वह कामगार मैं कामगार
दोनों लौटते थे घर
कभी वह बैठती मैं खड़ा रहता
कभी मैं बैठता और वह खड़ी रहती थी|
कभी-कभी मैं देख लेता था
उसकी आँखों की ओर
और उतर जाती थी मेरी थकान,
कभी-कभी मैं खोल देता था
उसकी खिड़की का शीशा
उससे जो खुलता न था|
इससे ज्यादा मेरा उससे नाता न था
वह कामगार मैं कामगार
दोनों लौटते थे घर
बहुत दिनों तक वह नहीं दिखी
बहुत दिनों तक खिडकी के पास वाली
वह सीट खाली रही
बहुत दिनों तक याद आती रही उसकी आँखें
आज वह दिखी तो वह वह न थी
आज उसकी आँखें रोज से कुछ बड़ी थी
होंठ रोज से कुछ ज्यादा लाल
पैर रोज से कुछ ज्यादा खूबसूरत
सिर से पाँव तक
सुहाग-सिंदूर में लिपटी ओ स्त्री|
मैं तुम्हारा कोई नहीं था
पर तुम्हारे कुंआरे दिनों का साक्षी हूँ
भले ही ठसाठस भरी बस में
मैं तुम्हारे लिए थोड़ी-सी ही जगह बनाई है
अच्छे-बुरे रास्तों से गुजरा हूँ तुम्हारे साथ|
मैं तुम्हारा कोई नहीं
पर भले दिन रहें हमेशा तुम्हारे साथ
दुख तुम्हारे दरवाजे दस्तक न दे
तुम्हारा आदमी कभी राह न भूले,
और ठौर-कुठौर न चले
तुम्हारा घर और घडा कभी खाली न हो
तुम्हारे भोजन में कभी मक्खी न गिरे
तुम्हारी गृहस्थी में दूध न फटेअचार में फफूंद न पड़े
तुम्हारे फल कभी सड़े नहीं
तुम्हारे पाले पंछे पिंजरों में मरे नहीं
कोई भूखा-प्यासा न जाए तुम्हारे घर से
तुम पहचान लो भीख मांगते
रावण को और देवता को
वह दिन भी आये
जब तुम्हे इस बस का मोहताज न होना पड़े|
(राजेन्द्र उपाध्याय)
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