© कृष्ण बिहारी
रामराज्य के शिल्पी (के एन गोविन्दाचार्य)
आज लगता है जैसे पूरा देश राम-मय हो गया है। सब जगह राम मंदिर और उसमें रामलला की प्रतिष्ठा की बात हो रही है। जो कभी सपना था, वह अब सच्चाई बन चुका है। लेकिन क्या यह अंतिम लक्ष्य है? मेरा उत्तर है नहीं। भव्य राम मंदिर उस महायात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव भर है जिसका अंतिम लक्ष्य रामराज्य की स्थापना से कम कुछ और नहीं होना चाहिए।
प्रश्न उठता है कि रामराज्य अर्थात क्या? इसको इस तरह भी पूछा जा सकता है कि आखिर रामराज्य में ऐसी क्या विशेषता है जिसके कारण इसे हम अपना लक्ष्य बनाएं। इस प्रश्न का उत्तर #गोस्वामी_तुलसी_दास जी ने बहुत अच्छे से दिया है। राम राज्य की विशेषता बताते हुए वे कहते हैं, “नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।” इसके आगे वे कहते हैं, “दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा, सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।”
इन पंक्तियों को पढ़ते ही हमारे तार्किक मन में विचार आता है, कि क्या यह कभी संभव होगा? क्या हम #राम_राज्य के उदात्त लक्ष्य को सच में प्राप्त कर सकते हैं? क्या हमारा संविधान रामराज्य बनाने की अनुमति देता है? जैसे-जैसे हम तुलसीदास जी की पंक्तियां पढ़ेंगे, हमारे मन में सवालों और शंकाओं की एक के बाद एक लहर आती रहेगी।
इस सवालों और शंकाओं पर टिप्पणी करने की बजाए मैं एक बार फिर आपको राम जन्मभूमि आंदोलन के दौर में ले चलता हूं। आप को याद होगा कि जब राम मंदिर बनने की दूर-दूर तक संभावना नहीं थी, उस समय भी अयोध्या के #कारसेवक पुरम् में राम मंदिर के शिला स्तंभ तराशे जा रहे थे। प्रतिदिन सुबह-सुबह कारीगर अपनी छेनी हथौड़ी लेकर काम पर लग जाते थे। राम मंदिर कब बनेगा, कैसे बनेगा, बनेगा भी या नहीं बनेगा, ऐसे प्रश्नों से उनके हाथ शिथिल नहीं होते थे।
मैं जिन्हें नव-तीर्थ कहता हूं वे वास्तव में रामराज्य की देश भर में फैली कार्याशालाएं हैं और जिन्हें नव-देव कहता हूं, वे सही अर्थों में भावी रामराज्य के शिल्पी हैं। जब कोई नदियों को सदानीरा बनाने का प्रयास करता है, #गो_संवर्धन की बात करता है, शिक्षा, वानिकी, अग्निहोत्र और प्रकृति की बात करता है तब वास्तव में वह भविष्य के राम राज्य के शिलाखंड तैयार कर रहा होता है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि जिस दिन पर्याप्त मात्रा में ऐसे शिलाखंड तैयार हो जाएंगे, उस दिन राम राज्य का सपना, सपना नहीं सच्चाई बन जाएगा।
हमारे आस-पास #रामराज्य के शिल्पी बिखरे पड़े हैं। हम सभी का कर्तव्य है कि हम ढूंढकर उन तक पहुंचे। उनके काम में हाथ बंटा सकें तो बहुत अच्छा, नहीं तो कम से कम उनके काम के बारे में जानें और उसकी अपने-अपने समूहों में चर्चा करें। राम राज्य के शिल्पियों को ढूंढने और उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होने के उनके प्रयास में हम सभी लगें, ऐसी मेरी इच्छा है।
दलित पृष्ठभूमि के दो नेता जो प्रधानमंत्री बन सकते थे
भारतीय राजनीति ने पिछले 77 सालों में दो ऐसे अवसर उत्पन्न किये जब दलित पृष्ठभूमि से आने वाले बेहद गुणी और सर्वथा योग्य नेता भारत के प्रधानमंत्री बन सकते थे पर ऐसा हो न सका|
#गांधी जी की प्रेरणा से #कांग्रेस ब्रितानी राज के समक्ष यह प्रस्ताव रख ही सकती थी कि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री डॉ बी आर आंबेडकर होंगे| तब शायद #जिन्ना को भी पाकिस्तान बनाने की जिद छोड़नी पड़ती| #आंबेडकर उस समय के नेताओं में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे थे| वैश्विक ख्याति प्राप्त विद्वान थे|
