मैं सबसे पहले घड़ी था
फिर मछली बना
उसके बाद पेड़
पेड़ के बाद हुआ मनुष्य।
मैं मनुष्य बनकर
घड़ी का कान उमेठने लगा हूँ
मछली खाने लगा हूँ
पेड़ काटकर
घर के लिये दरवाजा बनाने लगा हूँ
चेहरा छिपाने लगा हूँ।
(विमल कुमार)
Life creates Art and Art reciprocates by refining the Life
हर कोई कला को समझना चाहता है। चिड़िया के गाये गीत को समझने की चेष्टा क्यों नहीं करते? पेंटिंग के मामले में लोगों को समझना होता है... पर क्यों?
वे लोग जो चित्रों की व्याख्या करना चाहते हैं सरासर गलती पर होते हैं।
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मैं सबसे पहले घड़ी था
फिर मछली बना
उसके बाद पेड़
पेड़ के बाद हुआ मनुष्य।
मैं मनुष्य बनकर
घड़ी का कान उमेठने लगा हूँ
मछली खाने लगा हूँ
पेड़ काटकर
घर के लिये दरवाजा बनाने लगा हूँ
चेहरा छिपाने लगा हूँ।
(विमल कुमार)
Posted on मई 29, 2011 at 9:11 अपराह्न in कविता, समसामायिक, साहित्य | RSS feed | प्रतिक्रिया | Trackback URL
खूब बात बनी है.
मनुष्य का विकास,
जीवन का ह्रास,
मनुष्यता का विनाश!
क्या बात है सच्चाई बयाँ करती कविता मन को छु गयी