तुम्हे देखने के लिये
कभी पीछे नहीं मुड़ा मैं
गुजरते वक्त्त के साथ-साथ
तुम चलती रही हो साथ ही मेरे
एक परछाई की तरह
सम – विषम राहों पर।
दूरियों का भी मुझे
कभी हुआ नहीं एहसास
ऎसा भी लगा नहीं कभी
कि तुम नहीं हो मेरे पास
तुम्हारी याद रह रही है
मेरे साथ
एक सघन विश्वास की तरह
आस्था बनकर।
तुम्हारे लिखे प्रेम-पत्रों को
इसलिये नहीं पढ़ता बार-बार
कि तुम्हारी याद को
रखना है ताजा
नहीं ऐसा नहीं है…
पत्र नहीं पढ़ता हूँ मैं
तुम्हे पढ़ता हूँ
एक महाकाव्य की तरह
जिज्ञासु होकर
और पाता रहता हूँ ब्रहमानंद।
अरसा गुजरने के बाद भी
भूल पाता है कोई
एक बार बस गई मेंहदी की गंध
अपनी आत्मा में रचाकर, बसाकर।
तुम मीरा हो, राधा हो
मेरे लिये
परकाया प्रवेश की तरह
उतरती हो तुम उनमें
और इच्छा धारियों की तरह
मेरा प्रेम
धरता रहा है रुप
ढ़ालता रहा है स्वयं को
तुम्हारे अनुरुप
होता रहा है युवा और नवीन
आने वाली पीढ़ियों के लिये
एक अमिट अनुभव की तरह
थाती बनाकर।
किसी को यकीन दिलाने का
कसमें खाने का
प्रश्न ही नहीं उठता
क्योंकि
मरकर भी प्रेम
कभी नहीं मरता
शाश्वत है
और शाश्वत रहेगा प्यार
धरती पर।
{कृष्ण बिहारी}