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जून 2, 2013

ओशो : यशपाल (वामपंथी लेखक)

Osho Yashpalमेरे एक कम्यूनिस्ट मित्र थे- वे वास्तव में बड़े बौद्धिक थे| उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखीं, सौ के आसपास, और सारी की सारी कम्यूनिस्ट थीम से भरी हुई, पर अपरोक्ष रूप से ही, वे उपन्यासों के माध्यम से यह करते थे|  वे अपने उपन्यासों के माध्यम से कम्यूनिस्म का प्रचार करते थे और इस तरीके से करते कि तुम उपन्यास से प्रभावित होकर कम्यूनिज्म की तरफ मुड जाओ| उनके लिखे उपन्यास प्रथम श्रेणी के हैं, वे बहुत अच्छे रचनात्मक लेखक थे, लेकिन उनके लिखे का अंतिम परिणाम यही होता है कि वे तुम्हे कम्यूनिज्म की तरफ खींच रहे होंगे|

उनका नाम ‘यशपाल’ था| मैंने उनसे कहा,”यशपाल, आप हरेक रिलीजन के खिलाफ हो” – और कम्यूनिज्म हर रिलीजन के खिलाफ है, यह नास्तिक दर्शन है, ” लेकिन जिस तरह आप व्यवहार करते हो और अन्य कम्यूनिस्ट लोग व्यवहार करते हैं वह सीधे-सीधे यही सिद्ध करता है कि कम्यूनिज्म भी एक रिलीजन ही है|”
उन्होंने पूछा,” आपका मतलब क्या है?”

मैंने कहा,” मेरे कहने का तात्पर्य सीधा सा है कि आप भी उतने ही कट्टर हो जितना कि कोई भी मुसलमान, या ईसाई हो सकता है| आपके अपने त्रिदेव हैं : मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन| आपकी अपनी मक्का है – मास्को, आपका अपना काबा है – क्रेमलिन, आपकी अपनी पवित्र किताब है – दस केपिटल, और हालांकि ‘दस केपिटल’ सौ साल पुरानी हो चुकी है पर आप तैयार नहीं हैं उसमे एक भी शब्द का हेरफेर करने के लिए| सौ साल में अर्थशास्त्र पूरी तरह बदल गया है, ‘दस केपिटल’ पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुकी है|”

वे तो लड़ने को तैयार हो गये|

मैंने कहा,” यह लड़ने का प्रश्न नहीं है| यदि आप मुझे मार भे डालते हैं तब भी यह सिद्ध नहीं होगा कि आप सही हैं| वह सीधे सीधे यही सिद्ध करेगा कि मैं सही था और आप मेरे अस्तित्व को सह नहीं पाए| आप मुझे तर्क दें|”

“कम्यूनिज्म के पास कोई तर्क नहीं हैं|”

मैंने उनसे कहा,” आपका पूरा दर्शन एक विचार पर आधारित है कि पूरी मानव जाति एक समान है| यह मनोवैज्ञानिक रूप से गलत है| सारा मनोविज्ञान कहता है कि हरेक व्यक्ति अद्वितीय है| अद्वितीय कैसे एक जैसे हो सकते हैं?”
लेकिन कम्यूनिज्म कट्टर है| उन्होंने मुझसे बात करनी बंद कर दी| उन्होंने मुझे पत्र लिखने बंद कर दिए| मैं मैं उनके शहर लखनऊ से गुजरकर जाया करता था और वे स्टेशन पर मुझसे मिलने आया करते थे, अब उन्होंने स्टेशन पर आकर मिलना बंद कर दिया|

