एक मध्यमवर्गीय परिवार का लड़का, घर के हालात से बिल्कुल बेपरवाह, हरदम खेल के मैदान में चौके और छक्के उड़ने में लगा रहता था। एक दोस्त ने उसे इब्ने सफी की जासूसी पुस्तक पढ़ने को पकड़ा दी। फिर क्या था उसे तो जैसे चस्का सा लग गया, इब्ने सफी, कर्नल रंजीत, हामिद विनोद, वेदप्रकाश काम्बोज और जाने कैसे कैसे लेखकों के रहस्य–रोमांच से भरे उपन्यास पढ़ने का।
चवन्नी रोज के हिसाब से मोहल्ले की चालू पुस्तकों की दुकान से किताबें लाने का एक बेताब सा सिलसिला शुरू हो गया। खेल के मैदान में चौक-छक्के लगाने वाला लड़का अब रोज जासूसी किताबों के चौके-छ्क्के लगाने लगा।
एक दिन हाथ आ गयी गुलशन नंदा रचित किताब “झील के उस पार“। कलम के रोमांस का ऐसा जादू चढ़ा लड़के पर कि सम्मोहित सा होकर इब्ने सफी आदि को एक कोने में रखकर गुलशन नंदा और रानू वगैरहा के साथ चल दिया। किशोर उम्र में प्राकृतिक रूप से भी मन चंचलता की ओर स्वत: ही आकर्षित होने लगता है। वयस्कता के अंजान तिलस्मी सपने सुहाने लगने लगते हैं। लड़का अब शेव करने लगा था ओर कॉलेज में पहुच गया था।
स्कूल के समय पढ़ी कोर्स की किताबों में प्रेमचंद की कहानियाँ अब उसे बोर लगती थी पर बर्थ-डे पर पडोस में भोले बचपन की दोस्त ने गोदान गिफ्ट कर कहा था – पढ़ कर बताना कैसी लगी।
सो दिली फ़र्ज़ मानते हुए किताब पढ़ी गयी। पड़ोस वाली भोली लड़की को पढ़ कर क्या बताया गया उसकी अलग कहानी है। प्रेमचंद की किताब में लड़के ने जीवन की ज़ालिम और कड़वी वास्तविकता देखी जो वो आपने आसपास के माहौल में काफी समय से महसूस कर रहा था पर समझ नहीं पा रहा था।
लड़का प्रेमचंद की डगर पर चलता हुआ शरतचंद्र तक जा पंहुचा। यानि शुद्ध साहित्य के चस्के में पड़ गया। चौके-छ्क्के मारने वाला खिलाडी वैसे भी पढ़ने लिखने में सामान्य था दीवाना पाठक बनने से भी उसके अंक २-४ ही उधर उधर हुए। मगर समझ के कैनवास पर उमराव जान से लेकर पारो तक ऐसे ऐसे विलक्षण रंग उभरने लगे कि अभिभूत होकर प्यासे हिरण सामान पुस्तकों की मरीचिका में वो भटकने लगा। मरीचिका इस लिए कि मध्यम वर्ग के लड़के को जेब खर्च २ रूपये मिलते ओर किताब २० – ४० रुपये की आती थी। ऐसे में पढ़ने हेतु किताब मिले कहाँ से? पर जहाँ प्यास होती है, पानी भी कहीं ना कहीं से मिल ही जाता है।
किसी दोस्त ने बातों बातों में बताया शनिवार के हाट बाज़ार में रद्दी किताबें बिकने आती हैं। बस फिर क्या था शनिवार को साइकिल दौड़ा कर हाट बाज़ार जा पंहुचा। चारों तरफ फैले पुराने कपड़ों, फर्नीचर, औजार, और खिलौनों आदि के ढ़ेरों के पास एक कोने में किताबों का फैला ढ़ेर भी मिल गया।
पुरानी रंग बिरंगी पत्रिकाओं में उलझी अंग्रेजी भाषा की पुस्तक “ऐ स्टोन फॉर डैनी फिशर“, जिस पर एक अर्धनग्न सी लड़की के चित्र के नीचे हेरोल्ड रोबिंस लिखा था, ने वयस्क होते दिमाग की यौवन ग्रंथियों को झिंझोड़ सा दिया। फिर वही किताब का जादू नए सिरे से सर चढ़ कर बोल रहा था।
पुस्तक हाथ में लेकर लड़का कंपकपाते होटों से बोला,” कितने… की है… यह किताब”?
अधेड कबाड़ी ने पुस्तक पर सरसरी निगाह डाली और बिना सर उठाये ही कह दिया,” २० रूपए की”।
लड़के का दिल डूब सा गया। बड़ी मुश्किल से दस रूपये माँ से मांग कर लाया था और किताब बीस की। किताब वापस ढ़ेर पर छोड़ कर चलते चलते मरे से मन से बोला,” दस रुपए में दोगे”?
