जनवरी 11, 2014
पतित है वह 
या कि चेतना उसकी
है सुप्त प्राय:
दिवस के प्रारम्भ से
अवसान तक
धुंधलका सा है
– सोच में भी
– कर्म में भी
-देह में भी
तिरती घटिकाएं
प्रात: की अरुनोदायी आभा
या कि तिमिर के उत्थान की बेला
शून्यता की चादर से हैं लिपटीं
सूनी आखों से तकती है
समय के रथ की ओर!
अल्हड यौवन की खिलखिलाहट
गोरे तन की झिलमिलाहट
युगल सामीप्य की उष्णता
युवा मानों की तरंगित उर्जस्विता
को-
सराहकर भी अनमना सा,
अन्यमनस्क शुतुरमुर्ग!
पहिये की रफ़्तार से
संचालित जीवन
जैसे कि हो पहिये ही का एक बिन्दु
एक वृत्ताकार पथ पर
अनवरत गतिमान
पर दिशाहीन!
– कोई इच्छा नहीं
– कोई संकल्प नहीं-कोई माया नहीं
-कोई आलोड़न नहीं
बस एक मशीन भर!
एहसास है कचोटता
जीवन चल तो रहा है
पर कहीं बुझ रही है आग
धीरे-धीरे, मर-मर कर
आत्मा की चमक
होती जाती है मंद
क्षण-प्रतिक्षण!

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जुलाई 31, 2011

सुप्रसिद्ध कवि स्व. रघुवीर सहाय ने मनुष्य के जीवन की गति और दिशा और जीवन-दर्शन और जीवन के प्रति समझ में आने वाले उतार-चढ़ाव पर बहुत ही अच्छी कविता लिखी थी।
मधुर यौवन का मधुर अभिशाप मुझको मिल चुका था
फूल मुरझाया छिपा कांटा निकलकर चुभ चुका था
पुण्य की पहचान लेने, तोड़ बंधन वासना के
जब तुम्हारी शरण आ, सार्थक हुआ था जन्म मेरा
क्या समझकर कौन जाने, किया तुमने त्याग मेरा
अधम कहकर क्यों दिया इतना निठुर उपलंभ यह
अंत का प्रारंभ है यह!
जगत मुझको समझ बैठा था अडिग धर्मात्मा क्यों,
पाप यदि मैंने किये थे तो न मुझको ज्ञान था क्यों
आज चिंता ने प्रकृति के मुक्त्त पंखों को पकड़कर
नीड़ में मेरी उमंगों के किया अपना बसेरा
हो गया गृहहीन सहज प्रफुल्ल यौवन प्राण मेरा
खो गया वह हास्य अब अवशेष केवल दंभ है यह
अंत का प्रारंभ है यह!
है बरसता अनवरत बाहर विदूषित व्यंग्य जग का
और भीतर से उपेक्षा का तुम्हारा भाव झलका
अनगिनत हैं आपदायें कहाँ जाऊँ मैं अकेला
इस विमल मन को लिये जीवन हुआ है भार मेरा
बुझ गये सब दीप गृह के, काल रात्रि गहन बनी है
दीख पड़ता मृत्यु का केवल प्रकाश स्तंभ है यह
अंत का प्रारंभ है यह!
(रघुवीर सहाय)
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