जब उन्होंने मेरे कई पत्रों का जवाब नहीं दिया तो मैंने उनकी पत्नी को पत्र लिखा| वे एक सुलझी और स्नेहमयी महिला थीं| उन्होंने मुझे लिखा,”आप समझ सकते हैं| मुझे आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि वे एक कट्टर व्यक्ति हैं| और आपने उनकी सबसे बड़ी कमजोरी को छू दिया है| यहाँ तक कि मैं भी सचेत रहती हूँ कि कम्यूनिज्म के खिलाफ कुछ न बोलूं| मैं कुछ भी कर सकती हूँ| उनके खिलाफ कुछ भी कह सकती हूँ| पर मुझे कम्यूनिज्म के खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि वे यह स्वीकार ही नहीं कर सकते कि कोई कम्यूनिज्म के खिलाफ भी हो सकता है|”
यशपाल ने एक बार मुझसे कहा,” हम सारे संसार को नियंत्रित करने जा रहे हैं|”

मैंने कहा'”आपका लक्ष्य छोटा है, यह पृथ्वी तो बहुत छोटी है| आप मेरे लक्ष्य में क्यों नहीं भागीदार बन जाते?”

उन्होंने पूछा,” आपका लक्ष्य क्या है?”

मैंने कहा,” मेरा लक्ष्य बहुत साधारण है| मैं तो एक साधारण रूचि का व्यक्ति हूँ और बहुत आसानी से संतुष्ट हो जाता हूँ| मैं तो केवल ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करने जा रहा हूँ| इतनी छोटी पृथ्वी की क्या चिंता करनी, यह तो ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा हिस्सा भर है| इसके बारे में चिंता क्या करनी|”

लेकिन कम्यूनिस्ट इस बात में विश्वास रखते हैं कि वे सारी पृथ्वी को अपने कब्जे में कर लेंगे| आधी पृथ्वी को उन्होंने कर ही लिया है|

उनकी कट्टरता अमेरिका को कट्टर ईसाई बनाएगी| यही अमेरिकियों को एकमात्र विकल्प लगेगा लेकिन उन्हें नहीं पता कि कम्यूनिज्म से बचे रह सकते हैं पर कट्टर ईसाइयत से बचना मुश्किल है|

एक खतरे से बचने के लिए तुम ज्यादा बड़े खतरे में गिर रहे हो|

खुद को और पूरे संसार को कम्यूनिज्म से बचाने का एक उपाय है और अति सरल उपाय है| लोगों को और ज्यादा धनी बना दो| गरीबी को मिट जाने दो| गरीबी मिट जाने के साथ ही कम्यूनिज्म भी मिट जाएगा| 

मई 31, 2013

समाजवाद और साम्यवाद : ओशो (नये समाज की खोज)

oshoसमाजवाद और साम्यवाद

वही फर्क करता हूं मैं जो टी.बी. की पहली स्टेज में और तीसरी स्टेज में होता है, और कोई फर्क नहीं करता हूं। समाजवाद थोड़ा सा फीका साम्यवाद है, वह पहली स्टेज है बीमारी की। और पहली स्टेज पर बीमारी साफ दिखाई नहीं पड़ती इसलिए पकड़ने में आसानी होती है। इसलिए सारी दुनिया में कम्युनिज्म ने सोशलिज्म शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया है। कम्युनिज्म शब्द बदनाम हो गया है। और कम्युनिज्म ने पिछले पचास सालों में दुनिया में जो किया है, उसके कारण उसका आदर क्षीण हुआ है। पचास वर्षों में कम्युनिज्म की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई है। इसलिए अब कम्युनिज्म सोशलिज्म शब्द का उपयोग करना शुरू कर किया है। अब वह समाजवाद की बात करता है और यह भी कोशिश कर सकता है कि हम समाजवाद से भिन्न हैं। लेकिन समाजवाद और साम्यवाद में कोई बुनियादी भेद नहीं है, सिर्फ शब्द का भेद है। लेकिन शब्द के भेद पड़ने से बहुत फर्क मालूम पड़ने लगते हैं। शब्द को भर बदल दें तो ऐसा लगता है कोई बदलाहट हो गई।

