हर शब्द का अर्थ ज़रूर होता है, फिर शब्द अगर शब्दों के जादूगरों की कलम की पैदाइश हों तो तो क्या कहिये! यूँ सभी श्रद्धेय हैं पर मुझे आधुनिक युग के ये हजरात – जैसे साहिर साहिब, नूर साहिब, जॉन एलिया साहिब, फैज़ साब और शाद साहिब बहुत भाते हैं। नरेश शाद साहिब पर बहुत कम लिखा गया है सो एक छोटी सी कोशिश पेश है।
उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर नरेश कुमार “शाद” का जन्म वर्ष 1928 में पंजाब राज्य के जिला जालंधर के निकट ग्राम नकोदर में साधारण से परिवार में हुआ था। इनके पिता नोहरा राम की माली हालत बहुत खराब थी, रोज़गार के रूप में वे एक लोकल साप्तहिक में काम करते थे जहां से नाम-मात्र पगार मिलती थी। शाद साब के पिता ‘दर्द’ के उपनाम से शायरी भी करते थे तथा उनके सुरापान करने की आदत के कारण से परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद शोचनीय थी। शाद साब की माँ सीधी-सादी देहाती महिला थी, जो किसी तरह घर चला रही थी। इस तरह शाद के पास शायरी विरासत में आई और दो वक्त रोटी का जुगाड ना होने जेसा माहौल घर में मिला। बाद के जीवन की नाकामियों, विषमताओं और नाउम्मीदी ने उन्हें भी शराबी बना दिया, जो कालान्तर में उनकी जवान उम्र में ही मौत का कारण भी बना। अजीब बात है नरेश केवल नाम के नरेश थे साथ ही शाद (प्रसन्न) उपनाम भी रख लिया था, कौन जाने शाद ने ऐसा गरीबी से उपजी कुंठा और उसका मजाक उड़ाने के लिए किया हो, अन्यथा तो दरिद्रता, नाकामी और उदासी का शाद साब से चोली दामन का साथ रहा। वे अपने परिवेश से इस कद्र तंग आ गये के निकल पड़े घर से एक आवारा सफर पर। पेट की भूख और तबियत की बैचेनी लाहौर, रावलपिंडी, पटियाला, दिल्ली, कानपुर, मुम्बई, और लखनऊ, कहाँ नही ले गयी उन्हें।
ऐसी ही कैफियत में शायद गज़ल के ये शेर निकले है :-
हाय! मेरी मासूम उम्मीदें, वाय! मेरे नाकाम इरादे
मरने की तदबीर न सूझी जीने के अंदाज़ न आये
शाद वही आवारा शायर जिसने तुझे प्यार किया था
नगर-नगर में घूम रहा है अरमानों की लाश उठाये।
शाद साब, चाहे शायरी हो कि निजी जीवन में वे जो कुछ भी बने अपने बलबूते और कड़ी मेहनती के के कारण बने थे। अन्यथा तो हाल यह था कि पैसे नहीं होने के कारण उन्हें अपना कलाम तक भी बेचना पडा। एक साहब ने मात्र साठ रूपये में उनकी 60 गज़लों का सौदा अपने नाम से छापने के किया और बेहयाई ये के वे पैसे भी नकद नहीं मिले। ऐसे हालात का दर्द उनके इस कलाम में साफ़ नज़र आरहा है:-
आप गुमनाम आदमी हैं अभी
इस लिए आपका ये मजमूआ
अजसर-ए-नो दुरस्त करवाकर
अपने ही नाम से मैं छापूंगा
रह गया अब मुआवज़े का सवाल
नकद लेना कोई ज़रूर नहीं
शाम के वक्त आप आ जाएँ
मयकदा इस जगह से दूर नहीं(मजमूआ : कवितासंकलन, अजसर-ए-नो : नए सिरे से, दुरस्त : ठीक)
उर्दू के प्रसिद्ध व्यंगकार फिक्र तौस्वी ने शाद साब के उस उलट-पलट जीवन का बेहतरीन खाका खींचा है। उनके शब्दों में…
“यह हकीकत है कि शाद ने अपनी मौजूदा जिंदगी की टूटी फूटी इमारत भी सिर्फ अपने ही बलबूते पर खड़ी की है। प्रतिभा की चिंगारी उसके नसीब में थी, उसने उसे बुझने नहीं दिया… उसके इस संघर्ष की कहानी न सिर्फ लंबी है, बल्कि तेज रफ़्तार भी। यूँ लगता है, जैसे उसने पैदल ही 100-100 मील का फासला एक–एक घंटे में तय कर लिया है। इस सफर में यद्यपि उसके चेहरे पर गर्द अट गयी, उसकी हड्डियां चटक गयी… उसके पाँव टूट गए…’’
जिंदगी के छोटे आवारा और परेशान सफर में नरेश शाद साब ने उर्दू कविता की तमाम बारीकियां बहुत परिपक्वता व गहराई के साथ अपने कलाम में पेश की हैं। गज़ल, नज़्म, कते और रुबाई सभी बेहतरीन अंदाज़ में पेश की हैं, परन्तु कते और गज़ल से आपको अधिक लगाव था।
शाद साब के कालाम के बारे में समकालीन बड़े शायर जोश मलीहाबादी, जिन्हें क्रान्तिकारी विचारों के कारण शायर-ए-इंकेलाब भी कहा जाता है, ने लिखा है:-
‘’नरेश कुमार शाद आजकल के नौजवान शायरों से एक दम भिन्न हैं, वे दिल के तकाजों से मजबूर होकर शेर लिखते हैं, सोच समझ के शेर कहते हैं… इसी कारण उनके शेरों में प्रभाव और प्रभाव में वह विशेषता होती है जो शब्दों के बंधन में नहीं आ सकती’’।
शाद साब को निर्मोही काल चक्र ने सन 1928 से 1969 अर्थात मात्र 41 बहारों का समय ही दिया और वे बहारें भी काँटों द्वारा अहसास अजमाइश के सिवा कुछ नहीं थ॥ बहुत उदासी, दर्द और शराब के ज़हर में डूब कर इस लोकप्रिय और हर दिल अज़ीज़ शायर ने दुनिया से मुँह मोड़ लिया। पर उनका लेखन कद्रदानों को तो कयामत तक मोहता रहेगा।
प्रस्तुति : रफत आलम
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