जनवरी 15, 2014
आलम-ए-दिल पे कोई फर्क कहाँ?
दूर हो तुम
चाहे बहुत करीब मेरे
पास बुला के भी मजबूर कहने से
कि
दिल में बसते हैं कितने अरमान मेरे…
कहना तो है बहुत कुछ…
मगर कहें कैसे?
लफ्ज़ आते आते लब तक
कही जम जाते हैं
उठते तो हैं तूफान कितने
दिल से,
बस उठते हैं और कहीं थम जाते हैं…
दिल का तो क्या?
चाहे बस कि हरदम
बस इक तुम्हारी ही याद में गुम हो…
बहुत क्या कहना?…
बहुत क्या सुनना?
बस फकत जान लो इतना के…
मेरी आखिरी ख्वाहिश तुम हो…

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नवम्बर 21, 2013
रात की कालिख बहुत घनी थी
बहुत लड़ा
तेरी यादों का रौशन दिया
आँख में रात भर धंसती रहीं
सपनो की किरचें
हर पल करवटों का
रात सलवटों की गूंगी गवाह
बहुत रोये
बहुत माँगा
मगर…
रात
एक कतरा भी नींद का
तुमने लेने न दिया…
दिन को बुनता हूँ जो भी ,
हर रात उसका भरम तोड़ती रहो तुम
अपनी आदत में पिन्हा रहो तुम
मजबूर अपनी से रहेंगे हम!
(रजनीश)
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अप्रैल 1, 2013
मन की सांकल खोल रहा
मैं बिलकुल सच बोल रहा हूँ
जिसे ज़िंदगी भर साँसे दीं
उसने मेरी चिता सजाई
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
चाहा बहुत तटस्थ रहूँ मैं
कभी किसी से कुछ न कहूँ मैं
लेकिन जब मजबूर हो गया तो
यह बात जुबान पर आई
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
किसको मैंने कब ठुकराया?
किसे गले से नहीं लगाया?
आँगन में ला जिसे जगह दी
उसने घर को जलाया
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
जब किस्मत घर छोड़ रही थी
और खुशी दम तोड़ रही थी
मेरे दरवाजे से उस दिन गुज़री थी
रोती शहनाई
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
सिरहाने का दीप जुड़ा के
बेहद मंहगा कफ़न उढा के
सुन ले मुझे सुलाने वाले
मुझको अब तक नींद न आयी
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
यदि मुझमे यह दर्द न भरता
तो फिर जीकर में क्या करता
मन से आभारी हूँ उसका
जिसने मुझको कलम थमाई
बड़ा अपयशी हूँ मैं भाई !
{कृष्ण बिहारी}
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