कोई बदलाहट नहीं हो गई है।

समाजवाद हो या साम्यवाद हो, सोशलिज्म हो या कम्युनिज्म हो, एक बात पक्की है कि व्यक्ति की हैसियत को मिटा देना है, व्यक्ति को पोंछ डालना है, व्यक्ति की स्वतंत्रता को  समाप्त कर देना है, संपत्ति का व्यक्तिगत अधिकार छीन लेना है और देश की सारी जीवन-व्यवस्था राज्य के हाथ में केंन्द्रित कर देनी है।

लेकिन हमारे जैसे मुल्क में, जहां कि राज्य निकम्मे से निकम्मा सिद्ध हो रहा है, वहां अगर हमने देश की सारी व्यवस्था राज्य के हाथ में सौंप दी, तो सिवाय देश के और गहरी गरीबी, और गहरी बीमारी में गिरने के कोई उपाय न रह जाएगा।

आज मेरे एक मित्र मुझे एक छोटी सी कहानी सुना रहे थे, वह मुझे बहुत प्रीतिकर लगी। वे मुझे एक कहानी सुना रहे थे कि एक आदमी ने रास्ते से गुजरते वक्त, एक खेत में एक बहुत मस्त और तगड़े बैल को काम करते हुए देखा। वह पानी खींच रहा है और बड़ी शान से दौड़ रहा है। उसकी शान देखने लायक है। और उसकी ताकत, उसका काम भी देखने लायक है। वह जो आदमी गुजर रहा था, बहुत प्रशंसा से भर गया, उसने किसान की बहुत तारीफ की और कहा कि बैल बहुत अदभुत है।

छह महीने बाद वह आदमी फिर वहां से गुजर रहा था, लेकिन बैल अब बहुत धीमे-धीमे चल रहा था। जो आदमी उसे चला रहा था, उससे उसने पूछा कि क्या हुआ? बैल बीमार हो गया? छह महीने पहले मैंने उसे बहुत फुर्ती और ताकत में देखा था! उस आदमी ने कहा कि उसकी फुर्ती और ताकत की खबर सरकार तक पहुंच गयी और बैल को सरकार ने खरीद लिया है। जब से सरकार ने खरीदा है तब से वह धीमा चलने लगा है, पता नहीं सरकारी हो गया है।

छह महीने और बीत जाने के बाद वह आदमी फिर उस जगह से निकला तो देखा कि बैल आराम कर रहा है। वह चलता भी नहीं, उठता भी नहीं, खड़ा भी नहीं होता। तो उसने पूछा कि क्या बैल बिलकुल बीमार पड़ गया, मामला क्या है? तो जो आदमी उसके पास खड़ा था उसने कहा, बीमार नहीं पड़ गया है, इसकी नौकरी कन्फर्म हो गई है, अब यह बिल्कुल पक्का सरकारी हो गया है, अब इसे काम करने की कोई भी जरूरत नहीं रह गई है।

बैल अगर ऐसा करे तब तो ठीक है, आदमी भी सरकार में प्रवेश करते ही ऐसे हो जाते हैं। उसके कारण हैं, क्योंकि व्यक्तिगत लाभ की जहां संभावना समाप्त हो जाती है  और  जहां  व्यक्तिगत लाभ निश्चित हो जाता है, वहां कार्य करने की इनसेंटिव, कार्य करने की प्रेरणा समाप्त हो जाती है। सारे सरकारी दफ्तर, सारा सरकारी कारोबार मक्खियां उड़ाने का कारोबार है। पूरे मुल्क की सरकार नीचे से ऊपर तक आराम से बैठी हुई है। और हम देश के सारे उद्योग भी इनको सौंप दें! ये जो कर रहे हैं, उसमें सिवाय हानि के कुछ भी नहीं होता।

मेरा अपना सुझाव तो यह है कि जो चीजें इनके हाथ में हैं वे भी वापस लौटा लेने योग्य है। अगर हिन्दुस्तान की रेलें हिन्दुस्तान की व्यक्तिगत कंपनियों के हाथ में आ जाएं, तो ज्यादा सुविधाएं देंगी, कम टिकट लेंगी, ज्यादा चलेंगी, ज्यादा आरामदायक होंगी और हानि नहीं होगी, लाभ होगा। जिस-जिस जगह सरकार ने बसें ले लीं अपने हाथ में, वहां बसों में नुकसान लगने लगा। जिस आदमी के पास दो बसें  थीं, वह लखपति हो गया। और सरकार  जिसके पास लाखों बसें हो जाती हैं, वह सिवाय नुकसान के कुछ भी नहीं करती। बहुत आश्चर्यजनक  मामला है!

