जन्म से
मृत्यु होने तक
व्यक्ति भय के साये में जीता है,
यह भय और कुछ नहीं बस
कुछ छिन जाने का भय है,
जो तुम्हारा सुख छीनता है|
बच्चा पैदा होने के तुरंत बाद
जोर जोर से रोता है,
उसकी दुनिया बदल गयी है,
उसे भय लग रहा है कि
वह कहाँ पहुँच गया है,
पेट की अँधेरी
नर्क जैसी कोठरी से बाहर
आँखे बंद कर देने वाला प्रकाश भी
उसे भयभीत कर देता है|
जीवन में फिर
रोटी, कपड़ा और मकान
छिन जाने का भय भी
व्यक्ति को भयभीत करता है|
जीवन का सबसे बड़ा भय,
जो हर व्यक्ति को
हर समय और
हर उम्र में
सबसे अधिक डराता है,
वह शरीर छिन जाने का भय है,
यानि मौत का भय
क्योंकि अपनी जान
हर व्यक्ति को प्यारी होती है|
क्या भय से आखिर
छूटा जा सकता है?
हाँ परन्तु बड़े कष्ट से
क्योंकि भय का मूल
तुम्हारा अपना ही बुना हुआ
मकड़ी का मोहजाल है,
मकड़ी पहले खूब मेहनत कर
जैसे जाला बुनती है
और फिर
उससे छूटने के लिए
छटपटाते हुए
खूब हाथ-पांव मारती है
परन्तु उससे छूटे नहीं बनता
उसे उससे छूटना है तो
वह केवल दो ही स्थितियों में
छूट सकती है,
या तो जाला टूट जाए,
या फिर उसकी जान छूट जाए,
ठीक यही स्थिति व्यक्ति की भी है,
या तो उसका मोहजाल टूट जाए
या उसका शरीर छूट जाए|
मोहजाल यानी
वह मायाजाल
जिसका मूल अज्ञान है,
अज्ञान, न जानना है
यह न जानना कि क्या ‘है’
और यह कि जो ‘है’
वही सत्य है|
सत्य और ज्ञान
पर्याय हैं क्योंकि
सत्य को जानना ही तो
ज्ञान है
और जो है ही नहीं
वह असत्य है|
शरीर नश्वर है,
आत्मा अनश्वर है,
जीवन केवल आत्मा से है
शरीर से नहीं,
इसलिए शरीर छूटने से
जीवन नहीं छूटता,
केवल पुराना घर छूटता है,
और आत्मा फिर से
अपने लिए एक
नया शरीर रुप घर बसा लेती है,
इसलिए यह जानना कि
पुराना घर छूटना ही है
और फिर नया घर बसना है
सत्य है, ज्ञान है
और
सत्य जान लेने से
असत्य और
ज्ञान होने से अज्ञान
स्वतः ही मिट जाता है
जैसे प्रकाशमयी सुबह होने पर
अंधकारमयी रात्रि का अँधेरा
स्वतः ही मिट जाता है
और फिर मोह से मुक्त होने पर
सुख की प्राप्ति स्वतः ही हो जाती है !
(अश्विनी रमेश)