उस कृति का
जो मुस्कुराये खिलखिलाये
प्रकृति के साथ
हर कदम हो पूर्ण यौवन का कदम
चले तो द्वार खुलें प्रगति के
रुकना भी हो एक विशेष
अनुभूति से परिपूर्ण
मैं जानता हूँ
मजबूर कर दिया जाऊँगा
इन्ही कुंठाओं में जीने के लिये
जो मैने खुद बुनी हैं।
ढ़केल दिया जाऊँगा उधर
जहाँ न कृति है
न मुस्कुराना है
न खिलखिलाना है
हूँ तो सिर्फ मैं
और मेरी कुंठा
फिर भी करना चाहता हूँ
निर्माण
उसी कृति का
क्योंकि मैं वह हूँ
जिसे आशा में जीना आता है।
( रजनीश )