आज फिर से उग आयी है एक शाम
आसपास हिरण्यमय वृत्त लिए
कंधे पर घटाएं फैलाए|
दो तृषित हाथों से
एक चाँद
अमृत बरसा रहा है |
एक अनउगी सपनीली झील के
आँगन में खिले कमल से
पंख पसारे
खेलता है कोई जलपांखी लहरों के खेल
पानी के सुमेरु उछालता
जगाता सहस्त्रों अनगाये गीत|
आज कोई एक
मन-सा मन
पलों और क्षणों को तराशता
समय को बाहों में भींचता
धरती से पवन और पवन से
धरती को गंधमान करता
पोर बना,
सेतु बना,
बैठा रहेगा|
अंधेरी रात में,
चाह ने
राह भूलने की आशंका ने
आँख के अलावा
आसमान पर
हजारों दिए जला दिए हैं|
अलभ्य स्वर पास नहीं
अरण्य कथा कैसे गाये
भागवत स्वर में |
ओ अनागत
अनंत प्रतीक्षा सहेजता
कोई
कितनी रातें लिखता रहेगा तुम्हारे नाम
इस अनउगी झील के किनारे?
सुबह चम्पा – सी संध्या |
और दोपहर अकेलीदूर कहीं बांसुरी की धुन पर
अलसाई बीन पर बजती
मेरी
तुम्हारी
सब की ही
एक-सी परेशानियां
जीवन पहेली|
(डा. कृष्णा चतुर्वेदी )