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अगस्त 16, 2016

प्रेम है सौंदर्य, वासना ही कुरूपता है!… ओशो

Oshoप्रश्न – किसी सुंदर युवती को देखकर जाने क्यों मन उसकी ओर आकर्षित हो जाता है, आंखें उसे निहारने लगती हैं! मेरी उम्र पचास हो गई है, फिर भी ऐसा क्यों होता है? क्या यह वासना है, या प्रेम, या सुंदरता की स्तुति? कृपया मेरा मार्ग-निर्देश करें।

ओशो

ऐसा होता है निरंतर; क्योंकि जब दिन थे तब दबा लिया। तो रोग बार-बार उभरेगा। जब जवान थे, तब ऐसी किताबें पढ़ते रहे जिनमें लिखा है: ब्रह्मचर्य ही जीवन है। तब दबा लिया।
जवानी के साथ एक खूबी है कि जवानी के पास ताकत है–दबाने की भी ताकत है। वही ताकत भोग बनती है, वही ताकत दमन बन जाती है। लेकिन जवान दबा सकता है।
मेरे अनुभव में अकसर ऐसी घटना घटती रही है, लोग आते रहे हैं, कि चालीस और पैंतालीस साल के बाद बड़ी मुश्किल खड़ी होती है, जिन्होंने भी दबाया। क्योंकि चालीस-पैंतालीस साल के बाद, वह ऊर्जा जो दबाने की थी वह भी क्षीण हो जाती है। तो वह जो दबाई गई वासनाएं थीं, वे उभरकर आती हैं। और जब बे-समय आती हैं तो और भी बेहूदी हो जाती हैं।
जवान स्त्रियों के पीछे भागता फिरे, कुछ भी गलत नहीं है; स्वाभाविक है; होना था, वही हो रहा है। बच्चे तितलियों के पीछे दौड़ते फिरें, ठीक है। बूढ़े दौड़ने लगें–तो फिर जरा रोग मालूम होता है। लेकिन रोग तुम्हारे कारण नहीं है, तुम्हारे तथाकथित साधुओं के कारण है–जिनने तुम्हें जीवन को सरलता से जीने की सुविधा नहीं दी है। बचपन से ही जहर डाला गया है: कामवासना पाप है! तो कामवासना को कभी पूरे प्रफुल्ल मन से स्वीकार नहीं किया। भोगा भी, तो भी अपने को खींचे रखा। भोगा भी, तो कलुषित मन से, अपराधी भाव से; यह मन में बना ही रहा कि पाप कर रहे हैं। संभोग में भी उतरे तो जानकर कि नर्क का इंतजाम कर रहे हैं।
अब तुम सोचो, जब तुम संभोग में उतरोगे और नर्क का भाव बना रहेगा, क्या खाक उतरोगे? संभोग की सुरभि तुम्हें क्या घेरेगी? वह नृत्य पैदा न हो पायेगा। तो तुम बिना उतरे वापिस लौट आओगे। शरीर के तल पर संभोग हो जायेगा; मन के तल पर वासना अधूरी अतृप्त रह जायेगी। मन के तल पर दौड़ जारी रहेगी। तो जब बूढ़े होने लगोगे और शरीर कमजोर होने लगेगा और शरीर की दबाने की पुरानी शक्ति क्षीण होने लगेगी और मौत दस्तक देने लगेगी दरवाजे पर और लगेगा कि अब गये, अब गये–तब ऐसा लगेगा, यह तो बड़ा गड़बड़ हुआ; भोग भी न पाये और चले! डोली तो उठी नहीं, अर्थी सज गई! तो मन बड़े वेग से स्त्रियों की तरफ दौड़ेगा, पुरुषों की तरफ दौड़ेगा।
यह तथाकथित समाज के द्वारा पैदा की गई रुग्ण अवस्था है। बच्चे को उसके बचपन को पूरा जीने दो, ताकि जब वह जवान हो जाये तो बचपन की रेखा भी न रह जाये; ताकि वह पूरा-पूरा जवान हो सके। जवान को पूरा जीने दो, उसे अपने अनुभव से ही जागने दो; ताकि जवानी के जाते-जाते वह जो जवानी की दौड़-धूप थी, आपाधापी थी, मन का जो रोग था, वह भी चला जाये; ताकि बूढ़ा शुद्ध बूढ़ा हो सके। और जब कोई बूढ़ा शुद्ध बूढ़ा होता है तो उससे सुंदर कोई अवस्था नहीं है। लेकिन जब बूढ़े में जवान घुसा होता है, तब एक भूत तुम्हारा पीछा कर रहा है। तब तुम एक प्रेतात्मा के वश में हो। तब तुम्हें बड़ा भटकायेगा। तब तुम्हें बड़ा बेचैन करेगा। और जैसे-जैसे शरीर अशक्त होता जायेगा वैसे-वैसे तुम पाओगे, वेग वासना का बढ़ने लगा।
एक स्त्री के संबंध में मैंने सुना है। वह चालीस से ऊपर की हो चुकी थी। मोटी हो गई थी, बेहूदी हो गई थी, कुरूप हो गई थी। फिर भी बनती बहुत थी। दावत में पास बैठा युवक उसकी बातों से उकता गया था और भाग निकलने के लिए बोला, “क्या आपको वह बच्चा याद है जो स्कूल में आपको बहुत तंग करता था…?’ उसका हाथ पकड़कर स्त्री ने कहा, “अच्छा, तो वह तुम थे?’
उसने कहा, “नहीं, जी नहीं, मैं नहीं। वे मेरे पिताजी थे।’
एक उम्र है तब चीजें शुभ मालूम होती हैं। एक उम्र है तब चीजों को जीना जरूरी है। उसे अगर न जी पाये तो पीछा चीजें करेंगी। और तब चीजें बड़ी वीभत्स हो जाती हैं।
एक सिनेमा-गृह में ऐसा घटा। एक महिला पास में बैठे एक बदतमीज बूढ़े से तंग आ गई थी, जो आधे घंटे से सिनेमा देखने की बजाय उसे ही घूरे जा रहा था।
आखिर उसने फुसफुसाकर उस आदमी से कहा, “सुनिए, आप अपना एक फोटो मुझे देंगे?’
आदमी बाग-बाग हो गया: “जरूर जरूर! एक तो मेरी जेब में ही है। लीजिए! हां, क्या कीजिएगा मेरे फोटो का?’
उसने कहा, “अपने बच्चों को डराऊंगी।’
सावधान रहना। वही जो एक समय में शुभ है, दूसरे समय में अशुभ हो जाता है। वही जो एक समय में ठीक था, सम्यक था, स्वभाव के अनुकूल था, वही दूसरे समय में अरुचिपूर्ण हो जाता है, बेहूदा हो जाता है।
जिन मित्र ने पूछा है, उनको थोड?ा जागकर अपने मन में पड़ी हुई, दबी हुई वासनाओं का अंतर्दर्शन करना होगा। अब मत दबाओ! कम से कम अब मत दबाओ! अभी तक दबाया और, उसका यह दुष्फल है। अब इस पर ध्यान करो। क्योंकि अब उम्र भी नहीं रही कि तुम स्त्रियों के पीछे दौड़ो या मैं तुमसे कहूं कि उनके पीछे दौड़ो। वह बात जंचेगी नहीं। वे तुमसे फोटो मांगने लगेंगी। अब जो जीवन में नहीं हो सका, उसे ध्यान में घटाओ।
अब एक घंटा रोज आंख बंद करके, कल्पना को खुली छूट दो। कल्पना को पूरी खुली छूट दो। वह किन्हीं पापों में ले जाये, जाने दो। तुम रोको मत। तुम साक्षी-भाव से उसे देखो कि यह मन जो-जो कर रहा है, मैं देखूं। जो शरीर के द्वारा नहीं कर पाये, वह मन के द्वारा पूरा हो जाने दो। तुम जल्दी ही पाओगे कुछ दिन के…एक घंटा नियम से कामवासना पर अभ्यास करो, कामवासना के लिए एक घंटा ध्यान में लगा दो, आंख बंद कर लो और जो-जो तुम्हारे मन में कल्पनाएं उठती हैं, सपने उठते हैं, जिनको तुम दबाते होओगे निश्चित ही–उनको प्रगट होने दो! घबड़ाओ मत, क्योंकि तुम अकेले हो। किसी के साथ कोई तुम पाप कर भी नहीं रहे। किसी को तुम कोई चोट पहुंचा भी नहीं रहे। किसी के साथ तुम कोई अभद्र व्यवहार भी नहीं कर रहे कि किसी स्त्री को घूरकर देख रहे हो। तुम अपनी कल्पना को ही घूर रहे हो। लेकिन पूरी तरह घूरो। और उसमें कंजूसी मत करना।
मन बहुत बार कहेगा कि “अरे, इस उम्र में यह क्या कर रहे हो!’ मन बहुत बार कहेगा कि यह तो पाप है। मन बहुत बार कहेगा कि शांत हो जाओ, कहां के विचारों में पड़े हो!
मगर इस मन की मत सुनना। कहना कि एक घंटा तो दिया है इसी ध्यान के लिए, इस पर ही ध्यान करेंगे। और एक घंटा जितनी स्त्रियों को, जितनी सुंदर स्त्रियों को, जितना सुंदर बना सको बना लेना। इस एक घंटा जितना इस कल्पना-भोग में डूब सको, डूब जाना। और साथ-साथ पीछे खड़े देखते रहना कि मन क्या-क्या कर रहा है। बिना रोके, बिना निर्णय किये कि पाप है कि अपराध है। कुछ फिक्र मत करना। तो जल्दी ही तीन-चार महीने के निरंतर प्रयोग के बाद हलके हो जाओगे। वह मन से धुआं निकल जायेगा।
तब तुम अचानक पाओगे: बाहर स्त्रियां हैं, लेकिन तुम्हारे मन में देखने की कोई आकांक्षा नहीं रह गई। और जब तुम्हारे मन में किसी को देखने की आकांक्षा नहीं रह जाती, तब लोगों का सौंदर्य प्रगट होता है। वासना तो अंधा कर देती है, सौंदर्य को देखने कहां देती है! वासना ने कभी सौंदर्य जाना? वासना ने तो अपने ही सपने फैलाये।
और वासना दुष्पूर है; उसका कोई अंत नहीं है। वह बढ़ती ही चली जाती है।
एक बहुत मोटा आदमी दर्जी की दुकान पर पहुंचा। दर्जी ने अचकन के लिए बड़ी कठिनाई से उसका नाप लिया। फिर एक सौ रुपये की सिलाई मांगी। वे महाशय बोले, “टेलीफोन पर तो तुमने पच्चीस रुपये सिलाई कही थी, अब सौ रुपये? हद्द हो गई! बेईमानी की भी कोई सीमा है!’
दर्जी ने कहा, “महाराज! वह अचकन की सिलाई थी, यह शामियाने की है।’
अचकनें शामियाने बन जाती हैं। वासना फैलती ही चली जाती है। तंबू बड़े से बड़ा होता चला जाता है। अचकन तक ठीक था, लेकिन जब शामियाना ढोना पड़े चारों तरफ तो कठिनाई होती है।
मैं अड़चन समझता हूं। लेकिन अड़चन का तुम मूल कारण खयाल में ले लेना: तुमने दबाया है। तुमने दमन किया है। तुम गलत शिक्षा और गलत संस्कारों के द्वारा अभिशापित हुए हो। तुमने जिन्हें साधु-महात्मा समझा है, तुमने जिनकी बातों को पकड़ा है–न वे जानते हैं, न उन्होंने तुम्हें जानने दिया है।
मेरे पास साधु संन्यासी आते हैं तो कहते हैं, “एकांत में आपसे कुछ कहना है।’ मैं कहता हूं, सभी के सामने कह दो; एकांत की क्या जरूरत है? वे कहते हैं कि नहीं, एकांत में। अब तो मैंने एकांत में मिलना बंद कर दिया है। क्योंकि एकांत में…जब भी साधु-संन्यासी आयें तो वे एकांत ही मांगते हैं। और एकांत में एक ही प्रश्न है उनका कि यह कामवासना से कैसे छुटकारा हो! कोई सत्तर साल का हो गया है, कोई चालीस साल से मुनि है–तो तुम क्या करते रहे चालीस साल? कहते हैं, क्या बतायें, जो-जो शास्त्र में कहा है, जो-जो सुना है–वह करते रहे हैं। उससे तो हालत और बिगड़ती चली गई है।
मवाद को दबाया है, निकालना था। घाव पर तुमने ऊपर से मलहम-पट्टी की है; आपरेशन की जरूरत थी। तो जिस मवाद को तुमने भीतर छिपा लिया है, वह अब तुम्हारी रग-रग में फैल गई है; अब तुम्हारा पूरा शरीर मवाद से भर गया है।
तो थोड़ी सावधानी बरतनी पड़ेगी। आपरेशन से गुजरना होगा। और तुम्हीं कर सकते हो वह आपरेशन; कोई और कर नहीं सकता। तुम्हारा ध्यान ही तुम्हारी शल्यक्रिया होगी। तब एक घंटा रोज…। तुम चकित होओगे, अगर तुमने एक-दो महीने भी इस प्रक्रिया को बिना किसी विरोध के भीतर उठाये, बिना अपराध भाव के निश्चिंत मन से किया, तो तुम अचानक पाओगे: धुएं की तरह कुछ बातें खो गईं! महीने दो महीने के बाद तुम पाओगे: तुम बैठे रहते हो, घड़ी बीत जाती है, कोई कल्पना नहीं आती, कोई वासना नहीं उठती। तब तुम अचानक पाओगे: अब तुम चलते हो बाहर, तुम्हारी आंखों का रंग और! अब तुम्हें सौंदर्य दिखाई पड़ेगा! क्योंकि सब सौंदर्य परमात्मा का सौंदर्य है। स्त्री का, पुरुष का कोई सौंदर्य होता है? फूल का, पत्ती का, कोई सौंदर्य होता है? सौंदर्य कहीं से भी प्रगट हो; सौंदर्य परमात्मा का है, सौंदर्य सत्य का है। लेकिन सौंदर्य को देख ही वही पाता है, जिसने वासना को अपनी आंख से हटाया। वासना का पर्दा आंख पर पड़ा रहे, तुम सौंदर्य थोड़े ही देखते हो! सौंदर्य तुम देख ही नहीं सकते।
वासना कुरूप कर जाती है सभी चीजों को। इसलिए तुमने जिसको भी वासना से देखा, वही तुम पर नाराज हो जाता है। कभी तुमने खयाल किया? किसी स्त्री को तुम वासना से देखो, वही बेचैन हो जाती है। किसी पुरुष को वासना से देखो, वही थोड़ा उद्विग्न हो जाता है। क्योंकि जिसको भी तुम वासना से देखते हो, उसका अर्थ ही क्या हुआ? उसका अर्थ हुआ कि तुमने उस आदमी या उस स्त्री को कुरूप करना चाहा। जब भी तुम किसी को वासना से देखते हो, उसका अर्थ हुआ कि तुमने किसी का साधन की तरह उपयोग करना चाहा; तुम किसी को भोगना चाहते हो। और प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं है। तुम किसी को चूसना चाहते हो? तुम किसी को अपने हित में उपयोग करना चाहते हो? तुम किसी के व्यक्तित्व को वस्तु की तरह पद-दलित करना चाहते हो?
वस्तुओं का उपयोग होता है, व्यक्तियों का नहीं। लेकिन जब तुम वासना से किसी को देखते हो, व्यक्ति खो जाता है, वस्तु हो जाती है। इसलिए वासना की आंख को कोई पसंद नहीं करता। जब वासना खो जाती है तो सौंदर्य का अनुभव होता है। और जब सौंदर्य का अनुभव होता है, तो तुम्हारे भीतर प्रेम का आविर्भाव होता है।
प्रेम उस घड़ी का नाम है, जब तुम्हें सब जगह परमात्मा और उसका सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। तब तुम्हारे भीतर जो ऊर्जा उठती है, जो अहर्निश गीत उठता है–वही प्रेम है। अभी तो तुमने जिसे प्रेम कहा है, उसका प्रेम से कोई दूर का भी संबंध नहीं है। वह प्रेम की प्रतिध्वनि भी नहीं है। वह प्रेम की प्रतिछाया भी नहीं है। वह प्रेम का विकृत रूप भी नहीं है। वह प्रेम से बिलकुल उलटा है।
इसलिए तो तुम्हारे प्रेम को घृणा बनने में देर कहां लगती है! अभी प्रेम था, अभी घृणा हो गई। एक क्षण पहले जो मित्र था, क्षणभर बाद दुश्मन हो गया। क्षणभर पहले जिसके लिए मरते थे, क्षणभर बाद उसको मारने को तैयार हो गये।
तुम्हारा प्रेम प्रेम है? घृणा का ही बदला हुआ रूप मालूम पड़ता है। प्रेम सिर्फ तुम्हारी बातचीत है। प्रेम तो उनका अनुभव है जिनकी आंख से वासना गिर गई; जिन्हें सौंदर्य दिखाई पड़ा; जिसे सब तरफ उसके नृत्य का अनुभव हुआ; जिसे सब तरफ परमात्मा की पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी। फिर प्रेम का आविर्भाव होता है। प्रेम यानी प्रार्थना। प्रेम यानी पूजा। प्रेम यानी अहोभाव, धन्यता, कृतज्ञता।
नहीं, अभी तुम्हें प्रेम का अनुभव नहीं हुआ। अभी तो तुमने वासना को भी नहीं जाना, प्रार्थना को तुम जानोगे कैसे? वासना को जानो, ताकि वासना से मुक्त हो जाओ। जब मैं निरंतर तुमसे कहता हूं, वासना को जानो, तो मैं यही कह रहा हूं कि वासना से मुक्त होने का एक ही उपाय है: उसे जान लो। जिसे हम जान लेते हैं, उसी से मुक्ति हो जाती है।
सत्य बड़ा क्रांतिकारी है। जान लेने के अतिरिक्त और कोई रूपांतरण नहीं है।
आज इतना ही।

