जागी अधखुली आँखों से…
श्वेत चाँदनी में लिपटी तुम चल रही हो
साथ साथ मेरे…..
मैं थाम लेता हूँ हाथ तुम्हारा हौले से…
महसूस कर सकता हूँ तुम्हारी सिहरन को
सहलाता हूँ तुम्हारी उँगलियों को,
छूता हूँ पोरों को…
दूर कहीं दूर…निर्जन में
बैठ जाते हैं हम तीनो…
तुम, मैं और तुम्हारे बदन से लिपटी चाँदनी…
बैठे रहते हैं चुपचाप पास-पास
एक दूसरे के सर से सर जोड़े
कभी चेहरा लिए हाथों में
एक दूसरे की आँखों में खोये
सुनते हैं साँसों की मौन भाषा को…
बस खोये से रहते हैं एक दूसरे में
मैं सहलाता रहता हूँ तुम्हारी अनावृत बाहें
और महसूस करता रहता हूँ तुम में
उठते स्पंदन को
तुम कुछ और सिमट आती हो नज़दीक मेरे
हमारे बीच की चाँदनी असहज होने लगती है
रहती है पर निशब्द…
कानों की लौ गर्म होने लगी है
किसी तीसरे से बेखबर हम बस एक दूजे में गुम…
साँसों की लय पे उठते गिरते सीने को आँखों में समेटते
एक दूसरे की नज़रों को नज़रों से चूमते
होंठ कांपते हैं मेरे
तुम्हारे भी…
थरथरा रहे हैं दोनों के बदन…
जैसे दे रहे हों मौन आमंत्रण…
साँसे असंयमित होने लगती है…
और बहुत उष्ण भी
पिघलने लगती है चाँदनी हम दोनों के बीच की
दूर उतर कर खड़ी हो जाती है तुम्हारे बदन से
रख देता हूँ कांपते होंठ तुम्हारे जलते होंठो पे
चाँदनी शर्मा के किसी ओट में छुप जाती है
तीन से दो होने के लिए
या फिर दो से एक होने के लिए…
रात की चादर के तले…
बस यही एक ख्वाब मैं हर वक़्त देखता रहता हूँ
जागी अधखुली आँखों से
(रजनीश)