वह जो है

वह जो है
तुम्हारा सच्चा और प्रियमित्र
तुम्हारे मन के दरवाज़े को
रोज खटखटाता है
अर्धचेतन होकर अर्धनिद्रा में
सोए हुए की तरह
जब तुम अचानक जागते हो
और दरवाज़ा खोलते हो
तो बाहर तुम्हे लगता है कोई नहीं
फिर झट से तुम
दरवाज़ा बंद कर देते हो
वह सच्चा मित्र है न
इसलिए उसको तुम्हारी
इस उपेक्षा का कोई क्षोभ नहीं होता
कभी वह तुमसे रूठता नहीं
इस विश्वास के साथ कि
कभी तो तुम उसे
खोजने का प्रयास करोगे
वह तुम्हे जानता है
मगर तुम उसे नहीं जानते
फिर भी सच्चा मित्र है
अपने कर्तब्य को
इसलिए निभा रहा है कि
कभी तो तुम
उस पर विश्वास करोगे
वह तुम्हे
तुम्हारी उदासी में
व्याकुलता में
अवसाद में
साहस बंधाकर
सदैव तुम्हे प्रसन्न देखना चाहता है
लेकिन तुम हो कि
तर्क देकर हर समय
यह साबित करने में तुले हुए हो कि
वह कोई नहीं है
होता तो, तुम्हे दिखता
तुम्हारी आँखे धोखा नहीं खा सकतीं
तुम्हारे आँख, कान, नाक आदि
समस्त इन्द्रियाँ खुलीं हैं
फिर ये धोखा कैसे खा सकतीं हैं
बस तुम्हारे साथ यही विडम्बना है कि
तुम अपनी आँख अथवा कान आदि
इन्द्रियों का देखा सुना
सच मान बैठते हो
और अपने मन पर
यह दबाव बनाते हो कि
जो तुमने देखा, सुना है
वही तुम्हारे लिए सत्य है
बाकि तुम्हारे लिए सारा झूठ है
यदि आँख का देखा ही सच है तो
ऊँची दिवार के पीछे क्या चीज़ रखी है
यह तो तुम्हे दिखाई नहीं दे रहा
जो दिखाई ही नहीं दे रहा
अथवा कभी दिखाई ही नहीं दिया
मन भी उसकी कल्पना कैसे कर सकता है
यदि तुमने शिमला कभी देखा ही नहीं तो
शिमला कैसा है
इसकी कल्पना भी तो तुम नहीं कर सकते
तो क्या दीवार के पीछे जो घट रहा है अथवा
तुम्हारे सामने खड़ा व्यक्ति क्या सोच रहा है
अथवा क्या महसूस कर रहा है
वह सच इसलिए नहीं है कि
वह तुम्हारी आँख नहीं देख रही है
बस यही तो है कि
तुम्हारी आँख खुली होते हुए भी
नहीं देख सकती
और जो देख सकती है
वह क्योंकि सीमित है इसलिए समग्र सच नहीं
और मन भी वही कुछ तो सोच  सकता है
कभी तुमने आँख, कानादि इन्द्रिओं से
देखा सुना आदि हो
इसलिए तुम सहज ही
यह जान लो कि
तुम्हारी आँखों देखा भी सच नहीं है
जो कभी भी, कहीं भी
अंदर और बाहर घट रहा है
वही मिलाकर सच है
अब तो कम से कम
जब वह दरवाज़ा खटखटाए तो
उसकी उपेक्षा न करना
उसे अंदर, बाहर सब जगह ढूढना
अपने सच्चे और प्रिय मित्र से
दिल से खूब मिलना
इस आनंदमयी अहसास से फिर
तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा
तुम्हारा सच्चा और प्रिय मित्र
जो तुम्हे सदैव चेताता था
आखिर
तुम्हे आज मिल गया
हाँ वह ‘जो है’
वही तो ‘है’
जो तुम्हारी अपनी आत्मा है !

(अश्विनी रमेश)

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6 Responses to “वह जो है”

  1. main or atam ki is jung main jab tak main nahin marega tab tak humen na to aatam nazar aayega n hi uski aawaj sunai degi , aapki is ksbita ko jo gahri se samjhegaq woh hi is marm ko par kar payega sir ji
    . Daat deta hoon aapki is kabita ko ,

  2. बहुत अच्छा कहा आपने,भ्रम रुप’ मैं ‘ मिटने से ही अज्ञान मिट सकता है और आत्म -बोध हो सकता है !

  3. कमाल की एक लय बन आई है झरनें की तरह,
    कविता में ये शाइस्तगी तभी आ सकती है..
    जब कविता कागज़ पर उतरनें से पहले
    हमारी नसों में घूम गयी हो..

    आपनें अपनी हर कविता को भरपूर जिया है
    यही अपनें आपमें अत्यंत सुखद है पंडित जी…
    इतनी अच्छी कविता के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !!!

  4. तुमने बहुत अच्छे अंदाज़ में कविता को बयां किया है, कविता रहस्यमयी है, इसलिए तुम्हारे जैसे चेतना के लोग ही ,इसको रुह से महसूस कर सकते हैं !

  5. बहुत खूब-
    “वह जो है
    तुम्हारा सच्चा और प्रियमित्र
    तुम्हारे मन के दरवाज़े को
    रोज खटखटाता है.”

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