महकता चहकता फिरता हूँ
रेशम सी छुअन
नज़र भर शफक
शर्म की सिहरन
जिस के देखे को तरसते थे
आज संग चलती है…
रखता है दहका के मुझे
तुम्हारा शीशे सा बदन…
आज कहे बिना रहा नहीं जाता
तुमने पूछा भी कि
मैं क्या सोचता हूँ
पूछा है तो सुनो
जिस किसी शाम
मेरे सपने उगते हैं तुम्हारे कंधो पे
उस शाम की महक में
तुम्हारी साँसे घुल जाती हैं
रात भर बूँद बूँद उतरती है
ये खुशबू मुझमे…
और फिर महकता चहकता रहता हूँ
मैं दिन भर…
गीत गुनगुनाने दो
सपने हैं शीशे से साफ़ करो इनको
सपनों की गलती क्या माफ करो इनको |
मन में कुछ आने दो कुछ मन से आने दो
गीत गुनगुनाने दो …|
मोहक हर दर्पण था मोह गया मन को
आकर्षण बंधन का तोड़ गया तन को |
सुख को तुम माने दो दुख में कुछ गाने दो
गीत गुनगुनादे दो…|
मन को तो रोक लिया मिलने से उनको
भीतर के जग में अब रोकोगे किनको |
सृष्टि है लुभाने दो दो दृश्य हैं रमाने दो
गीत गुनगुनाने दो…|
दूर जा चुके हैं सब जाना था जिनको
अब किसे पुकारें हम आना है किनको |
अब दिया बुझाने दो दर्द को सुलाने दो
गीत गुनगुनाने दो…|
{कृष्ण बिहारी}
शाह या फकीर, मरना दोनों को है
गुलेल की जिद है देखे, कहाँ तक पत्थर जाता है
उसे कौन समझाए घरों का शीशा बिखर जाता है
शाम ढले जब पंछी भी नीड़ों को लौटने लगते हैं
एक शख्स घर से निकल के जाने किधर जाता है
मेरी प्यास किसी निगाहें करम की मोहताज नहीं
इस फकीर का प्याला तो खुद से भी भर जाता है
यही मजबूरी तो है जिंदगी की सबसे बड़ी मजबूरी
शाह हो के फकीर आखिर में आदमी मर जाता है
उजाले के तलाशी पाँव के इन छालों से डर कैसा
दीपक से सूरज तक लपटों का रहगुज़र जाता है
ताज बने कि मशीने चले जीवन भूखों के रोते हैं
हाथ नहीं जाते आलम, इस दौर में हुनर जाता है
(रफत आलम)