बोलने दो आँखों को कभी…
सुनने दो अधरों से कभी…
रेशमी बंध खुल जाने दो
सपनों को संवरने दो कभी…
मैंने बरसों जिसे तराशा है
उस आग-रेशम बदन की लौ में
जल जाने दो मुझे…
तेरी मादक नशीली गंध उठाती है
मेरे बदन में जो उन्मत्त लहरें
अपने सीने में से हो के…
इनको गुजरने दो कभी…
मैं तेरे सीने से लिपट के
बाकी उम्र यूँ ही बिता दूंगा
कभी बस आ…
के तसव्वुर की इस इक रात की
तकदीर संवर जाए कभी…
ज़रुरत क्या रहेगी लफ़्ज़ों की फिर…
जुबां को काम दो सिर्फ प्यार का
खामोश लम्हों…
और नीम अंधेरों
को दरमियाँ पसरने दो कभी…
ना रात हो ना दिन हो…
न अँधेरा ना उजाला…
कभी जब दिन भर का थका सूरज
रात के सीने पे सिर रख
सोने को बेताब जा रहा हो क्षितिज तक मिलने उससे…
बस आओ उसी वक़्त तुम…
बैठे रहें देखते इस अलौकिक प्रतिदिन के मिलन को…
कितना शाश्वत है इनका मिलना…
रोज़ मिलते हैं लेकिन प्यास उतनी ही…
मैं सूरज तो नहीं
लेकिन चैन की नींद आएगी
सिर्फ तुम्हारे सीने पे सिर रख के शायद…
रात कभी कोई सवाल नहीं करती सूरज से…
कोई ज़बाब नहीं मांगती उस के बीते पलों का…
सूरज भी नहीं उठाता कोई प्रश्न रात के अन्धेरेपन पे…
बीते पलों पे न कोई सवाल
न आने वाले समय की कोई फिक्र….
बस एक अद्भुत…
पारलौकिक…
अनंत पुरातन
लेकिन चिर नवीन…
कभी जिस की उष्णता कम नहीं होती
ऐसा मिलन…
ऐसा देह-संगम…
(रजनीश)