ओशो – जिनसूत्र-(भाग–1)

फ़रवरी 26, 2015

ओशो : मदर टेरेसा और उनके कार्यों का विश्लेषण

Osho kidमदर टेरेसा को नोबल पुरस्कार मिलने पर ओशो ने मदर टेरेसा के कार्यों का विश्लेषण किया था, जिससे मदर टेरेसा और उनके समर्थक नाराज हो गये थे| मदर ने दिसम्बर 1980 के दिसंबर माह के अंत में ओशो को पत्र लिखा| उस पर ओशो का प्रवचन :-

राजनेता और पादरी हमेशा से मनुष्यों को बांटने की साजिश करते आए हैं| राजनेता बाह्य जगत पर राज जमाने की कोशिश करता है और पादरी मनुष्य के अंदुरनी जगत पर|   इन् दोनों ने मानवता के खिलाफ गहरी साजिशें मिलकर की हैं| कई बार तो अपने अंजाने ही इन् लोगों ने ऐसे कार्य किये हैं| इन्हे खुद नहीं पता होता ये क्या कर रहे हैं| कई बार इनकी नियत नहीं होती गलत करने की पर चेतना से रहित उनके दिमाग क्या सुझा सकते हैं?

अभी हाल में मदर टेरेसा ने मुझे एक पत्र लिख भेजा| मुझे उनके पत्र की गंभीरता पर कुछ नहीं कहना,  उन्होंने निष्ठा से भरे शब्दों से पत्र लिखा है, पर यह चेतना रहित दिमाग की उपज है| उन्हें स्वयं नहीं ज्ञात है कि वे क्या लिख रही हैं| उनका लिखना यांत्रिक है, जैसे रोबोट ने लिख दिया हो|

वे लिखती हैं,” मुझे अभी आपके भाषण की कटिंग मिली| मुझे आपके लिए बेहद खेद हुआ कि आप ने ऐसा कहा (सन्दर्भ – नोबल पुरस्कार)| आपने मेरे नाम के साथ जो विशेषण इस्तेमाल किये उनके लिए मैं पूरे प्रेम से आपको क्षमा करती हूँ|”

वे मेरे प्रति खेद महसूस कर रही हैं…मुझे उनका पत्र पढकर आनंद आया! उन्होंने मेरे दवारा उपयोग में लाये गये विशेषणों को समझा ही नहीं| लेकिन वे चेतन नहीं हैं वरना वे अपने प्रति खेद महसूस करतीं मेरे प्रति नहीं|

उन्होंने मेरे भाषण की कटिंग भी अपने पत्र के साथ भेजी है मैंने जो विशेषण इस्तेमाल किये थे, वे थे –  धोखेबाज ( deceiver), कपटी (charlatan) और पाखंडी या ढोंगी (hypocrite)….

