मन की सांकल खोल रहा
मैं बिलकुल सच बोल रहा हूँ
जिसे ज़िंदगी भर साँसे दीं
उसने मेरी चिता सजाई
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
चाहा बहुत तटस्थ रहूँ मैं
कभी किसी से कुछ न कहूँ मैं
लेकिन जब मजबूर हो गया तो
यह बात जुबान पर आई
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
किसको मैंने कब ठुकराया?
किसे गले से नहीं लगाया?
आँगन में ला जिसे जगह दी
उसने घर को जलाया
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
जब किस्मत घर छोड़ रही थी
और खुशी दम तोड़ रही थी
मेरे दरवाजे से उस दिन गुज़री थी
रोती शहनाई
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
सिरहाने का दीप जुड़ा के
बेहद मंहगा कफ़न उढा के
सुन ले मुझे सुलाने वाले
मुझको अब तक नींद न आयी
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
यदि मुझमे यह दर्द न भरता
तो फिर जीकर में क्या करता
मन से आभारी हूँ उसका
जिसने मुझको कलम थमाई
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
{कृष्ण बिहारी}