एकल व्यक्ति पर सरकार का, सत्ता का, या कि समाज या परिवार का या कि किसी दूसरे का कितना नियंत्रण वाजिब है या कि तमाम तरह की बंदिशों और दिशा निर्देशों के मध्य एक अकेले व्यक्ति की कितनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है यह सदैव ही एक ज्वलंत प्रश्न रहा है| भले ही कोई लोक्तान्त्रिक देश का नागरिक हो पर सरकारें अपने नागरिकों के जीवन पर भारी नियंत्रण रखना ही चाहती हैं| ऐसे नियंत्रण करने की कोशिशों से भरे काल में किसी समय कवि भारतभूषण अग्रवाल ने यह कविता लिखी होगी, जो कि मौजूदा समय में ज्यादा प्रासंगिक बन गई है|
आप क्या करेंगें मेरा अगर मैं,
यह जो सामने लैम्प रखा हुआ है,
इसे कह दूँ?
कि यह भारतीय गणतंत्र है?
बिना यह बताए कि यह करेंट मारता है?
तो भी आप मेरा क्या कर लेंगें?
सच, क्या कर सकते हैं आप मेरा
अगर कल मैं अचानक यह तय कर लूँ कि
मैं डी.टी.यू का इस्तेमाल नहीं करूँगा
और फिर क्यू फांदकर चलती बस में चढ़ जाऊं बताइये,
यह कैसे जरूरी है कि
आपकी योजनाओं से मुझे तकलीफ हो जब कि
मैं यूनीवर्सिटी में भर्ती होना ही नहीं चाहता?
आप चाहे मुझे फ़िल्म फेस्टीवल का निमंत्रण दें या लाटरी का इनाम?
पर आप दे ही सकते हैं|
मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते|
क्योंकि आप कितना ही परिवार नियोजन सुनाएँ
मैं विज्ञापन- कार्यक्रम पर कान लगाए रहूंगा|
आपकी मर्जी है आप छाप दें अखबार में हर सुबह
अपनी या उनकी तसवीर
मुझे आप आठ बजे उठने से नहीं रोक सकते|
आप मेरे सुख की चिंता करके मुझे तंग करने पर तुले हैं|
पर मैं ठीक जानता हूँ कि उससे मुझे कोई सरोकार नहीं|
क्योंकि अभी मेरी भाषा का विकास कहाँ हुआ है?
हो सकता है आप मुझसे सहमत न हों|
पर असहमति कोई अश्रु – गैस नहीं हैं
कि मैं भाग कर गली में छुप जाऊं|
(भारतभूषण अग्रवाल, 31.7.1969)