उसका तर्क है।
फूल वाला भी यही कह रहा है। वह कह रहा है, जो फूल में है वह बीज में भी होना ही चाहिए। दोनों का तर्क तो एक है। लेकिन दोनों के देखने के ढंग अलग हैं। बड़ी अड़चन है!
मुझसे कोई पूछता था कि आपके साथ बचपन में बहुत लोग पढ़े होंगे—स्कूल में, कालेज में—वे दिखायी नहीं पड़ते! वे कैसे दिखायी पड़ सकते हैं! उनको बड़ी अड़चन है। वे भरोसा नहीं कर सकते। अति कठिन है उन्हें।

कल ही मेरे पास रायपुर से किसी ने एक अखबार भेजा। श्री हरिशंकर परसाई ने एक लेख मेरे खिलाफ लिखा है। वे मुझे जानते हैं, कालेज के दिनों से जानते हैं। हिंदी के मूर्धन्य व्यंग्यलेखक हैं। मेरे मन में उनकी कृतियों का आदर है। लेख में उन्होंने लिखा है कि जबलपुर की हवा में कुछ खराबी है। यहां धोखेबाज और धूर्त ही पैदा होते हैं—जैसे रजनीश, महेश योगी, मूंदड़ा। तीन नाम उन्होंने गिनाए। धन्यवाद उनका, कम से कम मेरा नाम नंबर एक तो गिनाया। इतनी याद तो रखी! एकदम बिसार नहीं दिया। बिलकुल भूल गये हों, ऐसा नहीं है।
लेकिन अड़चन स्वाभाविक है, सीधी—साफ है। मैं उनकी बात समझ सकता हूं। यह असंभव है—बीज को देखा तो फूल में भरोसा! फिर जिन्होंने फूल को देखा, उन्हें बीज में भरोसा मुश्किल हो जाता है। तो सभी महापुरुषों की जीवन—कथाएं दो ढंग से लिखी जाती हैं। जो उनके विपरीत हैं, वे बचपन से यात्रा शुरू करते हैं; जो उनके पक्ष में हैं, वे अंत से यात्रा शुरू करते हैं और बचपन की तरफ जाते हैं। दोनों एक अर्थ में सही हैं। लेकिन जो बचपन से यात्रा करके अंत की तरफ जाते हैं, वे वंचित रह जाते हैं। उनका सही होना उनके लिए आत्मघाती है, जो अंत से यात्रा करते हैं और पीछे की तरफ जाते हैं, वे धन्यभागी हैं। क्योंकि बहुत कुछ उन्हें अनायास मिल जाता है, जो कि पहले तर्कवादियो को नहीं मिल पाता।
अब न केवल मैं गलत मालूम होता हूं मेरे कारण जबलपुर तक की हवा उनको गलत मालूम होती है. कुछ भूल हवा—पानी में होनी चाहिए! यद्यपि मैं उनको कहना चाहूंगा, जबलपुर को कोई हक नहीं है मेरे संबंध में हवा—पानी को अच्छा या खराब तय करने का। जबलपुर से मेरा कोई बहुत नाता नहीं है। थोड़े दिन वहां था। महेश योगी भी थोड़े दिन वहां थे। उनका भी कोई नाता नहीं है। हम दोनों का नाता किसी और जगह से है। उस जगह के लोग इतने सोए हैं कि उन्हें अभी खबर ही नहीं है। महेश योगी और मेरा जन्म पास ही पास हुआ। दोनों गाडरवाड़ा के आस—पास पैदा हुए। उनका जन्म चीचली में हुआ, मेरा जन्म कुछवाड़े में हुआ। अगर हवा—पानी खराब है तो वहां का होगा। इसका दुख गाडरवाड़ा को होना चाहिए—कभी होगा। या सुख…। जबलपुर को इसमें बीच में आना नहीं चाहिए।
लेकिन मन कैसे तर्क रचता है!”
अगस्त 16, 2016

प्रेम है सौंदर्य, वासना ही कुरूपता है!… ओशो

Oshoप्रश्न – किसी सुंदर युवती को देखकर जाने क्यों मन उसकी ओर आकर्षित हो जाता है, आंखें उसे निहारने लगती हैं! मेरी उम्र पचास हो गई है, फिर भी ऐसा क्यों होता है? क्या यह वासना है, या प्रेम, या सुंदरता की स्तुति? कृपया मेरा मार्ग-निर्देश करें।

