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सितम्बर 23, 2015

फसल… (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना)

हल की तरह
कुदाल की तरह
या खुरपी की तरह
पकड़ भी लूँ कलम तो
फिर भी फसल काटने
मिलेगी नहीं हम को ।

हम तो ज़मीन ही तैयार कर पायेंगे
क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आयेंगे
हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को
सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को ।

कल जो भी फसल उगेगी, लहलहाएगी
मेरे ना रहने पर भी
हवा से इठलाएगी
तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी
जिन्होने बीज बोए थे
उन्हीं के चरण परसेगी
काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे
हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोयेंगे ।

अप्रैल 30, 2013

प्रेम में आकाश

जब हम नहीं करते थे प्रेम

तब कुछ नहीं था हमारे पास

फटी हथेलियों

और थके पैरों से

हल लगाते थे हम

कोहरे में घाम को देते थे

आवाज

हम देखते थे आकाश

जिसका मतलब

आकाश के सिवाय

कुछ नहीं था हमारे लिए

जब हम प्रेम में गिरे

हम यादों में गिरे

जब यादों में बहे

प्रेम में डूब गये हम

घाटी से चलकर

हमारे घर तक आने वाली

पगडंडी था तब आकाश

हमारे खेतों में

आँख ले रहे होते अंकुर

आकाश में हम सुनते रहते

हवा की गूँज

जो हमारी सांस थी दरअसल

प्रेम में आकाश

आकाश जितना ही दूर था

उसे ज़रा सा उठाकर

हम अपने

मवेशियों को देते थे आवाज

उसकी आँखों में

हम देखते थे अपनी दुनिया

पहाड़ों को काटकर बने घर

जो हमारे थे

हम जो रहते थे एक गाँव में

प्रेम करते हुए|

(हेमंत कुकरेती)