कन्हैयालाल नंदन : श्रद्धा सुमन

गुज़रा कहाँ कहाँ से जैसी प्रसिद्ध कृति की रचना करने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार श्री कन्हैयालाल नंदन मृत्यु का दामन पकड़ जीवन का साथ छोड़ गये।

सत्तर के दशक से अस्सी के दशक के शुरु के काल में बचपन व्यतीत करने वाले  ऐसे करोड़ों  हिन्दी भाषी लोग होंगे जिन्होने अपने बचपन में नंदन जी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली बाल-पत्रिका पराग के द्वारा बाल-साहित्य के मायावी, कल्पनात्मक और ज्ञानवर्धक संसार में गोते लगाकर गंभीर और श्रेष्ठ साहित्य पढ़ने की ओर कदम बढ़ाने के लिये आरम्भिक शिक्षा दीक्षा प्राप्त की।

इसी पीढ़ी ने थोड़ा बड़े होकर नंदन जी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं सारिका और दिनमान के जरिये देश-विदेश का साहित्य पढ़ने और सम-साअमायिक विषयों को समझने की समझ विकसित की।

लोग नंदन जी का प्रभाव धर्मयुग के द्वारा भी महसूस करते रहे जहाँ वे उप-सम्पादक थे।

करोड़ों हिन्दी भाषियों को नंदन जी का जाना ऐसे ही लगेगा मानो बचपन में एक सितारा उनसे जान पहचान करने आया था और वे उसके लिखे शब्दों या उसके द्वारा छांटे शब्दों के आलोक में जीवन पथ पर आगे बढ़ते रहे और लुभावनी मुस्कान वाला वह सितारा आज बुझ गया।

धन्यवाद श्री कन्हैयालाल नंदन को एक पूरी पीढ़ी को साहित्यिक संस्कार देने के लिये।

ईश्वर नंदन जी की आत्मा को शांति प्रदान करे।

5 टिप्पणियां to “कन्हैयालाल नंदन : श्रद्धा सुमन”

  1. हर भाषा प्रेमी के लिए आज रोने का दिन है.हाय ,नंदन साब नहीं रहे .किशोर उमर में पराग पत्रिका और योवन में धर्मयुग तथा सारिका पढ़ कर उन्हें सलाम करता था .गुज़रा कहाँ कहाँ से जेसी कालजयी कृति से साहित्य प्रेमियों के दिल में वे सदा रहेंगे .ईश्वर नंदन जी की आत्मा को शांति प्रदान करे.

  2. मैंने पराग तो नहीं पढ़ी है और न ही उनकी पुस्तक गुज़रा कहाँ कहाँ से परन्तु फिर भी यह नाम विदित है क्यूंकि मैंने नंदन जी को एक बार अपने कालेज में देखा था जब वे हिंदी दिवस पर आयोजित कविता सम्मलेन में मुख्य अतिथि के रूप में आये थे. अपनी कवितायें सुनाकर मन हर्षित कर दिया था. खैर, पता चला है कि इन कुछ सालों में काफी परिवर्तन आ गया है और अब तो हिंदी दिवस पर केवल चिंता व्यक्त करके ही इतिश्री कर ली जातीहै.

  3. कन्हैयालाल नंदनजी को अगर एक ही शब्द में परिभाषित किया जाए तो यही कह सकते हैं कि मक्खन जैसे इंसान थे वे। इतने विनम्र कि कभी भी किसी भी वक्त फोन करो मना नहीं करते। अगर कहीं उलझे होते तो उनका एक ही वाक्य होता, मैं आपको फोन लगाऊँ? कभी यह नहीं कहा कि आप थोड़ी देर में लगाना। और कुछ देर बाद उनका फोन आ भी जाता। मुझे याद है नईदुनिया के नियमित स्तंभ में ‘मेरी पसंद’ के नाम से एक छोटा सा बॉक्स होता था जिसमें नंदनजी द्वारा चयनित कोई कविता,ग़ज़ल या शायरी हुआ करती थी। उनकी कटिंग संभाल कर रखा करती थी। उनसे जब भी बात हुई मन श्रद्धा से भर गया। उनका जाना कष्टप्रद है।

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