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फ़रवरी 28, 2017

जंग न होने देंगें …अटल बिहारी बाजपेयी

gurmehar विश्व शांति के हम साधक हैं,
जंग न होने देंगे!
कभी न खेतों में फिर खूनी खाद फलेगी,
खलिहानों में नहीं मौत की फसल खिलेगी,
आसमान फिर कभी न अंगारे उगलेगा,
एटम से नागासाकी फिर नहीं जलेगी,
युद्धविहीन विश्व का सपना भंग न होने देंगे।
जंग न होने देंगे।
हथियारों के ढेरों पर जिनका है डेरा,
मुँह में शांति,
बगल में बम,
धोखे का फेरा,
कफन बेचने वालों से कह दो चिल्लाकर,
दुनिया जान गई है उनका असली चेहरा,
कामयाब हो उनकी चालें,
ढंग न होने देंगे।
जंग न होने देंगे।
हमें चाहिए शांति,
जिंदगी हमको प्यारी,
हमें चाहिए शांति, सृजन की है तैयारी,
हमने छेड़ी जंग भूख से, बीमारी से,
आगे आकर हाथ बटाए दुनिया सारी।
हरी-भरी धरती को खूनी रंग न लेने देंगे जंग न होने देंगे।
भारत-पाकिस्तान पड़ोसी, साथ-साथ रहना है,
प्यार करें या वार करें, दोनों को ही सहना है,
तीन बार लड़ चुके लड़ाई,
कितना महँगा सौदा,
रूसी बम हो या अमेरिकी,
खून एक बहना है।
जो हम पर गुजरी,
बच्चों के संग न होने देंगे।
जंग न होने देंगे।
(अटल बिहारी बाजपेयी)

फ़रवरी 21, 2017

काफ़िर क़ाफ़िर

मैं भी काफ़िर, तू भी क़ाफ़िर
फूलों की खुशबू भी काफ़िर
लफ्जों का जादू भी काफ़िर
ये भी काफिर, वो भी काफिर
फ़ैज़ भी और मंटो भी काफ़िर
नूरजहां का गाना काफिर
मैकडोनैल्ड का खाना काफिर
बर्गर काफिर, कोक भी काफ़िर
हंसना, बिद्दत, जोक भी काफ़िर
तबला काफ़िर, ढोल भी काफ़िर
प्यार भरे दो बोल भी काफ़िर

सुर भी काफिर, ताल भी काफ़िर
भांगडा, आतंक, धमाल भी काफ़िर
दादरा, ठुमरी, भैरवी काफ़िर
काफी और खयाल भी काफ़िर
वारिस शाह की हीर भी काफ़िर
चाहत की जंजीर भी काफ़िर
जिंदा-मुर्दा पीर भी काफ़िर
नज़र नियाज़ की खीर भी काफ़िर
बेटे का बस्ता भी काफ़िर
बेटी की गुड़िया भी काफ़िर
हंसना-रोना कुफ़्र का सौदा
गम काफ़िर, खुशियां भी काफ़िर
जींस भी और गिटार भी काफ़िर
टखनों से नीची लटके तो
अपनी ये शलवार भी काफ़िर
कला और कलाकार भी काफ़िर
जो मेरी धमकी न छापे
वो सारे अखबार भी काफ़िर
यूनिवर्सिटी के अंदर काफ़िर
डार्विन भाई का बंदर काफ़िर
फ्रायड पढ़ाने वाले काफ़िर
मार्क्स के सब मतवाले काफ़िर
मेले-ठेले कुफ़्र का धंधा
गाने-बाजे सारे फंदा
और मंदिर में तो बुत होता है
मस्जिद का भी हाल बुरा है
कुछ मस्जिद के बाहर काफ़िर
कुछ मस्जिद के अंदर काफ़िर
मुस्लिम मुल्क में अक्सर काफ़िर
काफ़िर काफ़िर मैं भी काफ़िर
काफ़िर काफ़िर तू भी काफ़िर|

(सलमान हैदर)

मई 23, 2016

मुसलमान … (देवी प्रसाद मिश्र)

कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे

ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे

वे मुसलमान थे

उन्होंने अपने घोड़े सिन्धु में उतारे
और पुकारते रहे हिन्दू! हिन्दू!! हिन्दू!!!

बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
नदी का नाम दिया

वे हर गहरी और अविरल नदी को
पार करना चाहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
हिन्दुओं की तरह पैदा होते थे

उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियाँ थीं
चलने की
ठहरने की
पिटने की
और मृत्यु की

प्रतिपक्षी के ख़ून में घुटनों तक
और अपने ख़ून में कन्धों तक
वे डूबे होते थे
उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें
और म्यानों में सभ्यता के
नक्शे होते थे

न! मृत्यु के लिए नहीं
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे

वे मुसलमान थे

वे फ़ारस से आए
तूरान से आए
समरकन्द, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
तुर्किस्तान से आए

वे बहुत दूर से आए
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे कि या ख़ुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू

वे महत्त्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियाँ थीं

वे घोड़ों के साथ सोते थे
और चट्टानों पर वीर्य बिख़ेर देते थे
निर्माण के लिए वे बेचैन थे

वे मुसलमान थे

यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए

कि वे प्रायः इस तरह होते थे
कि प्रायः पता ही नहीं लगता था
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे

वे मुसलमान थे

वे न होते तो लखनऊ न होता
आधा इलाहाबाद न होता
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
आदाब न होता

मीर मक़दूम मोमिन न होते
शबाना न होती

वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला ख़ुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता

मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता

वे थे तो चचा हसन थे
वे थे तो पतंगों से रंगीन होते आसमान थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे

वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
वे सोचते थे और सोचकर डरते थे