ओशो

ऐसा होता है निरंतर; क्योंकि जब दिन थे तब दबा लिया। तो रोग बार-बार उभरेगा। जब जवान थे, तब ऐसी किताबें पढ़ते रहे जिनमें लिखा है: ब्रह्मचर्य ही जीवन है। तब दबा लिया।
जवानी के साथ एक खूबी है कि जवानी के पास ताकत है–दबाने की भी ताकत है। वही ताकत भोग बनती है, वही ताकत दमन बन जाती है। लेकिन जवान दबा सकता है।
मेरे अनुभव में अकसर ऐसी घटना घटती रही है, लोग आते रहे हैं, कि चालीस और पैंतालीस साल के बाद बड़ी मुश्किल खड़ी होती है, जिन्होंने भी दबाया। क्योंकि चालीस-पैंतालीस साल के बाद, वह ऊर्जा जो दबाने की थी वह भी क्षीण हो जाती है। तो वह जो दबाई गई वासनाएं थीं, वे उभरकर आती हैं। और जब बे-समय आती हैं तो और भी बेहूदी हो जाती हैं।
जवान स्त्रियों के पीछे भागता फिरे, कुछ भी गलत नहीं है; स्वाभाविक है; होना था, वही हो रहा है। बच्चे तितलियों के पीछे दौड़ते फिरें, ठीक है। बूढ़े दौड़ने लगें–तो फिर जरा रोग मालूम होता है। लेकिन रोग तुम्हारे कारण नहीं है, तुम्हारे तथाकथित साधुओं के कारण है–जिनने तुम्हें जीवन को सरलता से जीने की सुविधा नहीं दी है। बचपन से ही जहर डाला गया है: कामवासना पाप है! तो कामवासना को कभी पूरे प्रफुल्ल मन से स्वीकार नहीं किया। भोगा भी, तो भी अपने को खींचे रखा। भोगा भी, तो कलुषित मन से, अपराधी भाव से; यह मन में बना ही रहा कि पाप कर रहे हैं। संभोग में भी उतरे तो जानकर कि नर्क का इंतजाम कर रहे हैं।
अब तुम सोचो, जब तुम संभोग में उतरोगे और नर्क का भाव बना रहेगा, क्या खाक उतरोगे? संभोग की सुरभि तुम्हें क्या घेरेगी? वह नृत्य पैदा न हो पायेगा। तो तुम बिना उतरे वापिस लौट आओगे। शरीर के तल पर संभोग हो जायेगा; मन के तल पर वासना अधूरी अतृप्त रह जायेगी। मन के तल पर दौड़ जारी रहेगी। तो जब बूढ़े होने लगोगे और शरीर कमजोर होने लगेगा और शरीर की दबाने की पुरानी शक्ति क्षीण होने लगेगी और मौत दस्तक देने लगेगी दरवाजे पर और लगेगा कि अब गये, अब गये–तब ऐसा लगेगा, यह तो बड़ा गड़बड़ हुआ; भोग भी न पाये और चले! डोली तो उठी नहीं, अर्थी सज गई! तो मन बड़े वेग से स्त्रियों की तरफ दौड़ेगा, पुरुषों की तरफ दौड़ेगा।
यह तथाकथित समाज के द्वारा पैदा की गई रुग्ण अवस्था है। बच्चे को उसके बचपन को पूरा जीने दो, ताकि जब वह जवान हो जाये तो बचपन की रेखा भी न रह जाये; ताकि वह पूरा-पूरा जवान हो सके। जवान को पूरा जीने दो, उसे अपने अनुभव से ही जागने दो; ताकि जवानी के जाते-जाते वह जो जवानी की दौड़-धूप थी, आपाधापी थी, मन का जो रोग था, वह भी चला जाये; ताकि बूढ़ा शुद्ध बूढ़ा हो सके। और जब कोई बूढ़ा शुद्ध बूढ़ा होता है तो उससे सुंदर कोई अवस्था नहीं है। लेकिन जब बूढ़े में जवान घुसा होता है, तब एक भूत तुम्हारा पीछा कर रहा है। तब तुम एक प्रेतात्मा के वश में हो। तब तुम्हें बड़ा भटकायेगा। तब तुम्हें बड़ा बेचैन करेगा। और जैसे-जैसे शरीर अशक्त होता जायेगा वैसे-वैसे तुम पाओगे, वेग वासना का बढ़ने लगा।
एक स्त्री के संबंध में मैंने सुना है। वह चालीस से ऊपर की हो चुकी थी। मोटी हो गई थी, बेहूदी हो गई थी, कुरूप हो गई थी। फिर भी बनती बहुत थी। दावत में पास बैठा युवक उसकी बातों से उकता गया था और भाग निकलने के लिए बोला, “क्या आपको वह बच्चा याद है जो स्कूल में आपको बहुत तंग करता था…?’ उसका हाथ पकड़कर स्त्री ने कहा, “अच्छा, तो वह तुम थे?’
उसने कहा, “नहीं, जी नहीं, मैं नहीं। वे मेरे पिताजी थे।’
एक उम्र है तब चीजें शुभ मालूम होती हैं। एक उम्र है तब चीजों को जीना जरूरी है। उसे अगर न जी पाये तो पीछा चीजें करेंगी। और तब चीजें बड़ी वीभत्स हो जाती हैं।
एक सिनेमा-गृह में ऐसा घटा। एक महिला पास में बैठे एक बदतमीज बूढ़े से तंग आ गई थी, जो आधे घंटे से सिनेमा देखने की बजाय उसे ही घूरे जा रहा था।
आखिर उसने फुसफुसाकर उस आदमी से कहा, “सुनिए, आप अपना एक फोटो मुझे देंगे?’
आदमी बाग-बाग हो गया: “जरूर जरूर! एक तो मेरी जेब में ही है। लीजिए! हां, क्या कीजिएगा मेरे फोटो का?’
उसने कहा, “अपने बच्चों को डराऊंगी।’
सावधान रहना। वही जो एक समय में शुभ है, दूसरे समय में अशुभ हो जाता है। वही जो एक समय में ठीक था, सम्यक था, स्वभाव के अनुकूल था, वही दूसरे समय में अरुचिपूर्ण हो जाता है, बेहूदा हो जाता है।
जिन मित्र ने पूछा है, उनको थोड?ा जागकर अपने मन में पड़ी हुई, दबी हुई वासनाओं का अंतर्दर्शन करना होगा। अब मत दबाओ! कम से कम अब मत दबाओ! अभी तक दबाया और, उसका यह दुष्फल है। अब इस पर ध्यान करो। क्योंकि अब उम्र भी नहीं रही कि तुम स्त्रियों के पीछे दौड़ो या मैं तुमसे कहूं कि उनके पीछे दौड़ो। वह बात जंचेगी नहीं। वे तुमसे फोटो मांगने लगेंगी। अब जो जीवन में नहीं हो सका, उसे ध्यान में घटाओ।
अब एक घंटा रोज आंख बंद करके, कल्पना को खुली छूट दो। कल्पना को पूरी खुली छूट दो। वह किन्हीं पापों में ले जाये, जाने दो। तुम रोको मत। तुम साक्षी-भाव से उसे देखो कि यह मन जो-जो कर रहा है, मैं देखूं। जो शरीर के द्वारा नहीं कर पाये, वह मन के द्वारा पूरा हो जाने दो। तुम जल्दी ही पाओगे कुछ दिन के…एक घंटा नियम से कामवासना पर अभ्यास करो, कामवासना के लिए एक घंटा ध्यान में लगा दो, आंख बंद कर लो और जो-जो तुम्हारे मन में कल्पनाएं उठती हैं, सपने उठते हैं, जिनको तुम दबाते होओगे निश्चित ही–उनको प्रगट होने दो! घबड़ाओ मत, क्योंकि तुम अकेले हो। किसी के साथ कोई तुम पाप कर भी नहीं रहे। किसी को तुम कोई चोट पहुंचा भी नहीं रहे। किसी के साथ तुम कोई अभद्र व्यवहार भी नहीं कर रहे कि किसी स्त्री को घूरकर देख रहे हो। तुम अपनी कल्पना को ही घूर रहे हो। लेकिन पूरी तरह घूरो। और उसमें कंजूसी मत करना।
मन बहुत बार कहेगा कि “अरे, इस उम्र में यह क्या कर रहे हो!’ मन बहुत बार कहेगा कि यह तो पाप है। मन बहुत बार कहेगा कि शांत हो जाओ, कहां के विचारों में पड़े हो!
मगर इस मन की मत सुनना। कहना कि एक घंटा तो दिया है इसी ध्यान के लिए, इस पर ही ध्यान करेंगे। और एक घंटा जितनी स्त्रियों को, जितनी सुंदर स्त्रियों को, जितना सुंदर बना सको बना लेना। इस एक घंटा जितना इस कल्पना-भोग में डूब सको, डूब जाना। और साथ-साथ पीछे खड़े देखते रहना कि मन क्या-क्या कर रहा है। बिना रोके, बिना निर्णय किये कि पाप है कि अपराध है। कुछ फिक्र मत करना। तो जल्दी ही तीन-चार महीने के निरंतर प्रयोग के बाद हलके हो जाओगे। वह मन से धुआं निकल जायेगा।