मैंने उनकी आलोचना की थी और कहा था कि उन्हें नोबल पुरस्कार नहीं दिया जाना चाहिए था| और इस बात को उन्होंने अन्यथा ले लिया| अपने पत्र में वे लिखती हैं “सन्दर्भ : नोबल पुरस्कार”|

यह आदमी, नोबल, दुनिया के सबसे बड़े अपराधियों में से एक था| पहला विश्वयुद्ध उसके हथियारों से लड़ा गया था, वह हथियारों का बहुत बड़ा निर्माता था…

मदर टेरेसा नोबल पुरस्कार को मना नहीं कर सकीं| प्रशंसा पाने की चाह, सारे विश्व में सम्मान पाने की चाह, नोबल पुरस्कार तुम्हे सम्मान दिलवाता है, सो उन्होंने पुरस्कार सहर्ष स्वीकार किया…

इसलिए मैंने मदर टेरेसा जैसे व्यक्तियों को धोखेबाज (deceivers) कहा| वे जानबूझ धोखा नहीं देते, निश्चित ही उनकी नियत धोखा देने की नहीं है, लेकिन यह बात महत्वपूर्ण नहीं है, अंतिम परिणाम स्पष्ट है| ऐसे लोग समाज में लुब्रीकेंट का कार्य करते हैं ताकि समाज के पहिये, शोषण का पहिया, अत्याचार का पहिया यूँ ही आसानी से घूमता रहे| ये लोग न केवल दूसरों को बल्कि खुद को भी धोखा दे रहे हैं|

और मैं ऐसे लोगों को कपटी (charlatans) भी कहता हूँ, क्योंकि एक सच्चा धार्मिक आदमी, जीसस जैसा आदमी, नोबल पुरस्कार पायेगा?  असंभव है यह! क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि सुकरात को नोबल पुरस्कार दिया जाए, या कि अल-हिलाज मंसूर को इस पुरस्कार से नवाजे सत्ता? अगर जीसस को नोबल नहीं मिल सकता, और सुकरात को नोबल नहीं मिल सकता, और ये लोग सच्चे धार्मिक, चेतन मनुष्य हैं, तब मदर टेरेसा कौन हैं? …

सच्चा धार्मिक व्यक्ति विद्रोही होता है, समाज उसकी आलोचना करता है, निंदा करता है|जीसस को समाज ने अपराधी करार दिया और मदर टेरेसा को संत कह रहा है| यह बात विचारणीय है, अगर मदर टेरेसा सही हैं तो जीसस अपराधी हैं और अगर जीसस सही हैं तो मदर टेरेसा एक कपटी मात्र हैं उससे ज्यादा कुछ नहीं| कपटी लोगों को समाज बहुत सराहता है क्योंकि ये लोग समाज के लिए सहायक सिद्ध होते हैं, समाज की जैसी भ्रष्ट व्यवस्था चली आ रहे एहोती है उसे वैसे ही चलने देने में ये लोग बड़ी भूमिका निभाते हैं|

Mother Teresa मैंने जो भी विशेषण इस्तेमाल किये वे सोच समझ कर इस्तेमाल किये| मैंने बिना विचारे कोई शब्द इस्तेमाल नहीं करता| और मैंने पाखंडी या ढोंगी (hypocrites) शब्द का इस्तेमाल किया| ऐसे लोग पाखंडी हैं क्योंकि इनकी आधारभूत जीवन शैली बंटी हुयी है, सतह पर एक रूप और अंदर कुछ और रूप|

वे लिखती हैं,” ‘प्रोटेस्टेंट परिवार को बच्चा गोद लेने से इसलिए नहीं रोका गया था कि वे प्रोटेस्टेंट थे बल्कि इसलिए कि उस समय हमारे पास कोई बच्चा नहीं था जो हम उन्हें गोद दे सकते थे”|

अब उन्हें नोबल पुरस्कार इसलिए दिया गया है कि वे हजारों अनाथों की सहायता करती हैं और उनकी संस्था में हजारों अनाथालय हैं| अचानक उनके अनाथालय में एक भी बच्चा उपलब्ध नहीं रहता? और भारत में कभी ऐसा हो सकता है कि अनाथ बच्चों का अकाल पड़ जाए? भारतीय तो जितने चाहो उतने अनाथ बच्चे जन्मा सकते हैं बल्कि जितने तुम चाहो उससे भी कहीं ज्यादा!

और उस प्रोटेस्टेंट परिवार को एकदम से इंकार नहीं किया गया था| यदि एक भी अनाथ बच्चा उपलब्ध नहीं था और उनके सारे अनाथालय खाली हो गये थे तो मदर टेरेसा सात सौ ननों का क्या कर रही हैं? इन ननों का काम क्या है? सात सौ ननें? वे किसकी माताओं की भूमिका निभा रही हैं? एक भी अनाथ बच्चा नहीं – अजीब बात है! – और वो भी कलकत्ता में!  सड़क पर कहीं भी तुम्हे अनाथ बच्चे दिखाई दे जायेंगे – तुम्हे कूड़ेदान तक में बच्चे मिल सकते हैं| उन्हें सिर्फ बाहर देखने की जरुरत थी और उन्हें बहुत से अनाथ बच्चे मिल जाते| तुम आश्रम से बाहर जाकर देखना, अनाथ बच्चे मिल जायेंगें| तुम्हे खोजने की भी जरुरत नहीं, वे अपने आप आ जायेंगें!

अचानक उनके अनाथालय में अनाथ बच्चे नहीं मिलते|… और अगर उस परिवार को एकदम से इंकार किया जाता तब भी बात अलग हो जाती| लेकिन परिवार को एकदम से इंकार नहीं किया गया था, उनसे कहा गया था,”हाँ, आपको बच्चा मिल सकता है, आवेदन पत्र भर दीजिए”|  आवेदन पत्र भरा गया था| जब तक कि परिवार ने अपने सम्प्रदाय का नाम जाहिर नहीं किया था तब तक उनके लिए बच्चा उपलब्ध था पर जैसे ही उन्होने आवेदन पत्र में लिखा कि वे प्रोटेस्टेंट चर्च को माने वाले मत के हैं, अचानक से मदर टेरेसा की संस्था के अनाथालयों में अनाथ बच्चों की किल्लत हो गयी, बल्कि अनुपस्थिति हो गयी|

और असली कारण प्रोटेस्टेंट परिवार को बताया पर कैसे? अब यही पाखण्ड है! यही धोखेबाजी है| यह गन्दगी से भरा है|  कारण भी उन्हें इसलिए बताना पड़ता है क्योंकि बच्चे वहाँ थे अनाथालयों में| कैसे कहते कि अनाथ बच्चे नहीं हैं? उनकी तो हरदम प्रदर्शनी लगी रहती है वहाँ|

उन्होंने मुझे भी आमंत्रित किया है: आप किसी भी समय आ सकते हैं और आपका स्वागत है हमारे अनाथालय और हमारी संस्था देखने आने के लिए| उनका सदैव ही प्रदर्शन किया जाता है|

बल्कि, उस प्रोटेस्टेंट परिवार ने पहले ही एक अनाथ बच्चे का चुनाव कर लिया था| अतः वे कह नहीं पायीं ,” हमें खेद है, बच्चे नहीं हैं अनाथालय में”|

उन्होंने परिवार से कहा.” इन अनाथ बच्चों को रोमन कैथोलिक चर्च के रीति रिवाजों और विधि विधान के मुताबिक़ पाला पोसा गया है, और इनके मनोवैज्ञानिक विकास के लिए यह बहुत बुरा होगा अगर उन्हें इस परम्परा से अलग हटाया गया| आपको उन्हें गोद देने का असर उन पर यह पड़ेगा कि उनके विकास की गति  छिन्न भिन्न हो जायेगी| हम उन्हें आपको गोद नहीं दे सकते क्योंकि आप प्रोटेस्टेंट हैं|”

वही असली कारण था| और बच्चा गोद लेने का इच्छुक परिवार कोई मूर्ख नहीं था| पति यूरोपियन यूनिवर्सिटी में प्रोफसर है – और वह स्तब्ध रह गया, उसकी पत्नी स्तब्ध रह गयी| वे इतनी दूर से बच्चा गोद लेने आए थे पर उन्हें इंकार कर दिया गया क्योंकि वे प्रोटेस्टेंट थे| यदि उन्होंने आवेदन पत्र में ‘कैथोलिक’ लिखा होता तो उन्हें तुरंत बच्चा मिल जाता| परिवार

एक और बात समझ लेने की है : ये बच्चे मूलभूत रूप से हिंदू हैं| अगर मदर टेरेसा को इन बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकास और हित की इतनी चिंता है तो इन बच्चों का पालन पोषण हिंदू धर्म के अनुसार करना चाहिए| पर उन्हें कैथोलिक चर्च के अनुसार पाला गया है| और इस सबके बद उन्हें प्रोटेस्टेंट परिवार को गोद देना, और प्रोटेस्टेंट कोई बहुत अलग नहीं है कैथोलिक लोगों से| क्या अंतर है कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट में? केवल कुछ मूर्खतापूर्ण अंतर… !

कुछ ही रोज पहले भारतीय संसद में धर्म की स्वतंत्रता के ऊपर एक बिल प्रस्तुत किया गया| बिल प्रस्तुत करने के पीछे उद्देश्य था कि किसी को भी अन्यों का धर्म बदलने की अनुमति नहीं होनी चाहिए : जब तक कि कोई अपनी मर्जी से अपना धर्म छोड़ कर किसी अन्य धर्म को अपनाना न चाहे| और मदर टेरेसा पहली थीं जिन्होने इस बिल का विरोध किया| अब तक के अपने पूरे जीवन में उन्होंने कभी किसी बात का विरोध नहीं किया, यह पहली बार था और शायद अंतिम बार भी| उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा और उनके और प्रधानमंत्री के बीच एक विवाद उत्पन्न हो गया| उन्होंने कहा,” यह बिल किसी भी हालत में पास नहीं होना चाहिए क्योंकि यह पूरी तरह से हमारे काम के खिलाफ जाता है| हम लोगों को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और लोग केवल तभी बचाए जा सकते हैं जब वे रोमन कैथोलिक बन जाएँ”|

उन्होंने सारे देश में इतना हल्ला मचाया – और राजनेता तो वोट की फिराक में रहते ही हैं, वे ईसाई मतदाताओं को नाराज करने का ख़तरा नहीं उठा सकते थे – सो बिल को गिर जाने दिया गया| बिल को भुला दिया गया…

यदि मदर टेरेसा सच में ही ईमानदार हैं और वे यह विश्वास रखती हैं कि किसी व्यक्ति का मत परिवर्तन करने से उसका मनोवैज्ञानिक ढांचा छिन्न भिन्न हो जाता है तो उन्हें मूलभूत रूप में मत-परिवर्तन के खिलाफ होना चाहिए| कोई अपनी इच्छा से अपना मत बदल ले तो बात अलग है|

अब उदाहरण के लिए तुम स्वयं मेरे पास आए हो, मैं तुम्हारे पास नहीं गया| मैं तो अपने दरवाजे से बाहर भी नहीं जाता…

मैं किसी के पास नहीं गया, तुम स्वयं मेरे पास आए हो| और मैं तुम्हे किसी और मत में परिवर्तित भी नहीं कर रहा हूँ| मैं यहाँ कोई विचारधारा भी स्थापित नहीं कर रहा हूँ| मैं तुम्हे कैथोलिक चर्च के catechism के एतारह धार्मिक शिक्षा की प्रश्नोत्तरी भी नहीं दे रहा,  किसी किस्म का कोई वाद नहीं दे रहा| मैं तो सिर्फ मौन हो सकने में सहायता प्रदान कर रहा हूँ| अब, मौन न तो ईसाई है, न मुस्लिम, और न ही हिंदू ; मौन तो केवल मौन है| मैं तो तुम्हे प्रेममयी होना सिखा रहा हूँ, प्रेम न ईसाई है न हिंदू, और न ही मुस्लिम| मैं तुम्हे जाग्रत होना सिखा रहा हूँ| चेतनता सिर्फ चेतनता ही है इसके अलावा और कुछ नहीं और यह किसी की बपौती नहीं है| चेतनता को ही मैं सच्ची धार्मिकता कहता हूँ|

मेरे लिए मदर टेरेसा और उनके जैसे लोग पाखंडी हैं, क्योंकि वे कहते एक बात हैं, पर यह सिर्फ बाहरी मुखौटा होता है क्योंकि वे करते दूसरी बात हैं| यह पूरा राजनीति का खेल है – संख्याबल की राजनीति|

और वे कहती हैं,” मेरे नाम के साथ आपने जो विशेषण इस्तेमाल किये हैं उनके लिए मैं आपको प्रेम भरे ह्रदय के साथ क्षमा करती हूँ”| पहले तो प्रेम को क्षमा की जरुरत नहीं पड़ती क्योंकि प्रेम क्रोधित होता ही नहीं| किसी को क्षमा करने के लिए तुम्हारा पहले उस पर क्रोधित होना जरूरी है|

मैं मदर टेरेसा को क्षमा नहीं करता, क्योंकि मैं उनसे नाराज नहीं हूँ| मैं उन्हें क्षमा क्यों करूँ? वे भीतर से नाराज होंगीं…| इसीलिये मैं तुमको इन बातों पर ध्यान लगाने के लिए कहना चाहता हूँ| कहते हैं, बुद्ध ने कभी किसी को क्षमा नहीं किया, क्योंकि साधारण सी बात है कि वे किसी से कभी भी नाराज ही नहीं हुए| क्रोधित हुए बिना तुम कैसे किसी को क्षमा कर सकते हो? यह असंभव बात है| वे क्रोधित हुए होंगीं| इसी को मैं अचेतनता कहता हूँ, उन्हें इस बात का बोध ही नहीं कि वे असल में लिख क्या रही हैं…उन्हें भान भी नहीं है कि मैं उनके पत्र के साथ क्या करने वाला हूँ!