इमरान ख़ान को देखकर वे ख़ुश होते थे
वे ख़ुश होते थे और ख़ुश होकर डरते थे

वे जितना पी०ए०सी० के सिपाही से डरते थे
उतना ही राम से
वे मुरादाबाद से डरते थे
वे मेरठ से डरते थे
वे भागलपुर से डरते थे
वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे

वे पवित्र रंगों से डरते थे
वे अपने मुसलमान होने से डरते थे

वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे लेकिन अपने घर को लेकर घर में
देश को लेकर देश में
ख़ुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे

वे उखड़ा-उखड़ा राग-द्वेष थे
वे मुसलमान थे

वे कपड़े बुनते थे
वे कपड़े सिलते थे
वे ताले बनाते थे
वे बक्से बनाते थे
उनके श्रम की आवाज़ें
पूरे शहर में गूँजती रहती थीं

वे शहर के बाहर रहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
वे मुसलमान थे अरब का पैट्रोल उनका नहीं था
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
देश के ज़्यादातर अख़बार यह कहते थे
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
कर्फ़्यू लगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
ख़बरें आती थीं

उनकी औरतें
बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे

वे अगर पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे
तो उससे कई गुना ज़्यादा बार
सिर पटकते थे
वे मुसलमान थे

वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
हम क्या करें इस मस्जिद का जिसका नाम
कुव्वत-उल-इस्लाम है
इस्लाम की ताक़त है

अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
वे मुसलमान थे

वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएँ
लेकिन नहीं जा सकते थे
वे सोचते थे यहीं रह जाएँ
तो नहीं रह सकते थे
वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे

वे मुसलमान थे इसलिए
तूफ़ान में फँसे जहाज़ के मुसाफ़िरों की तरह
एक दूसरे को भींचे रहते थे

कुछ लोगों ने यह बहस चलाई थी कि
उन्हें फेंका जाए तो
किस समुद्र में फेंका जाए
बहस यह थी
कि उन्हें धकेला जाए
तो किस पहाड़ से धकेला जाए

वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियाँ नहीं थे
वे मुसलमान थे वे चूजे नहीं थे

सावधान!
सिन्धु के दक्षिण में
सैंकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
मिट्टी के ढेले नहीं थे वे

वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
वे सिन्धु और हिन्दुकुश की तरह सच थे
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
उस तरह वे सच थे
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
वे मुसल

मान थे अफ़वाह नहीं थे

वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे”

 

 (देवीप्रसाद मिश्र)
दिसम्बर 20, 2014

हिंदुस्तानियों, बधाई तुम पाकिस्तानियों जैसे निकले

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छुपे थे भाई ?

वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गवाईं
आख़िर पहुंची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई!

प्रेत धरम का नाच रहा है
क़ायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उलटे काज करोगे
अपना चमन तराज करोगे

तुम भी बैठे करोगे सोच
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी ?

होगा कठिन यहां भी जीना
दांतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
यहां भी सबकी सांस घुटेगी

कल दुख से सोचा करते थे
सोच के बहुत हंसी आ जाएगी
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
हम दो क़ौम नहीं थे भाई

भाड़ में जाए शिक्षा- विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना
आगे गड्ढा है ये मत देखो
वापस लाओ गया ज़माना

मश्क करो तुम आ जाएगा
उल्टे पांव चलते जाना
ध्यान न मन में दूजा आये
बस पीछे ही नज़र जमाना

एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कितना आलीशान था भारत

फिर तुम लोग पहुंच जाओगे
बस परलोक पहुंच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहां पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहां से
चिट्ठी विट्ठी डालते रहना

(फहमीदा रियाज़)

दिसम्बर 16, 2014

मासूम बच्चे और नृशंस तालिबानी

“आइये हाथ उठायें हम भीsmallest coffin
हम जिन्हे रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हे सोज़-ऐ-मुहब्बत के सिवा
कोई बुत, कोई खुदा याद नहीं। ”

— फैज़ अहमद फैज़

दिसम्बर 16, 2014

बच्चे को क्या मालूम … मंटो

kid on gunpoint-001लिबलिबी दबी-पिस्तौल से झुंझलाकर गोली बाहर निकली।खिड़की में से बाहर झाकने वाला आदमी उसी जगह दोहरा हो गया।लिबलिबी थोड़ी देर के बाद फिर दबी-दूसरी गोली भिनभिनाती हुई बाहर निकली।सड़क पर माशकी की मश्क फटी, वह औंधे मुंह गिरा और उसका लहू मश्क के पानी में मिलकर बहने लगा।लिबलिबी तीसरी बार दबी-निशाना चूक गया, गोली एक गीली दीवार में जज्ब हो गई।चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी, वह चीख भी न सकी और वहीं ढेर हो गई।

पाचवीं और छठी गोली बेकार गई, कोई हलाक हुआ न जख्मी। गोलिया चलाने वाला भिन्ना गया। दफ्अतन सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता हुआ दिखाई दिया। गोलिया चलाने वाले ने पिस्तौल का मुंह उसकी तरफ मोड़ा। उसके साथी ने कहा: ”यह क्या करते हो?”

गोलिया चलाने वाले ने पूछा: ”क्यों?” ”गोलिया तो खत्म हो चुकी है!”

 

”तुम खामोश रहो.. इतने-से बच्चे को क्या मालूम?”