तब तुम अचानक पाओगे: बाहर स्त्रियां हैं, लेकिन तुम्हारे मन में देखने की कोई आकांक्षा नहीं रह गई। और जब तुम्हारे मन में किसी को देखने की आकांक्षा नहीं रह जाती, तब लोगों का सौंदर्य प्रगट होता है। वासना तो अंधा कर देती है, सौंदर्य को देखने कहां देती है! वासना ने कभी सौंदर्य जाना? वासना ने तो अपने ही सपने फैलाये।
और वासना दुष्पूर है; उसका कोई अंत नहीं है। वह बढ़ती ही चली जाती है।
एक बहुत मोटा आदमी दर्जी की दुकान पर पहुंचा। दर्जी ने अचकन के लिए बड़ी कठिनाई से उसका नाप लिया। फिर एक सौ रुपये की सिलाई मांगी। वे महाशय बोले, “टेलीफोन पर तो तुमने पच्चीस रुपये सिलाई कही थी, अब सौ रुपये? हद्द हो गई! बेईमानी की भी कोई सीमा है!’
दर्जी ने कहा, “महाराज! वह अचकन की सिलाई थी, यह शामियाने की है।’
अचकनें शामियाने बन जाती हैं। वासना फैलती ही चली जाती है। तंबू बड़े से बड़ा होता चला जाता है। अचकन तक ठीक था, लेकिन जब शामियाना ढोना पड़े चारों तरफ तो कठिनाई होती है।
मैं अड़चन समझता हूं। लेकिन अड़चन का तुम मूल कारण खयाल में ले लेना: तुमने दबाया है। तुमने दमन किया है। तुम गलत शिक्षा और गलत संस्कारों के द्वारा अभिशापित हुए हो। तुमने जिन्हें साधु-महात्मा समझा है, तुमने जिनकी बातों को पकड़ा है–न वे जानते हैं, न उन्होंने तुम्हें जानने दिया है।
मेरे पास साधु संन्यासी आते हैं तो कहते हैं, “एकांत में आपसे कुछ कहना है।’ मैं कहता हूं, सभी के सामने कह दो; एकांत की क्या जरूरत है? वे कहते हैं कि नहीं, एकांत में। अब तो मैंने एकांत में मिलना बंद कर दिया है। क्योंकि एकांत में…जब भी साधु-संन्यासी आयें तो वे एकांत ही मांगते हैं। और एकांत में एक ही प्रश्न है उनका कि यह कामवासना से कैसे छुटकारा हो! कोई सत्तर साल का हो गया है, कोई चालीस साल से मुनि है–तो तुम क्या करते रहे चालीस साल? कहते हैं, क्या बतायें, जो-जो शास्त्र में कहा है, जो-जो सुना है–वह करते रहे हैं। उससे तो हालत और बिगड़ती चली गई है।
मवाद को दबाया है, निकालना था। घाव पर तुमने ऊपर से मलहम-पट्टी की है; आपरेशन की जरूरत थी। तो जिस मवाद को तुमने भीतर छिपा लिया है, वह अब तुम्हारी रग-रग में फैल गई है; अब तुम्हारा पूरा शरीर मवाद से भर गया है।
तो थोड़ी सावधानी बरतनी पड़ेगी। आपरेशन से गुजरना होगा। और तुम्हीं कर सकते हो वह आपरेशन; कोई और कर नहीं सकता। तुम्हारा ध्यान ही तुम्हारी शल्यक्रिया होगी। तब एक घंटा रोज…। तुम चकित होओगे, अगर तुमने एक-दो महीने भी इस प्रक्रिया को बिना किसी विरोध के भीतर उठाये, बिना अपराध भाव के निश्चिंत मन से किया, तो तुम अचानक पाओगे: धुएं की तरह कुछ बातें खो गईं! महीने दो महीने के बाद तुम पाओगे: तुम बैठे रहते हो, घड़ी बीत जाती है, कोई कल्पना नहीं आती, कोई वासना नहीं उठती। तब तुम अचानक पाओगे: अब तुम चलते हो बाहर, तुम्हारी आंखों का रंग और! अब तुम्हें सौंदर्य दिखाई पड़ेगा! क्योंकि सब सौंदर्य परमात्मा का सौंदर्य है। स्त्री का, पुरुष का कोई सौंदर्य होता है? फूल का, पत्ती का, कोई सौंदर्य होता है? सौंदर्य कहीं से भी प्रगट हो; सौंदर्य परमात्मा का है, सौंदर्य सत्य का है। लेकिन सौंदर्य को देख ही वही पाता है, जिसने वासना को अपनी आंख से हटाया। वासना का पर्दा आंख पर पड़ा रहे, तुम सौंदर्य थोड़े ही देखते हो! सौंदर्य तुम देख ही नहीं सकते।
वासना कुरूप कर जाती है सभी चीजों को। इसलिए तुमने जिसको भी वासना से देखा, वही तुम पर नाराज हो जाता है। कभी तुमने खयाल किया? किसी स्त्री को तुम वासना से देखो, वही बेचैन हो जाती है। किसी पुरुष को वासना से देखो, वही थोड़ा उद्विग्न हो जाता है। क्योंकि जिसको भी तुम वासना से देखते हो, उसका अर्थ ही क्या हुआ? उसका अर्थ हुआ कि तुमने उस आदमी या उस स्त्री को कुरूप करना चाहा। जब भी तुम किसी को वासना से देखते हो, उसका अर्थ हुआ कि तुमने किसी का साधन की तरह उपयोग करना चाहा; तुम किसी को भोगना चाहते हो। और प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं है। तुम किसी को चूसना चाहते हो? तुम किसी को अपने हित में उपयोग करना चाहते हो? तुम किसी के व्यक्तित्व को वस्तु की तरह पद-दलित करना चाहते हो?
वस्तुओं का उपयोग होता है, व्यक्तियों का नहीं। लेकिन जब तुम वासना से किसी को देखते हो, व्यक्ति खो जाता है, वस्तु हो जाती है। इसलिए वासना की आंख को कोई पसंद नहीं करता। जब वासना खो जाती है तो सौंदर्य का अनुभव होता है। और जब सौंदर्य का अनुभव होता है, तो तुम्हारे भीतर प्रेम का आविर्भाव होता है।
प्रेम उस घड़ी का नाम है, जब तुम्हें सब जगह परमात्मा और उसका सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। तब तुम्हारे भीतर जो ऊर्जा उठती है, जो अहर्निश गीत उठता है–वही प्रेम है। अभी तो तुमने जिसे प्रेम कहा है, उसका प्रेम से कोई दूर का भी संबंध नहीं है। वह प्रेम की प्रतिध्वनि भी नहीं है। वह प्रेम की प्रतिछाया भी नहीं है। वह प्रेम का विकृत रूप भी नहीं है। वह प्रेम से बिलकुल उलटा है।
इसलिए तो तुम्हारे प्रेम को घृणा बनने में देर कहां लगती है! अभी प्रेम था, अभी घृणा हो गई। एक क्षण पहले जो मित्र था, क्षणभर बाद दुश्मन हो गया। क्षणभर पहले जिसके लिए मरते थे, क्षणभर बाद उसको मारने को तैयार हो गये।
तुम्हारा प्रेम प्रेम है? घृणा का ही बदला हुआ रूप मालूम पड़ता है। प्रेम सिर्फ तुम्हारी बातचीत है। प्रेम तो उनका अनुभव है जिनकी आंख से वासना गिर गई; जिन्हें सौंदर्य दिखाई पड़ा; जिसे सब तरफ उसके नृत्य का अनुभव हुआ; जिसे सब तरफ परमात्मा की पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी। फिर प्रेम का आविर्भाव होता है। प्रेम यानी प्रार्थना। प्रेम यानी पूजा। प्रेम यानी अहोभाव, धन्यता, कृतज्ञता।
नहीं, अभी तुम्हें प्रेम का अनुभव नहीं हुआ। अभी तो तुमने वासना को भी नहीं जाना, प्रार्थना को तुम जानोगे कैसे? वासना को जानो, ताकि वासना से मुक्त हो जाओ। जब मैं निरंतर तुमसे कहता हूं, वासना को जानो, तो मैं यही कह रहा हूं कि वासना से मुक्त होने का एक ही उपाय है: उसे जान लो। जिसे हम जान लेते हैं, उसी से मुक्ति हो जाती है।
सत्य बड़ा क्रांतिकारी है। जान लेने के अतिरिक्त और कोई रूपांतरण नहीं है।
आज इतना ही।