वे कहती हैं,” ‘मैं महान प्रेम के साथ आपको क्षमा करती हूँ’ – जैसे कि प्रेम भी छोटा और महान होता है| प्रेम तो प्रेम है, यह न तो तुच्छ हो सकता है और न ही महान| तुम्हे क्या लगता है कि प्रेम गणनात्मक है? यह कोई मापने वाली मुद्रा है?- एक किलो प्रेम, दो किलो प्रेम| कितने किलो का प्रेम महान प्रेम हो जाता है? या कि टनों प्रेम चाहिए?

प्रेम गणनात्मक नहीं वरन गुणात्मक है और गुणात्मक को मापा नहीं जा सकता| न यह गौण है न ही महान| अगर कोई तुमसे कहे, “ मैं तुमसे बड़ा महान प्रेम करता हूँ|” तो सावधान हो जाना| प्रेम तो बस प्रेम है, न उससे कम न उससे ज्यादा|

और मैंने कौन सा अपराध किया है कि वे मुझे क्षमादान दे रही हैं? कैथोलिक्स की मूर्खतापूर्ण पुरानी परम्परा- और वे क्षमा करे चली जाती हैं! मैंने तो किसी अपराध को स्वीकार नहीं किया फिर उन्हें मुझे क्यों क्षमा करना चाहिए?

मैं इस्तेमाल किये गये विशेषणों पर कायम हूँ, बल्कि मैं कुछ और विशेषण उनके नाम के साथ जोड़ना पसंद करूँगा – कि वे मंद और औसत बुद्धि की मालकिन हैं, बेतुकी हैं| और अगर किसी को क्षमा ही करना है तो उन्हे ही क्षमा किया जाना चाहिए क्योंकि वे एक बहुत बड़ा पाप कर रही हैं| अपने पत्र में वे कहती हैं,” मैं गोद लेने की परम्परा को अपना कर गर्भपात के पाप से लड़ रही हूँ”| अब आबादी के बढते स्तर से त्रस्त काल में गर्भपात पाप नहीं है बल्कि सहायक है आबादी नियंत्रित रखने में| और अगर गर्भपात पाप है तो पोलोक पोप और मदर टेरेसा और उनके संगठन उसके लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि ये लोग गर्भ-निरोधक संसाधनों के खिलाफ हैं, वे जन्म दर नियंत्रित करने के हर तरीके के खिलाफ हैं, वे गर्भ-निरोधक पिल्स के खिलाफ हैं| असल में यही वे लोग हैं जो गर्भपात के लिए जिम्मेदार हैं| गर्भपात की स्थिति लाने के सबसे बड़े कारण ऐसे लोग ही हैं| मैं इन्हे बहुत बड़ा अपराधी मानता हूँ!

बढ़ती आबादी से ग्रस्त धरती पर जहां लोग भूख से मर रहे हों, वहाँ गर्भ-निरोधक पिल का विरोध करना अक्षम्य है| यह पिल आधुनिक विज्ञान का अक बहुत बड़ा तोहफा है आज के मानव के लिए| यह पिल धरती को सुखी बनाने में सहायता कर सकती है|

मैं गरीब लोगों की सेवा नहीं करना चाहता, मैं उनकी मैं गरीबी को समाप्त करके उन्हें समर्थ बनाना चाहूँगा| बहुत हो चुकीं ऐसी बेतुकी बातें| मेरी रूचि उन्हें गरीब बनाए रखने में नहीं है जिससे कि मैं उनकी सेवा करके लोगों की निगाह में पुण्य कमाऊं| उनकी गरीबी दूर होना मेरे लिए ज्यादा आनंद का विषय है| दस हजार सालों से मूर्ख गरीब लोगों की सेवा करते आए हैं पर इससे कुछ नहीं बदला| अब हमारे पास समर्थ टैक्नोलौजी हैं जिससे हम गरीबी समाप्त करने में सफलता पा सकें|

तो अगर किसी को क्षमा किया जाना चाहिए तो इसके पात्र ये लोग हैं| पोप, मदर टेरेसा, आदि इत्यादी लोगों को क्षमा किया जाना चाहिए| ये लोग अपराधी हैं पर इनका अपराध देखने समझने के लिए तुम्हे बहुत बड़ी मेधा और सूक्ष्म बुद्धि चाहिए|

और ज़रा इनका अहंकार देखिये, दूसरों से बड़ा होने का अहं| वे कहती हैं,”मैं तुम्हे क्षमा करती हूँ, मुझे तुम्हारे लिए बड़ा खेद है”| और वे प्रार्थना करती हैं,” ईश्वर की अनुकम्पा आपके साथ हो और आपका ह्रदय प्रेम से भर जाए”|

बकवास है यह सब!

मैं किसी ऐसे ईश्वर में विश्वास नहीं करता जो मानव जैसा होगा, जब ऐसा ईश्वर है ही नहीं तो वह कृपा कैसे करेगा मुझ पर या किसी और पर? ईश्वरत्व को केवल महसूस किया जा सकता है, ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है जिसे पाया जा सके या जीता जा सके| यह तुम्हारी ही शुद्धतम चेतनता है| और ईश्वर को मुझ पर कृपा क्यों करनी चाहिए? मैं ही तुम्हारी कल्पना के सारे ईश्वरों पर कृपा बरसा सकता हूँ| मुझे किसी की कृपा के लिए प्रार्थना क्यों करनी चाहिए? मैं पूर्ण आनंद में हूँ मुझे किसी कृपा की आवश्यकता है ही नहीं| मुझे विश्वास ही नहीं है कि कहीं कोई ईश्वर है| मैंने तो हर जगह देख लिया मुझे कहीं ईश्वर के होने के लक्षण नजर नहीं आए| यह ईश्वर केवल सत्य से अंजान लोगों के दिमाग में वास करता है| ध्यान रखना मैं नास्तिक नहीं हूँ, पर मैं आस्तिक भी नहीं हूँ|

ईश्वर मेरे लिए कोई व्यक्ति नहीं बल्कि एक उपस्थिति है, जिसे केवल ध्यान की उच्चतम और सबसे गहरी अवस्था में ही महसूस किया जा सकता है| उन्ही क्षणों में तुम्हे सारे अस्तित्व में बहता ईश्वरत्व महसूस होता है| कोई ईश्वर कहीं नहीं है लेकिन ईश्वरत्व है!

मैं गौतम बुद्ध के बारे में कहे गये H. G. Wells के बयान को प्रेम करता हूँ| उसने कहा था,” गौतम बुद्ध सबसे बड़े ईश्वररहित व्यक्ति हैं लेकिन साथ ही वे सबसे बड़े ईश्वरीय व्यक्ति हैं|

यही बात तुम मेरे बारे में कह सकते हो: मैं इश्वर्राहित व्यक्ति हूँ लेकिन मैं ईश्वरीयता को जानता हूँ|

ईश्वरीयता एक सुगंध जैसी है, परम आनंद का अनुभव, परम स्वतंत्रता का अनुभव| तुम ईश्वरीयता के सामने प्रार्थना नहीं कर सकते| तुम इसका चित्र नहीं बना सकते| तुम यह नहीं कह सकते – कि ईश्वर तुम्हारा भला करे- और ऐसा तो खास तौर पर नहीं कह सकते – कि ईश्वर की कृपा तुम्हारे साथ रहें पूरे 1981 के दौरान! तब 1982 का क्या होगा?

महान साहस! महान साझेदारी! ऐसी उदारता!

“…और तुम्हारा ह्रदय प्रेम से भर जाए”| मेरा ह्रदय प्रेम के अतिरेक से पहले ही भरा हुआ है| इसमें किसी और के प्रेम के लिए जगह बची ही नहीं| और मेरा ह्रदय किसी और के प्रेम से क्यों भरे? उधार का प्रेम किसी काम का नहीं| ह्रदय की अपनी सुगंध होती है|

लेकिन इस तरह की बकवास को बहुत धार्मिक माना जाता है| वे इस आशा से यह सब लिख रही हैं कि मैं उन्हें बहुत बड़ी धार्मिक मानूंगा| लेकिन जो मैं देख पा रहा हूँ वे एक बेहद साधारण, औसत इंसान हैं जो कि आप कहीं भी पा सकते हैं| औसत लोगों से अटी पड़ी है धरती|

मैं उन्हें मदर टेरेसा कह कर पुकारता रहा हूँ पर मुझे उन्हें मदर टेरेसा कह कर पुकारना बंद करना चाहिए क्योंकि हालांकि मैं कतई सज्जन नहीं हूँ पर मुझे समुचित जवाब तो देना ही चाहिए| उन्होंने मुझे लिखा है- मि. रजनीश, तो अब से मुझे भी उन्हें मिस टेरेसा कह कर संबोधित करना चाहिए| यही सज्जनता भरा व्यवहार होगा|

अहंकार पिछले दरवाजे से आ जाता है| इसे बाहर निकाल फेंकने का प्रयत्न मत करो|

कलकत्ते से मुझे एक न्यूज-कटिंग मिली है| पत्रकार ने बताया कि वह मदर टेरेसा के बारे में मेरे बयान – कि वे बेतुकी हैं- की कटिंग लेकर मदर टेरेसा के पास गया और वे कटिंग देखते ही गुस्से में आग बबूला हो गयीं और उन्होंने कटिंग फाड़ कर फेंक दी| वे इतनी क्रोधित थीं कि कोई बयान देने के लिए तैयार नहीं हुईं| पर बयान तो उन्होने दे दिया- कटिंग को फाड़ कर|

