अब असंभव है तुम्हे चिट्ठी लिख पाना
चाहता हूँ कितना खोलूँ खिड़की
जी भरकर पीऊँ समुद्र-पवन
फिर बैठूं लिखने जो दुनिया का
सबसे आवेगपूर्ण प्रेम पत्र हो और उसका हर पैराग्राफ
वर्णन करे एक सुवासित स्वप्न
उस स्वप्न के कुछ-कुछ आलोकित गलियारों से
मैं तुम्हारे होने की जगह जाता
वह चिट्ठी पढ़ने के बाद
मैं जानता हूँ तुम समझ जाती
मृत्यु का शीतल दुर्ग तोड़ने का जादू
मेरी साँसों में सारी ऋतुएँ स्थित हैं
जाड़े की रात में ढूंढोगी यदि बेला
वह मिलेगा मेरे आत्म समर्पण में|
किन्तु असंभव है अब
तुम्हे चिट्ठी लिख पाना,
केवल स्वप्न में अथवा
स्वप्न-सा निरर्थक लगने में
तुम देखोगी, जब आखें
खुली होंगी और अंग प्रत्यंग
मेरी सचेत इच्छानुसार चलेंगे
तुम बनोगी इतिहास ,
एक प्रागैतिहासिक शहर
जो दब गया समुद्र तले और
जिसकी बिखरी एकाध ईंटें
पड़ जाएँगी किसी दर्शक की दृष्टि में|
मैं भी बदल गया काफी |
मैंने तुम्हे खोया या खोया
मेरे जैसे दिखने वाले मेरे अन्य रूप ने?
उसकी आवाज मेरी आवाज सी थी
जबकि उसमें थी शीतलता, प्रच्छन, विद्रूप|
वह रूप मैं होऊं या वह हो
मेरी आत्मा के छुपे अंगार से बनी
एक प्रतिमूर्ति ,
मेरा नाम आज उसका नाम है
उसे मिलेगी आज दुनिया भर की सहानुभूति
मैं अंधेरी रत में
एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ तक चलता रहूंगा,
पूरा आकाश भरा होगा तारों से
न जाने कितनी दूर
और किस समघात से
मैं बनूंगा वह पत्र-लेखक
कई देहांत के बाद
जिसकी इतर सत्ताएँ मर जाएँगी,
निर्मल अतीत के साथ एकाकार होगा
शून्य भविष्य|
मुझे लगता हैशुरू हो गया है मेरा देहांत
झरने के कल-कल बहते शब्दों से
संभावना नियंत्रण कुछ भी नहीं है, सिर्फ
एक सह्रीर के ध्वस्त होने के बाद का
विलाप सुनाई देता है और
मेरे प्रेम पत्र की भाषा भी
सुनाई देती है अस्पष्ट स्वरों में|
(रमाकांत रथ)
उडिया से अनुवाद – राजेन्द्रप्रसाद मिश्र