ओशो – जिनसूत्र-(भाग–1)

सितम्बर 14, 2015

बुद्ध, महावीर, अहिंसा और मांसाहार : ओशो

प्रश्न: आपने कहा कि बाह्य आचरण से सब हिंसक हैं। आपने कहा कि बुद्ध और महावीर अहिंसक थे। बुद्ध तो मांस खाते थे, वे अहिंसक कैसे थे?

ओशो

मेरा मानना है कि आचरण से अहिंसा उपलब्ध नहीं होती। मैंने यह नहीं कहा कि अहिंसा से आचरण उपलब्ध नहीं होता। इसके फर्क को समझ लीजिए आप। हो सकता है कि मैं मछली न खाऊं। लेकिन इससे मैं महावीर नहीं हो जाऊंगा। लेकिन यह असंभव है कि मैं महावीर हो जाऊं और मछली खाऊं। इस फर्क को आप समझ लें। आचरण को साध कर कोई अहिंसक नहीं हो सकता, लेकिन अहिंसक हो जाए तो आचरण में अनिवार्य रूपांतरण होगा।
दूसरी बात यह कि मैंने बुद्ध और महावीर को अहिंसक कहा, लेकिन बुद्ध मांस खाते थे। बुद्ध मरे हुए जानवर का मांस खाते थे। उसमें कोई भी हिंसा नहीं है। लेकिन महावीर ने उसे वर्जित किया किसी संभावना के कारण। जैसा कि आज जापान में है। सब होटलों के, दूकानों के ऊपर तख्ती लगी हुई है कि यहां मरे हुए जानवर का मांस मिलता है।