पत्रकार ने कहा,” मैं तो हैरान हो गया उनका बर्ताव देखकर| मैंने उनसे कहा कि कटिंग तो मेरी थी और मैं तो उस बयान पर उनकी प्रतिक्रिया जानने उनके पास गया था”|

और ये लोग समझते हैं कि वे धार्मिक हैं| वास्तव में कटिंग फाड़ कर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि मैंने जो कुछ उनके बारे में कहा था वह सही था : कि वे औसत और बेतुकी हैं| अब कटिंग फाड़ना एक बेतुकी बात है|

अब मुझे तो दुनिया भर से इतने ज्यादा कॉम्प्लीमेंट्स – “इनवर्टेड कौमाज़” वाले- मिलते हैं कि अगर मैं उन सबको फाड़ने लग जाऊं तो मेरी तो अच्छी खासी एक्सरसाइज इसी हरकत में हो जाए और तुम्हे पता ही है एक्सरसाइज मुझे कितनी नापसंद है|

 

(अंग्रेजी प्रवचन से अनुवादित)

जनवरी 8, 2015

नये गीत लाता रहा…साहिर लुधियानवी

साथियों ! मैंने बरसों तुम्हारे लिए
चाँद तारों बहारों के सपने बुने
हुस्न और इश्क का गीत गाता रहा
आरजुओं के ऐवां सजाता रहा
मैं तुम्हारा मुगन्नी तुम्हारे लिए
जब भी आया नए गीत लाता रहा

आज लेकिन मेरे दामने चाक में
गर्दे राहे सफ़र के सिवा कुछ नहीं
मेरे बरबत के सीने में नगमों का दम घुट गया है
तानें चीखों के अंबार में दब गयी हैं
और गीतों के सुर हिचकियाँ बन गए हैं

मैं तुम्हारा मुगन्नी हूँ, नगमा नहीं हूँ
और नगमे की तखलीक का साज़ो सामां
साथियों आज तुमने भसम कर दिया है
और मैं अपना, टूटा हुआ साज़ थामे
सर्द लाशों के अम्बार को तक रहा हूँ

मेरे चारों तरफ मौत की वह्शतें नाचती हैं
और इंसान की हैवानियत जाग उठी है
बरबरियत के खूंख्वार अफरीत
अपने नापाक जबड़ों को खोले हुए
खून पीपी के गुर्रा रहे हैं

बच्चे माओं की गोदों में सहमे हुए हैं
इस्मतें सर बरहना परेशान हैं
हर तरफ शोरे आहो बुका है
और मैं इस तबाही के तूफ़ान में
आग और खून के हैजान में
सरनिगूं और शिकस्ता मकानों के मलबे से पुर रास्तों पर
अपने नगमों की झोली पसारे
दर ब दर फिर रहा हूँ

मुझको अमन-ओ-तहजीब की भीख दो
मेरे गीतों की लैय, मेरे सुर मेरे नै
मेरे मजरूह होंठों को फिर सौंप दो

साथियों! मैंने बरसों तुम्हारे लिए
इंक़लाब औ बगावत के नगमे अलापे
अजनबी राज के ज़ुल्म की छाँव में
सरफरोशी के ख्वाबीदा जज्बे उभारे
इस सुबह की राह देखी
जिसमें मुल्क की रूह आज़ाद हो
आज जंजीरे मह्कूमियत कट चुकी है
और इस मुल्क के बहर-ओ-बर बाम-ओ-दर
अजनबी कौम के ज़ुल्मत अफशां फरेरे की मनहूस छाँव से आज़ाद हैं

खेत सोना उगलने को बेचैन हैं
वादियाँ लहलहाने को बेताब हैं
कोहसारों के सीने में हैजान है
संग और खिश्त बेख्वाबो बेदार हैं
इनकी आँखों में तामीर के ख्वाब हैं
इनके ख़्वाबों को तकमील का रूप दो

मुल्क की वादियाँ, घाटियाँ, खेतियाँ
औरतें, बच्चियां
हाथ फैलाए, खैरात की मुन्तजिर हैं
इनको अम्न-ओ-अमन तहजीब की भीख दो

माओं को उनके होंठों की शादाबियाँ
नन्हे बच्चों को उनकी ख़ुशी बख्श दो
मेरे सुर बख्श दो, मेरी लय बख्श दो

आज सारी फिजा भिखारी खड़ी है
और मैं इस भिखारी फिज़ा में
अपने नगमों की झोली पसारे
दर-ब-दर फिर रहा हूँ

मुझको मेरा खोया हुआ साज़ दो
मैं तुम्हारा मुगन्नी तुम्हारे लिए
जब भी आया, नए गीत लाता रहूँगा|

(साहिर लुधियानवी)

(बंटवारे के वक्त क्षुब्ध होकर 1947 में)

मई 14, 2014

ओशो : बुद्ध को समझने में बड़ी भूल हुई दुनिया से!

Osho Buddhaगौतम बुद्ध की वाणी अनूठी है। और विशेषकर उनके लिए, जो सोच-विचार, चिंतन-मनन, विमर्श के आदी हैं। हृदय से भरे हुए लोग सुगमता से परमात्मा की तरफ चले जाते हैं। लेकिन हृदय से भरे हुए लोग कहां हैं? और हृदय से भरने का कोई उपाय भी तो नहीं है। हो तो हो, न हो तो न हो। ऐसी आकस्मिक, नैसर्गिक बात पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। बुद्ध ने उनको चेताया जिनको चेताना सर्वाधिक कठिन है-विचार से भरे लोग, बुद्धिवादी, चिंतन-मननशील।

प्रेम और भाव से भरे लोग तो परमात्मा की तरफ सरलता से झुक जाते हैं; उन्हें झुकाना नहीं पड़ता। उनसे कोई न भी कहे, तो भी वे पहुंच जाते हैं; उन्हें पहुंचाना नहीं पड़ता। लेकिन वे तो बहुत थोड़े हैं, और उनकी संख्या रोज थोड़ी होती गयी है। उंगलियों पर गिने जा सकें, ऐसे लोग हैं।

मुनष्य का विकास मस्तिष्क की तरफ हुआ है। मनुष्य मस्तिष्क से भरा है। इसलिए जहां जीसस हार जाएं, जहां कृष्ण की पकड़ न बैठे, वहां भी बुद्ध नहीं हारते हैं; वहां भी बुद्ध प्राणों के अंतरतम में पहुंच जाते हैं।

बुद्ध का धर्म बुद्धि का धर्म कहा गया है। बुद्धि पर उनका आदि तो है, अंत नहीं। शुरुआत बुद्धि से है। प्रारंभ बुद्धि से है। क्योंकि मनुष्य वहां खड़ा है। लेकिन अंत, अंत उसका बुद्धि में नहीं है। अंत तो परम अतिक्रमण है, जहां सब विचार खो जाते हैं, सब बुद्धिमत्ता विसर्जित हो जाती है; जहां केवल साक्षी, मात्र साक्षी शेष रह जाता है। लेकिन बुद्ध का प्रभाव उन लोगों में तत्क्षण अनुभव होता है जो सोच-विचार में कुशल हैं।

बुद्ध के साथ मनुष्य-जाति का एक नया अध्याय शुरू हुआ। पच्चीस सौ वर्ष पहले बुद्ध ने वह कहा जो आज भी सार्थक मालूम पड़ेगा, और जो आने वाली सदियों तक सार्थक रहेगा। बुद्ध ने विश्लेषण दिया, एनालिसिस दी। और जैसा सूक्ष्म विश्लेषण उन्होंने किया, कभी किसी ने न किया था, और फिर दुबारा कोई न कर पाया। उन्होंने जीवन की समस्या के उत्तर शास्त्र से नहीं दिए, विश्लेषण की प्रक्रिया से दिए।

बुद्ध धर्म के पहले वैज्ञानिक हैं। उनके साथ श्रद्धा और आस्था की जरूरत नहीं है। उनके साथ तो समझ पर्याप्त है। अगर तुम समझने को राजी हो, तो तुम बुद्ध की नौका में सवार हो जाओगे। अगर श्रद्धा भी आएगी, तो समझ की छाया होगी। लेकिन समझ के पहले श्रद्धा की मांग बुद्ध की नहीं है। बुद्ध यह नहीं कहते कि जो मैं कहता हूं, भरोसा कर लो। बुद्ध कहते हैं, सोचो, विचारो, विश्लेषण करो; खोजो, पाओ अपने अनुभव से, तो भरोसा कर लेना।

दुनिया के सारे धर्मों ने भरोसे को पहले रखा है, सिर्फ बुद्ध को छोड़कर। दुनिया के सारे धर्मों में श्रद्धा प्राथमिक है, फिर ही कदम उठेगा। बुद्ध ने कहा, अनुभव प्राथमिक है, श्रद्धा आनुशांगिक है। अनुभव होगा, तो श्रद्धा होगी। अनुभव होगा, तो आस्था होगी।

इसलिए बुद्ध कहते हैं, आस्था की कोई जरूरत नहीं है; अनुभव के साथ अपने से आ जाएगी, तुम्हें लानी नहीं है। और तुम्हारी आयी हुई आस्था का मूल्य भी क्या हो सकता है? तुम्हारी लायी हुई आस्था का मूल्य भी क्या हो सकता है? तुम्हारी लायी आस्था के पीछे भी छिपे होंगे तुम्हारे संदेह।

तुम आरोपित भी कर लोगे विश्वास को, तो भी विश्वास के पीछे अविश्वास खड़ा होगा। तुम कितनी ही दृढ़ता से भरोसा करना चाहो, लेकिन तुम्हारी दृढ़ता कंपती रहेगी और तुम जानते रहोगे कि जो तुम्हारे अनुभव में नहीं उतरा है, उसे तुम चाहो भी तो कैसे मान सकते हो? मान भी लो, तो भी कैसे मान सकते हो? तुम्हारा ईश्वर कोरा शब्दजाल होगा, जब तक अनुभव की किरण न उतरी हो। तुम्हारे मोक्ष की धारणा मात्र शाब्दिक होगी, जब तक मुक्ति का थोड़ा स्वाद तुम्हें न लगा हो।

बुद्ध ने कहा: मुझ पर भरोसा मत करना। मैं जो कहता हूं, उस पर इसलिए भरोसा मत करना कि मैं कहता हूं। सोचना, विचारना, जीना। तुम्हारे अनुभव की कसौटी पर सही हो जाए, तो ही सही है। मेरे कहने से क्या सही होगा!