 

[मंटो की लघुकथा – बेखबरी का फायदा]

मई 26, 2013

मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई

Train to Pak

सादत हसन मंटो ने भारत-पाकिस्तान बंटवारे और इससे उपजी हिंसा पर बेहद प्रभावशाली कहानियां लिखी हैं और नफ़रत के ऐसे माहौल में इंसानियत कितना गिर सकती है इस बात को अपनी कहानियों के जरिये दुनिया को बताया है| अज्ञेय ने भी पनी संवेदनशीलता के बलबूते बंटवारे के समय उपजे अमानवीय हालात में एक मनुष्य की विवशता और दूसरे मनुष्य के अहंकार के संघर्ष को बड़े प्रभावी तरीके से इस बेहतरीन कहानी – मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई, में दर्शाया है| सैधान्तिक रूप से भले ही इस्लाम कहता हो कि सभी इंसान (और कम से कम मुसलमान) बराबर हैं पर मनुष्य बेहद चालाक जीव है और वह ऐसे उपदेशों को सिर्फ बोलने के लिए मानता है, इन पर अमल नहीं करता| धनी मुसलमान औरतें और मर्द ही ही मजलूम मुस्लिम औरतों की मदद नहीं करते बल्कि उन्हें अपने पद, और धन के रसूख से उपजे अहंकार के कारण बेइज्जत भी करते हैं| मंटो लिखते तो शायद इसी कहानी में धनी पुरुष की लालची और वासनामयी दृष्टि गरीब औरतों के जिस्म को खंगाल कर उससे बलात्कार करने लगती पर अज्ञेय की लेखनी अलग ढंग से काम करती है और यहाँ धनी पुरुष गरीब स्त्री के चरित्र पर घटिया संवादों से आक्रमण करता है|

मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई

छूत की बीमारियाँ यों कई हैं; पर डर-जैसी कोई नहीं। इसलिए और भी अधिक, कि यह स्वयं कोई ऐसी बीमारी है भी नहीं-डर किसने नहीं जाना? – और मारती है तो स्वयं नहीं, दूसरी बीमारियों के ज़रिये। कह लीजिए कि वह बला नहीं, बलाओं की माँ है…

नहीं तो यह कैसे होता है कि जहाँ डर आता है, वहाँ तुरन्त घृणा और द्वेष, और कमीनापन आ घुसते हैं, और उनके पीछे-पीछे न जाने मानवात्मा की कौन-कौन-सी दबी हुई व्याधियाँ!

वबा का पूरा थप्पड़ सरदारपुरे पर पड़ा। छूत को कोई-न-कोई वाहक लाता है; सरदारपुरे में इस छूत का लाया सर्वथा निर्दोष दीखनेवाला एक वाहक – रोज़ाना अखबार!

यों अखबार में मार-काट, दंगे-फ़साद, और भगदड़ की खबरें कई दिन से आ रही थीं, और कुछ शरणार्थी सरदारपुरे में आ भी चुके थे – दूसरे स्थानों से इधर और उधर जानेवाले काफ़िले कूच कर चुके थे। पर सरदारपुरा उस दिन तक बचा रहा था।

उस दिन अखबार में विशेष कुछ नहीं था। जाजों और मेवों के उपद्रवों की खबरें भी उस दिन कुछ विशेष न थीं – ‘पहले से चल रहे हत्या-व्यापारों का ही ताज़ा ब्यौरा था। कवेल एक नयी लाइन थी’, ‘अफ़वाह है कि जाटों के कुछ गिरोह इधर-उधर छापे मारने की तैयारियाँ कर रहे हैं।’

इन तनिक-से आधार को लेकर न जाने कहाँ से खबर उड़ी कि जाटों का एक बड़ा गिरोह हथियारों से लैस, बन्दूकों के गाजे-बाजे के साथ खुले हाथों मौत के नये खेल की पर्चियाँ लुटाता हुआ सरदारपुरे पर चढ़ा आ रहा है।

सवेरे की गाड़ी तब निकल चुकी थी। दूसरी गाड़ी रात को जाती थी; उसमें यों ही इतनी भीड़ रहती थी और आजकल तो कहने क्या… फिर भी तीसरे पहर तक स्टेशन खचाखच भर गया। लोगों के चेहरों के भावों की अनदेखी की जा सकती तो ही लगता कि किसी उर्स पर जानेवाले मुरीद इकट्ठे हैं…

गाड़ी आयी और लोग उस पर टूट पड़े। दरवाजों से, खिड़कियों से, जो जैसे घुस सका, भीतर घुसा। जो न घुस सके वे किवाड़ों पर लटक गये, छतों पर चढ़ गये या डिब्बों के बीच में धक्का सँभालनेवाली कमानियों पर काठी कसकर जम गये। जाना ही तो है, जैसे भी हुआ, और फिर कौन टिकट खरीदा है जो आराम से जाने का आग्रह हो…

गाड़ी चली गयी। कैसे चली और कैसे गयी, यह न जाने, पर जड़ धातु होने के भी लाभ हैं ही आखिर!

और उसके चले जाने पर, मेले की जूठन-से जहाँ-तहाँ पड़े रह गये कुछ एक छोटे-छोटे दल, जो किसी-न-किसी कारण उस ठेलमठेल में भाग न ले सके थे-कुछ बूढ़े, कुछ रोगी, कुछ स्त्रियाँ और तीन अधेड़ उम्र की स्त्रियों की वह टोली, जिस पर हम अपना ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं।

सकीना ने कहा, ‘‘या अल्लाह, क्या जाने क्या होगा।’’

अमिना बोली, ‘‘सुना है एक ट्रेन आने वाली है – स्पेशल। दिल्ली से सीधी पाकिस्तान जाएगी – उसमें सरकारी मुलाज़िम जा रहे हैं न? उसी में क्यों न बैठे?’’

‘‘कब जाएगी?’’

‘‘अभी घंटे-डेढ़ घंटे बाद जाएगी शायद..’’

जमीला ने कहा, ‘‘उसमें हमें बैठने देंगे? अफ़सर होंगे सब…’’

‘‘आखिर तो मुसलमान होंगे – बैठने क्यों न देंगे?’’