अब इतने मरे हुए जानवर कहां से मिल जाते हैं, यह सोचने जैसा है। बुद्ध चूक गए, बुद्ध से भूल हो गई। हालांकि मरे हुए जानवर का मांस खाने में हिंसा नहीं है, क्योंकि मांस का मतलब है कि मार कर खाना। मारा नहीं है तो हिंसा नहीं है। लेकिन यह कैसे तय होगा कि लोग फिर मरे हुए जानवर के नाम पर मार कर नहीं खाने लगेंगे! इसलिए बुद्ध से चूक हो गई है और उसका फल पूरा एशिया भोग रहा है।

बुद्ध की बात तो बिलकुल ठीक है, लेकिन बात के ठीक होने से कुछ नहीं होता; किन लोगों से कह रहे हैं, यह भी सोचना जरूरी है। महावीर की समझ में भी आ सकती है यह बात कि मरे हुए जानवर का मांस खाने में क्या कठिनाई है। जब मर ही गया तो हिंसा का कोई सवाल नहीं है। लेकिन जिन लोगों के बीच हम यह बात कह रहे हैं, वे कल पीछे के दरवाजे से मार कर खाने लगेंगे। वे सब सज्जन लोग हैं, वे सब नैतिक लोग हैं, बड़े खतरनाक लोग हैं। वे रास्ता कोई न कोई निकाल ही लेंगे, वे पीछे का कोई दरवाजा खोल ही लेंगे।

मैं बुद्ध और महावीर दोनों को पूर्ण अहिंसक मानता हूं। बुद्ध की अहिंसा में रत्ती भर कमी नहीं है। लेकिन बुद्ध ने जो निर्देश दिया है, उसमें चूक हो गई है। वह चूक समाज के साथ हो गई है। अगर समझदारों की दुनिया हो तो चूक होने का कोई कारण नहीं है।

 ओशो (महावीर या महाविनाश)

सितम्बर 14, 2015

शाकाहारी बनाम मांसाहारी भोजन : ओशो

Osho kidआदमी को, स्वाभाविक रूप से, एक शाकाहारी होना चाहिए, क्योंकि पूरा शरीर शाकाहारी भोजन के लिए बना है। वैज्ञानिक इस तथ्य को मानते हैं कि मानव शरीर का संपूर्ण ढांचा दिखाता है कि आदमी गैर-शाकाहारी नहीं होना चाहिए। आदमी बंदरों से आया है। बंदर शाकाहारी हैं, पूर्ण शाकाहारी। अगर डार्विन सही है तो आदमी को शाकाहारी होना चाहिए।

अब जांचने के तरीके हैं कि जानवरों की एक निश्चित प्रजाति शाकाहारी है या मांसाहारी: यह आंत पर निर्भर करता है, आंतों की लंबाई पर। मांसाहारी पशुओं के पास बहुत छोटी आंत होती है। बाघ, शेर इनके पास बहुत ही छोटी आंत है, क्योंकि मांस पहले से ही एक पचा हुआ भोजन है। इसे पचाने के लिये लंबी आंत की जरूरत नहीं है। पाचन का काम जानवर द्वारा कर दिया गया है। अब तुम पशु का मांस खा रहे हो। यह पहले से ही पचा हुआ है, लंबी आंत की कोई जरूरत नहीं है। आदमी की आंत सबसे लंबी है: इसका मतलब है कि आदमी शाकाहारी है। एक लंबी पाचनक्रिया की जरूरत है, और वहां बहुत मलमूत्र होगा जिसे बाहर निकालना होगा।

अगर आदमी मांसाहारी नहीं है और वह मांस खाता चला जाता है, तो शरीर पर बोझ पड़ता है। पूरब में, सभी महान ध्यानियों ने, बुद्ध, महावीर, ने इस तथ्य पर बल दिया है। अहिंसा की किसी अवधारणा की वजह से नहीं, वह गौण बात है, पर अगर तुम यथार्थतः गहरे ध्यान में जाना चाहते हो तो तुम्हारे शरीर को हल्का होने की जरूरत है, प्राकृतिक, निर्भार,प्रवाहित। तुम्हारे शरीर को बोझ हटाने की जरूरत है; और एक मांसाहारी का शरीर बहुत बोझिल होता है।

. जरा देखो, क्या होता है जब तुम मांस खाते हो: जब तुम एक पशु को मारते हो, क्या होता है पशु को, जब वह मारा जाता है? बेशक, कोई भी मारा जाना नहीं चाहता। जीवन स्वयं को लंबाना चाहता है, पशु स्वेच्छा से नहीं मर रहा है। अगर कोई तुम्हें मारता है, तुम स्वेच्छा से नहीं मरोगे। अगर एक शेर तुम पर कूदता है और तुमको मारता है, तुम्हारे मन पर क्या बीतेगी? वही होता है जब तुम एक शेर को मारते हो। वेदना, भय, मृत्यु, पीड़ा, चिंता, क्रोध, हिंसा, उदासी ये सब चीजें पशु को होती हैं। उसके पूरे शरीर पर हिंसा, वेदना, पीड़ा फैल जाती है। पूरा शरीर विष से भर जाता है, जहर से। शरीर की सब ग्रंथियां जहर छोड़ती हैं क्योंकि जानवर न चाहते हुए भी मर रहा है। और फिर तुम मांस खाते हो, वह मांस सारा विष वहन करता है जो कि पशु द्वारा छोड़ा गया है। पूरी ऊर्जा जहरीली है। फिर वे जहर तुम्हारे शरीर में चले जाते हैं।

वह मांस जो तुम खा रहे हो एक पशु के शरीर से संबंधित था। उसका वहां एक विशेष उद्देश्य था। चेतना का एक विशिष्ट प्रकार पशु-शरीर में बसता था। तुम जानवरों की चेतना की तुलना में एक उच्च स्तर पर हो, और जब तुम पशु का मांस खाते हो, तुम्हारा शरीर सबसे निम्न स्तर को चला जाता है, जानवर के निचले स्तर को। तब तुम्हारी चेतना और तुम्हारे शरीर के बीच एक अंतर मौजूद होता है, और एक तनाव पैदा होता है और चिंता पैदा होती है।