बुद्ध के अंतिम वचन हैं: अप्प दीपो भव। अपने दीए खुद बनना। और तुम्हारी रोशनी में तुम्हें जो दिखाई पड़ेगा, फिर तुम करोगे भी क्या-आस्था न करोगे तो करोगे क्या? आस्था सहज होगी। उसकी बात ही उठानी व्यर्थ है।

बुद्ध का धर्म विश्लेषण का धर्म है। लेकिन विश्लेषण से शुरू होता है, समाप्त नहीं होता वहां। समाप्त तो परम संश्लेषण पर होता है। बुद्ध का धर्म संदेह का धर्म है। लेकिन संदेह से यात्रा शुरू होती है, समाप्त नहीं होती। समाप्त तो परम श्रद्धा पर होती है।

इसलिए बुद्ध को समझने में बड़ी भूल हुई। क्योंकि बुद्ध संदेह की भाषा बोलते हैं। तो लोगों ने समझा, यह संदेहवादी है। हिंदू तक न समझ पाए, जो जमीन पर सबसे ज्यादा पुरानी कौम है। बुद्ध निश्चित ही बड़े अनूठे रहे होंगे, तभी तो हिंदू तक समझने से चूक गए। हिंदुओं तक को यह आदमी खतरनाक लगा, घबड़ाने वाला लगा। हिंदुओं को भी लगा कि यह तो सारे आधार गिरा देगा धर्म के। और यही आदमी है, जिसने धर्म के आधार पहली दफा ढंग से रखे।

श्रद्धा पर भी कोई आधार रखा जा सकता है! अनुभव पर ही आधार रखा जा सकता है। अनुभव की छाया की तरह श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा अनुभव की सुगंध है। और अनुभव के बिना श्रद्धा अंधी है। और जिस श्रद्धा के पास आंख न हों, उससे तुम सत्य तक पहुंच पाओगे?

बुद्ध ने बड़ा दुस्साहस किया। बुद्ध जैसे व्यक्ति पर भरोसा करना एकदम सुगम होता है। उसके उठने-बैठने में प्रमाणिकता होती है। उसके शब्द-शब्द में वजन होता है। उसके होने का पूरा ढंग स्वयंसिद्ध होता है। उस पर श्रद्धा आसान हो जाती है। लेकिन बुद्ध ने कहा, तुम मुझे अपनी बैसाखी मत बनाना। तुम अगर लंगड़े हो, और मेरी बैसाखी के सहारे चल लिए-कितनी दूर चलोगे? मंजिल तक न पहुंच पाओगे। आज मैं साथ हूं, कल मैं साथ न रहूंगा, फिर तुम्हें अपने ही पैरों पर चलना है। मेरी रोशनी से मत चलना, क्योंकि थोड़ी देर को संग-साथ हो गया है अंधेरे जंगल में। तुम मेरी रोशनी में थोड़ी देर रोशन हो लोगे; फिर हमारे रास्ते अलग हो जाएंगे। मेरी रोशनी मेरे साथ होगी, तुम्हारा अंधेरा तुम्हारे साथ होगा। अपनी रोशनी पैदा करो।

अप्प दीपो भव!

यह बुद्ध का धम्मपद, कैसे वह रोशनी पैदा हो सकती है अनुभव की, उसका विश्लेषण है। श्रद्धा की कोई मांग नहीं है। श्रद्धा की कोई आवश्यकता भी नहीं है। इसलिए बुद्ध को लोगों ने नास्तिक कहा। क्योंकि बुद्ध ने यह भी नहीं कहा कि तुम परमात्मा पर श्रद्धा करो।

तुम कैसे करोगे श्रद्धा? तुम्हें पता होता तो तुम श्रद्धा करते ही। तुम्हें पता नहीं है। इस अज्ञान में तुम कैसे श्रद्धा करोगे? और अज्ञान में तुम जो श्रद्धा बांध भी लोगे, वह तुम्हारी अज्ञान की ईंटों से बना हुआ भवन होगा; उसे तुम परमात्मा का मंदिर कैसे कहोगे? वह तुमने भय से बना लिया होगा। मौत डराती होगी, इसलिए सहारा पकड़ लिया होगा। यहां जिंदगी हाथ से जाती मालूम होती होगी, इसलिए स्वर्ग की कल्पनाएं कर ली होंगी। लेकिन इन कल्पनाओं से, भय पर खड़ी हुई इन धारणाओं से, कहीं कोई मुक्त हुआ है! इससे ही तो आदमी पंगु है। इससे ही तो आदमी पक्षघात में दबा है। इसलिए बुद्ध ने ईश्वर की बात नहीं की।

एच.जी.वेल्स ने बुद्ध के संबंध में कहा है कि पृथ्वी पर इस जैसा ईश्वरीय व्यक्ति और इस जैसा ईश्वर-विरोधी व्यक्ति एक साथ पाना कठिन है-सो गाड लाइक एंड सो गाडलेस! अगर तुम ईश्वरीय प्रतिभाओं को खोजने निकलो तो तुम बुद्ध से ज्यादा ईश्वरीय प्रतिभा कहां पाओगे? सो गाडलेस! और फिर भी इतना ईश्वर-शून्य! ईश्वर की बात ही नहीं की। इस शब्द को ही गंदा माना। इस शब्द का उच्चार नहीं किया। इससे यह मत समझ लेना कि ईश्वर-विरोधी थे बुद्ध। उच्चार नहीं किया, क्योंकि उस परम शब्द का उच्चार किया नहीं जा सकता।

उपनिषद कहते हैं, ईश्वर के संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता; लेकिन इतना तो कह ही देते हैं। बुद्ध ने इतना भी न कहा। वे परम उपनिषद हैं। उनके पार उपनिषद नहीं जाता। जहां उपनिषद समाप्त होते हैं, वहां बुद्ध शुरू होते हैं। आखिर इतना तो कह ही दिया, रोक न सके अपने को, कि ईश्वर निर्गुण है। तो निर्गुण उसका गुण बना दिया। कहा कि ईश्वर निराकार है, तो निराकार उसका आकार हो गया। लेकिन बिना कहे न रह सके। उपनिषद के ऋषि भी बोल गए! मौन में ही सम्हालना था उस संपदा को; बोलकर गंवा दी। बंधी मुट्ठी लाख की थी, खुली दो कौड़ी की हो गई। वह बात ऐसी थी कि कहानी नहीं थी। क्योंकि तुम जो कुछ भी कहोगे, वह गलत होगा। यह कहना भी कि परमात्मा निराकार है, गलत है, क्योंकि निराकार भी एक धारणा है। वह भी आकार से ही जुड़ी है। आकार के विपरीत होगी, तो भी आकार से संबंधित है।

निराकार का क्या अर्थ होता है? जब भी अर्थ खोजने जाओगे, आकार का उपयोग करना पड़ेगा। निर्गुण का क्या अर्थ होता है? जब भी कोई परिभाषा पूछेगा, गुण को परिभाषा में लाना पड़ेगा। ऐसी निर्गुणता भी बड़ी नपुंसक है, जिसकी परिभाषा में गुण लाना पड़ता है! और ऐसे निराकार में क्या निराकार होगा, जिसको समझाने के लिए आकार लाना पड़ता है!

बुद्ध से ज्यादा कोई भी नहीं बोला; और बुद्ध से ज्यादा चुप भी कोई नहीं है। कितना बुद्ध बोले हैं! अन्वेषक खोज करते हैं तो वे कहते हैं, एक आदमी इतना बोला, यह संभव कैसे है! उन्हें डर लगता है कि इसमें बहुत कुछ प्रक्षिप्त है, दूसरों ने डाल दिया है। कुछ भी प्रक्षिप्त नहीं है। जितना बुद्ध बोले, पूरा संगृहीत ही नहीं हुआ है। खूब बोले। और फिर भी उनसे ज्यादा चुप कोई भी नहीं है। क्योकि जहां-जहां नहीं बोलना था, वहां नहीं बोले। ईश्वर के संबंध में एक शब्द न कहा। इस खतरे को भी मोल लिया कि लोग नास्तिक समझेंगे। और आज तक लोग नास्तिक समझे जा रहे हैं। और इससे बड़ा कोई आस्तिक कभी हुआ नहीं।

बुद्ध महा आस्तिक हैं। अगर परमात्मा के संबंध में कुछ कहना संभव नहीं है, तो फिर बुद्ध ने ही कुछ कहा-चुप रह कर; इशारा किया।

पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक विट्गिंस्टीन ने अपनी बड़ी अनूठी किताब टेक्टेटस में लिखा है कि जिस संबंध में कुछ कहा न जा सके, उस संबंध में बिलकुल चुप रह जाना उचित है। दैट व्हिच कैन नॉट बी सेड, मस्ट नॉट बी सेड। जो नहीं कहा जा सकता, कहना ही मत, कहना ही नहीं चाहिए।

अगर विट्गिंस्टीन बुद्ध को देखता तो समझता। अगर विट्गिंस्टीन के वचन को बुद्ध ने समझा होता तो वे मुस्कुराते और उन्होंने स्वीकृति दी होती। विट्गिंस्टीन को भी पश्चिम में लोग नास्तिक समझे। नास्तिक नहीं है। पर जो कही नहीं जा सकती बात, अच्छा है न ही कही जाए। कहने से बिगड़ जाती है। कहने से गलत हो जाती है।

लाओत्से तक, कहता तो है प्रथम वचन में अपने ताओ-तेह-किंग में कि सत्य कहा नहीं जा सकता, और जो भी कहा जाए वह असत्य हो जाता है; लेकिन फिर भी सत्य के संबंध में बहुत सी बातें कही हैं। बुद्ध ने नहीं कही। तुम कहोगे, फिर बुद्ध कहते क्या रहे? बुद्ध ने स्वास्थ्य के संबंध में एक भी शब्द नहीं कहा, केवल बीमारी का विश्लेषण किया और निदान किया; औषधि की व्यवस्था की। बुद्ध ने कहा, मैं एक वैद्य हूं; मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं। मैं तुम्हारी बीमारी का विश्लेषण करूंगा, निदान करूंगा, औषधि सुझा दूंगा; और जब तुम ठीक हो जाओगे, तभी तुम जानोगे कि स्वास्थ्य क्या है। मैं उस संबंध में कुछ भी न कहूंगा।

स्वास्थ्य जाना जाता है, कहा नहीं जा सकता। बीमारी मिटायी जा सकती है, बीमारी समझायी जा सकती है, बीमारी बनायी जा सकती है, बीमारी का इलाज हो सकता है-सही हो सकता है, गलत हो सकता है-बीमारी के साथ बहुत कुछ हो सकता है। स्वास्थ्य? जब बीमारी नहीं होती तब शेष रह जाता है, वही। उस तरफ केवल इशारे हो सकते हैं, मौन। इंगित हो सकते हैं-वे भी प्रत्यक्ष नहीं, बड़े परोक्ष।

बुद्ध के धर्म को शून्यवादी कहा गया है। शून्यवादी उनका धर्म है। लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि शून्य पर उनकी बात पूरी हो जाती है। नहीं, बस शुरू होती है।

बुद्ध एक ऐसे उत्तुंग शिखर हैं, जिसका आखिरी शिखर हमें दिखायी नहीं पड़ता। बस थोड़ी दूर तक हमारी आंखें जाती हैं, हमारी आंखों की सीमा है। थोड़ी दूर तक हमारी गर्दन उठती है, हमारी गर्दन के झुकने की सामर्थ्य है। और बुद्ध खोते चले जाते हैं-दूर…हिमाच्छादित शिखर है। बालों के पार! उनका प्रारंभ तो दिखायी पड़ता है, उनका अंत दिखायी नहीं पड़ता। यही उनकी महिमा है। और प्रारंभ को जिन्होंने अंत समझ लिया, वे भूल में पड़ गए। प्रारंभ से शुरू करना; लेकिन जैसे-जैसे तुम शिखर पर उठने लगोगे, और आगे, और आगे दिखायी पड़ने लगा, और आगे दिखायी पड़ने लगेगा।