‘‘हाँ, आखिर तो अपने भाई हैं।’’

धीरे-धीरे एक तन्द्रा छा गयी स्टेशन पर। अमिना, जमीला और सकीना चुपचाप बैठी हुई अपनी-अपनी बातें सोच रही थीं। उनमें एक बुनियादी समानता भी थी और सतह पर गहरे और हल्के रंगों की अलग-थलक छटा भी… तीनों के स्वामी बाहर थे – दो के फ़ौज में थे और वहीं फ्रंटियर में नौकरी पर थे – उन्होंने कुछ समय बाद आकर पत्नियों को लिवा ले जाने की बात लिखी थी; सकीना का पति कराची के बन्दरगाह में काम करता था और पत्र वैसे ही कम लिखता था, फिर इधर की गड़बड़ी में तो लिखता भी तो मिलने का क्या भरोसा! सकीना कुछ दिन के लिए मायके आयी थी सो उसे इतनी देर हो गयी थी, उसकी लड़की कराची में ननद के पास ही थी। अमिना के दो बच्चे होकर मर गये थे; जमीला का खाविन्द शादी के बाद से ही विदेशों में पलटन के साथ-साथ घूम रहा था और उसे घर पर आये ही चार बरस हो गये थे। अब… तीनों के जीवन उनके पतियों पर केन्द्रित थे, सन्तान पर नहीं, और इस गड़बड़ के जमाने में तो और भी अधिक… न जाने कब क्या हो – और अभी तो उन्हें दुनिया देखनी बाक़ी ही है, अभी उन्होंने देखा ही क्या है? सरदारपुरे में देखने को है भी क्या-यहाँ की खूबी यही थी कि हमेशा अमन रहता और चैन से कट जाती थी, सौ अब वह भी नहीं, न जाने कब क्या हो… अब तो खुदा यहाँ से सही-सलामत निकाल ले सही…

स्टेशन पर कुछ चलह-पहल हुई, और थोड़ी देर बाद गड़गड़ाती हुई ट्रेन आकर रुक गयी।

अमिना, सकीना और जमीला के पास सामान विशेष नहीं था, एक-एक छोटा ट्रंक एक-एक पोटली। जो कुछ गहना-छल्ला था, वह ट्रंक में अँट ही सकता था, और कपड़े-लतर का क्या है-फिर हो जाएँगे। और राशन के ज़माने में ऐसा बचा ही क्या है जिसकी माया हो।

ज़मीला ने कहा, ‘‘वह उधर ज़नाना है!’’ – और तीनों उसी ओर लपकीं।

ज़नाना तो था, पर सेकंड क्लास का। चारों बर्थों पर बिस्तर बिछे थे, नीचे की सीटों पर चार स्त्रियाँ थीं, दो की गोद में बच्चे थे। एक ने डपटकर कहा, ‘‘हटो, यहाँ जगह नहीं है।’’

अमिना आगे थी, झिड़की से कुछ सहम गयी। फिर कुछ साहस बटोरकर चढ़ने लगी और बोली, ‘‘बहिन, हम नीचे ही बैठ जाएँगे – मुसीबत में हैं…’’

‘‘मुसीबत का हमने ठेका लिया है? जाओ, आगे देखो…’’

जमीला ने कहा, ‘‘इतनी तेज़ क्यों होती हो बहिन? आखिर हमें भी तो जाना है।’’

‘‘जाना है तो जाओ, थर्ड में जगह देखो। बड़ी आयी हमें सिखानेवाली!’’ और कहनेवाली ने बच्चे को सीट पर धम्म से बिठाकर, उठकर भीतर की चिटकनी भी चढ़ा दी।

जमीला को बुरा लगा। बोली, ‘‘इतना गुमान ठीक नहीं है, बहिन! हम भी तो मुसलमान हैं…’’

इस पर गाड़ी के भीतर की चारों सवारियों ने गरम होकर एक साथ बोलना शुरू कर दिया। उससे अभिप्राय कुछ अधिक स्पष्ट हुआ हो सो तो नहीं, पर इतना जमीला की समझ में आया कि वह बढ़-बढ़कर बात न करे, नहीं तो गार्ड को बुला लिया जाएगा।

सकीना ने कहा, ‘‘तो बुला लो न गार्ड को। आखिर हमें भी कहीं बिठाएँगे।’’

‘‘जरूर बिठाएँगे, जाके कहो न! कह दिया कि यह स्पेशल है स्पेशल, ऐरे-ग़ैरों के लिए नहीं है, पर कम्बख्त क्या खोपड़ी है कि…’’ एकाएक बाहर झाँककर बग़ल के डिब्बे की ओर मुड़कर, ‘‘भैया! ओ अमजद भैया! देखो ज़रा, इन लोगों ने परेशान कर रखा है…’’

‘अमजद भैया’ चौड़ी धारी के रात के कपड़ों में लपकते हुए आये। चेहरे पर बरसों की अफ़सरी की चिकनी पपड़ी, आते ही दरवाज़े से अमिना को ठेलते हुए बोले, ‘‘क्या है?’’

‘‘देखो न, इनने तंग कर रखा है। कह दिया जगह नहीं है, पर यहीं घुसने पर तुली हुई हैं। कहा कि स्पेशल है, सेकंड है, पर सुनें तब न। और यह अगली तो…’’

‘‘क्यों जी, तुम लोग जाती क्यों नहीं? यहाँ जगह नहीं मिल सकती। कुछ अपनी हैसियत भी तो देखनी चाहिए-’’

जमीला ने कहा, ‘‘क्यों हमारी हैसियत को क्या हुआ है? हमारे घर के ईमान की कमाई खाते हैं। हम मुसलमान हैं, पाकिस्तान जाना चाहते हैं। और…’’

‘‘और टिकट?’’

‘‘और मामूली ट्रेन में क्यों नहीं जाती?’’

अमिना ने कहा, ‘‘मुसीबत के वक्त मदद न करे, तो कम से कम और तो न सताएँ! हमें स्पेशल ट्रेन से क्या मतलब? – हम तो यहाँ से जाना चाहते हैं जैसे भी हो। इस्लाम में तो सब बराबर हैं। इतना ग़रूर – या अल्लाह!’’

