इस सावन में बरसी आँखें
काई जमी इंतज़ार की मुंडेर पे
रखे हाथ कंपकपाते हैं
सब कुछ छूट जाने को जैसे
पैरों के नीचे से ज़मीन
बहुत गहरी खाई हो गयी
आँखे पता नहीं किसके लिए
आकाश ताकती हैं…
साँसों की आदमरफ्त रोक के
जिसको फुर्सत दी सजदे के लिए
उस खुदा को और बहुत
एक मेरी निगहबानी के सिवा…
मुझे कोई गिला नहीं…
शिकवा कमज़र्फी है…
हाथ कंपकपाते ज़रूर हैं
अभी मगर फिसले नहीं हैं…