कबाड़ी ने कहा.”ला”।
पुस्तक लड़के के हाथ में थी। एक अजीब सी उत्तेजना से मन पखेरू फड़फड़ा रहा था। सो लड़का घर आते ही किताब पड़ने बैठ गया। कहाँ उसकी मातृभाषा हिंदी की फरफर और कहाँ यह अंग्रेजी का नया बवाल। अटक अटक कर गाड़ी चल रही थी। एक बार तो लड़के ने सोचा छोड़ यार किस चक्कर में फँस गया? पर विचित्र से उन्माद ने लड़के से डिक्शनरी उठवा ली और उसके हाथ “ऐ स्टोन फॉर डैनी फिशर” के पन्ने उलटते चले गये।
शालीन भाषा की हिंदी पढ़े लड़के पर अंग्रेजी का यह नया खुलेपन वाला अंदाज़ पूरा हावी हो गया था। अब हेरोल्ड रोबिंस ओर उन जैसे लेखकों की किताबे नया चाव बन गयी थी। लड़के का ३ कमरों वाला छोटा सा घर था। जिसका छोटा सा स्टोर उसे कमरे के रूप में मिला था। उसका बिस्तर और पढ़ने की कुर्सी टेबल भी उस ज़रा से स्थान में बा-मुश्किल आती थी। यहाँ पुस्तकों हेतु अलमारी रखना तो सपना सा था। स्टोर में सामान रखने की एक ही बारी थी। सो यह बारी ही लड़के की किताबें रखने का स्थान बन गयी। एक एक करके बारी में किताबे जमा होने लगीं। हर सप्ताह एक दो किताब या पैसे की सुविधा अनुसार अधिक भी किताबें आती गयीं।
हेरोल्ड रोबिंस के साथ साथ स्वत: ही तरह तरह की एक्शन, मिस्ट्री ओर हॉरर आदि की किताबों के ज़रिये रोबर्ट लुडलुम से लेकर स्टीफन किंग तक लड़के के नए दोस्त बनते गये। युवक बनते लड़के का किताबों की तलाश में साप्ताहिक सफर जारी था।
कबाड़ी के ढेर में कई सदा-उदास से कवर और बिना तस्वीर के आवरण वाली किताबें भी पड़ी रहती थीं जो लड़के को आकर्षित नहीं करती थी।
एक बार एक पतली सी पुस्तक “द प्रोफेट” पड़ी देखी। हमारा वो लड़का, जो अब युवक के नाम से जाना जायेगा, जाने क्यों किताब के आवरण के पीछे लिखी प्रशंसा से इम्प्रेस हो गया। वो उस पुस्तक को भी ५ रूपये में उठा लाया। इस किताब से तो युवक पर नया ही नशा तारी हो गया।
“द प्रोफेट” इक ही बार में पूरी पढ़ डाली। देर तक जाने क्या सोचता रहा ओर फिर नए सिरे से किताब खुल गयी। अब तो युवक की दुनिया ही बदल गई थी।
शेक्सपीयर, बर्नाड शॉ, काफ्का, बालज़ाक, तोल्स्तोय, सोल्ज़त्सिन, लाओत्से, से कीट्स, शेली और रूमी तक युवक के दिमाग में अस्तित्व दर्शन ओर चिंतन की गुत्थियाँ सुलझाने आने लगे।
हर सप्ताह हाट बाज़ार से किताबें आती गयीं और हमारे युवक की किताबों वाली बारी पूरी भर गयी। एक रविवार ४-५ किताबों को बिस्तर पर पडा देख युवक ने सोचा – नई किताबें रखने के लिए कुछ पुरानी पुस्तकें पैकेट में बिस्तर के नीचे रख दी जायें।
उसने किताबे बारी से निकाली पर यह क्या?
उसका तो सारा खज़ाना ही लुट गया था। बारी की पुस्तकों में नीचे से दीमक ने लग कर अधिकांश पुस्तकों को चाट लिया था।
युवक की आँखों के सामने अंधकार सा छा गया। अपने आप ही आँसू बहने लगे।
उसकी धुंधलाई आँखों के सामने पड़ी कटी मिटी पुस्तक “रुबाईयात-ए-उमरखय्याम” जैसे हँस कर नश्वरता के गीत सुना रही थी।
युवक को भी शायद उमरखय्याम की रुबाई का असली अर्थ समझ आ गया।
पुस्तकों की खाली बारी की ओर देख कर वो भी मुस्कारने लगा।
(रफत आलम)