‘‘अच्छा, रहने दे। बराबरी करने चली है। मेरी जूतियों की बराबरी की है तैने?’’

किवाड़ की एक तरफ का हैंडल पकड़कर जमीला चढ़ी कि भीतर से हाथ डाल कर चिकटनी खोले, दूसरी तरफ़ का हैंडल पकड़कर अमजद मियाँ चढ़े कि उसे ठेल दें। जिधर जमीला थी, उधर ही सकीना ने भी हैंडल पकड़ा था।

भीतर से आवाज़ आयी, ‘‘खबरदार हाथ बढ़ाया तो बेशर्मो! हया-शर्म छू नहीं गयी इन निगोड़ियों को…

सकीना ने तड़पकर कहा, ‘‘कुछ तो खुदा का खौफ़ करो! हम ग़रीब सही, पर कोई गुनाह तो नहीं किया…’’

‘‘बड़ी पाक़-दामन बनती हो! अरे, हिन्दुओं के बीच में रहीं, और अब उनके बीच से भागकर जा रही हो, आखिर कैसे? उन्होंने क्या यों ही छोड़ दिया होगा? सौ-सौ हिन्दुओं से ऐसी-तैसी कराके पल्ला झाड़ के चली आयी पाक़दामानी का दम भरने…’’

जमीला ने हैंडल ऐसे छोड़ दिया मानो गरम लोहा हो! सकीना से बोली, ‘‘छोड़ो बहिन, हटो पीछे यहाँ से!’’

सकीना ने उतरकर माथा पकड़कर कहा, ‘‘या अल्लाह!’’

गाड़ी चल दी। अमजद मियाँ लपककर अपने डिब्बे में चढ़ गये।

जमीला थोड़ी देर सन्न-सी खड़ी रही। फिर उसने कुछ बोलना चाहा, आवाज़ न निकली। तब उसने ओंठ गोल करके ट्रेन की ओर कहा, ‘‘थूः!’’ और क्षण-भर बाद फिर, ‘‘थूः!’’

आमिना ने बड़ी लम्बी साँस लेकर कहा, ‘‘गयी पाकिस्तान स्पेशल। या परवरदिगार!’’

(इलाहाबाद, 1947)

मई 13, 2013

वे अहले-हिन्दुस्तान हैं

हाँ वे मुसलमान थे

हम जैसे इंसान थे

लेकिन उनके सीनों में कुरआन था

और हाथों में तलवार

यकीनन वे पुकारते होंगे

हिन्दू! हिन्दू!! हिन्दू!!!

हिंद के वासियों को

वे हिन्दू ही कह सकते थे|

और हिंद के वासी

यानी बड़े नाम वाली नामवर जाति

बाएं बाजू की ताकत से बेखबर

दायें हाथ में तराजू लिए

अपना नफ़ा नुकसान तोल रही थी|

निम्न, अछूत, अनार्य इंधन पर

खौल रहा था

ब्राह्मणवाद का कढ़ाहा

और तली जा रही थीं

सत्ता और सुविधा की पूडियां |

पूडियां खाने के शौकीन

ब्राह्मण

उन्हें मलेच्छ कह सकते थे

पूडियां खाने का शौक और बनाने का फन

उन्हें निर्यात नहीं हुआ था

लेकिन

उनके दिलों में सफाई थी

वे ईमान की ताजगी लेकर निकले थे

तभी तो

दश्त क्या चीज है

दरिया भी उन्होंने नहीं छोड़े

जहां चाहा उतार दिए अपने घोड़े

हमलावर तो हमलावर होते हैं

घर लूटा और चलते बने

जैसे अंग्रेज आए और निकल भागे

वे कैसे हमलावर थे?

लूटने आए और लुटने वालों के होकर रह गये

सिर्फ तलवार के नहीं

वे विचार के धनी भी थे

जैसे ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती

हाँ! वे मुसलमान थे

ठीक कहते हो

वे आसमान से नहीं उतरे थे

लेकिन आसमानी धूप लेकर आए थे

वे मसावात-मसावात चिल्लाते आए थे

नया इन्कलाब लाए थे

वे यकीनन यहीं कहीं दूर से आए थे

और आर्यों की तरह आए थे

फर्क बस इतना था

आर्यों ने खदेड़ा था अनार्यों को

विंध्याचल के उस पार तक

जो शेष रह गये थे वे सेवक बनाए गए

अर्थात भंगी, चमार, नाई, धोबी, वगैरह-वगैरह

लेकिन वे मुसलमान थे

अहले-कुरआन थे

उन्होंने मुसलमान बनाए

अपनी इबादतगाहों में ले आए|

भंगी जब सैयद के साथ मस्जिद में बैठा होगा

ज़रा सोचकर देखो कि क्या सोचा होगा?

तुम कहते हो कि वे मुसलमान थे

वे दरहकीकत मुसलमान हैं

इतिहास के गलियारों में,

अतीत के बाजारों में,

ताकने-झाँकने से फायदा?

वे मुसलमान हैं

और हमारी तरह वर्तमान हैं

वे समस्याग्रस्त इंसान हैं

उन्हें अतीत में जीवित रखने की ख्वाहिश

जख्मों पर नमक लगाकर जगाने की काविश

जागृति नहीं खून के आंसू लाएगी

नंगे सच को

लफ्जों का लिबास देने से क्या होगा

सच को सच की तरह सुना जाए

तो सुनो-

मुसलमान न होते तो

कबीलों, वर्णों, तबकों, और जातियों के जंगल में

घृणावाद की आग लगी होती

जंगल जल चुका होता

फिर आरक्षण की धूप में किसे सेकते

आरक्षण का विरोध कौन करता

जनतंत्र की मैना कहाँ चहचहाती

समता, संतुलन, समाज सुधार शब्दकोश में धरे रहते

ईंट-पत्थर की इमारत कोई भी बना सकता है

शहर बसते ही रहते हैं

वे न होते तो बहुत कुछ न होता

या कुछ न कुछ होता

वे हैं तो दिक्कत क्या है?