वाइसरॉय #माउंटबेटन की पत्नी #एडविना_माउंटबेटन ने आंबेडकर को भेजे एक पत्र में लिखा था, “वे ‘निजी तौर पर ख़ुश’ हैं कि संविधान निर्माण की ‘देखरेख’ वे कर रहे हैं, क्योंकि वे ही ‘इकलौते प्रतिभाशाली शख़्स हैं, जो हर वर्ग और मत को एक समान न्याय दे हैं ” |
आंबेडकर अगर छूट गए तो अगला अवसर बाबू #जगजीवन_राम के रूप में देश के सामने आया|
बाबू जगजीवन_राम, भी भारत के, दलित पृष्ठभूमि से आने वाले प्रथम प्रधानमंत्री बन सकते थे| #चंद्रशेखर (पूर्व पी एम्) , कांग्रेस के युवा तुर्कों और अन्य समझदार नेताओं ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस सिन्हा का निर्णय तब की प्रधानमंत्री श्रीमति #इंदिरा_गांधी के विरोध में आने पर इंदिरा जी से निवेदन किया था कि वे कुछ समय के लिए तब के रक्षा मंत्री और तब की कांग्रेस के सबसे अनुभवी मंत्री श्री जगजीवन राम को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंप दें| जगजीवन राम, प्रधानमत्री बनने के सर्वथा योग्य नेता थे| वे 40 के दशक में #पंडित_नेहरु की 1946 में बनी अंतरिम सरकार में भी मंत्री थे, और वे संविधान सभा के सदस्य भी बनाए गए थे| उससे पूर्व 1937 में ही वे बिहार विधानसभा में निर्वाचित हो चुके थे| उनके रक्षामंत्री रहने के काल में ही भारत ने पाकिस्तान को युद्ध में पराजित करके बांग्लादेश को एक स्वतंत्र देश बनाने में पूर्वी बंगाल के वासियों की सहायता की, और उन्हें पाकिस्तानी प्रताड़ना से मुक्ति दिलवाई| इंदिरा जी ऐसा करतीं तो एक योग्य एवं अनुभवी नेता, जिसने डा. #बी_आर_अंबेडकर की भांति दलित वर्ग में जन्म पाया था , भारत का पहला दलित वर्ग में जन्मा प्रधानमंत्री बन जाता और कांग्रेस के हिस्से यह श्रेय आ जाता और देश में आपातकाल न लगाना पड़ता| पर इंदिरा जी ने ऐसा नहीं किया| और एक ऐतिहासिक भूल कांग्रेस से हो गई|
अगर देश के प्रथम पी एम का पद आंबेडकर को दिया जाता या बाद में बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बना दिया जाता तो कांग्रेस को आज सामाजिक असमानता के लिए झंडा न उठाना पड़ता |
आज भी जीतने पर क्या कांग्रेस ऐसा कदम उठायेगी? और राहुल गांधी किसी सुयोग्य दलित प्रष्ठभूमि के कांग्रेसी नेता को देश का पी एम बनायेंगे ?
भारतीय राजनीति की अब तक की चाल ढाल को देखकर तो ऐसा ही लगता है कि ऐसा काम वामपंथ के दलों या भाजपा में ही मुमकिन है|
गणपति पूजन और विसर्जन (गणेश चतुर्थी) … ओशो
ध्यान करो लेकिन ध्यान रखना कि छोड़ना है| एक दिन छोड़ना है ध्यान को भी।
“विधि” का एक दिन विसर्जन कर देना है।
हिंदू इस संबंध में बड़े कुशल हैं। गणेश जी बना लिए मिट्टी के, पूजा इत्यादि कर ली| अब ले जा कर समुद्र में समो आए। दुनिया का कोई धर्म इतना हिम्मतवर नहीं है। अगर मंदिर में मूर्ति रख ली तो फिर सिराने की बात ही नहीं उठती। फिर वे कहते हैं, अब इसकी पूजा जारी रहेगी। हिंदुओं को हिम्मत देखते हो! पहले बना लेते हैं, मिट्टी के गणेश जी| मिट्टी के बना कर उन्होंने भगवान का आरोपण कर लिया। नाच-कूद, गीत, प्रार्थना-पूजा सब हो गई। फिर अब वह कहते हैं, अब चलो महाराज, अब हमें दूसरे काम भी करने हैं! अब आप समुद्र में विश्राम करो, फिर अगले साल उठा लेंगे।
यह हिम्मत देखते हो? इसका अर्थ क्या होता है? इसका बड़ा सांकेतिक अर्थ है| अनुष्ठान का उपयोग कर लो और समुद्र में सिरा दो। विधि का उपयोग कर लो, फिर विधि से बंधे मत रह जाना।
