या कि चेतना उसकी
है सुप्त प्राय:
दिवस के प्रारम्भ से
अवसान तक
धुंधलका सा है
– सोच में भी
– कर्म में भी
-देह में भी
तिरती घटिकाएं
प्रात: की अरुनोदायी आभा
या कि तिमिर के उत्थान की बेला
शून्यता की चादर से हैं लिपटीं
सूनी आखों से तकती है
समय के रथ की ओर!
अल्हड यौवन की खिलखिलाहट
गोरे तन की झिलमिलाहट
युगल सामीप्य की उष्णता
युवा मानों की तरंगित उर्जस्विता
को-
सराहकर भी अनमना सा,
अन्यमनस्क शुतुरमुर्ग!
पहिये की रफ़्तार से
संचालित जीवन
जैसे कि हो पहिये ही का एक बिन्दु
एक वृत्ताकार पथ पर
अनवरत गतिमान
पर दिशाहीन!
– कोई इच्छा नहीं
– कोई संकल्प नहीं-कोई माया नहीं
-कोई आलोड़न नहीं
बस एक मशीन भर!
एहसास है कचोटता
जीवन चल तो रहा है
पर कहीं बुझ रही है आग
धीरे-धीरे, मर-मर कर
आत्मा की चमक
होती जाती है मंद
क्षण-प्रतिक्षण!