अस्ताचल को जाता सूर्य
खूब सिंदूरी हो,
सतरंगी बादलों को
नारंगी कर गया है!
घाटी की हरियाली,
पहाड़ के दोनों छोर पकड़ कर
सांवली सी हो,
मटियाली धरती को
समेट सी गई है!
मंद समीर,
हिचकोले खा- सम और विषम पर
ताल सा देता,
तीखी सी पहाड़ी को
तरंगित कर गया है!
दूर पुष्कर का नीला जल,
नारंगी, हरे और सफ़ेद रंगों के बीच
शांत सागर सा,
मेरे मन को
विश्रांत कर गया है!
रिधिम – रिधिम,
मंद – मंद थाप
पवन की, गगन की, मन की
पड़ती है इस हरी-भरी काया पर
और मेरा तन- शून्य हो गया है !
और मन –
वो उड़ा, वो उड़ा
जैसे में खुद रुई का फाहा
मंद समीर के झकोरे में
तिरता चला जाता हूँ!
परत-दर-परत
मन में शान्ति
तन में विश्रान्ति
देवताओं के द्वार के पास
शायद यही निर्वाण है कि
मैं- खो बैठा – सुध-बुध
तन की, मन की !
और,
पुष्कर के नील जल पर
सावित्री मंदिर से मैंने कहा –
– तीर्थ
दिव्य!