जहां हर चीज आती है, जाती है, वहां भगवान को भी बना लो, मिटा दो। जो भगवान तुम्हारे साथ करता है वही तुम भगवान के साथ करो| वह तुम्हें बनाता, मिटा देता। उसकी कला तुम भी सीखो। तुम उसे बना लो, फिर उसे विसर्जित कर दो।
जब बनाते हैं हिंदू तो कितने भाव से? दूसरे धर्मों के लोगों को बड़ी हैरानी होती है। कितने भाव से बनाते, कैसा रंगते, मूर्ति को कितना सुंदर बनाते, कितना खर्च करते! महीनों मेहनत करते हैं। जब मूर्ति बन जाती, तो कितने भाव से पूजा करते, फूल— अर्चन, भजन, कीर्तन! मगर अदभुत लोग हैं! फिर आ गया उनके विसर्जन का दिन। फिर वे चले बैंड—बाजा बजाते, नाचते गाते। जन्म भी नृत्य है, मृत्यु भी तो नृत्य होना चाहिए। चले परमात्मा को सिरा देने! जन्म कर लिया था, मृत्यु का वक्त आ गया।
इस जगत में जो भी चीज बनती है वह मिटती है। और इस जगत में हर चीज का उपयोग कर लेना है और किसी चीज से बंधे नहीं रह जाना है—परमात्मा से भी बंधे नहीं रह जाना है। मैं नहीं कहता कि हिंदुओं को ठीक—ठीक बोध है कि वे क्या कर रहे हैं। लेकिन जिन्होंने शुरू की होगी यात्रा उनको जरूर बोध रहा होगा। लोग भूल गये होंगे। अब उन्हें कुछ भी पता नहीं कि वे क्या कर रहे हैं? मूर्च्छा में कर रहे होंगे। पुरानी परंपरा है कि बनाया, विसर्जन कर दिया| लेकिन उसका सार तो समझो। सार इतना ही है कि विधि उपयोग कर ली। फिर विधि से बंधे नहीं रह जाना है। अनुष्ठान पूरा हो गया, विसर्जन कर दिया।
वही मैं तुमसे कहता हूं : नाचो, कूदो, ध्यान करो, पूजा, प्रार्थना—इसमें उलझे मत रह जाना। यह पथ है, मार्ग है; मंजिल नहीं। जब मंजिल आ जाए तो तुम यह मत कहना कि मैं इतना पुराना यात्री, अब मार्ग को छोड़ दूं? छोड़ो! इतने दिन जन्मों-जन्मों तक इस मार्ग पर चला, अब आज मंजिल आ गई, तो मार्ग को धोखा दे दूं? दगाबाज, गद्दार हो जाऊं? जिस मार्ग से इतना साथ रहा और जिस मार्ग ने यहां तक पहुंचा दिया, उसको छोड़ दूं? मंजिल छोड़ सकता हूं, मार्ग नहीं छोड़ सकता। ‘तब तुम समझोगे कि कैसी मूढ़ता की स्थिति हो गई। इसी मंजिल को पाने के लिए मार्ग पर चले थे; मार्ग से नाता-रिश्ता बनाया था-वह टूटने को ही था।
मार्ग की सफलता ही यही है कि एक दिन घड़ी आ जाए जब मार्ग छोड़ देना पड़े।
ध्यान के जो परम सूत्र हैं, उनमें एक सूत्र यह भी है कि जब ध्यान छोड़ने की घड़ी आ जाये तभी ध्यान पूरा हुआ। जब तक ध्यान छूट न सके, तब तक जानना अभी कच्चा है, अभी पका नहीं। जब फल पक जाता है तो वृक्ष से गिर जाता है। और जब ध्यान का फल पक जाता है, तब ध्यान का फल भी गिर जाता है। जब ध्यान का फल गिर जाता है तभी तो समाधि फलित होती है।
पतंजलि ने ध्यान की प्रक्रिया को तीन हिस्सों में बांटा. धारणा, ध्यान, और समाधि। धारणा छोटी सी पगडंडी है, जो तुम्हें राजपथ से जोड़ देती है। तुम जहां हो वहां से राजपथ नहीं गुजरता। एक छोटी सी पगडंडी है, जो राजपथ से जोड़ती है। मार्ग, जो राजमार्ग से जोड़ देता है वह है धारणा। फिर राजमार्ग- ध्यान। फिर राजमार्ग मंजिल से जोड़ देता है, अंतिम गंतव्य से। धारणा छूट जाती है, जब ध्यान शुरू होता है। ध्यान छूट जाता है, जब समाधि आ जाती है।
इसलिए ध्यान करना-उतने ही भाव से जैसे गणेश को हिंदू निर्मित करते हैं, उतने ही अहोभाव से! ऐसा मन में खयाल मत रखना कि इसे छोड़ना है तो क्या तो रंगना? कैसे भी बना लिया क्या फिक्र करनी कि सुंदर है कि असुंदर है, कोई भी रंग पोत दिए, चेहरा जंचता है कि नहीं जंचता, आंख उभरी कि नहीं उभरी, नाक बनी कि नहीं-क्या करना है? अभी चार दिन बाद तो इसे विदा कर देना होगा, तो कैसे ही बना-बनूँ कर पूजा कर लो।
नहीं, तो फिर पूजा हुई ही नहीं।
तो छोड़ने की घड़ी आएगी ही नहीं।
जब बने ही नहीं गणेश तो विसर्जन कैसे होगा?