वे मुसलमान हैं

वे रथ या घोड़े पर सवार आतंक नहीं हैं

वे राम से नहीं डरते

लेकिन डरते हैं

राम नाम के सौदागरों से

वे मार्क्स से नहीं डरते

लेकिन डरते हैं

मार्क्स के नाफहम अनुयायियों से

वे वाकई नहीं डरते

लेकिन डरते हैं

हुक्मे-इलाही में मिलावट करने वाले मुल्लाओं से

वे तैरना जानते हैं लेकिन

नदी किनारे बैठने को विवश हैं

उनके सिर्फ रिश्तेदार पाकिस्तान में हैं

आडवाणी जैसों को टटोलिए

जन्मभूमि का महत्व क्या है

अयोध्या से अधिक वे कराची में जीते हैं

हाँ! वे मुसलमान हैं

दो सौ बरस तक अंग्रेजों से लड़ते रहे

उन्होंने पाकिस्तान बनाया

वे पाकिस्तान के खिलाफ जंग में शहीद हुए

वे मुसलमान हैं

उनके पुरखों की हड्डियां दफ़न हैं यहीं

वे कहीं से नहीं आए

वे कहीं नहीं गए

वे कहीं नहीं जायेंगे

वे पाकिस्तान समेत फिर आयेंगे

क्योंकि वे मुसलमान हैं

वे अहले-हिन्दुस्तान हैं |

(चन्द्रभान ‘खयाल’)

फ़रवरी 23, 2011

Buddhism चीन से आया भारत : Paulo Coelho

बहुधा ऐसा हो जाता है कि विश्व प्रसिद्ध विदेशी लेखक अपनी पुस्तकों में भारत से जुड़ी बातों को गलत ढ़ंग से प्रस्तुत करते हैं। कई बार तो उन्हे जानकारी ही नहीं होती और वे केवल अनुमान के भरोसे कुछ लिख डालते हैं और कई दफा वे भारत के बारे में फैले भ्रमों के कारण उसे हल्के ढ़ंग से लेने के कारण इसे और इससे जुड़े मामलों को गम्भीरता से नहीं लेते और गलत तथ्यों का समावेश अपनी पुस्तकों में कर डालते हैं। फिल्म निर्देशक भी इन मामलों में पीछे नहीं हैं।

Buddhism और भारत के जुड़ाव के सम्बंध में विदेशी लेखकों में अक्सर भ्रम देखने को मिलता है। आयरलैंड के रहने वाले प्रसिद्ध लेखक J. H. Brennan अपनी पुस्तक Tibetan Magic and Mysticism में तिब्बत पर Buddhism के पड़ने वाले असर की चर्चा करते हुये लिखते हैं –

There is no question at all that the doctrines of the Buddha helped change Tibetan history. All the same, Buddhism alone is no guarantee of a peaceful culture. India, the home of Gautam Buddha, has been to war twice in my life time.

शोध करके लिखने वाले लेखकों का यह हाल है कि वे अपने समय के भारत के बारे में भी इस सत्य को नज़रअंदाज कर जाते हैं कि सन 1947 के बाद से ही भारत ने किसी भी देश पर अपनी ओर से आक्रमण नहीं किया है। विभाजन के बाद पहले कश्मीर को लेकर, बाद में सन 1965 में और 1971 में और 1999 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण करके शांतिप्रिय लोकतांत्रिक देश पर युद्ध थोपे थे।  1962 में साम्राज्यवादी चीन ने भारत पर धोखे से आक्रमण किया और अपने इस शांतिप्रिय पड़ोसी देश को युद्ध में घसीटा।

दुनिया में बहुत बड़े-बड़े विदेशी विद्वान हैं जो भारत और चीन को एक ही शीशे से देखते हैं।  और सब बातों में उनके विचार सटीक पाये जाते हैं तब भारत के मामले में वे कैसे इतनी लापरवाही का परिचय दे देते हैं। भारत चीन जैसा शक्त्तिशाली देश नहीं है और न ही चीन की तरह उसे यू.एन में वीटो पॉवर मिली हुयी है और न ही वह चीन की भाँति दुनिया भर को घुड़की देता घूमता है। भारत एक सॉफ्ट देश है और यह बात सभी मुल्क जानते हैं।

दशकों से दक्षिण एशिया के ज्यादातर देशों से लोग विकसित पश्चिमी देशों में काम करने या रहने जाते रहे हैं। प्रवासी चीनी लोग लगभग हर विकसित देश में बहुत बड़ी संख्या में रहते हैं और वे वहाँ एक समूह के रुप में रहते हैं और वहाँ भी उनकी एक सामुहिक शक्त्ति कायम रहती है। जबकि भारतीय एकल रुप में विकास करने में ज्यादा रुचि लेते हैं और पूजाघरों और अन्य सामाजिक स्थलों पर मेलमिलाप का दिखावा करने के अलावा वे अंदर से बाहर के देशों में भी बँटे ही रहते हैं।

विश्व प्रसिद्ध लेखक Paulo Coelho सन 2005 में प्रकाशित होने वाले उपन्यास – The Zahir में एक स्थान पर लिखते हैं कि Buddhism चीन से भारत में आया।

And he started telling me about his life, while I tried to remember what I knew about the Silk Road, the old commercial route that connected Europe with the countries of the East. The traditional route started in Beirut, passed through Antioch and went all the way to the shores of the Yangtse in China; but in Central Asia it became a kind of web, with roads heading off in all directions, which allowed for the establishment of trading posts, which, in time, became towns, which were later destroyed in battles between rival tribes, rebuilt by the inhabitants, destroyed, and rebuilt again. Although almost everything passed along that route—gold, strange animals, ivory, seeds, political ideas, refugees from civil wars, armed bandits, private armies to protect the caravans—silk was the rarest and most coveted item. It was thanks to one of these branch roads that Buddhism traveled from China to India.

