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अप्रैल 1, 2013

बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !

मन की सांकल खोल रहा

मैं बिलकुल सच बोल रहा हूँ

जिसे ज़िंदगी भर साँसे दीं

उसने मेरी चिता सजाई

बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !

चाहा बहुत तटस्थ रहूँ मैं

कभी किसी से कुछ न कहूँ मैं

लेकिन जब मजबूर हो गया तो

यह बात जुबान पर आई

बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !

किसको मैंने कब ठुकराया?

किसे गले से नहीं लगाया?

आँगन में ला जिसे जगह दी

उसने घर को जलाया

बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !

जब किस्मत घर छोड़ रही थी

और खुशी दम तोड़ रही थी

मेरे दरवाजे से उस दिन गुज़री थी

रोती शहनाई

बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !

सिरहाने का दीप जुड़ा के

बेहद मंहगा कफ़न उढा के

सुन ले मुझे सुलाने वाले

मुझको अब तक नींद न आयी

बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !

यदि मुझमे यह दर्द न भरता

तो फिर जीकर में क्या करता

मन से आभारी हूँ उसका

जिसने मुझको कलम थमाई

बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !

{कृष्ण बिहारी}