“ओशो”
सन्दर्भ – अष्टावक्र महागीता प्रवचन श्रंखला –
नग्न लंच : उड़ा डालूँगा डैडी!
डैड?
हाँ बेटा.
क्या हम भारत के साथ युद्ध करने जा रहे हैं?
शायद।
ओह, गुड! हम उन्हें पीट कर रख देंगे, है ना? जैसे हमने 1857 में किया था!
1857 में पाकिस्तान नहीं था, बेटा।
ओह ठीक है। लेकिन 1857 में हमने किसको पीटा?
अंग्रेज, बेटा…
और हिंदू को भी!
ओह्ह!
क्या कायदे-आज़म उस युद्ध में मुहम्मद बिन कासिम और इमरान खान के साथ लड़े थे?
नहीं बेटा। कायदे और इमरान बहुत बाद में पैदा हुए और मुहम्मद बिन कासिम की मृत्यु कई सौ साल पहले हुई।
तो फिर उन दिनों पाकिस्तान पर शासन किसका था?
उन दिनों पाकिस्तान था ही नहीं बेटा।
लेकिन पाकिस्तान तो हमेशा से था! यह 5,000 वर्षों से वहाँ है!
तुम आजकल किससे बात कर रहे हो, बेटा?
किसी से भी नहीं। मैं अभी टीवी देख रहा हूं।
स्पष्ट है बेटा!
डैड, ये सभी लोग हम अरबियों के ख़िलाफ़ क्यों हैं?
अरब? लेकिन हम अरब नहीं हैं, बेटे।
निःसंदेह हम इसलिए हैं क्योंकि हमारे पूर्वज अरब थे!
नहीं बेटा। हमारे पूर्वज उपमहाद्वीपीय मूल के थे।
उप-क्या?
छोडो इस बात को।ऐसा लगता है कि तुम्हें युद्ध पसंद हैं, बेटे।
हाँ। मैं उन्हें टीवी पर देखना पसंद करता हूं|
लेकिन असली युद्ध टीवी के बाहर लड़े जाते हैं, बेटा।
वास्तव में? वह कैसे संभव है? यह कैसा युद्ध होता है?
छोडो, कोई बात नहीं।
डैड, आप चिंतित लग रहे हैं।
निःसंदेह, मैं, थोड़ा युद्ध-विरोधी हूँ! तुम जरुर युद्ध पिपासू होते जा रहे हो, छोटे मियां!
डैड! आप मुझे क्यों डाँट रहे हो?
क्योंकि टीवी सड़ांध की बात कर रहा है और तुम भी यही कर रहे हो!
डैडी, क्या आप हिंदुओं का समर्थन कर रहे हैं?
नहीं!पापा, क्या आप काफ़िर हो गए हैं?
चुप रहो! अब तुम कोई टीवी सीवी नहीं देखोगे! डीवीडी पर मूवी देखो या जाकर सीडी सुनो।
मैं ऐसा नहीं कर सकता|
क्यों नहीं? हमारे पास बहुत सारी डीवीडी और सीडी हैं, बेटे।
थीं, अब नहीं है।
क्या मतलब?
मैंने उन सबको जला दिया|
क्या?!
मैंने उन सबको जला दिया|
मैंने सुन लिया| लेकिन क्यों किया ऐसा?
वे सब अश्लीलता फैलाते हैं|
अल्लाह! बेटा, जाओ अपना होमवर्क करो। उस विज्ञान प्रोजेक्ट का क्या हुआ जिस पर तुम काम कर रहे थे?