दुनिया में ऐसे भी लोग होंगे जिन्हे भारत और बुद्ध के बारे में न पता हो और Paulo Coelho की किताब में लिखा गलत तथ्य उन्हे सही जानकारी लगेगा और वे इसे ही सत्य मानेंगे।

सन 2006 के फरवरी माह में उन्हे लिखे एक ईमेल में उनकी पुस्तक में उपस्थित इस गलती की ओर उनका ध्यान दिलवाये जाने पर उन्होने जवाब तो लिखा पर इस मुद्दे पर कोई भी बात नहीं लिखी। चूँकि पुस्तक शायद स्पेनिश से अंग्रेजी में अनुवादित होकर प्रकाशित हुयी थी तो बहुत संभावना है कि अनुवाद के कारण ऐसी गलती रह गयी हो। आशा थी कि आने वाले संस्करण में ऐसी तथ्यागत गलती का सुधार करवा लेंगे परंतु हाल ही में The Zahir का एक नया संस्करण देखने को मिला और उसमें गलती अभी तक उपस्थित है।

ऐसी गलती वे अमेरिका और अन्य शक्त्तिशाली देशों से जुड़ी बातों के साथ नहीं करेंगे, परंतु उन्हे भी पता है कि भारत से जुड़ी बातों को कैसे भी प्रस्तुत कर दो।

नेतृत्व से बहुत फर्क पड़ता है कि भारत के नेता कैसा व्यवहार भारत से बाहर करते हैं। कहीं भारत के नेताओं के कपड़े उतार लिये जाते हैं और कहीं भारतीयों से बदसलूकी की जाती है पर भारत के विदेश मंत्रालय के कानों पर जूँ नहीं रेंगती।

सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि विदेश मत्रांलय और इससे जुड़े अधिकारी बाहर के देशों में जाने वाले ज्यादातर भारतीयों को अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्त्ति मानकर चलती है, ज्यादातर तो उनका व्यवहार ऐसा ही रहता है कि अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों पर आने-जाने वाला हर साधारण भारतीय कबूतरबाजी या अवैध किस्म के कागजों से विदेश जा रहा है या वहाँ से आया है।

भारत का नेतृत्व और मीडिया इसी बात से खुश रहता है कि किसी शक्त्तिशाली देश ने विदेश यात्रा के दौरान हमारे नेता को भोज दिया या  अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में अपने पड़ोस में बैठा लिया या भोज के बाद हाथ धोने के लिये जाते समय रुककर मुस्कुराकर बातें कीं।

चीन अपने लिये जितने फायदे अपने लिये दूसरे देशों से ले लेता है उतनी समझ और उतने ठसके की कल्पना भी भारत नहीं कर सकता।

दूसरों को सम्मान देने का मतलब उनकी गलत-सलत माँगों के सामने बिछना नहीं होता।

पिछले कम से कम बीस-पच्चीस सालों में भारत में उच्च तबके में समृद्धि भले ही बढ़ी हो पर भारतीय नेतृत्व की कमजोरी भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज्यादा दिखायी देती रही है। इसे चाहें तो गठबंधन सरकारों का साइड इफेक्ट कह लें या कि बिजनेस के दौर में माँगते रहने की प्रवृत्ति के कारण हर बात को पैसे से तोलने की नयी प्रवृत्ति से अपने को कमजोर समझकर आत्मसम्मान में कमी का प्रभाव।

ताज्जुब होता है यह पढ़कर या सुनकर कि 1971 में बांगलादेश मुक्त्ति के संघर्ष के समय जब अमेरिका ने अपने जहाजी बेड़े भारत की हदों में समुद्र में लाकर खड़े कर दिये थे तब भी भारत गरीब होते हुये भी इस घुड़की में नहीं आया था और देश ने आत्म सम्मान को ज्यादा तवज्जो दी थी।

अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में तब भी भारत के रुख के खिलाफ दुष्प्रचार फैलाया जा रहा था।

उसी दौरान बीबीसी को दिये एक साक्षात्कार से, उस वक्त्त देश की प्रधानमत्रीं रहीं श्रीमति इंदिरा गाँधी के तेवर देख कर रोमांच हो उठता है कि एक गरीब और विकासशील देश दुनिया की आँखों में आँखें डालकर भारत के खिलाफ फैलाये जा रहे दुष्प्रचार का जवाब दे सकता है और विश्व  शक्त्तियों को उनके गलत कार्यों की याद दिला सकता है।

अगर सत्तर के दशक की भारतीय प्रधानमंत्री ऐसा आत्मविश्वास और आत्मसम्मान दुनिया को दिखा सकीं तो आज जबकि भारत पहले से ज्यादा समृद्ध है तब भारत को क्या हो गया है जो वैश्विक मंचों पर एक भ्रष्टाचारी, कमजोर और लुंजपुंज देश के रुप में अपने को प्रस्तुत कर रहा है। भारत अवैध घुसपैठ का मसला हो या बाहरी शक्त्तियों द्वारा देश में फैलाये आतंकवाद का या मुक्त्त व्यापार के नाम पर भारत से ठगी करने का, चुप्पी साधे सब सहन करता जाता है।

भारत और भारतीयों को अपने आत्मसम्मान की फिक्र करनी चाहिये और देश के बारे में फैली किसी भी गलत बात का विरोध उचित मंच पर करना चाहिये।

दंभी होना निम्नस्तरीय दोष है पर एक देश सज्जन होते हुये भी अपने आत्मसम्मान के लिये चारित्रिक दृढ़ता संसार को दिखा सकता है और इस लक्ष्य को पाने में देश में रहने वाले और दुनिया में हर जगह रहने वाले भारतीयों के प्रयास महत्वपूर्ण हैं।