बहुत लोग बोले हैं। बहुत लोगों ने मनुष्य के रोग का विश्लेषण किया है; लेकिन ऐसा सचोट नहीं। बड़े सुंदर ढंग से लोगों ने बातें कही हैं, बड़े गहरे प्रतीक उपाय में लाए हैं। पर बुद्ध, बुद्ध के कहने का ढंग ही और है। अंदाजे-बयां और! जिसने एक बार सुना, पकड़ा गया। जिसने एक बार आंख से आंख मिला ली, फिर भटक न पाया। जिसको बुद्ध की थोड़ी सी भी झलक मिल गयी, उसका जीवन रूपांतरित हुआ।

आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व, जिस दिन बुद्ध का जन्म हुआ, घर में उत्सव मनाया जाता था। सम्राट के घर बेटा पैदा हुआ था, पूरी राजधानी सजी थी। रातभर लोगों ने दीए जलाए, नाचे। उत्सव का क्षण था! बूढ़े सम्राट के घर बेटा पैदा हुआ था। बड़े दिन की प्रतीक्षा पूरी हुई थी। बड़ी पुरानी अभिलाषा थी पूरे राज्य की। मालिक बूढ़ा होता जाता था और नए मालिक की कोई खबर न थी। इसलिए बुद्ध को सिद्धार्थ नाम दिया। सिद्धार्थ का अर्थ होता है, अभिलाषा का पूरा हो जाना।

पहले ही दिन, जब द्वार पर बैंड-बाजे बजते थे, शहनाई बजती थी, फूल बरसाए जाते थे महल में, चारों तरफ प्रसाद बंटता था, हिमालय से भागा हुआ एक वृद्ध तपस्वी द्वार पर खड़ा हुआ आकर। उसका नाम था असिता। सम्राट भी उसे सम्मान करता था। और कभी असिता राजधानी नहीं आया था। जब कभी जाना था तो शुद्धोदन को, सम्राट को, स्वयं उसके दर्शन करने जाना होता था। ऐसे बचपन के साथी थे। फिर शुद्धोधन सम्राट हो गया, बाजार की दुनिया में उलझ गया। असिता महातपस्वी हो गया। उसकी ख्याति दूर-दिगंत तक फैल गयी। असिता को द्वार पर आए देखकर शुद्धोदन ने कहा, आप, और यहां! क्या हुआ? कैसे आना हुआ? कोई मुसीबत है? कोई अड़चन है? कहें! असिता ने कहा, नहीं, कोई मुसीबत नहीं, कोई अड़चन नहीं। तुम्हारे घर बेटा पैदा हुआ, उसके दर्शन को आया हूं।

शुद्धोधन तो समझ न पाया। सौभाग्य की घड़ी थी यह कि असिता जैसा तपस्वी और बेटे के दर्शन को आया। भागा गया अंतःगृह में। नवजात शिशु को लेकर बाहर आ गया। असिता झुका, और उसने शिशु के चरणों में सिर रख दिया। और कहते हैं, शिशु ने अपने पैर उसकी जटाओं में उलझा दिए। फिर तब से आदमी की जटाओं में बुद्ध के पैर उलझे हैं। फिर आदमी छुटकारा नहीं पा सका। और असिता हंसने लगा, और रोने भी लगा। और शुद्धोधन ने पूछा कि इस शुभ घड़ी में आप रोते क्यों हैं?

असिता ने कहा, यह तुम्हारे घर जो बेटा पैदा हुआ है, यह कोई साधारण आत्मा नहीं है; असाधारण है। कई सदियां बीत जाती हैं। यह तुम्हारे लिए ही सिद्धार्थ नहीं है; यह अनंत-अनंत लोगों के लिए सिद्धार्थ है। अनेकों की अभिलाषाएं इससे पूरी होंगी। हंसता हूं, कि इसके दर्शन मिल गए। हंसता हूं, प्रसन्न हूं, कि इसने मुझ बूढ़े की जटाओं में अपने पैर उलझा दिए। यह सौभाग्य का क्षण है! रोता इसलिए हूं कि जब यह कली खिलेगी, फूल बनेगी, जब दिग-दिगंत में इसकी सुवास उठेगी, और इसकी सुवास की छाया में करोड़ों लोग राहत लेंगे, तब मैं न रहूंगा। यह मेरा शरीर छूटने के करीब आ गया।

और एक बड़ी अनूठी बात असिता ने कही है, वह यह कि अब तक आवागमन से छूटने की आकांक्षा थी, वह पूरी भी हो गयी; आज पछतावा होता है। एक जन्म अगर और मिलता तो इस बुद्धपुरुष के चरणों में बैठने की, इसकी वाणी सुनने की, इसकी सुगंध को पीने की, इसके नशे में डूबने की सुविधा हो जाती। आज पछताता हूं, लेकिन मैं मुक्त हो चुका हूं। यह मेरा आखिरी अवतरण है; अब इसके बाद देह न धर सकूंगा। अब तक सदा ही चेष्टा की थी कि कब छुटकारा हो इस शरीर से, कब आवागमन से…आज पछताता हूं कि अगर थोड़ी देर और रुक गया होता…।

इसे तुम थोड़ा समझो।

बुद्ध के फूल के खिलने के समय, असिता चाहता है, कि अगर मोक्ष भी दांव पर लगता हो तो कोई हर्जा नहीं। तब से पच्चीस सौ साल बीत गए। बहुत प्रज्ञा-पुरुष हुए। लेकिन बुद्ध अतुलनीय हैं। और उनकी अतुलनीयता इसमें है कि उन्होंने इस सदी के लिए धर्म दिया, और आने वाले भविष्य के लिए धर्म दिया। कृष्ण की बात कितनी ही समझाकर कही जाए, इस सदी के लिए मौजूं नहीं बैठती। फासला बड़ा हो गया है। बड़ा अंतराल पड़ गया है। कृष्ण ने जिनसे कहा था उनके मनों में, और जिनके मन आज उसे सुनेंगे, बड़ा अंतर है। बुद्ध की कुछ बात ऐसी है, कि ऐसा लगता है अभी-अभी उन्होंने कही। बुद्ध की बात को समसामयिक बनाने की जरूरत नहीं है; वह समसामयिक है, वह कंटेम्प्रेरी है। कृष्ण पर बोलो, तो कृष्ण को खींचकर लाना पड़ता है बीसवीं सदी में; बुद्ध को नहीं लाना पड़ता। बुद्ध जैसे खड़े हैं, बीसवीं सदी में ही खड़े हैं। और ऐसा अनेक सदियों तक रहेगा। क्योंकि मनुष्य ने जो होने का ढंग अंगीकार कर लिया है, बुद्धि का, वह अब ठहरने को है; वह अब जाने को नहीं है। और उसके साथ ही बुद्ध का मार्ग ठहरने को है।

धम्मपद उनका विश्लेषण है। उन्होंने जो जीवन की समस्याओं की गहरी छानबीन की है, उसका विश्लेषण है। एक-एक शब्द को गौर से समझने की कोशिश करना। क्योंकि ये कोई सिद्धांत नहीं हैं जिन पर तुम श्रद्धा कर लो। ये तो निष्पत्तियां हैं, प्रयोग की। अगर तुम भी इनके साथ विचार करोगे तो ही इन्हें पकड़ पाओगे। यह आंख बंद करके स्वीकार कर लेने का सवाल नहीं है; यह तो बड़े सोच-विचार, मनन का सवाल है।

नवम्बर 13, 2013

कुछ कुछ होता है!

तरंगों के कंपनlovers-001

पोरों के स्पर्श

सुकुमार वक्ष की कोमलता…

श्यामवर्णी चादर ओढ़े सांस

चुनरी की रेशमी ओट

संगीत भरे चित्रालय में

आँखों-आँखों के संवाद में

झुककर पांवों, तलुओं का स्पर्श

बांह को पकड़ कर भींच देना

गोद में रखे पॉपकार्न को टूंगना

कपोलों का चुम्बन

चेहरे पर भावों के इन्द्रधनुष

तुमने कहा…

कुछ कुछ होता है

Yugalsign1

अगस्त 25, 2013

मैं वर्तमान हूँ !

मैं जीवन के बीते समय पर पछतावा कर रहा था

और आने वाले समय के प्रति भयभीत हो रहा था,

अचानक, मैंने सुना,

मेरा ईश्वर बोल रहा था ,

“मेरा नाम “वर्तमान” है”|

वह रुका, मैंने इन्तजार किया,

उसने फिर बोलना शुरू किया,

“जब तुम भूतकाल में जीते हो,

बीते समय में की गई गलतियों और पछतावों के साथ,

तब मुश्किल हो जाती है मेरे लिए,

मैं ऐसे माहौल में नहीं रह सकता|

मेरा नाम ” भूत” नहीं है|”

“जब तुम भविष्य में जीते हो,

आने वाली समस्याओं और भय की कल्पनाओं के साथ,

तब भी बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है,

मैं वहाँ भी नहीं रहता,

मेरा नाम “भविष्य” नहीं है|”

जब तुम इसी क्षण में,

-जो तुम्हारे सामने है,

जीते हो,

तब कतई कोई मुश्किल मेरे लिए नहीं होती,

मैं यहीं रहता हूँ,

मेरा नाम “वर्तमान” है|”

[I Am by Helen Mallicoat]

जून 6, 2013

ओशो : राहुल सांकृत्यायन (बौद्ध भिक्षु और वामपंथी लेखक)

Osho rahulमेरे एक मित्र, संस्कृत, पाली और प्राकृत के विद्वान, बौद्ध भिक्षु थे| लेकिन वे कम्यूनिज्म की ओर भी आकर्षित हो गये, और इसका कारण साधारण सी समानता थी, कि बुद्ध के यहाँ भी ईश्वर की परिकल्पना नहीं  है और मार्क्स के यहाँ भी नहीं है| सो वे मार्क्सिज्म की ओर आकर्षित हो गये और अंततः कम्यूनिस्ट बन गये| और सोवियत यूनिवर्सिटी ने उन्हें कहा कि वे वहाँ जाकर  संस्कृत पढाएं और वे मॉस्को चले गये|

भारत से बाहर, मॉस्को में हर चीज अलग थी| यहाँ उनके लिए असंभव था कि बौद्ध भिक्षु भी बने रहते और किसी स्त्री से प्रेम भी कर लेते| सोवियत यूनियन  में ऐसी कोई परेशानी नहीं थी| वे वहाँ एक स्त्री के प्रेम में पड़ गये| लोला– उसी यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर थी और उसके दो बच्चे भी थे|