यह लगभग पूरा हो चुका है|
बहुत अच्छा| क्या बना रहे हो प्रोजेक्ट में?
एक बम।
क्या?!
एक बम।
मैंने सुन लिया!
लेकिन क्यों?
क्योंकि मैं एक सच्चा मुसलमान हूं जो अमेरिका से नफरत करता है।’
लेकिन पिछले हफ्ते ही तुम डिज़्नी लैंड जाना चाहते थे।
वह अलग है|
कैसे?
मिकी माउस मुस्लिम है|
नहीं, वह मुस्लिम नहीं है|
ऐसा ही है. जब उसने चांद पर अजान सुनी तो धर्म परिवर्तन कर लिया।
चांद पर?
हाँ।
क्योंकि पृथ्वी चपटी है और…
क्या??
पृथ्वी है…
मैंने सुना !
डैडी, क्या आप मेरा विज्ञान प्रोजेक्ट देखना चाहते हैं या नहीं?
गॉड, उस बम को? लेकिन तुम्हारा विज्ञान शिक्षक तुम्हें फेल कर देगा।
नहीं, वह ऐसा नहीं करेगी|
वास्तव में?हाँ।
मैं उसे भी उड़ा देने की योजना बना रहा हूं|
गॉड, तुम्हें क्या हो गया है? जाओ अपनी माँ को बुलाओ!
वह नहीं आ सकती| क्यों नहीं?मैंने उसे रसोई में बंद कर दिया है।
लेकिन किस लिए?
औरत का स्थान रसोई में है. मैं उसे तब तक बाहर नहीं जाने दूँगा जब तक वह अपने आप को अच्छे से ढक न ले!
लेकिन वह तुम्हारी माँ है!
पर वह भी एक महिला है!
तो ?
इसलिए उसे छुपाया जाना चाहिए|
किससे छुपाया जाना चाहिए?
पूरी दुनिया और टोनी से|
टोनी से?
हाँ, टोनी से|
लेकिन टोनी एक बिल्ली है|
हाँ। लेकिन वह नर बिल्ली है|
बेटा, क्या तुम पागल हो गये हो?
नहीं, वैसे, मैंने यह सुनिश्चित कर लिया है कि किट्टो भी पर्दा डालना शुरू कर दे।
किट्टो?
हाँ, किट्टो।
लेकिन किट्टो एक बिल्ली है!
हाँ। लेकिन एक मादा बिल्ली|
लेकिन उसका दम घुट जाएगा|
ओह, वह पहले ही मर चुकी है।
क्या?
वह पहले ही मर चुकी है|
मैंने सुना! पर आख़िर कैसे?
मैंने उसे जिंदा दफना दिया|
क्या?
हाँ। टोनी के सम्मान का बदला लेने के लिए| लेकिन अब मैं टोनी का सिर काट डालूँगा।
लेकिन क्यों?
मॉम की इज्जत बचाने के लिए!
ओ गॉड!
ऐसा मत कहो| हमेशा अल्लाह कहो|
क्या फर्क है?
पापा, क्या आप भी अपना सिर कटवाना चाहते हैं?
नहीं!
क्या आप पत्थर मारने की सजा से मर डालना चाहते हैं?
नहीं!
क्या आप कोड़े लगवाना चाहते हैं?
नहीं!
क्या आप अपनी भुजाएं कटवाना चाहते हैं?
नहीं!
तो फिर मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूछना बंद करें। वैसे, मैं तुम्हें अब डैडी नहीं कहूँगा।
फिर तुम मुझे क्या कहोगे?
फादर के लिए वह जो भी अरबी शब्द है।
मैं अरबी नहीं जानता, बेटा।ऐसा इसलिए है क्योंकि आप काफ़िर हैं।
तुम कौन होते हो मुझे बताने वाले कि मैं कौन हूं, छोटे फासीवादी मूर्ख!
फासीवादी क्या है?
एक तर्कहीन, हिंसक, आत्मतुष्ट पागल आदमी!
व… आआआ…ऊँ ऊँ
क्यों रो रहे हो?
आपने मुझे डाटा|
ठीक है, मुझे खेद है। तुम्हें सहनशील और तर्कसंगत बनना होगा, बेटा। अब एक अच्छे लड़के बनो और टीवी देखने के बजाय किताब पढ़ने जाओ।
मेरे पास कोई किताब नहीं है|
बेशक तुम्हारे पास है। मैंने तुम्हारे लिए बहुत सारी किताबें खरीदीं।
मैंने उन्हें जला दिया.