व्यक्ति को वही चीज़ें खानी चाहिए जो प्राकृतिक हैं, तुम्हारे लिए प्राकृतिक। फल, सब्जियां , मेवे आदि, खाओ जितना ज्यादा तुम खा सको। खूबसूरती यह है कि तुम इन चीजों को जरूरत से अधिक नहीं खा सकते। जो कुछ भी प्राकृतिक है हमेशा तुम्हें संतुष्टि देता है, क्योंकि यह तुम्हारे शरीर को तृप्त करता है, तुम्हें भर देता है। तुम परिपूर्ण महसूस करते हो। अगर कुछ चीज अप्राकृतिक है वह तुम्हें कभी पूर्णता का एहसास नहीं देती। आइसक्रीम खाते जाओ, तुमको कभी नहीं लगता है कि तुम तृप्त हो। वास्तव में जितना अधिक तुम खाते हो, उतना अधिक तुम्हें खाते रहने का मन करता है। यह खाना नहीं है। तुम्हारे मन को धोखा दिया जा रहा है। अब तुम शरीर की जरूरत के हिसाब से नहीं खा रहे हो; तुम केवल इसे स्वाद के लिए खा रहे हो। जीभ नियंत्रक बन गई है।

जीभ नियंत्रक नहीं होनी चाहिए, यह पेट के बारे में कुछ नहीं जानती। यह शरीर के बारे में कुछ भी नहीं जानती। जीभ का एक विशेष उद्देश्य है: खाने का स्वाद लेना। स्वाभाविक रूप से, जीभ को परखना होता है, केवल यही चीज है, कौन सा खाना शरीर के लिए है, मेरे शरीर के लिए और कौन सा खाना मेरे शरीर के लिए नहीं है। यह सिर्फ दरवाजे पर चौकीदार है; यह स्वामी नहीं है, और अगर दरवाजे पर चौकीदार स्वामी बन जाता है, तो सब कुछ अस्तव्यस्त हो जाएगा।

अब विज्ञापनदाता अच्छी तरह जानते हैं कि जीभ को बरगलाया जा सकता है, नाक को बरगलाया जा सकता है। और वे स्वामी नहीं हैं। हो सकता है तुम अवगत नहीं हो: भोजन पर दुनिया में अनुसंधान चलता रहता है, और वे कहते हैं कि अगर तुम्हारी नाक पूरी तरह से बंद कर दी जाए, और तुम्हारी आंखें बंद हों, और फिर तुम्हें खाने के लिए एक प्याज दिया जाए, तुम नहीं बता सकते कि तुम क्या खा रहे हो। तुम सेब और प्याज में अंतर नहीं कर सकते अगर नाक पूरी तरह से बंद हो क्योंकि आधा स्वाद गंध से आता है, नाक द्वारा तय किया जाता है, और आधा जीभ द्वारा तय किया जाता है। ये दोनों नियंत्रक हो गए हैं। अब वे जानते हैं कि : आइसक्रीम पौष्टिक है या नहीं यह बात नहीं है। उसमें स्वाद हो सकता है, उसमें कुछ रसायन हो सकते हैं जो जीभ को परितृप्त भले ही करें मगर शरीर के लिए आवश्यक नहीं होते।

आदमी उलझन में है, भैंसों से भी अधिक उलझन में। तुम भैंसों को आइसक्रीम खाने के लिए राजी नहीं कर सकते। कोशिश करो!

एक प्राकृतिक खाना…और जब मैं प्राकृतिक

कहता हूं, मेरा मतलब है जो कि तुम्हारे शरीर की जरूरत है। एक बाघ की जरूरत अलग है, उसे बहुत ही हिंसक होना होता है। यदि तुम एक बाघ का मांस खाओ तो तुम हिंसक हो जाओगे, लेकिन तुम्हारी हिंसा कहां व्यक्त होगी? तुमको मानव समाज में जीना है, एक जंगल में नहीं। फिर तुमको हिंसा को दबाना होगा। फिर एक दुष्चक्र शुरू होता है।

जब तुम हिंसा को दबाते हो, तब क्या होता है? जब तुम क्रोधित, हिंसक महसूस करते हो, एक तरह की जहरीली ऊर्जा निकलती है, क्योंकि वह जहर एक स्थिति उत्पन्न करता है जहां तुम वास्तव में हिंसक हो सकते हो और किसी को मार सकते हो। वह ऊर्जा तुम्हारे हाथ की ओर बहती है; वह ऊर्जा तुम्हारे दांतों की ओर बहती है। यही वे दो स्थान हैं जहां से जानवर हिंसक होते हैं। आदमी जानवरों के साम्राज्य का हिस्सा है।

जब तुम गुस्सा होते हो, तो ऊर्जा निकलती है और यह हाथ और दांत तक आती है, जबड़े तक आती है, लेकिन तुम मानव समाज में जी रहे हो और क्रोधित होना हमेशा लाभदायक नहीं है। तुम एक सभ्य दुनिया में रहते हो और तुम एक जानवर की तरह बर्ताव नहीं कर सकते। यदि तुम एक जानवर की तरह व्यवहार करते हो, तो तुम्हें इसके लिए बहुत अधिक भुगतान करना पड़ेगा और तुम उतना देने को तैयार नहीं हो। तो फिर तुम क्या करते हो? तुम हाथ में क्रोध को दबा देते हो, तुम दांत में क्रोध को दबा देते हो, तुम एक झूठी मुस्कान चिपका लेते हो और तुम्हारे दांत क्रोध को इकट्ठा करते जाते हैं।

