चढ़ता है जब हौले हौले
सब कुछ रंगीन लगता है
मन में तरंग
तन में उमंग
आँखों में सपने
लाल डोरे खिंचते से
रक्त-शिराएँ तनती सी
उष्ण उत्तप्त कल्पनाएँ…
सब कुछ अपना
खुद जहाँपनाह
केवल मैं…
और केवल मैं….
अपने में ग़ुम…
सुबह से शाम
बस…नशा… नशा
और नशा…
नशा और उसका असर…
जब हो तो…
और जब ना हो तो
टूटने लगता है…
ऐंठने लगता है…
ये तन…ये मन…
बिखरने लगता है अपना साम्राज्य
शीशमहल जैसे चूर…
किरच किरच…
चुभता है सब कुछ…
धूप भी…
अँधेरा भी…
जलाता है सब कुछ
तपता दिन भी…
ठंडी रात भी
शराब मगर बेखबर…
कोई जिए
कि कोई मरे…
कोई जले
कि कोई फूंके…
कोई बिखरे
कि कोई तडपे…
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