क्या?
मैंने उन्हें जला दिया|
लेकिन क्यों?
वे सभी अंग्रेजी में थीं|
तो?
यह एक गैर-मुस्लिम भाषा है!
लेकिन हम इतनी देर से अंग्रेजी ही बोल रहे हैं, है ना?
व… आआआ…
अब क्या हुआ?
ज़ियोनिस्टस ने मुझे मेरी अरबी भूला दी।
लेकिन तुम्हें कभी कोई अरबी नहीं आती थी, बेटा।
व… आआ… हाँ, मुझे आती थी जब तक कि आपने और मॉम ने मुझे पोलियो की बूंदें नहीं पिलाईं थीं… आआआ…
ठीक है, मुझे बताओ, क्या तुम मेरा एक काम कर सकते हो?
ज़रूर, डैड|
क्या आप मेरे लिए कुछ उड़ा सकते हैं?
ओह, ब्रावो! अवश्य, मुझे क्या फूंकना है? सीडी की दुकान, एक होटल, एक स्कूल…?
नहीं, नहीं, कुछ और भी भयावह।
मॉम को?
नहीं – नहीं…
तो क्या उड़ाना है?
टीवी सेट!
क्या?
टीवी सेट फूंक दो.
मैंने सुना ! लेकिन क्यों?
तुम बस इसे उड़ा दो!
अच्छा! ऐसा है डैड!
कहो|
आप एक बहुत ही असंवैधानिक व्यक्ति हैं!
– नदीम फ़ारूक़ पराचा – (पाकिस्तान)
[NAKED LUNCH: Blow daddy]
Nadeem F Paracha
DAWN
January 2, 2009
कबीर, बुद्ध और महावीर जैसे राजपुत्रों से भिन्न – ओशो
कबीर जीवन के लिए बड़ा गहरा सूत्र हो सकते हैं। इसे तो पहले स्मरण में ले लें। इसलिए कबीर को मैं अनूठा कहता हूं। महावीर सम्राट के बेटे हैं; कृष्ण भी, राम भी, बुद्ध भी; वे सब महलों से आये हैं। कबीर बिलकुल सड़क से आये हैं; महलों से उनका कोई भी नाता नहीं है|
कबीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; वे-पढ़े-लिखे हैं, इसलिए पढ़े-लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति-पांति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की — शायद मुसलमान के घर पैदा हुए, हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति-पांति से परमात्मा का कुछ लेना-देना नहीं है।
कबीर जीवन भर गृहस्थ रहे — जुलाहे-बुनते रहे कपड़े और बेचते रहे; घर छोड़ हिमालय नहीं गये। इसलिए घर पर भी परमात्मा आ सकता है, हिमालय जाना आवश्यक नहीं। कबीर ने कुछ भी न छोड़ा और सभी कुछ पा लिया। इसलिए छोड़ना पाने की शर्त नहीं हो सकती।
और कबीर के जीवन में कोई भी विशिष्टता नहीं है। इसलिए विशिष्टता अहंकार का आभूषण होगी; आत्मा का सौंदर्य नहीं।
कबीर न धनी हैं, न ज्ञानी हैं, न समादृत हैं, न शिक्षित हैं, न सुसंस्कृत हैं। कबीर जैसा व्यक्ति अगर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो तुम्हें भी निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए कबीर में बड़ी आशा है।
बुद्ध अगर पाते हैं तो पक्का नहीं की तुम पा सकोगे। बुद्ध को ठीक से समझोगे तो निराशा पकड़ेगी; क्योंकि बुद्ध की बड़ी उपलब्धियां हैं पाने के पहले। बुद्ध सम्राट हैं। इसलिए सम्राट अगर धन से छूट जाए, आश्चर्य नहीं। क्योंकि जिसके पास सब है, उसे उस सब की व्यर्थता का बोध हो जाता है। गरीब के लिए बड़ी कठिनाई है-धन से छूटना। जिसके पास है ही नहीं, उसे व्यर्थता का पता कैसे चलेगा? बुद्ध को पता चल गया, तुम्हें कैसे पता चलेगा? कोई चीज व्यर्थ है, इसे जानने के पहले, कम से कम उसका अनुभव तो होना चाहिए। तुम कैसे कह सकोगे कि धन व्यर्थ है? धन है कहां? तुम हमेशा अभाव में जिए हो, तुम सदा झोपड़े में रहे हो — तो महलों में आनंद नहीं है, यह तुम कैसे कहोगे? और तुम कहते भी रहो, तो भी यह आवाज तुम्हारे हृदय की आवाज न हो सकेगी; यह दूसरों से सुना हुआ सत्य होगा। और गहरे में धन तुम्हें पकड़े ही रहेगा।