मैंने शायद ही कभी प्राकृतिक जबड़े के साथ लोगों को देखा है। वह प्राकृतिक नहीं होता, अवरुद्ध, कठोर क्योंकि उसमें बहुत ज्यादा गुस्सा है। यदि तुम किसी व्यक्ति के जबड़े को दबाओ, क्रोध निकाला जा सकता है। हाथ बदसूरत हो जाते हैं। वे मनोहरता खो देते हैं, वे लचीलापन खो देते हैं, क्योंकि बहुत अधिक गुस्सा वहां दबा है। जो लोग गहरी मालिश पर काम कर रहे हैं, उन्हें पता चला है कि जब तुम हाथ को गहराई से छूते हो, हाथ की मालिश करते हो, व्यक्ति क्रोधित होना शुरू होता है। कोई कारण नहीं है। तुम आदमी की मालिश कर रहे हो और अचानक वह गुस्से का अनुभव करने लगता है। यदि तुम जबड़े को दबाओ, व्यक्ति फिर गुस्सा हो जाता हैं। वे इकट्ठे किए हुए क्रोध को ढोते हैं। ये शरीर की अशुद्धताएं हैं: उन्हें निकालना ही है। अगर तुम उन्हें नहीं निकालोगे तो शरीर भारी रहेगा।

 

ओशो (The Essence of Yoga)
सितम्बर 5, 2015

‘कृष्ण जन्म’ हम जैसा ही था – ओशो

Krishna1कृष्ण का जन्म होता है अँधेरी रात में, अमावस में। सभी का जन्म अँधेरी रात में होता है और अमावस में होता है। असल में जगत की कोई भी चीज उजाले में नहीं जन्मती, सब कुछ जन्म अँधेरे में ही होता है। एक बीज भी फूटता है तो जमीन के अँधेरे में जन्मता है। फूल खिलते हैं प्रकाश में, जन्म अँधेरे में होता है।

असल में जन्म की प्रक्रिया इतनी रहस्यपूर्ण है कि अँधेरे में ही हो सकती है। आपके भीतर भी जिन चीजों का जन्म होता है, वे सब गहरे अंधकार में, गहन अंधकार में होती है। एक कविता जन्मती है, तो मन के बहुत अचेतन अंधकार में जन्मती है। बहुत अनकांशस डार्कनेस में पैदा होती है। एक चित्र का जन्म होता है, तो मन की बहुत अतल गहराइयों में जहाँ कोई रोशनी नहीं पहुँचती जगत की, वहाँ होता है। समाधि का जन्म होता है, ध्यान का जन्म होता है, तो सब गहन अंधकार में। गहन अंधकार से अर्थ है, जहाँ बुद्धि का प्रकाश जरा भी नहीं पहुँचता। जहाँ सोच-समझ में कुछ भी नहीं आता, हाथ को हाथ नहीं सूझता है।

कृष्ण का जन्म जिस रात में हुआ, कहानी कहती है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था, इतना गहन अंधकार था। लेकिन इसमें विशेषता खोजने की जरूरत नहीं है। यह जन्म की सामान्य प्रक्रिया है।

दूसरी बात कृष्ण के जन्म के साथ जुड़ी है- बंधन में जन्म होता है, कारागृह में। किसका जन्म है जो बंधन और कारागृह में नहीं होता है? हम सभी कारागृह में जन्मते हैं। हो सकता है कि मरते वक्त तक हम कारागृह से मुक्त हो जाएँ, जरूरी नहीं है हो सकता है कि हम मरें भी कारागृह में। जन्म एक बंधन में लाता है, सीमा में लाता है। शरीर में आना ही बड़े बंधन में आ जाना है, बड़े कारागृह में आ जाना है। जब भी कोई आत्मा जन्म लेती है तो कारागृह में ही जन्म लेती है।

लेकिन इस प्रतीक को ठीक से नहीं समझा गया। इस बहुत काव्यात्मक बात को ऐतिहासिक घटना समझकर बड़ी भूल हो गई। सभी जन्म कारागृह में होते हैं। सभी मृत्युएँ कारागृह में नहीं होती हैं। कुछ मृत्युएँ मुक्ति में होती है। कुछ अधिक कारागृह में होती हैं। जन्म तो बंधन में होगा, मरते क्षण तक अगर हम बंधन से छूट जाएँ, टूट जाएँ सारे कारागृह, तो जीवन की यात्रा सफल हो गई।

कृष्ण के जन्म के साथ एक और तीसरी बात जुड़ी है और वह यह है कि जन्म के साथ ही उन्हें मारे जाने की धमकी है। किसको नहीं है? जन्म के साथ ही मरने की घटना संभावी हो जाती है। जन्म के बाद – एक पल बाद भी मृत्यु घटित हो सकती है। जन्म के बाद प्रतिपल मृत्यु संभावी है। किसी भी क्षण मौत घट सकती है। मौत के लिए एक ही शर्त जरूरी है, वह जन्म है। और कोई शर्त जरूरी नहीं है। जन्म के बाद एक पल जीया हुआ बालक भी मरने के लिए उतना ही योग्य हो जाता है, जितना सत्तर साल जीया हुआ आदमी होता है। मरने के लिए और कोई योग्यता नहीं चाहिए, जन्म भर चाहिए।

लेकिन कृष्ण के जन्म के साथ एक चौथी बात भी जुड़ी है कि मरने की बहुत तरह की घटनाएँ आती हैं, लेकिन वे सबसे बचकर निकल जाते हैं। जो भी उन्हें मारने आता है, वही मर जाता है। कहें कि मौत ही उनके लिए मर जाती है। मौत सब उपाय करती है और बेकार हो जाती है। कृष्ण ऐसी जिंदगी हैं, जिस दरवाजे पर मौत बहुत रूपों में आती है और हारकर लौट जाती है।

वे सब रूपों की कथाएँ हमें पता हैं कि कितने रूपों में मौत घेरती है और हार जाती है। लेकिन कभी हमें खयाल नहीं आया कि इन कथाओं को हम गहरे में समझने की कोशिश करें। सत्य सिर्फ उन कथाओं में एक है, और वह यह है कि कृष्ण जीवन की तरफ रोज जीतते चले जाते हैं और मौत रोज हारती चली जाती है।