सोवियत सरकार ने उन्हें अनुमति नहीं दी कि वे लोला और उसके बच्चों को सोवियत संघ के बाहर ले जाएँ, अलबत्ता वहाँ वे उनके साथ रह सकते थे| पर राहुल भारत वापिस आना चाहते थे|  और वे घबराये हुए भी थे| एक तरह से सोवियत सरकार उनकी अंदुरनी इच्छा ही पूरी कर रही थी – कैसे वे पत्नी और दो बच्चों के साथ भारत जा सकते थे? सबने उनकी निंदा की होती, खासकर बौद्धों ने,”तुम एक भिक्षु हो|” सो एक तरह से वे खुश भी थे कि सोवियत सरकार ने उन्हें अनुमति नहीं दी सो अब वह प्रश्न ही खड़ा नहीं हुआ|

वे वापिस आ गये| उन्होंने मुझे बताया,” जब मैं पहले पहले सोवियत संघ पहुंचा मैंने एक छोटे लड़के से पूछा,” क्या तुम ईश्वर में विश्वास रखते हो|” उसने कहा,”ईश्वर! लोग अंधे युगों में उसमें विश्वास किया करते थे| अगर आपको ईश्वर की मूर्ति देखनी हो तो आप म्यूजियम में जा देख सकते हैं|” ”

लेकिन ये सब भी प्रोग्रामिंग है| ऐसा नहीं है कि ऐसे छोटे लड़के जानते हैं कि ईश्वर नहीं है या कि कार्ल  मार्क्स ही जनता था कि ईश्वर नहीं है| केवल ध्यान में गहरे उतरने वाला व्यक्ति ही जां सकता है कि ईश्वर है या नहीं|

आप सब लोग किसी न किसी सांचे में ढाले गये लोग हो| आपकी प्रोग्रामिंग की गई है| और तुम्हारे साथ यह इतने गहरे में किया गया है कि तुम समझने लगे हो कि यह तुम्हारा स्वभाव है| तुम्हारी कल्पनाएं, तुम्हारी आशा, तुम्हारा भविष्य …कुछ भी प्राकृतिक नहीं है|

प्रकृति इस क्षण के सिवाय कुछ नहीं जानती| प्रकृति कुछ नहीं जानती, आशा, इच्छाएं , लालसा| प्रकृति तो आनंद उठाती है उसका जो इस क्षण, अभी और यहीं, उपलब्ध है|

राहुल ने मुझे बताया,” रशियन लोगों के लिए सबसे बड़ी अचरज की बात थी मेरे हाथ|”

मैंने कहा,” आपके हाथ!”

उन्होंने कहा,” हाँ मेरे हाथ! जब भी मैं उनसे हाथ मिलाता, वे तुरंत अपने हाथ खींच लेते और कहते,”तुम जरुर बुजुर्वा हो, तुम्हारे हाथ बताते हैं कि तुमने कभी काम नहीं किया|””

मैंने बौद्ध भिक्षु से कहा,”आप मेरे हाथ का स्पर्श करो| तब आपको पता लगेगा कि आप श्रमजीवी हो और मैं बुजुर्वा| यह आपको बहुत बड़ा दिलासा देगा|”

मई 7, 2011

ओशो, टैगोर और ईश्वर

रबिन्द्रनाथ टैगोर की एक खूबसूरत कविता है जिसमें वे कहते हैं –

मैं बहुत सारे जन्मों से ईश्वर की खोज करता रहा हूँ। कभी मैंने उसे दूरस्थ तारे के समीप देखा और मैं अत्याधिक प्रसन्नता से भर गया कि भले ही तारा बहुत दूर था पर उस तक पहुँचना असंभव तो न था। और मैं उस ओर चल पड़ा लेकिन जब तक मैं वहाँ पहुँचता, ईश्वर किसी और स्थान की ओर चला गया। लेकिन वह अभी भी दिख रहा था, अपनी ओर आमंत्रित करता हुआ, मेरे अंदर आशा का संचार करता हुआ।

और मैं जन्मों जन्मों से इस ब्रह्मांड के चक्कर लगा रहा हूँ, ईश्वर की प्राप्ति के लिये।

एक दिन ऐसा हो गया कि मैं ईश्वर के घर पहुँच गया। मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि मैं वहाँ पहुँच गया था। यह इतने बड़े आश्चर्य की बात थी पर मैं तब भी दरवाजे की ओर बढ़ा। जैसे ही मैं दरवाजा खटखटाने वाला था कि मेरे हाथ जड़ हो गये। मेरे अंदर एक विचार कौंधा – रुको ज़रा, सोच तो लो। दरवाजे पर यह लिखा हुआ है कि यह ईश्वर का घर है। अगर यह वास्तव में ही ईश्वर का घर हुआ तो तुम समाप्त हो गये। तुम्हारी खोज खत्म हो गयी। उसके बाद क्या करोगे?

लाखों सालों की तुम्हारी ट्रेनिंग है सिर्फ खोजने की। तुम एक खोजक की भांति तो एकदम अनुशासित हो पर प्राप्तकर्ता की तरह नहीं। यह बिल्कुल नया है तुम्हारे लिये और तुम इससे नितांत अपरिचित। और सबसे बड़ी बात…खोज उस परम की, परम ईश्वर की, जिसके परे खोजने को कुछ भी नहीं है। उसके बाद क्या करोगे? उसके बाद क्या बनोगे? और यह तो सदैव बनी रहने वाली शून्यता की स्थिति बन जाने वाली है।

वह अपने जूते अपने हाथों में ले लेता है। उसे भय था कि जब वह सीढ़ियाँ उतरता हो तो ईश्वर आहट सुनकर दरवाजा न खोल दे…। और वह बिना पीछे देखे सरपट भाग आया।

कविता बहुत खूबसूरत है क्योंकि यह आगे कहती है –

मैं उसकी खोज में पुनः लग गया हूँ। मैं उसे जान गया हूँ, उसके घर को पहचान गया हूँ अतः उधर जाने से बचने का भरकस प्रयास करता हूँ। मैं हर दिशा में जाता हूँ पर ईश्वर के घर की दिशा से दूर ही रहता हूँ क्योंकि मुझे पता है कि उससे मिलने का मतलब है मेरी समाप्ति।

बुद्धत्व कुछ और नहीं है तुम्हारे खात्मे के सिवा। यह विशुद्ध मौन के अतिरिक्त्त कुछ और नहीं है। प्राकृतिक रुप से मानव डरता है और सोचता है – बुद्धत्व न पाकर इसकी खोज में निरंतर लगे रहना ही श्रेयकर है।

यह जो कथा रबिन्द्रनाथ की कविता की मार्फत मैंने तुम्हे बतायी, यह सभी की कहानी है।

इसीलिये मैं कहता हूँ – तुम बुद्ध हो पर तुम इसे पहचानना नहीं चाहते, स्वीकृति नहीं देना चाहते।

तुम कोई ऐसा रास्ता खोजना चाहते हो जिससे कि तुम बुद्धत्व की खोज बार बार शुरु कर सको।

साभार :  ओशो – “हरि ओम तत्सत” से

मार्च 4, 2011

दोमुँहे…

मैं चूमता हूँ हवाएं
देखता हूँ सितारे
पूजता हूँ सागर
सहेजता हूँ नदियां
सहलाता हूँ लहरें
छूता हूँ मिट्टी
बनाता हूँ सोना
मुझे कोई कुछ नहीं कहता।

लेकिन-
जब देखता हूँ औरत
लिखता हूँ उसके बारे में
तो लोग भूल जाते हैं
अपनी आँखें
बन जाते हैं जबान
मुझे पोर्नोग्राफर और
मेरी रचनाओं को
कहते हैं अश्लील,
चाहते हैं हो जाऊँ
दोमुँहा उनकी तरह
और बकूँ बकवास।

मैं पूछता हूँ
हुजूर!
आप ईश्वर से क्यों नहीं पूछते
लगाते तोहमत
कि दो एक से इंसानों की तकदीर
उसने क्यों पलट दी है
धरती के एक हिस्से को चमन
तो दूसरे को
बनाया क्यों है रेगिस्तान
कहीं बर्फ की चादर
कहीं पर आग की बारिश
कहीं पर टॉरनेडो।
सुबह और शाम के फासले में
जो बदल देता है दुनिया
उसके खिलवाड़ को आप कहते हैं
करिश्मा।

और-
मैं जो सोचता हूँ
कहता हूँ
लिखता हूँ
उसे ईमानदारी से पढ़ने
या सुनने के बाद
चोरी से कहते हैं आप
बहुत घटिया है तुम्हारी सोच
केवल गलाज़त देखते हो
अपना कचरा दूसरों पर फेंकते हो।

हुजूर!
माफ करें मुझे
मुझमें बहती नहीं है गंगा
छटपटाती है वैतरणी
डूबना चाहेंगे?
तो हकीकत में डूबिये
मगर खुदा की कसम
झूठ मत बोलिये
एक बार तो ईमान से कहें
अपनी संतति के लिये
कि दोमुँहे नहीं हैं आप
शायद, बदल जाये यह दुनिया।

मेरे लिये मुश्किल है
बदलना
मैं कर सकता हूँ कोशिश
चलने की जमाने के साथ
मगर हो नहीं सकता हूबहू उस जैसा।

हाँ, उसे लिख सकता हूँ
ईमानदारी के साथ
आप जैसों के लिये
जो गालियाँ बकें मुझे
ताज़िंदगी ऊपर से
और मुझें पढ़ें भीतर से।

{कृष्ण बिहारी}

 

[चित्र : राजा रवि वर्मा]

जुलाई 18, 2010

दाता द्वार खोलत नाहीं

“कुछ भी देकर उन्हे आप,
माहौल बिगाड़ रहे हैं
आप भिखारियों की संख्या में बढ़ोतरी कर रहे हैं”

भिखारी उन्मूलन संस्था बनायी है उन्होने
देश भर में दौरा करते हैं इसके अध्यक्ष की हैसियत से
गला दुखने लग जाता है
उस हद तक बोलते हैं
खिलाफ भिक्षावृत्ति के।

सब सार्वजनिक स्थलों से
भिखारियों को हटाने की मुहिम
उन्होने चलायी हुयी है,
“सबको आत्म निर्भर होना चाहिये”
उनका सूत्र वाक्य है,
और उनकी संस्था का भी।

वैसे वे अपने को धार्मिक कहते हैं
धर्म स्थलों की ही यात्रा नहीं करते
घर में भी नियमित रुप से
प्रार्थना आदि करते रहते हैं,
दिन रात कभी भी करने लगते हैं।

ईश्वर की कृपादृष्टि बनी रहे
उन्हे और उनके प्रियजनों को जो चाहिये
उसके लिये हाथ जोड़े
सिर झुकाये
प्रार्थना करते रहते हैं।

पर कुछ हो गया है,
आजकल
मामला कुछ जम नहीं रहा।

सारी दुनिया के साथ यही हो गया है।

कहीं कोई मुस्कुराया है!

घर में
या धर्मस्थलों में
कहीं भी जाकर प्रार्थना करके
कुछ भी माँगते रहो
आजकल मिलता कुछ नहीं।

जिससे मिल सकता है
वह तो मंद मंद मुस्कुराने
में व्यस्त है।

...[राकेश]