बुद्ध को समझोगे तो हाथ-पैर ढीले पड़ जाएंगे।
बुद्ध कहते हैं, स्त्रियों में सिवाय हड्डी, मांस-मज्जा के और कुछ भी नहीं है, क्योंकि बुद्ध को सुंदरतम स्त्रियां उपलब्ध थीं, तुमने उन्हें केवल फिल्म के परदे पर देखा है। तुम्हारे और उन सुंदरतम स्त्रियों के बीच बड़ा फासला है। वे सुंदर स्त्रियां तुम्हारे लिए अति मनमोहक हैं। तुम सब छोड़कर उन्हें पाना चाहोगे। क्योंकि जिसे पाया नहीं है वह व्यर्थ है, इसे जानने के लिए बड़ी चेतना चाहिए।
कबीर गरीब हैं, और जान गये यह सत्य कि धन व्यर्थ है। कबीर के पास एक साधारण-सी पत्नी है, और जान गये कि सब राग-रंग, सब वैभव-विलास, सब सौंदर्य मन की ही कल्पना है।
कबीर के पास बड़ी गहरी समझ चाहिए। बुद्ध के पास तो अनुभव से आ जाती है बात; कबीर को तो समझ से ही लानी पड़ेगी।
गरीब का मुक्त होना अति कठिन है। कठिन इस लिहाज से कि उसे अनुभव की कमी बोध से पूरी करनी पड़ेगी; उसे अनुभव की कमी ध्यान से पूरी करनी पड़ेगी। अगर तुम्हारे पास भी सब हो, जैसा बुद्ध के पास था, तो तुम भी महल छोड़कर भाग जाओगे; क्योंकि कुछ और पाने को बचा नहीं; आशा टूटी, वासना गिरी, भविष्य में कुछ और है नहीं वहां-महल सूना हो गया!
आदमी महत्त्वाकांक्षा में जीता है। महत्त्वाकांक्षा कल की — और बड़ा होगा, और बड़ा होगा, और बड़ा होगा… दौड़ता रहता है। लेकिन आखिरी पड़ाव आ गया, अब कोई गति न रही — छोड़ोगे नहीं तो क्या करोगे? तो महल या तो आत्मघात बन जाता है या आत्मक्रांति। पर कबीर के पास कोई महल नहीं है।
बुद्ध बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। जो भी श्रेष्ठतम ज्ञान था उपलब्ध, उसमें दीक्षित किये गये थे। शास्त्रों के ज्ञाता थे। शब्द के धनी थे। बुद्धि बड़ी प्रखर थी। सम्राट के बेटे थे। तो सब तरह से सुशिक्षा हुई थी।
कबीर सड़क पर बड़े हुए। कबीर के मां-बाप का कोई पता नहीं। शायद कबीर नाजायज संतान हों। तो मां ने उसे रास्ते के किनारे छोड़ दिया था — बच्चे को-पैदा होते ही। इसलिए मां का कोई पता नहीं। कोई कुलीन घर से कबीर आये नहीं। सड़क पर ही पैदा हुए जैसे, सड़क पर ही बड़े हुए जैसे। जैसे भिखारी होना पहले दिन से ही भाग्य में लिखा था। यह भिखारी भी जान गया कि धन व्यर्थ है, तो तुम भी जान सकोगे। बुद्ध से आशा नहीं बंधती। बुद्ध की तुम पूजा कर सकते हो। फासला बड़ा है; लेकिन बुद्ध-जैसा होना तुम्हें मुश्किल मालूम पड़ेगा। जन्मों-जन्मों की यात्रा लगेगी। लेकिन कबीर और तुम में फासला जरा भी नहीं है। कबीर जिस सड़क पर खड़े हैं-शायद तुमसे भी पीछे खड़े हैं; और अगर कबीर तुमसे भी पीछे खड़े होकर पहुंच गये, तो तुम भी पहुंच सकते हो।
कबीर जीवन के लिए बड़ा गहरा सूत्र हो सकते हैं। इसे तो पहले स्मरण में ले लें। इसलिए कबीर को मैं अनूठा कहता हूं। महावीर सम्राट के बेटे हैं; कृष्ण भी, राम भी, बुद्ध भी; वे सब महलों से आये हैं। कबीर बिलकुल सड़क से आये हैं; महलों से उनका कोई भी नाता नहीं है। कहा है कबीर ने कि कभी हाथ से कागज और स्याही छुई नहीं-‘मसि कागद छुओ न हाथ।’
