कुछ ज़ख्म सिले थे
वक़्त ने
नकली मुस्कानों का लेप लगा के
दर्द छुपाया खोखले कहकहों में
कल कुरेद कर देख लिया
सीवन उनकी उधड़ गयी कल
दर्द अभी तक टीस रहा है…
परत जमी भर थी…
ज़ख्म नहीं भरा था
अभी तक हरा था…
Life creates Art and Art reciprocates by refining the Life
अस्ताचल को जाता सूर्य
खूब सिंदूरी हो,
सतरंगी बादलों को
नारंगी कर गया है!
घाटी की हरियाली,
पहाड़ के दोनों छोर पकड़ कर
सांवली सी हो,
मटियाली धरती को
समेट सी गई है!
मंद समीर,
हिचकोले खा- सम और विषम पर
ताल सा देता,
तीखी सी पहाड़ी को
तरंगित कर गया है!
दूर पुष्कर का नीला जल,
नारंगी, हरे और सफ़ेद रंगों के बीच
शांत सागर सा,
मेरे मन को
विश्रांत कर गया है!
रिधिम – रिधिम,
मंद – मंद थाप
पवन की, गगन की, मन की
पड़ती है इस हरी-भरी काया पर
और मेरा तन- शून्य हो गया है !
और मन –
वो उड़ा, वो उड़ा
जैसे में खुद रुई का फाहा
मंद समीर के झकोरे में
तिरता चला जाता हूँ!
परत-दर-परत
मन में शान्ति
तन में विश्रान्ति
देवताओं के द्वार के पास
शायद यही निर्वाण है कि
मैं- खो बैठा – सुध-बुध
तन की, मन की !
और,
पुष्कर के नील जल पर
सावित्री मंदिर से मैंने कहा –
– तीर्थ
दिव्य!
बाईस नवम्बर उन्नीस सौ निन्यानवे का चाँद
अभी-अभी देखकर लौटा हूँ
शेरटन होटल के सामने से
दिन बुधवार
शाम के साढ़े सात बजे हैं।
अंतरिक्ष का भेद बताने वालों ने बताया था पहले से कि
यह चाँद अब तक दिखने वाले चाँदों में
सबसे बड़ा दिखेगा।
पूरा चाँद
एक थाल…नहीं,
एक परात बराबर
लगा कि मेरी दादी ने उसे
राख से माँज दिया हो।
मैंने अपनी दादी को नहीं देखा
मगर आज चाँद को देखकर लगा कि
दादी को देख लिया।
माँ कहती है कि
मेरे जन्म के तीन महीने बाद ही दादी गुजर गई।
लेकिन आज चाँद को देखते ही
वह सब याद आया जो दादियाँ सुनाती आयी हैं।
चाँद की सीमाओं में धान कूटती बुढ़िया
चूल्हे के पास से परथन के बराबर पड़े गुंथे आटे में
दाँत मारती चुहिया
सुना हुआ सब कुछ मुझे आज के चाँद में दिखा।
सुना हुआ न दिखता तो कितना विकृत और विद्रूप लगता
सुने हुए में कल्पना समाहित होती है।
आज का परात बराबर चाँद
मैंने बचपन में अपने गाँव की
बहन-बेटियों की शादी में देखा था
उसमें रखकर सब्जियाँ और पूरियाँ परोसते थे लोग
आज लगा कि उसी परात को दादी ने
राख से माँज दिया है।
यह बाईस नवम्बर उन्नीस सौ निन्यानवे का चाँद है
रोज से बड़ा और रोज से साफ।
{कृष्ण बिहारी}