देश की साख होगी तो प्रवासियों को भी उचित स्थान और सम्मान हर देश में मिलेगा। केवल अपने भले के लिये देश की साख पर बट्टा लगाने वाली बातों की अनदेखी इस लोभ से करना कि उनके व्यक्तिगत हितों को विदेश में नुकसान न पहुँचे, भारतीयों को कम से कम ऊँचाई पर तो नहीं ले जाता।

खुले दिमाग वाले विदेशी इस बात को कहते भी हैं कि जाने क्यों भारतीयों को अपने देश के गौरवशाली इतिहास और नायकों को सम्मान देना नहीं आता। विदेशियों की निगाहों में अच्छा और उदार दिखने के लिये भारतीय अपने नायकों को नीचे घसीटने से कभी पीछे नहीं रहते।

जिन भारतीय नायकों को विदेशी भी सर्वोच्च स्थान पर रखते हैं उन्हे भी भारतीय कोसने से बाज नहीं आते।

अनुचित अंधी प्रशंसा न करें पर द्वेषपूर्ण अंधी आलोचना भी तो न करें। एक संतुलित दृष्टिकोण रखना तो अनुचित बात नहीं है न।

राजनीतिक दलों के आपसी द्वंदों में फँसकर आम भारतीय भी बंट गया है और यह बँटवारा भारत की विरासत के साथ अत्याचार कर रहा है। भारत की सामुहिक चेतना का ऐसे टुकड़े टुकड़े होना देश के सम्मान को हर दिशा से खोखला कर रहा है।

…[राकेश]

फ़रवरी 13, 2011

फैज़ : मिल जायेगी तारों की आखिरी मंजिल

अविभाजित भारत में सन 1911 के फरवरी माह की 13 तारीख को जन्मे फैज़ अहमद फैज़ की नायाब शायरी का ही जादू है कि उनके भौतिक अस्तित्व से हजारों-लाखों गुना बड़ा कद शायर फैज़ का हो गया है और अच्छा शायर जन्मता तो है पर उसकी रुखसती कभी नहीं होती धरा से। वह जिंदा रहता है लोगों के दिलों में। अच्छा कवि वह लीविंग ओर्गेनिज़्म है जो जब भी स्थितियाँ अनूकूल होती हैं तब वह अपने काव्य की बदौलत जन्म ले लेता है।

फैज़ अहमद फैज़ जैसे शायर जिन्होने मानव जीवन के हर रंग का और हर ढ़ंग का विश्लेषण अपनी शायरी के द्वारा किया हो वे तो हर दिन के हर पल कहीं न कहीं जन्मते ही रहते हैं। मानव जीवन के हर भाव के साथ उनका जुड़ाव रहता है चाहे वह मोहब्बत का क्षेत्र हो या जंग का। बात चाहे मानव के शोषण की हो रही हो या जीवन में मनुष्य की स्वतंत्रता के उत्सव की, फैज़ वहीं मिल जायेंगे अपनी शायरी की बेपनाह खूबसूरती के साथ।

उन्होने केवल किताबी शायरी ही नहीं की वरन मनुष्य की स्वतंत्रता के लिये वास्तविक जीवन में भी तानाशाही सत्ता द्वारा दी गई प्रताड़ना झेल कर भी संघर्ष किये।

मनुष्य ऊपर उठना चाहता है। आदर्श की ओर बढ़ना चाहता है। पर शक्तियाँ हैं जो मनुष्य जीवन को नीचे खींचती हैं और उसका पतन करती हैं। विकासोन्मुखी राहों पर चलते चलते ऐसे पड़ाव आते हैं जब बुराइयों के समावेश के कारण तरह तरह के प्रदुषण तौर तरीकों में आ जाते हैं और निराशा जन्म लेने लगती है। जिन्होने अपने जीवन होम कर दिये मानव जीवन के उत्थान के लिये उन्होने क्या इसलिये किया कि सब फिर से भ्रष्ट माहौल की ओर गिरते चले जायें।

ऐसे माहौल में हमेशा ही उनकी बेहद प्रसिद्ध रचना- सुबह-ए-आज़ादी, की याद बरबस ही ताज़ा हो जाती है और वह रचना पड़ाव पर ठहरे मुसाफिरों को जगाती है कि इस किस्म के औसत को पाने के लिये हमने यात्रा आरम्भ नहीं की थी। यह रचना यात्रियों में बीते हुये का विश्लेषण करके बुराइयों को हटाकर आशा के साथ आगे बढ़ने के लिये प्रेरणा का कार्य करती है। आदर्श को अभी भी एक मंजिल बनाये रखती है।

ये दाग दाग उजाला ये शब गजीदा सहर
वो इंतजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरजू लेकर
चले थे यार के मिल जायेगी कहीं न कहीं
फलक के दश्त में तारों की आखिरी मंजिल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफीना-ए-गम-ए-दिल

भारत और पाकिस्तान के नामचीन फिल्मकारों, संगीतकारों एवम गायकों ने फैज़ की शायरी के साथ अपनी कला का संगम बार बार किया है।

फैज़ जीवित नहीं हैं आज, पर वे उपस्थित हमेशा रहते हैं। उन्हे याद करने की देर है और वे अपने शब्दों का जादू बिखेरने आ जाते हैं।

फैज़ की शायरी की हद नहीं है। बानगी देखनी हो उनकी रचना ’कुत्ते’ में देखी जा सकती है।

बीसवीं सदी का भारतीय उपमहाद्वीप धन्य हो गया फैज़ अहमद फैज़ को अपने यहाँ जन्मा पाकर।

सन 1911 के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में जन्मे हरेक मनुष्य के पूर्वज शायर फैज़ अहमद फैज़ के जन्म शताब्दी दिवस पर उन्हे श्रद्धा सुमन!