ऐसा अपढ़ आदमी, जिसे दस्तखत करने भी नहीं आते, इसने परमात्मा के परम ज्ञान को पा लिया-बड़ा भरोसा बढ़ता है। तब इस दुनिया में अगर तुम वंचित हो तो अपने ही कारण वंचित हो, परिस्थिति को दोष मत देना। जब भी परिस्थिति को दोष देने का मन में भाव उठे, कबीर का ध्यान करना। कम से कम मां-बाप का तो तुम्हें पता है, घर-द्वार तो है, सड़क पर तो पैदा नहीं हुए। हस्ताक्षर तो कर ही लेते हो। थोड़ी-बहुत शिक्षा हुई है, हिसाब-किताब रख लेते हो। वेद, कुरान, गीता भी थोड़ी पढ़ी है। न सही बहुत बड़े पंडित, छोटे-मोटे पंडित तो तुम भी हो ही। तो जब भी मन होने लगे परिस्थिति को दोष देने का कि पहुंच गए होंगे बुद्ध, सारी सुविधा थी उन्हें, मैं कैसे पहुंचूं, तब कबीर का ध्यान करना। बुद्ध के कारण जो असंतुलन पैदा हो जाता है कि लगता है, हम न पहुंच सकेंगे — कबीर तराजू के पलड़े को जगह पर ले आते हैं। बुद्ध से ज्यादा कारगर हैं कबीर। बुद्ध थोड़े-से लोगों के काम के हो सकते हैं। कबीर राजपथ हैं। बुद्ध का मार्ग बड़ा संकीर्ण है; उसमें थोड़े ही लोग पा सकेंगे, पहुंच सकेंगे।
बुद्ध की भाषा भी उन्हीं की है — चुने हुए लोगों की। एक-एक शब्द बहुमूल्य है; लेकिन एक-एक शब्द सूक्ष्म है। कबीर की भाषा सबकी भाषा है — बेपढ़े-लिखे आदमी की भाषा है। अगर तुम कबीर को न समझ पाए, तो तुम कुछ भी न समझ पाओगे। कबीर को समझ लिया, तो कुछ भी समझने को बचता नहीं। और कबीर को तुम जितना समझोगे, उतना ही तुम पाओगे कि बुद्धत्व का कोई भी संबंध परिस्थिति से नहीं। बुद्धत्व तुम्हारी भीतर की अभीप्सा पर निर्भर है — और कहीं भी घट सकता है; झोपड़े में, महल में, बाजार में, हिमालय पर; पढ़ी-लिखी बुद्धि में, गैर-पढ़ी-लिखी बुद्धि में, गरीब को, अमीर को; पंडित को, अपढ़ को; कोई परिस्थिति का संबंध नहीं है। #ओशो#सुनो_भई_साधो#Osho#Kabeer#Kabir#Buddha#Mahaveer#Mahavir#बुद्ध#महावीर
अनुराग-विराग … एक गीत
अनुराग-विराग ये दो बातें
जीवन में घटा ही करती हैं,
इन पलों में जीवन बंट जाता
और उम्र कटा ही करती है ।
अनुराग-विराग ये …
मछली-सा तड़पकर जिया कभी
और जिया कभी है संतों – सा
कभी जिया यहां प्रेमी बनकर
तो जिया कभी निर्पन्थों-सा ।
मैंने तो जीवन में देखा –
खाई भी पटा ही करती है ।
अनुराग-विराग ये …
कभी कोई मिलकर बिछड़ गया
कभी बिछड़ा कोई मुझे मिला
ऐसे ही जीवन उजड़ा-बसा
कभी पतझर कभी बसंत खिला।
जीवन-दर्शन ने मुझसे कहा –
गठरी तो भठा ही करती है।
अनुराग-विराग ये …
जब प्रेम मिले जी-भर जी लो
रस पान करो जी-भर पी लो
जब ज़ख्म मिलें हंसकर रख लो
टांकें भी खुद ही लगा सी लो ।
स्मृतियां कहेंगी सबसे यही –
परछाई लिपटा ही करती है।
अनुराग-विराग ये …
कभी सुख ने झूला झुला दिया
कभी ग़म ने सबकुछ भुला दिया
कभी किसी ने मुझको हंसा दिया
तो किसी ने जमकर रुला दिया।
दोनों स्थितियां साथिन हैं –
तनहाई बंटा ही करती है ।
अनुराग-विराग ये दो बातें
जीवन में घटा ही करती हैं।
{कृष्ण बिहारी}