मौत की धमकी एक दिन समाप्त हो जाती है। जिन-जिन ने चाहा है, जिस-जिस ढंग से चाहा है कृष्ण मर जाएँ, वे-वे ढंग असफल हो जाते हैं और कृष्ण जीए ही चले जाते हैं। लेकिन ये बातें इतनी सीधी, जैसा मैं कह रहा हूँ, कही नहीं गई हैं। इतने सीधे कहने का पुराने आदमी के पास कोई उपाय नहीं था। इसे भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है।

जितना पुरानी दुनिया में हम वापस लौटेंगे, उतना ही चिंतन का जो ढंग है, वह पिक्टोरियल होता है, चित्रात्मक होता है, शब्दात्मक नहीं होता। अभी भी रात आप सपना देखते हैं, कभी आपने खयाल किया कि सपनों में शब्दों का उपयोग करते हैं कि चित्रों का?

सपने में शब्दों का उपयोग नहीं होता, चित्रों का उपयोग होता है। क्योंकि सपने हमारे आदिम भाषा हैं, प्रिमिटिव लैंग्वेज हैं। सपने के मामले में हममें और आज से दस हजार साल पहले के आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। सपने अभी भी पुराने हैं, प्रिमिटिव हैं, अभी भी सपना आधुनिक नहीं हो पाया। अभी भी सपने तो वही हैं जो दस हजार साल, दस साल पुराने थे। गुहा-मानव ने एक गुफा में सोकर रात में जो सपने देखे होंगे, वही एयरकंडीशंड मकान में भी देखे जाते हैं। उससे कोई और फर्क नहीं पड़ा है। सपने की खूबी है कि उसकी सारी अभिव्यक्ति चित्रों में है।

जितना पुरानी दुनिया में हम लौटेंगे- और कृष्ण बहुत पुराने हैं, इन अर्थों में पुराने हैं कि आदमी जब चिंतन शुरू कर रहा है, आदमी जब सोच रहा है जगत और जीवन के बाबत, अभी जब शब्द नहीं बने हैं और जब प्रतीकों में और चित्रों में सारा का सारा कहा जाता है और समझा जाता है, तब कृष्ण के जीवन की घटनाएँ लिखी गई हैं। उन घटनाओं को डीकोड करना पड़ता है। उन घटनाओं को चित्रों से तोड़कर शब्दों में लाना पड़ता है। और कृष्ण शब्द को भी थोड़ा समझना जरूरी है।

कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है, जो आकृष्ट करे, जो आकर्षित करे; सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन, कशिश का केंद्र। कृष्ण शब्द का अर्थ होता है जिस पर सारी चीजें खिंचती हों। जो केंद्रीय चुंबक का काम करे। प्रत्येक व्यक्ति का जन्म एक अर्थ में कृष्ण का जन्म है, क्योंकि हमारे भीतर जो आत्मा है, वह कशिश का केंद्र है। वह सेंटर ऑफ ग्रेविटेशन है जिस पर सब चीजें खिँचती हैं और आकृष्ट होती हैं।

शरीर खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, परिवार खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, समाज खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है, जगत खिँचकर उसके आसपास निर्मित होता है। वह जो हमारे भीतर कृष्ण का केंद्र है, आकर्षण का जो गहरा बिंदु है, उसके आसपास सब घटित होता है। तो जब भी कोई व्यक्ति जन्मता है, तो एक अर्थ में कृष्ण ही जन्मता है वह जो बिंदु है आत्मा का, आकर्षण का, वह जन्मता है, और उसके बाद सब चीजें उसके आसपास निर्मित होनी शुरू होती हैं। उस कृष्ण बिंदु के आसपास क्रिस्टलाइजेशन शुरू होता है और व्यक्तित्व निर्मित होता है। इसलिए कृष्ण का जन्म एक व्यक्ति विशेष का जन्म मात्र नहीं है, बल्कि व्यक्ति मात्र का जन्म है।

कृष्ण जैसा व्यक्ति जब हमें उपलब्ध हो गया तो हमने कृष्ण के व्यक्तित्व के साथ वह सब समाहित कर दिया है जो प्रत्येक आत्मा के जन्म के साथ समाहित है। महापुरुषों की जिंदगी कभी भी ऐतिहासिक नहीं हो पाती है, सदा काव्यात्मक हो जाती है। पीछे लौटकर निर्मित होती है।

पीछे लौटकर जब हम देखते हैं तो हर चीज प्रतीक हो जाती है और दूसरे अर्थ ले लेती है। जो अर्थ घटते हुए क्षण में कभी भी न रहे होंगे। और फिर कृष्ण जैसे व्यक्तियों की जिंदगी एक बार नहीं लिखी जाती, हर सदी बार-बार लिखती है।

हजारों लोग लिखते हैं। जब हजारों लोग लिखते हैं तो हजार व्याख्याएँ होती चली जाती हैं। फिर धीरे-धीरे कृष्ण की जिंदगी किसी व्यक्ति की जिंदगी नहीं रह जाती। कृष्ण एक संस्था हो जाते हैं, एक इंस्टीट्यूट हो जाते हैं। फिर वे समस्त जन्मों का सारभूत हो जाते हैं। फिर मनुष्य मात्र के जन्म की कथा उनके जन्म की कथा हो जाती है। इसलिए व्यक्तिवाची अर्थों में मैं कोई मूल्य नहीं मानता हूँ। कृष्ण जैसे व्यक्ति व्यक्ति रह ही नहीं जाते। वे हमारे मानस के, हमारे चित्त के, हमारे कलेक्टिव माइंड के प्रतीक हो जाते हैं। और हमारे चित्त ने जितने भी जन्म देखे हैं, वे सब उनमें समाहित हो जाते हैं।

ओशो (कृष्ण स्मृति)