मैं अभी मध्यप्रदेश में था, तो वहां मध्यप्रदेश ट्रांसपोर्टेशन, बसों की व्यवस्था के जो प्रधान हैं-अब तो वे सब सरकारी हो गई हैं-उन्होंने मुझे कहा कि पिछले वर्ष हमें तेईस लाख रुपये का नुकसान लगा है। उन्हीं बसों से दूसरे लोगों को लाखों रुपये का फायदा होता था, उन्हीं बसों से सरकार को लाखों का नुकसान होता है। लेकिन होगा ही, क्योंकि सरकार को कोई प्रयोजन नहीं है, कोई काम्पिटीशन नहीं है।

दूसरा सुझाव मैं यह भी देना चाहता हूं कि अगर सरकार बहुत ही उत्सुक है धंधे हाथ में लेने को, तो काम्पिटीशन में सीधा मैदान में उतरे और बाजार में उतरे। जो दुकान एक आदमी चला रहा है, ठीक उसके सामने सरकार भी अपनी दुकान चलाए और फिर बाजार में मुकाबला करे। एक कारखाना आदमी चला रहे है, ठीक दूसरा कारखाना खोले और दोनों के साथ समान व्यवहार करे और अपना कारखाना चला कर बताए। तब हमको पता चलेगा कि सरकार क्या कर सकती है।

सरकार कुछ भी नहीं कर सकती है। असल में सरकारी होते ही सारे काम से प्रेरणा विदा हो जाती है और जहां सरकार प्रवेश करती है वहां नुकसान लगने शुरू हो जाते हैं।

समाजवाद और साम्यवाद दोनों ही, जीवन की व्यवस्था को राज्य के हाथों में दे देने का उपाय हैं। जिसे हम आज पूंजीवाद कहते हैं, वह पीपुल्स कैपिटलिज्म है, वह जन-पूंजीवाद है। और जिसे समाजवाद और साम्यवाद कहा जाता है, वह स्टेट कैपिटलिज्म, राज्य-पूंजीवाद है। और कोई फर्क नहीं है। जो चुनाव करना है वह चुनाव यह है कि हम पूंजीवाद व्यक्तियों के हाथ में चाहते हैं कि राज्य के हाथ में चाहते हैं, यह सवाल है। व्यक्तियों के हाथ में पूंजीवाद बंटा हुआ है, डिसेंट्रलाइज्ड है। राज्य के हाथ में पूंजीवाद इकट्ठा हो जाएगा, एक जगह इकट्ठा हो जाएगा।

और ध्यान रहे, बीमारी है अगर पूंजीवाद, तो बंटा हुआ रखना ही अच्छा है। कनसनट्रेटेड बीमारी और खतरनाक हो जाएगी, और कुछ भी नहीं हो सकता।

[नये समाज की खोजओशो]

मई 31, 2013

कम्युनिज्म : ‘सआदत हसन मंटो’ की दृष्टि में

वह अपने घर का तमाम जरूरी सामान एक ट्रक में लदवाकर दूसरे शहर जा रहा था कि रास्ते में लोगों ने उसे रोक लिया|
एक ने ट्रक के सामान पर नज़र डालते हुए कहा,” देखो यार, कितने मजे से अकेला इतना सामान उडाये चला जा रहा है|”
सामान के मालिक ने कहा.”जनाब माल मेरा है|”
दो तीन आदमी हँसे,” हम सब जानते हैं|”
एक आदमी चिल्लाया,” लूट लो! यह अमीर आदमी है, ट्रक लेकर चोरियां करता है|”