जनवरी 16, 2011
क्या तुमने देखी है
ऐसी कोई नाव
लहरों पर नदिया की
या फिर तरंगों पर सागर की
अनियंत्रित सी,
और जिस पर हों यात्री
अपने घर-परिवार से दूर
देखते
सामने
नियति का काल-चक्र क्रूर!
कुछ वैसी ही हो गई है
ज़िंदगी आजकल
आतंकित
आशंकित सी।
धूप जैसे
घर की मुंडेरों से
कमरों में बँटकर आये
वैसे ही घटनायें
जीवन से होकर
हिस्सों में जायें।
टुकड़ों में बँटकर और
निर्लिप्त होकर ऊपर से
दीखती है
संयमित सी।
बाहर का कोलाहल
भीतर का सूनापन
अपनों से दूरी
गैरों से अपनापन
लगता है जैसे कोई
आरी से काटे
भावना
व्यथित सी।
{कृष्ण बिहारी}
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जनवरी 16, 2011
मैं भी देख लूँ कैसे लगते हैं इसमें जिंदगी के रँग
कुछ दिन के लिये मुस्कान वाला मुखौटा दे दे यार
आँसुओं के धब्बों से बदरंग नहीं होने दूंगा उसे
फिर भी डर है तुझको तो मेरा चेहरा ले ले यार।
* * *
समंदर से जब कोई कतरा निकलता है
आवारा बादल बनके भटकता फिरता है
घर छोड़ने की सजा बड़ी मिलती है यार
शाम हुए ही वापसी का पता मिलता है।
* * *
ये गिला ये शिकायत चाहे हकीकत भी है यार
सबसे बढ़ कर ये जान पर मुसीबत भी है यार
सब तुमसे रूठे तुम अपने कहे पर खुद से रूठे
आगे से मुंह बंद रखना बडो की नसीहत है यार।
* * *
जुनून की हालत में कई दीवाने
खुद को जाने क्या समझ बैठे
थे तो मिटटी के चंद ज़र्रे मगर
तारों की बुलंदी से उलझ बैठे।
* * *
आँख बन गई रास्ता चले आओ
फिर बन के उजाला चले आओ
अभी बजता है साज़ साँसों का
तुम बन के नगमा चले आओ।
* * *
घर आँगन में चांदनी लहराई
या उतरा उजली धूप का साया
हमको बता ऐ पगले ’आलम ’
तूने दुआएं कर के क्या पाया।
(रफत आलम)
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